लिंगायत मत

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लिंगायतों में गुरु बसवेश्वर की बहुत प्रतिष्ठा है।

लिंगायत मत भारतवर्ष के प्राचीनतम सनातन हिन्दू धर्म का एक हिस्सा है। इस मत के ज्यादातर अनुयायी दक्षिण भारत में हैं। यह मत भगवान शिव की स्तुति आराधना पर आधारित है। भगवान शिव जो सत्य सुंदर और सनातन हैं, जिनसे सृष्टि का उद्गार हुआ, जो आदि अनंत हैं। हिन्दू धर्म में त्रिदेवों का वर्णन है जिनमें सर्वप्रथम भगवान शिव का ही नाम आता है। शिव जिनसे सृष्टि की उत्पत्ति हुई। इसके पश्चात भगवान ब्रह्मा की उत्पत्ति जो सम्पूर्ण जगत को जीवन प्रदान करते हैं। भगवान विष्णु जो सम्पूर्ण जगत के पालनहार हैं। तीसरे अंश भगवान महेश (शंकर) की उत्पत्ति जीवन अर्थात अमुक्त आत्माओं को नष्ट करके पुनः जीवन मुक्ति चक्र में स्थापित करना है। लिंगायत सम्प्रदाय भगवान शिव जो कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चराचर जगत के उत्पत्ति के कारक हैं उनकी स्तुति आराधना करता है। आप अन्य शब्दों में इन्हें शैव संप्रदाय को मानने वाले अनुयायी कह सकते हैं। इस सम्प्रदाय की स्थापना 12वीं शताब्दी में महात्मा बसवण्णां ने की थी।[1][2] इस मत के उपासक लिंगायत (कन्नड़: ಲಿಂಗಾಯತರು) कहलाते हैं।[3] यह शब्द कन्नड़ शब्द लिंगवंत से व्युत्पन्न है।[4] ये लोग मुख्यतः महात्मा बसवण्णा की शिक्षाओं के अनुगामी हैं।

परिचय[संपादित करें]

'वीरशैव' का शाब्दिक अर्थ है - 'जो शिव का परम भक्त हो'। किंतु समय बीतने के साथ वीरशैव का तत्वज्ञान दर्शन, साधना, कर्मकांड, सामाजिक संघटन, आचारनियम आदि अन्य संप्रदायों से भिन्न होते गए। यद्यपि वीरशैव देश के अन्य भागों - महाराष्ट्र, आंध्र, तमिल क्षेत्र आदि - में भी पाए जाते हैं किंतु उनकी सबसे अधिक संख्या कर्नाटक में पाई जाती है।

शैव लोग अपने धार्मिक विश्वासों और दर्शन का उद्गम वेदों तथा 28 शैवागमों से मानते हैं। वीरशैव भी वेदों में अविश्वास नहीं प्रकट करते किंतु उनके दर्शन, कर्मकांड तथा समाजसुधार आदि में ऐसी विशिष्टताएँ विकसित हो गई हैं जिनकी व्युत्पत्ति मुख्य रूप से शैवागमों तथा ऐसे अंतर्दृष्टि योगियों से हुई मानी जाती है जो 'वचनकार' कहलाते हैं। 12वीं से 16 वीं शती के बीच लगभग तीन शताब्दियों में कोई 300 वचनकार हुए हैं जिनमें से 30 स्त्रियाँ रही हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध नाम महात्मा बसवेश्वर का है जो कल्याण (कर्नाटक) के जैन राजा विज्जल (12वीं शती) का प्रधान मंत्री थे। वह योगी महात्मा ही न थे बल्कि कर्मठ संघटनकर्ता भी थे जिसने वीरशैव संप्रदाय की स्थापना की। महात्मा बसवेश्वर का लक्ष्य ऐसा आध्यात्मिक समाज बनाना था जिसमें जाति, धर्म या स्त्रीपुरुष का भेदभाव न रहे। वह कर्मकांड संबंधी आडंबर का विरोधी थे और मानसिक पवित्रता एवं भक्ति की सचाई पर बल देते थे। वह मात्र एक ईश्वर की उपासना के समर्थक थे और उसने पूजा तथा ध्यान की पद्धति में सरलता लाने का प्रयत्न किया। जाति भेद की समाप्ति तथा स्त्रियों के उत्थान के कारण समाज में अद्भुत क्रांति उत्पन्न हो गई। ज्ञानयोग भक्तियोग तथा कर्मयोग - तीनों वचनकारों को मान्य हैं किंतु भक्ति पर सबसे अधिक जोर दिया जाता है। महात्मा बसवेश्वर के अनुयायियों में बहुत से हरिजन थे और ऊन्होने अंतर्जातीय विवाह भी संपन्न कराए।

वीरशैवों का संप्रदाय 'शक्ति विशिष्टाद्वैत' कहलाता है। परम चैतन्य या परम संविद् देश, काल तथा अन्य गुणों से परे है। परा संविद् की शक्ति ही इस विश्व का उत्पादक कारण है। विश्व या संसार मिथ्या (भ्रम मात्र इलूजन) नहीं है। एक लंबी और बहुमुखी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप बहुरूपधारी संसार की उत्पत्ति होती है। मनुष्य में हम जो कुछ देखते हैं वह विशिष्टीकरण एवं आत्मचेतना का विकास है किंतु यह आत्मचैतन्य ही परम चैतन्य के साथ पुनर्मिलन के प्रयास का प्रेरक कारण है। साधना के परिणाम स्वरूप जब ईश्वर का सच्चा भक्त समाधि की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त होता है तब समरसैक्य की स्थिति अर्थात्‌ ईश्वर के प्रत्येक स्वरूप के साथ पूर्ण एकता की स्थिति उत्पन्न होती है। यही मनुष्य के परमानंद या मोक्ष की स्थिति है। इसे पूर्ण विलयन न मानकर मिलन के परमानंद में बराबरी से हिस्सा ग्रहण करना समझना अधिक अच्छा होगा।

वीरशैवों ने एक तरह की आध्यात्मिक अनुशासन की परंपरा स्थापित कर ली है जिसे 'शतस्थल शास्त्र' कहते हैं। यह मानव की साधारण चेतना का अंगस्थल के प्रथम प्रक्रम से लिंगस्थल के सर्वोच्च क्रम पर पहुँच जाने की स्थिति का सूचक है। साधना अर्थात्‌ आध्यात्मिक अनुशासन की समूची प्रक्रिया में भक्ति और शरण याने आत्मार्पण पर बल दिया जाता है। वीरशैव महात्माओं की कभी कभी 'शरण' या शिवशरण कहते हैं याने ऐसे लोग जिन्होंने शिव की शरण में अपने आपको अर्पित कर दिया है। उनकी साधना शिवयोग कहलाती है।

वीरशैववाद मूलत: अद्वैतवादी दर्शन है किंतु यत: परमात्मा क्रिया और ध्यान से परे है और हमारे वास्तविक अनुभव की दुनिया के अस्तित्व की व्याख्या इच्छा तथा क्रिया के बिना नहीं की जा सकती, इसलिए शिव के शक्ति सिद्धांत की कल्पना की गई। ईश्वर से एकता स्थापित करने के लिए आध्यात्मिक आकांक्षी अपनी एक या तीनों शक्तियों का प्रयोग करता है। प्रेमशक्ति के प्रयोग का नाम भक्तियोग, चिंतनशक्ति के प्रयोग का ज्ञानयोग तथा कर्म शक्ति के प्रयोग का नाम कर्मयोग है। इन्हीं के जरिए परमेश्वर के साथ अंतिम रूप से एकता स्थापित होती है।

इसमें संदेह नहीं कि वीरशैवों के भी मंदिर, तीर्थस्थान आदि वैसे ही होते हैं जैसे अन्य संप्रदायों के, अंतर केवल उन देवी देवताओं में होता है जिनकी पूजा की जाती है। जहाँ तक वीरशैवों का सबंध है, देवालयों या साधना के अन्य प्रकारों का उतना महत्व नहीं है जितना इष्ट लिंग का जिसकी प्रतिमा शरीर पर धारण की जाती है। आध्यात्मिक गुरु प्रत्येक वीरशैव को इष्ट लिंग अर्पित कर उसके कान में पवित्र षडक्षर मंत्र 'ओम्‌ नम: शिवाय' फूँक देता है। प्रत्येक वीरशैव स्नानादि कर हाथ की गदेली पर इष्ट लिंग रखकर चिंतन और ध्यान द्वारा आराधना करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्येक वीरशैव में सत्यपरायणता, अहिंसा, बंधुत्वभाव जैसे उच्च नैतिक गुणों के होने की आशा की जाती है। वह निरामिष भोजी होता है और शराब आदि मादक वस्तुओं से परहेज करता है। महात्मा बसवेश्वर ने इस संबंध में जो निदेश जारी किए थे, उनका सारांश यह है - चोरी न करो, हत्या न करो और न झूठ बोलो, न अपनी प्रशंसा करो न दूसरों की निंदा, अपनी पत्नी के सिवा अन्यश् सब स्त्रियों को माता के समान समझो।

वेद, उपनिषद् और शैवागम तो सब संस्कृत में है अत: वीरशैव वचनकारों ने उनका सार और शाश्वत सत्वों का स्थूलांश कन्नड भाषा एवं साहित्य में समाविष्ट कर उसकी संबृद्धि की।

जिस काल मे महाराष्ट्र वारकरी संप्रदाय का विकास होने के काल मे, इसवी १२ वी मे कर्नाटक मे लिंगायत सम्प्रदाय का परीचय आया | लिंगायत सम्प्रदाय के अनुयाय ने आपने शरीर पर शिवलिंग धारण करते है एसलिए उन्हे लिंगायत सम्प्रदाय है | पेड को जैसे फुल ,फल लगते है उसी तरह भगवान शिव से ही पुरे विश्व कि निर्माण हुया है; ऐसा ऐह सम्प्रदाय मानता है | ओम नम: शिवाय ये एकमेव मंत्र लिंगायत सम्प्रदाय ने स्वीकार किया है |

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. A. K. Ramanujan, संपा॰ (1973). स्पीकिंग ऑफ शिव. UNESCO. Indian translation series. Penguin classics. Religion and mythology. Penguin India. पृ॰ 175. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780140442700.
  2. "Lingayat Archived 2010-11-19 at the वेबैक मशीन." Encyclopædia Britannica. 2010. Encyclopædia Britannica Online. 09 Jul. 2010.
  3. "कर्नाटक सत्ता की कुंजी, जातियों के पास?". मूल से 20 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 दिसंबर 2017.
  4. "लिंगायतों को हिन्दू धर्म से अलग कौन करना चाहता है?". मूल से 20 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 दिसंबर 2017.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]