रघुवंशम्

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रघुवंशम् कालिदास द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य है। इस महाकाव्य में उन्नीस सर्गों में रघु के कुल में उत्पन्न २९ राजाओं का इक्कीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया गया है। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। राम का इसमें विशद वर्णन किया गया है। उन्नीस में से छः सर्ग उनसे ही संबन्धित हैं।

आदिकवि वाल्मीकि ने राम को नायक बनाकर अपनी रामायण रची, जिसका अनुसरण विश्व के कई कवियों और लेखकों ने अपनी-अपनी भाषा में किया और राम की कथा को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। कालिदास ने यद्यपि राम की कथा रची परन्तु इस कथा में उन्होंने किसी एक पात्र को नायक के रूप में नहीं उभारा। उन्होंने अपनी कृति 'रघुवंश' में पूरे वंश की कथा रची, जो दिलीप से आरम्भ होती है और अग्निवर्ण पर समाप्त होती है। अग्निवर्ण के मरणोपरान्त उसकी गर्भवती पत्नी के राज्यभिषेक के उपरान्त इस महाकाव्य की इतिश्री होती है।

रघुवंश पर सबसे प्राचीन उपलब्ध टीका १०वीं शताब्दी के काश्मीरी कवि वल्लभदेव की है।[1] किन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका मल्लिनाथ (1350 ई - 1450 ई) द्वारा रचित 'संजीवनी' है।

परिचय[संपादित करें]

'रघुवंश' की कथा को कालिदास ने १९ सर्गों में बाँटा है जिनमें राजा दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम, लव, कुश, अतिथि तथा बाद के 29 रघुवंशी राजाओं की कथा गूँथी गई है। इस वंश का पतन उसके अन्तिम राजा अग्निवर्ण के विलासिता की अति के कारण होता है और यहीं इस कृति की इति भी होती है।

इक्कीस सर्गों में वर्णित रघुवंशी राजाओं की नामावली क्रमानुसार निम्नलिखित है- यथा-

  1. दिलीप(खटवांग)
  2. रघु
  3. अज
  4. दशरथ
  5. राम
  6. कुश
  7. अतिथि
  8. निषध
  9. नल
  10. नभ
  1. पुण्डरीक
  2. क्षेमधन्वा
  3. देवानीक
  4. अहीनगु
  5. पारिपात्र
  6. शिल
  7. उन्नाभ
  8. वज्रनाभ
  9. शंखण
  10. व्युषिताश्व
  1. विश्वसह
  2. हिरण्यनाभ
  3. कौसल्य
  4. ब्रह्मिष्ठ
  5. पुत्र
  6. पुष्य
  7. धृवसन्धि
  8. सुदर्शन
  9. अग्निवर्ण

रघुवंश काव्य में कालिदास ने रघुवंशी राजाओं को निमित्त बनाकर उदारचरित पुरुषों का स्वभाव पाठकों के सम्मुख रखा है। इस कथा के माध्यम से कवि ने राजा के चरित्र, आदर्श तथा राजधर्म जैसे विषयों का बडा़ सुन्दर वर्णन किया है।[2][3] भारत के इतिहास में सूर्यवंश के इस अध्याय का वह अंश भी है जिसमें एक ओर यह संदेश है कि राजधर्म का निर्वाह करनेवाले राजा की कीर्ति और यश देश भर में फैलती है, तो दूसरी ओर चरित्रहीन राजा के कारण अपयश व वंश-पतन निश्चित है, भले ही वह किसी भी वंश का वंशज ही क्यों न रहा हो!

इस महाकाव्य के आरम्भ में महाकवि ने रघुकुल के राजाओं का महत्त्व एवं उनकी योग्यता का वर्णन करने के बहाने प्राणिमात्र के लिए कितने ही प्रकार के रमणीय उपदेश दिये हैं। रघुवंशी राजाओं का संक्षेप में वर्णन जानना हो तो रघुवंश के केवल एक श्लोक में उसकी परिणति इस प्रकार है-

त्यागाय समृतार्थानां सत्याय मिभाषिणाम्।
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम् ॥
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनानन्ते तनुत्यजाम् ॥
(सत्पात्र को दान देने के लिए धन इकट्ठा करनेवाले, सत्य के लिए मितभाषी, यश के लिए विजय चाहनेवाले, और सन्तान के लिए विवाह करनेवाले, बाल्यकाल में विद्याध्ययन करने वाले, यौवन में सांसारिक भोग भोगने वाले, बुढ़ापे में मुनियों के समान रहने वाले और अन्त में योग के द्वारा शरीर का त्याग करने वाले (राजाओं का वर्णन करता हूँ।))

समालोचकों ने कालिदास का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य 'रघुवंश' को माना है। आदि से अन्त तक इसमें निपुण कवि का विलक्षण कौशल व्यक्त होता है। दिलीप और सुदक्षिणा के तपोमय जीवन से प्रारम्भ इस काव्य में क्रमशः रघुवंशी राजाओं की दान्यता, वीरता, त्याग और तप की एक के बाद एक कहानी उद्घाटित होती है और काव्य की समाप्ति कामुक अग्निवर्ण की विलासिता और उनके अवसान से होती है। दिलीप और सुदक्षिणा का तप:पूत आचरण, वरतन्तु के शिष्य कौत्स और रघु का संवाद, इन्दुमती स्वयंवर, अज का विलाप, राम और सीता की विमानयात्रा, निर्वासित सीता की तेजस्विता, संगमवर्णन, अयोध्या नगरी की शून्यता आदि का चित्र एक के बाद एक उभरता जाता है और पाठक विमुग्ध बना हुआ मनोयोग से उनको देखता जाता है। अनेक कथानकों का एकत्रीकरण होने पर भी इस महाकाव्य में कवि ने उनका एक दूसरे से एक प्रकार समन्वय कर दिया है जिससे उनमें स्वाभाविक प्रवाह का संचार हो गया है। 'रघुवंश' के अनेक नृपतियों की इस ज्योतित नक्षत्रमाला में कवि ने आदिकवि वाल्मीकि के महिमाशाली राम को तेजस्विता और गरिमा प्रदान की है। वर्णनों की सजीवता, आगत प्रसर्गों की स्वाभाविकता, शैली का माधुर्य तथा भाव और भाषा की दृष्टि से 'रघुवंश' संस्कृतमहाकाव्यों में अनुपम है।

रघुवंश महाकाव्य की शैली क्लिष्ट अथवा कृत्रिम नहीं, सरल और प्रसादगुणमयी है। अलंकारों का सुरुचिपूर्ण प्रयोग स्वाभाविक एवं सहज सुन्दर है। चुने हुए कुछ शब्दों में वर्ण्य विषय की सुन्दर झाँकी दिखाने के साथ कवि ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में इष्ट वस्तु के सौंदर्य की पराकाष्ठा दिखलाने की अद्भुत युक्ति का आश्रय लिया है। गंगा और यमुना के संगम की, उनके मिश्रित जल के प्रवाह की छटा का वर्णन करते समय एक के बाद एक उपमाओं की शृंखला उपस्थित करते हुए अन्त में कवि ने शिव के शरीर के साथ-साथ उसकी शोभा की उपमा दी है और इस प्रकार सौन्दर्य को सीमा से निकालकर अनन्त के हाथों सौंप दिया-

हे निर्दोष अंगोंवाली सीते ! यमुना की तरंगों से मिले हुए गंगा के इस प्रवाह को जरा देखो तो सही, जो कहीं कृष्ण सर्पों से अलंकृत और कहीं भस्मांगराग से मंडित भगवान्‌ शिव के शरीर के समान सुंदर प्रतीत हो रहा है।

कालिदास मुख्यतः कोमल और रमणीय भावों के अभिव्यंजक कवि हैं। इसीलिए प्रकृति का कोमल, मनोरम और मधुर पक्ष उनकी इस कृति में भी अंकित हुआ है।

मंगलाचरण एवं काव्यारम्भ[संपादित करें]

रघुवंशम् का आरम्भ कवि ने पार्वती और शिव की वन्दना से किया है-

वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥
(मैं वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त, वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत् के माता पिता पार्वती और शिव को प्रणाम करता हूँ।)
(वाणी और अर्थ जैसे अलग कहलाते हुए भी एक हैं, वैसे ही पार्वती और शिव कहने के लिए तो दो विभिन्न रूप में हैं परन्तु वास्तव में वे एक ही हैं, इसीलिए वाणी और अर्थ को ठीक प्रकार से समझने के लिए, मैं संसार की माता पार्वती जी और पिता शिवजी को प्रणाम करता हूं, वे शिव और पार्वती शब्द और अर्थ के समान परस्पर मिले हुए हैं अर्थात एक रूप हैं।)

रघुवंश काव्य के आरम्भ में महाकवि ने रघुकुल के राजाओं का महत्त्व एवं उनकी योग्यता का वर्णन करने के बहाने प्राणिमात्र के लिए कितने ही प्रकार के रमणीय उपदेश दिये हैं। कवि ने रघुवंशी राजाओं को निमित्त बनाकर उदारचरित पुरुषों का स्वभाव पाठकों के सम्मुख रखा है, जो निम्नलिखित प्रकार से है-

मैं रघुवंश का वर्णन करने के लिए उद्यत तो हो रहा हूं किंतु मुझे लग रहा है कि कहां तो सूर्य के समान तेजस्वी वह वंश, जिस वंश के आरंभ में ‘रघु’ और कालांतर में राम जैसे महापराक्रमी धीर, वीर, उदात्त चरित्र वाले महापुरुष उत्पन्न हुए हैं और कहां बड़ा ही मंद मति वाला मैं। ऐसे रघुवंश का पार पा सकना मुझ जैसे व्यक्ति के लिए नितांत असंभव है, यह मैं भली-भांति जानता हूं, फिर भी मैं साहस करके यह प्रयत्न कर रहा हूं और इस समय मेरी स्थिति ठीक वैसी ही है जैसी कि मानों तिनकों से बनी छोटी सी नाव को लेकर मैं अपार और गहन सागर को पार करने की बात सोच रहा हूं।
एक बात और, मैं हूँ तो मन्दबुद्धि वाला व्यक्ति किन्तु मेरी साध यह है कि प्रख्यात कवियों के समान मुझे भी यश प्राप्त हो। लोग यदि मेरे इस साध के विषय में सुनेंगे तो मुझ पर बहुत हंसेंगे। क्योंकि इस संबंध में मेरी स्थिति ठीक उस बौने व्यक्ति के समान है जो दूर ऊंचे पेंड़ पर लगे उन फलों को तोड़ने के लिए साध लिए हो जिनको केवल लंबे व्यक्ति और लंबे हाथ वाले ही पा सकते हैं।
किन्तु इसमें भी एक सन्तोष की बात यह है कि पूर्व काल में महर्षि वाल्मीकि आदि महान कवियों ने उनके विषय में सुंदर काव्य लिख करके मेरे लिए वाणी का द्वार खोल दिया है। इसलिए इस विषय की पैठ अब मेरे लिए सरल हो गई है, यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार कि मोतियों को पहले ही बांध दिया हो, उसमें फिर सुई से धागा पिरोना बहुत ही सुगम हो जाता है।
जैसा कि मैंने आरम्भ में ही कह दिया है कि मैं नितान्त मन्दमति हूं, मुझे कुछ आता-जाता नहीं। फिर भी मैं उन रघुवंशियों का वर्णन करने के लिए समुद्यत हूं-
जिनके चरित्र जन्म से आरंभ करके अन्त तक शुद्ध और पवित्र रहे हैं, जो किसी काम का जब बीड़ा उठाते थे उसको पूर्ण करके ही विराम लेते थे, जो समुद्र के ओर-छोर तक फैली हुई यह धरती है, उसके स्वामी थे और जिनके रथ पृथ्वी से स्वर्ग तक सीधे जाया करते थे। जो नित्य नियम पूर्वक शास्त्रों की विधि से यज्ञ किया करते थे, जो याचकों को उनकी इच्छा के अनुसार मुंह-मांगा और मनचाहा दान दिया करते थे, जो अपराधियों को उनके अपराध के अनुसार ही दण्ड देते थे और जो अवसर देखकर ही तदनुरूप कार्य किया करते थे। जो रघुवंशी केवल त्याग के लिए, दान करने के लिए ही धन का संग्रह किया करते थे, और जो सत्य के पालन के लिए बहुत कम बोला करते थे। अभिप्राय यह है कि जितना कहा जाए उसका अक्षरशः पालन किया जाए, जो केवल यश प्राप्ति के लिए ही अन्य देशों को जीतते थे, उन राज्यों को अपने वश में करने अथवा वहां लूटपाट करने के लिए नहीं और जो केवल प्रजा के लिए अर्थात अपनी संतान प्राप्ति के लिए ही गृहस्थ में प्रविष्ट होते थे, भोग विलास के लिए नहीं। जो बाल्यकाल में सभी को अध्ययन कर उनमें पारंगत होते थे और तरुणाई में संसार के भोगों का आनन्द लेते थे। इसके उपरांत तृतीयावस्था में वनों में जाकर मुनिवृत्ति धारण करते हुए तपस्या करते थे और अन्त में ब्रह्म अथवा परमात्मा का ध्यान करते हुए योग द्वारा पार्थिव शरीर को शांत करते थे- इस प्रकार के जो रघुवंशी थे, इन गुणों से संपन्न जो वंश था, उससे ही प्रभावित होकर मैं यह काव्य लिखने के लिए प्रेरित हुआ हूं।
इस काव्य को, अर्थात रघुकुल के इस गुणानुवाद को सुनने के अधिकारी भी वे ही संत सज्जन हो सकते हैं, जिनमें भले-बुरे की परख की योग्यता है। क्योंकि सोना खरा है अथवा खोटा इसका पता तो तब ही लग सकता है जब उसको अग्नि में तपाया जाए। अब मैं उस वंश का वर्णन करता हूं-
जिस प्रकार वेद के छंदों में सर्वप्रथम आकार के लिए स्थान है उसी प्रकार राजाओं में सर्वप्रथम सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु हुए हैं। मनु महाराज बड़े मनीषि थे और मनीषियों में बड़े माननीय और आदरणीय माने जाते थे। उन्हीं वैवस्वत मनु के उज्जवल वंश में चन्द्रमा के समान सबको सुख प्रदान करने वाले और बहुत ही शुद्ध चरित्र वाले राजा दिलीप ने जन्म लिया। उनके जन्म से ऐसा लगा मानों क्षीर सागर में चन्द्रमा ने जन्म लिया हो।

रघुवंश की कथा[संपादित करें]

'रघुवंश' की कथा दिलीप तृतीय(खटवांग) और उनकी पत्नी सुदक्षिणा के ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में प्रवेश से प्रारम्भ होती है। राजा दिलीप धनवान, गुणवान, बुद्धिमान और बलवान है, साथ ही धर्मपरायण भी। वे हर प्रकार से सम्पन्न हैं परन्तु कमी है तो सन्तान की। संतान प्राप्ति का आशीर्वाद पाने के लिए दिलीप को गोमाता नंदिनी की सेवा करने के लिए कहा जाता है। रोज की तरह नंदिनी जंगल में विचर रही है और दिलीप भी उसकी रखवाली के लिए साथ चलते हैं। इतने में एक सिंह नंदिनी को अपना भोजन बनाना चाहता है। दिलीप अपने आप को अर्पित कर सिंह से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें वह अपना आहार बनाये। सिंह प्रार्थना स्वीकार कर लेता है और उन्हें मारने के लिए झपटता है। इस छलांग के साथ ही सिंह ओझल हो जाता है। तब नन्दिनी बताती है कि उसी ने दिलीप की परीक्षा लेने के लिए यह मायाजाल रचा था। नंदिनी दिलीप की सेवा से प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। राजा दिलीप और सुदक्षिणा नंदिनी का दूध ग्रहण करते हैं और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस गुणवान पुत्र का नाम रघु रखा जाता है जिसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है।

रघु के पराक्रम का वर्णन कालिदास ने विस्तारपूर्वक अपने ग्रन्थ ‘रघुवंश’ में किया है। अश्वमेध यज्ञ के घोडे़ को चुराने पर उन्होंने इन्द्र से युद्ध किया और उसे छुडा़कर लाया था। उन्होंने विश्वजीत यज्ञ सम्पन्न करके अपना सारा धन दान कर दिया था। जब उनके पास कुछ भी धन नहीं रहा, तो एक दिन ऋषिपुत्र कौत्स ने आकर उनसे १४ करोड़ स्वर्ण मुद्राएं मांगी ताकि वे अपनी गुरु दक्षिणा दे सकें। रघु ने इस ब्राह्मण को संतुष्ट करने के लिए कुबेर पर चढा़ई करने का मन बनाया। यह सूचना पाकर कुबेर घबराया और खुद ही उनका कोष भर दिया। रघु ने सारा कोष ब्राह्मण के हवाले कर दिया; परन्तु उस ब्राह्मणपुत्र ने केवल १४ करोड़ मुद्राएं ही स्वीकारी।

रघु के पुत्र अज भी बडे़ पराक्रमी हुए। उन्होंने विदर्भ की राजकुमारी इन्दुमति के स्वयंवर में जाकर उन्हें अपनी पत्नी बनाया। कालिदास ने इस स्वयंवर का सुंदर वर्णन 'रघुवंश' में किया है। रघु ने अज का राज-कौशल देखकर अपना सिंहासन उन्हें सौंप दिया और वानप्रस्थ ले लिया। रघु की तरह अज भी एक कुशल राजा बने। वे अपनी पत्नी इन्दुमति से बहुत प्रेम करते थे। एक बार नारदजी प्रसन्नचित्त अपनी वीणा लिए आकाश में विचर रहे थे। संयोगवश उनकी विणा का एक फूल टूटा और बगीचे में सैर कर रही रानी इंदुमति के सिर पर गिरा जिससे उनकी मृत्यु हो गई। राजा अज इंदुमति के वियोग में विह्वल हो गए और अन्त में जल-समाधि ले ली।

कालिदास ने 'रघुवंश' के आठ सर्गों में दिलीप, रघु और अज की जीवनी पर प्रकाश डाला। बाद में उन्होंने दशरथ, राम, लव और कुश की कथा का वर्णन आठ सर्गों में किया। जब राम लंका से लौट रहे थे, तब पुष्पक विमान में बैठी सीता को दण्डकारण्य तथा पंचवटी के उन स्थानों को दिखा रहे थे जहाँ उन्होंने सीता की खोज की थी। इसका बडा़ ही सुन्दर एवं मार्मिक दृष्टान्त कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में किया है। इस सर्ग से पता चलता है कि कालिदास की भौगोलिक जानकारी कितनी गहन थी।

अयोध्या की पूर्व ख्याति और वर्तमान स्थिति का वर्णन कुश के स्वप्न के माध्यम से कवि ने बडी़ कुशलता से सोलहवें सर्ग में किया है।

रघुवंश के अन्तिम सर्ग में रघुवंश के अन्तिम राजा अग्निवर्ण के भोग-विलास का चित्रण किया गया है। अग्निवर्ण के दम्भ की पराकाष्ठा यह है कि प्रजा जब राजा के दर्शन के लिए आती है तो अग्निवर्ण अपने पैर खिड़की के बाहर पसार देता है। जनता के अनादर का परिणाम राज्य का पतन होता है। अग्निवर्ण पतित होकर क्षयग्रस्त हो गया था और उसी से उसका प्राणान्त भी हुआ। इसके लिए कालिदास का स्पष्टीकरण है कि अग्निवर्ण के पिता सुदर्शन अपने राज्य की इस प्रकार सुन्दर व्यवस्था कर गए थे कि अग्निवर्ण को करने के लिए कुछ रहा ही नहीं तो उसमें कामनाओं और वासनाओं की प्रबलता होने लगी और वह पतन के गर्त में गिरता चला गया।

अग्निवर्ण के मरणोपरान्त उसकी गर्भवती पत्नी के राज्यभिषेक के उपरान्त इस महाकाव्य की इतिश्री होती है।

रामायण और रघुवंश[संपादित करें]

कालिदास जानते थे कि राम की कथा का उत्कर्ष वाल्मिकि के रामायण से हो गया था और उसके बाद जो भी लिखा जाएगा उसका जूठन ही होगा। इसीलिए उन्होंने अपने काव्य में राम को नायक बनाने की बजाय रघुवंश को ही कथानायक के रूप में प्रस्तुत किया; जिसमें सभी पात्रों की अपनी-अपनी भूमिका रही- अपने-अपने चरित्र के आधार पर....कुछ उत्कर्ष तो कुछ घटिया। रघुवंश का नाम उनके पराक्रमी और आदर्श राजाओं के नाम से ही चलता रहेगा।

रघुवंश में प्रयुक्त छन्द[संपादित करें]

इस महाकाव्य में २१ प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है:

अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, औपच्छन्दसिक, तोटक, द्रुतविलम्बित, पुष्पिताग्रा, प्रहर्षिणी, मंजुभाषिणी, मत्तमयूर, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, रथोद्धता, वांशस्थ, वसन्ततिलका, वैतालीय, शार्दूलविकृडित, शालिनी, स्वागता, हरिणी।

रघुवंश की राजपरम्परा[संपादित करें]

'रघुवंश' नाम पड़ने के पहले इस वंश का नाम 'इक्ष्वाकु वंश' था। वाल्मीकि रामायण में राम को 'इक्ष्वाकुवंशप्रभवो' (इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न) कहा गया है।

(1) मनु

(2) इक्ष्वाकु

(3) शशाद(शशांक )

(4) ककुत्स्थ

(5) अनेनस

(6) पृथु

(7) विश्वगाश्व आर्द्र

(8) युवनाश्च

(9) श्रावस्त

(10) वृहदश्व

(11) कुवलयाश्व

(12) दृढ़ाश्व

(13) प्रमोद

(14) हर्यश्रव

(15) निकुम्भ

(16) संहताश्व

(17) कृशाश्व

(18) प्रसेनजित

(19) युवनाश्च

(20) मान्धातु

(21) पुरुकुत्स

(22) त्रसदस्यु

(23) सम्भूत

(24) अनरण्य

(25) पृषदश्व

(26) हर्यश्रव

(27) वसुमनस

(28) तृधन्वन

(29) त्रैयारुण

(30) त्रिशंकु(सत्यव्रत )

(31) हरिश्चन्द्र

(32) रोहित

(33) हरित

(34) चंचु

(35) विजय

(36) रुरुक

(37) वृक

(38) बाहु

(39) सगर

(40) असमज्जस

(41) अंशुमन

(42) दिलीप

(43) भगीरथ

(44) श्रुत

(45) श्रुत

(46) नाभाग

(47) अम्बरीष

(48) सिंधुदीप

(49) अयतायुस

(50) ऋतुपर्ण

(51) सर्वकाम

(52) सुदास

(53) कल्माषपाद

(54) अश्मक

(55) मूलक

(56) शतरथ

(57) वृद्धशर्मन

(58) विश्वसह

(59) दिलीप (द्वितीय)

(60)दिलीप तृतीय(खटवांग) "खटीक"

(61) रघु(दीर्घबाहु) , नाभाग(महाप्राख्यत )

(62) अज

(63) दशरथ

(64) रामचन्द्र

  1. Dominic Goodall and Harunaga Isaacson, The Raghupañcikā of Vallabhadeva, Volume 1, Groningen, Egbert Forsten, 2004
  2. रघुवंश महाकाव्य में राजधर्म (संजय कुमार)
  3. कालिदास की भारती में राजधर्म (डॉ सुधा त्रिपाठी)

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]