भारत में संगीत-शिक्षण

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१८ वीं शताब्दी में घराने एक प्रकार से औपचारिक संगीत-शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु ब्रिटिश शासनकाल का आविर्भाव होने पर घरानों की रूपरेखा कुछ शिथिल होने लगी क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति के व्यवस्थापक कला की अपेक्षा वैज्ञानिक प्रगति को अधिक मान्यता देते थे और आध्यात्म की अपेक्षा इस संस्कृति में भौतिकवाद प्रबल था।

भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के अन्तर्गत कला को जो पवित्रता एवं आस्था का स्थान प्राप्त था तथा जिसे कुछ मुसलमान शासकों ने भी प्रश्रय दिया और संगीत को मनोरंजन का उपकरण मानते हुए भी इसके साधना पक्ष को विस्मृत न करते हुए संगीतज्ञों तथा शास्त्रकारों को राज्य अथवा रियासतों की ओर से सहायता दे कर संगीत के विकासात्मक पक्ष को विस्मृत नहीं किया। परन्तु ब्रिटिश राज्य के व्यस्थापकों ने संगीत कला के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण अपना कर उसे यद्यपि व्यक्तित्व के विकास का अंग माना परन्तु यह दृष्टिकोण आध्यात्मिकता के धरातल पर स्थित न था। उन्होंने अन्य विषयों के समान ही एक विषय के रूप में ही इसे स्वीकार किया, परन्तु वैज्ञानिक प्रगति की प्रभावशीलता के कारण यह विषय अन्य पाठ्य विषयों के बीच लगभग उपेक्षित ही रहा।

शास्त्रीय संगीत का पुनरुत्त्थान[संपादित करें]

संगीत के पुनरुत्थान की दृष्टि से इस समय में घरानों की अन्तिम कड़ी के रूप में पं. भारतखण्डे एवं पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर यह दो ऐसे महान संगीतज्ञ हुए जिन्होंने संगीत के पुनरुद्धार के लिए परिश्रम किए और संगीत के आध्यात्मिक धरातल को सुदृढ़ रखते हुए ही उसको सर्वजन सुलभ बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

पं. भातखण्डे जी स्वयं एक शिक्षित व्यक्ति थे जिन्होंने प्रमुख रूप से 'विधि' (law) शिक्षा ग्रहण की थी परन्तु संगीत में विशेष रूचि रखने के कारण उन्होंने संगीत के ग्रन्थों का अध्ययन तथा विशद विश्लेषण करके संगीत को वर्तमान स्थिति के अनुकूल बनाने की दृष्टि से संगीत के कुछ मान्य सिद्धान्तों एवं क्रियात्मक प्रयोगों में परिवर्तन व परिवर्द्धन किए। 'संगीत शास्त्र' (१-४) 'संगीत पद्धतियों का तुलनात्मक अध्ययन', 'उत्तररभारतीय संगीत का इतिहास', 'श्री मल्लक्ष्य संगीतम्', 'क्रमिक पुस्तक मालिका' (१-६) आदि ग्रन्थ लिखकर संगीत को विद्यार्थियों के लिए सुलभ बनाने का प्रयत्न किया। अनेकानेक संगीतज्ञों से मिलकर प्राचीन बन्दिशें एकत्रित करने तथा सरल स्वरलिपि पद्धति का निर्माण कर उन बन्दिशें के संरक्षण प्रदान किया। आप ही ने रागों को दस थाटों में वर्गीकृत करने का सफल प्रयास किया।

इसी प्रकार पं॰ विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने भिन्न-भिन्न स्थानों का भ्रमण करके संगीत का प्रचार एवं प्रसार करते हुए समाज में पुन: संगीत के प्रति सम्मानीय भाव स्थापित किया जो सम्भवत: मध्यकाल एवं उत्तर मध्यकाल की राजनीतिक परिस्थितियों के कारण लुप्त हो चुका था और संगीत साधारण जनता के लिए केवल मात्र विलासिता का उपकरण ही रह गया था। पं॰ विष्णु दिगम्बर ने भी 'संगीत बाल प्रकाश', 'संगीत बाल बोध' आदि पुस्तकें लिखकर विद्यार्थियों के लिए संगीत सामग्री को उपलब्ध कराया तथा स्वतंत्र रूप से एक स्वरलिपि पद्धति का निर्माण करके उसके माध्यम से स्वर व लय के सूक्ष्म विभाजनों को सांकेतिक चिन्हों द्वारा इंगित करने तथा प्राप्त बन्दिशों को संरक्षण प्रदान करने का कार्य किया। इसके अतिरिक्त इन दोनों महान विभूतियों के प्रयत्नों से अनेक संगीत विद्यालय स्थापित किए गए।

संगीत का संस्थागत शिक्षण[संपादित करें]

१८ वीं शताब्दी का अन्त तथा बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ भारतीय संगीत के पुनरुत्थान का काल माना जाता है। इस समय वह कला जो सभ्य समाज से बहिष्कृत व तिरस्कृत होकर राजा महाराजाओं की विलासपूर्ण मनोरंजन का साधन बन कर रह गई थी। अनुकूल धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक वातावरण से एक अपूर्व चेतना का कारण बनी जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बड़ौदा में स्वर्गीय मौलाबख्श विस्से खां द्वारा १८८६ ई. में प्रस्थापित सर्वप्रथम संगीत विद्यालय था जो बाद में 'बड़ौदा स्टेट म्यूजिक स्कूल' के नाम जाना गया। यह विद्यालय बड़ौदा रियासत की ओर से प्रदान की गई आर्थिक सहायता से संचालित किया जाता था।

सन् १९०१ में लाहौर में की गई 'गान्धर्व महाविद्यालय' की स्थापना संगीत शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी परीक्षण था जिसमें प्राचीन गुरुकुल प्रणाली तथा आधुनिक संस्थागत शिक्षण प्रणाली का अदभुत समन्वय था। इस विद्यालय में निश्चित समय पर आकर सीखने वाले जिज्ञासुओं के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी विद्यार्थी थे जो आश्रमवासियों के रूप में रह कर गुरु के साइनध्य में दीर्घकाल तक संगीत की साधना करते थे।

वास्तव में पं विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के समक्ष एक और भारतीय संगीत आध्यात्मिकता थी तो दूसरी ओर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित ईसाई मिशनरी संस्थाओं के रूप में चलाए गए कालेज आदि की व्यवस्था थी जिसमें शिक्षा प्रदान करना एक मानवीय लक्ष्य (mission) था तथा सेवा-भाव की प्रधानता थी, अत: पांच मई १९०१ को लाहौर में 'गान्धर्व महाविद्यालय' की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई कि जिस में सात्विक वृत्ति से युक्त संगीत के कलाकार विशुद्ध भारतीय संगीत का शिक्षण मानवीय सेवा भावना (missionary) के उद्देश्य से करे। इसके लिए सुव्यवस्थित अभ्यास क्रम तथा सुसंस्कृति निर्व्यसनी एवं चरित्रवान, कुशल संगीत शिक्षकों का प्रबन्ध भारत के बड़े-बड़े शहरों में स्थापित गान्धर्व महाविद्यालय की अनेक शाखाओं के लिए किया गया। इन शिक्षकों को 'उपदेशक' की संज्ञा दी गई। १९०८ में गान्धर्व महाविद्यालय का ही एक केन्द्र बम्बई में खोला गया। प्रयोगात्मक रूप में यहां विद्यार्थियों के भोजन-वस्त्रादि का प्रबन्ध विद्यालय की ओर से किया। विद्यालय की साफ-सफाई, भोजन प्रबन्ध, सामग्री संचय आदि सभी व्यवस्थाओं का भार विद्यार्थियों पर डाला गया और एक प्रकार से विद्यालयीन वातावरण को गुरूकुल वातावरण के समकक्ष बनाने का प्रयत्न किया गया। अनुशासन, संयम, नियमबद्धता तथा क्रम को विशेष महत्त्व देते हुए एवं धार्मिक संस्कारों की शिक्षा से अनुप्राणित संगीत शिक्षा प्रदान करना ही उसका प्रमुख लक्ष्य माना गया।

संगीत शिक्षा को सामाजिक संरक्षण प्रदान करने की दृष्टि से यह विद्यालय समाज की धन-राशि पर ही आश्रित था। स्वयं संगीत कार्यक्रम आयोजित करके जो धन जनता से प्राप्त होता था उसे ही पुन: विद्यालय स्तर पर खर्च कर दिया जाता था क्योंकि पंडित जी का उद्देश्य धन अर्जित करना नहीं वरन् संगीत विद्या को अन्य विद्याओं के समान समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान दिलवाना था। फलस्वरूप उसके नियमन के लिए तथा संगीत शिक्षा को विधिवत बनाने के लिए पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों, स्वरलिपि तथा परीक्षा के उपरान्त कुछ उपाधि वितरण का उपक्रम कर के संगीत शिक्षा को एक विशिष्ट आकार प्रदान करने का प्रयास किया।

धीरे-धीरे पूना, नागपुर, बम्बई तथा अन्य अनेक स्थानों पर गान्धर्व महाविद्यालय की अनेक शाखाएं स्थापित हो गई। इन शाखाओं में प्रबन्ध की एकरूपता स्थापित करने की दृष्टि से दिसम्बर १९३१ ई. में 'अखिल भारतीय गान्धर्व महाविद्यालय मण्डल' की स्थापना पं नारायण मोरेश्वर खरे एवं पं॰ शंकरराव व्यास के नेतृत्व में की गई जिसके संचालन एवं संगठन की व्यवस्था में पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर, पं वामन राव पाध्ये, प्रो। देवधर, आदि (पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के अनेक शिष्य) ने अपने महत्त्वपूर्ण योगदान से मण्डल के संचालन में निरन्तर वृद्धि की। इस संस्था के माध्यम से संगीत के शिक्षाकार्य, संगठनात्मक कार्य, कलाकारों एवं विद्वानों की सामाजिक प्रतिष्ठा का कार्य, कलाकारों एवं विद्वानों की सामाजिक प्रतिष्ठा का कार्य, शिक्षकों, एवं कलाकारों की सामाजिक समस्याओं के समाधान खोजने का कार्य, संगीत की साहित्यिक सुदृढ़ता का कार्य, संशोधनात्मक कार्य तथा जनसाधारण में शास्त्रीय संगीत के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करने आदि कार्य अत्यन्त सुचारु रूप से किया गया। यद्यपि विष्णु दिगम्बर जी ग्वालियर घराने के अनुयायी थे परन्तु उनके द्वार आ प्रस्थापित 'गान्धर्व महाविद्यालय' विशिष्ट गायकी की परम्परा का विस्तार करने वाली या ग्वालियर घराने की ही गायकी का आग्रह करने वाली संस्था के रूप में स्थापित नहीं की गई थी बल्कि इसका उद्देश्य केवल मात्र संगीतकारों को संगीत क्षेत्र में कार्य प्रवृत करना, संगीतकारों से संगीत शिक्षण कार्य में लाभ उठाना, तथा संगीतकारों के लिए समाज में प्रतिष्ठा स्थापित करना और उन सब कार्यो से संगीत को अन्य कलाओं तथा विद्याओं के समान स्तर पर सामाजिक रूप से ग्राह्य बनाना था। अत: संगीत के प्रति आस्था रखने वाला जिज्ञासु किसी भी घराने या किसी भी सम्प्रदाय का अनुयायी क्यों न हो, इस संस्था में संगीत सीखने का अधिकारी हो सकता था। इस प्रकार विष्णु दिगम्बर जी के घराना परम्परा से संगीत की शिक्षा ग्रहण करके संस्थागत शिक्षण के रूप में संगीत शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के कार्य में महान योगदान दिया।

गान्धर्व महाविद्यालय मंडल की सफलता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रारम्भिक से लेकर विशारद, अलंकार एवं आचार्य स्तर की परीक्षा तक गान्धर्व महाविद्यालय के लगभग ४५० केन्द्रों की ओर से लगभग तीस हजार परीक्षार्थी प्रतिवर्ष परीक्षा देते हैं। इस सम्पूर्ण व्यवस्था में लगभग दो हजार से अधिक संगीत शिक्षक कार्यरत हैं। मण्डल के प्रकाशन विभाग द्वारा संगीतोपयोगी पुस्तकों का प्रकाशन तथा 'संगीतकला विहार' पत्रिका का प्रकाशन विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

मण्डल की ओर से त्रैवार्षिक अखिल भारतीय संगीत शिक्षक सम्मेलन का आयोजन, संगीत शिक्षकों की समस्याओं, विचार विनिमय, मार्ग दर्शन, संगीत शिक्षा की गतिमानता, शास्त्र और क्रिया में एकसूत्रता आदि लाने की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है।

पं. विष्णु दिगम्बर जी के शिष्यों में पं॰ विनायक राव पटवर्धन ने 'नाट्यसंगीत प्रकाश', 'राग विज्ञान' (१-७) 'बाल-संगीत'(२३) 'माझे गुरु चरित्र' आदि कई पुस्तकें संगीत के शैक्षणिक दृष्टिकोण से लिखी और १९५२ ई. में 'विष्णु दिगम्बर संगीत विद्यालय' की स्थापना की। पं॰ विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के पुत्र पं॰ दत्तोत्रेय विष्णु पलुस्कर को भी आपने संगीत की शिक्षा प्रदान की।

पं. ओंकार नाथ ठाकुर ने 'प्रणवभारती' तथा संगीतांजली' (१-६) नामक पुस्तकें लिखकर संगीत की सेवा की। पं॰ वी। आर। देवधर ने बम्बई में 'स्कूल ऑफ इण्डियन म्यूजिक' नामक संस्था की स्थापना जिसका उद्घाटन पं॰ विष्णु दिगम्बर जी ने १३ नवम्बर १९२५ को अपने करकमलों से किया। गान्धर्व महाविद्यालय के आधार पर ही इस संस्था में भी रविवार को एक घण्टे के लिए नि:शुल्क शिक्षण प्रारम्भ किया गया। संगीत के प्रचार और प्रसार की दृष्टि से विद्यालय की ओर से गुणी कलाकारों को आमन्त्रित कर जलसे आयोजित करने का कार्य भी किया गया। संस्था के संचालन में आर्थिक कठिनाईयों के कारण शिष्यों ने समाज के घनिष्ठ वर्ग से धन इकट्ठा करना आरम्भ किया। इस प्रयास को व्यवस्थित रूप देने की दृष्टि से श्री मोतीराम पैंजी ने 'बाम्बे म्यूजिक सर्कल' नामक संस्था की स्थापना की जिस के प्रत्येक सदस्य से प्रतिमास एक रुपया चन्दे के रूप में लिया जाता था और प्रत्येक माह एक जलसे का आयोजन किया जाता था। संस्था में विविध जलसों और सांगीतिक कार्यक्रमों से प्रभावित होकर सिनेकृष्ण कंपनी के संचालक ने १९३१ में बम्बई में "स्कूल ऑफ इण्डियन म्यूजिक" का पहला चित्रपट (वृत च इत्र) तैयार किया।

इस प्रकार संगीत के क्षेत्र में पं॰ विष्णु दिगम्बर जी ने जहां संगीत के क्रियात्मक पक्ष को समाज में प्रवाहित करने का सफल एवं सतत प्रयास किया वहां संगीत शिक्षण के शास्त्र पक्ष में पं॰ भातखण्डे का योगदान अपूर्व एवं अलौकिक रहा। १९०९-१९१० से भातखण्डे जी के ग्रन्थों का सृजन काल आरम्भ होता है। उन्होंने सर्वप्रथम 'श्रीमल्लक्ष्य संगीतम', नामक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखा और 'चतुर' उपनाम से प्रकाशित कराया, तत्पश्चात १९१० ई. में 'हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति' नामक ग्रन्थ अपने निजि काम 'विष्णु शर्मा' के नाम से प्रकाशित कराया। रागों के दस थाटों में विभाजन करते हुए रागों के प्रत्यक्ष उदाहरण देकर उसके स्वरुप, तथा चलन भेद स्पष्ट करने वाली तालबद्ध सरगमों का संग्रह करके 'स्वर मालिका' नामक पुस्तक को प्रकाशित कराया। इसी काल में श्री गणपति बुवा भीलवड़ीकर से ४०० गीत प्राप्त किए। इन्होंने दक्षिण के पं॰ रामामात्यकृत 'स्वरमेल क्लानिधि' का अनुवाद किया तत्पश्चात 'संगीत परिजात' राग विबोध, 'संगीत सारामृतोद्धार' की श्रुति स्वर चर्चा पर टिप्पणी देकर उन्हें प्रकाशित कराया। १९११ ई. में 'अष्टोत्तर शतताल लक्षणम' शीर्षक के ताल शास्त्र पर संस्कृत भाषा में तथा 'संगीत रत्नाकर' एवं 'संगीत दर्पण' के स्वराध्यायों के मूल पाठ सहित गुजराती में भाषान्तर तथा प्रकाशन कराया। अप्पा तुलसीकृत 'राग कल्पद्रुमांकुर' 'राग चन्द्रिकासार' तथा पुण्डरीक विट्ठल के 'सद्रागचन्द्रोदय' का भी प्रकाशन कराया।

१९१४ में 'हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति' का द्वितीय भाग, पुण्डरीक विट्ठल कृत 'रागमाला', 'राग मंजरी', अप्पा तुलसी कृत 'अभिनव ताल मंजरी', तथा 'रागलक्षणम्' का प्रकाशन कराने के साथ-साथ शारदा संगीत मण्डल के तत्वाधान में संगीत की शिक्षा का कार्य भी प्रारम्भ किया।

१९१५-१६ ई. में बड़ौदा में आयोजित अखिल भारतीय संगीत समारोह के सचिव पद से अंग्रेजी में वक्तव्य दिया जो कि बाद में ध्ध्ध् के नाम से प्रकाशित हुआ। सन् १९१७ में बड़ौदा एवं ग्वालियर के नरेशों से भेंट होने पर दोनों स्थानों पर संगीत विद्यालय खोलने के उद्देश्य से आपने चुने हुए संगीतज्ञों को प्रशिक्षण दिया। ई. १९१८ में ग्वालियर में 'माधव संगीत विद्यालय' की स्थापना की गई यहां के विद्यालय का कार्य राजा भैया पूंछ वाले को सौंपा गया। इसी वर्ष 'क्रमिक पुस्तक मालिका' के प्रथम भाग तथा भावभट्ट द्वारा रचित 'अनूप संगीत रत्नाकर' तथा 'संगीत अनुपांकुश' का प्रकाशन भी कराया। १९२० ई. में बड़ौदा में संगीत विद्यालय की स्थापना की। १९२० ई. में ग्वालियर एवं बड़ौदा के विद्यालयों में पाठ्यक्रम निर्धारण हेतु पाठ्य पुस्तकों की योजना बना कर १९२१ ई. में 'क्रमिक पुस्तक मालिका' के द्वितीय भाग, संस्कृत भाषा के स्वरचित 'अभिनव राग मंजरी' तथा भावभट्ट विरचित 'अनूप संगीत विलास' का प्रकाशन कराया। १९२२ ई. हरिद्वार में एक सेमिनार का आयोजन करके भाषा एवं राग शुद्धि की दृष्टि से सर्वमान्य पाठ विरचित किए। इसी वर्ष 'क्रमिक पुस्तक मालिका' का तृतीय भाग प्रकाशित कराया।

१९२३ में 'माधव संगीत विद्यालय' में स्नातकीय स्तर की परीक्षा का संचालन कराया तथा 'क्रमिक पुस्तक मालिका' का चतुर्थ भाग भी प्रकाशित कराया। १९२५-२६ ई. में अखिल भारतीय संगीत परिषद् के चतुर्थ अधिवेशन को आयोजित किया तथा 'मैरिस कालिज ऑफ म्युजिक' की स्थापना लखनऊ में की जो भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय के नाम से विख्यात है। ई. १९२७ में 'राग दर्पण' का प्रकाशन करने के उपरान्त १९२८ ई. में लखनऊ के विद्यालय की व्यवस्था अपने शिष्य श्री कृष्ण नारायण रातंजनकर को सौंप दी। १९२९ ई. से १९३९ ई. के मध्य 'क्रमिक पुस्तक मालिका' के पांचवें व छठे भाग का लेखन कार्य किया। १९३२ ई. में ग्वालियर व लखनऊ के विद्यालयों में परीक्षाओं का संचालन किया तथा 'हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति' का चतुर्थ भाग प्रकाशित कराया। यह सभी पुस्तकें संगीत के विद्यालयों के संगीत के पाठ्यक्रम में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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