सामाजिक स्तरीकरण

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सामाजिक स्तरीकरण

सामाजिक स्तरीकरण का पिरामिड

सामाजिक स्तरीकरण (Social stratification) वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्तियों के समूहों को उनकी प्रतिष्ठा, संपत्ति और शक्ति की मात्रा के सापेक्ष पदानुक्रम में विभिन्न श्रेणियों में उच्च से निम्न रूप में स्तरीकृत किया जाता है। वर्ग स्‍तरीकरण वि‍श्‍वव्‍यापी है और इसके उत्‍पन्‍न होने के अनेक कारण हैं, जैसे पूंजीपति‍ और श्रमि‍क वर्ग औद्योगीकरण की देन हैं। धन की वि‍भि‍न्‍न अवस्‍था धनी, मध्‍यम और निर्धन वर्ग को जन्‍म देती है। गिसबर्ट के अनुसार, "सामाजिक स्तरीकरण समाज का स्थाई समूहों व श्रेणियों मैं विभाजन है जो आपस में उच्चता एवं अधीनता के संबंधों के द्वारा बंधे हुए हैं।"[उद्धरण चाहिए]

परिचय[संपादित करें]

समाजशास्त्र में सामाजिक स्तरीकरण का अध्ययन एक महत्वपूर्ण विषय है। समाज के विभिन्न स्वरूपों का अध्ययन करने से यह पता चलता है कि समाज में जिस प्रकार व्यक्ति एक दूसरे से जुड़े होते हैं, उसमें प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक अलग स्थान होता है। चिकित्सक, शिक्षक, व्यापारी, मिस्त्री, इंजिनियर, मजदूर, पुलिस, नर्स, पायलट, चालक आदि, ये सभी किसी व्यवसाय से जुड़े ऐसे व्यक्ति हैं जिनके व्यवसाय अलग-अलग हैं और उन व्यवसाय के कारण उनकी सामाजिक स्थिति भी भिन्न है। इसलिए यह कहा जाता है कि सामाजिक स्तर पर भिन्नता किसी भी समाज की एक विशिष्ट पहचान है। प्रत्येक समाज में यह विभिन्नता पायी जाती है और समाजशास्त्रियों ने विभिन्न समाजिक कार्यों से जुड़े व्यक्तियों का अध्ययन अपनी विशिष्ट अवधारणाओं की मदद से किया है। किसी व्यक्ति का ऊँचा व नीचा माना जाना उस समाज के प्रचलित नियमों के आधार पर होता है। सभी समाज के नियम यों तो अलग-अलग होते हैं परंतु उसके बावजूद भी समाज में व्यक्ति को ऊँचा व नीचा स्थान प्रदान करने के कुछ सैद्धान्तिक आधार हैं जिन सैद्धान्तिक आधार को ध्यान में रखकर समाजशास्त्र में सामाजिक स्वरूप का अध्ययन किया जाता है।

जहाँ तक सामाजिक स्तरीकरण का प्रश्न है इसे परिभाषित करते हुए बर्जर तथा बर्जर का मानना था कि सामाजिक स्तरीकरण से समाज में व्यक्ति को एक दूसरे से भिन्न पहचान होती है जो सामाजिक वर्गीकरण के सिद्धान्त पर उस समाज में टिका होता है। सामाजिक स्तरीकरण लोगों को श्रेणीबद्ध करने की प्रक्रिया है। व्यक्ति जिन विभिन्न श्रेणियों में बँटे होते हैं उन्हें स्तर कहते है। किंगस्ले डेविस ने कहा है कि जब हम जाति, वर्ग तथा सामाजिक स्तरीकरण की बात सोचते हैं तो हमारे मस्तिष्क में उन समूहों का ध्यान आता है जिसके सदस्य समाज में अपना एक स्थान रखते हैं। उसके आधार पर उन्हें कुछ प्रतिष्ठा मिली होती है। इसी आधार पर एक समूह की स्थिति दूसरे समूह से वैधानिक दृष्टि से अलग मानी जाती है वह सामाजिक स्तरीकरण का आधार बन जाती है। जब हम वर्ग पर आधारित समाज की बात करते हैं तो यह कहा जा सकता है कि वर्ग-विहीन समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। यह कहा जाता है कि जनजातीय समाज में कोई वर्ग नहीं होता। उनका सामाजिक संगठन उम्र, लिंग तथा नातेदारी पर आधारित होता है परंतु वह समाज भी जब जटिल हो जाता है और कुछ लोग संपत्ति अधिक कमाकर अपना स्थान ऊँचा बना लेते हैं तो उस समाज में भी स्तरीकरण की प्रणाली दृष्टिगोचर होने लगती है। इसलिए टाम बाटमोर का कहना था समाज में वर्ग तथा श्रेणी का बँटवारा सत्ता और प्रतिष्ठा के आधार पर क्रमबद्ध स्वरूप किसी भी समाज की सार्वभौमिक कारण है जिसने सभी सामाजिक वैज्ञानिकों को प्रभावित किया है।

पेंगुयिन शब्दकोश में सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा देते हुए कहा है कि जब लोगों को असमानता के कुछ पहलुओं को ध्यान में रखकर श्रेणीबद्ध किया जाता है तो इस प्रकार की सामाजिक विभिन्नता को सामाजिक स्तरीकरण कहा जाता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है वरन् यह एक वास्तविक सामाजिक स्थिति है जिसके कुछ ऐसे लक्षण हैं जो एक व्यक्ति, समूह, समाज, संस्कृति के लोगों को दूसरे व्यक्ति, समूह, समाज तथा संस्कृति से अलग कर उन्हें एक ऊँची तथा निम्न श्रेणी सोपान के अंतर्गत सामाजिक स्थान देते हैं।

स्तरीकरण के मापदंड व आधार[संपादित करें]

सामाजिक स्तरीकरण के मापदंड व आधार सभी समाज में अलग-अलग होते हैं परंतु फिर भी यहाँ कुछ मापदंडों के आधार पर स्तरीकरण की प्रक्रिया को एक सार्वभौमिक अवधारणा के रूप में समझने की कोशिश की गयी है। स्तरीकरण के संदर्भ में निम्न उपागम की चर्चा की जाती है-

  • (क) प्रतिष्ठात्मक उपागम (Reputational Approach)
  • (ख) आत्मनिष्ठ उपागम (Subjective Approach)
  • (ग) वस्तुनिष्ठ उपागम (Objective Approach)

ब्रूम तथा सेल्जनिक ने उपर्युक्त लिखे तीनों उपागमों के द्वारा स्तरीकरण को समझाया है। उनका यह मानना था कि स्तरीकरण का अध्ययन इन तीनों उपागमों को एक विधि मानकर किया जा सकता है। प्रतिष्ठात्मक उपागम में स्तरीकरण का अध्ययन करते हुए यह पूछा जा सकता है कि लोग अपने आप को कैसे वर्गीकृत करते हैं? क्या मापदंड प्रयोग में लाते हैं? अपनी स्थिति का आकलन करने के लिए, उन श्रेणियों को वो कैसे देखते हैं और उन मापदंडों को कैसे क्रमबद्ध करते हैं?

आत्मनिष्ठ उपागम में भी लोगों से यह पूछा जाता है कि वो अपने आपको दूसरे व्यक्ति या समूह की तुलना में स्वयं को या जिस समूह के हिस्से हैं उसे दूसरे के मुकाबले कैसे आकलन करते हैं। समाजशास्त्र में यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि आप किस वर्ग से संबंधित है। और प्रश्न के जवाब के आधार पर शोधकर्त्ता उस जवाब का आत्मनिष्ठ तरीके से विश्लेषण कर यह जानने की कोशिश कर सकता है कि समाज में वह व्यक्ति, समूह अपने आप को कौन सा स्थान देते हैं। वस्तुनिष्ठ उपागम में शोधकर्त्ता निरीक्षिण के द्वारा वस्तुनिष्ठ तरीके से यह तय करने की कोशिश करता है कि उस व्यक्ति का क्या स्थान है। कार्ल मार्क्स ने इस वस्तुनिष्ठ तरीके का इस्तेमाल कर यह आकलन करने की कोशिश की, कि उत्पादन की प्रक्रिया में जिस व्यक्ति की जो भूमिका होती है उसके आधार पर उसके वर्ग स्थान का आकलन किया जा सकता है। मार्क्स के अलावा जर्मनी के समाजशास्त्र मैक्स वेबर ने भी तीन मापदंडों को महत्वपूर्ण मानते हुए उसे एक प्रमुख आधार मानकर समाज का स्तरीकरण किया-

  • (क) आर्थिक संपत्ति तथा आर्थिक लाभ के अवसर पर नियंत्रण
  • (ख) राजनीतिक सत्ता के ऊपर नियंत्रण
  • (ग) सामाजिक स्थान व प्रतिष्ठा के ऊपर नियंत्रण

मैक्स वेबर का यह मानना था कि उपर्युक्त तीनों आधारों को एक दूसरे से अलग करके देखना शायद संभव न हो इसलिए इन तीनों के सम्मिलित स्वरूप को मिलाकर देखना चाहिए ताकि व्यक्ति के स्थान का सही आकलन किया जा सके। निस्संदेह इन तीनों आधारों का अपना विशिष्ट स्थान है और ये सभी अलग-अलग तरीके से व्यक्ति के व्यवहार तथा स्थान में निर्धारक तत्व के रूप में देखे जा सकते हैं।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्रियों में इस बात को लेकर मतभेद हो सकता है कि स्तरीकरण का अध्ययन कैसे किया जाए? परंतु सामाजिक स्तरीकरण एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है, इस बात को सभी स्वीकार करते हैं और इसे सभी मानते हैं कि प्रत्येक समाज में एक व्यक्ति या समूह को ऊँचा व नीचा स्थान देकर उसकी स्थिति का मुल्यांकन अवश्य किया जाता है। सभी समाज स्तरीकृत समाज हैं। परंतु ये सभी स्तरीकृत समाज एक दूसरे से काफी अलग हो सकते हैं क्योंकि उन सभी में स्तरीकरण का मापदंड अलग हो सकता है।

सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था की विभिन्न विशेषताओं का वर्णन किया जा सकता है परंतु प्रत्येक समाज में ये विशेषताएं विभिन्न प्रकार से कार्य करतीं हैं और इसके कारण उनकी क्रियात्मक क्षमताओं का अध्ययन भी उन समाजों की विशिष्ट परिस्थितियों के संदंर्भ में ही करना उचित होगा। उनकी विशेषताओं में सामाजिक वर्ग, प्रजाति, जेंडर, जन्म तथा उम्र को आधार बनाकर अध्ययन किया गया है। ये सभी तत्व अपना खास महत्व उस समाज में रखतें हैं। उदाहरण के लिए यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में जन्म से ही जाति को कुछ विशिष्ट स्थान मिल जाते हैं। अगर एक व्यक्ति का जन्म ब्राह्मण परिवार में होता है तो उसका सामाजिक स्थान ऊँचा हो जाता है। उसी प्रकार अगर उसका जन्म निम्न जाति के हरिजन परिवार में होता है तो उसका स्थान नीचा माना जाता है। इसी प्रकार स्त्री का स्थान पुरूषों के अपेक्षाकृत निम्न स्तर का माना जाता है। जबकि जनजातीय समाज में उम्र के अनुसार लोगों को उच्च स्थान मिले होते हैं और वहाँ स्त्री का निम्न स्थान नहीं होता है। इसलिए एक तत्व अगर किसी समाज में स्तरीकरण के मुख्य आधार बन जाते हैं तो वही तत्व दूसरे समाज में ज्यादा महत्व नहीं रखते। परंतु इन सब के बावजूद भी सामाजिक स्तरीकरण के कुछ ऐसे आधारभूत तत्व हैं जिन्हें संरचनात्मक आधार कहा जा सकता है। ये तत्व समाज के सार्वभौमिक तथा विशिष्ट तत्व माने जाते हैं। इन आधारभूत तत्वों के बारे में समाजशास्त्रियों में एक आम सहमति भी पायी जाती है। इसलिए सभी समाजशास्त्रियों ने स्तरीकरण के इन स्वरूपों तथा आधार का विशेष रूप से उल्लेख भी किया है। ये मुख्य आधारभूत तत्व हैं-

  • (१) वर्ग पर आधारित स्तरीकरण (Class as the Basis of Stratification)
  • (२) जाति पर आधारित स्तरीकरण (Caste as the Basis of Stratification)
  • (३) शक्ति पर आधारित स्तरीकरण (Power as the Basis of Stratification)

वर्ग पर आधारित स्तरीकरण[संपादित करें]

समाजशास्त्रियों ने वर्ग को सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख आधार माना है। इसके साथ जुड़े सैद्धान्तिक दृष्टिकोण के प्रतिपादकों में यद्यपि जर्मनी के समाजशास्त्र कार्ल मार्क्स का नाम विशेष रूप से लिया जाता है परंतु उनके साथ ही मैक्स वेबर का नाम भी उल्लेखनीय है, क्योंकि उन्होंने भी वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका का वर्णन किया है। इन दोनों समाजशास्त्रियों के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण एक दूसरे से काफी अलग हैं। अगर कोई समानता इनके अध्ययन में है तो सिर्फ यह कि इन दोनों ने पूंजीवादी समाज के संदर्भ में औद्योगिक समाज के स्वरूपों का अध्ययन किया है। मार्क्स ने वर्ग की व्याख्या आर्थिक संदर्भ में की है। वे मानते हैं कि आज तक मानव सभ्यता का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। अपनी छोटी सी पुस्तक कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में उन्होंने दो वर्गों की महत्वपूर्ण भूमिका का वर्णन किया है। ये भी दो वर्ग हैंः

  • (क) बुर्जुआ या पूंजीपति वर्ग (Bourgeoisie or Capitalist)
  • (ख) प्रोलेटैरिएट या मजदूर वर्ग (Proletrat or Worker)

उन्होंने वर्ग का वर्णन उत्पादन के साधनों पर उनके अधिकार के संदर्भ में किया है। उनकी यह मान्यता थी कि उत्पादन के साधनों में परिवर्तन के साथ-साथ दो वर्ग सदैव बने रहते हैं- एक वर्ग तो वह होता है जिसे उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण होता है और दूसरा वह जो इसके स्वामित्व से वंचित रहता है। औद्योगिक विकास की प्रक्रिया में औद्योगिक समाज में दो वर्ग स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं, एक वर्ग पूंजीपति वर्ग कहलाता है तो दूसरा मजदूर वर्ग। आर्थिक परिस्थितियाँ एक दूसरे के प्रतिकूल होती हैं। जहाँ पूंजीपति वर्ग उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार जमा लेने की वजह से शोषक वर्ग की भूमिका निभाता है तो वहीं दूसरी ओर मजदूर वर्ग होता है जो उत्पादन के साधनों से वंचित रहता है तथा उसका शोषण पूंजीपति वर्ग द्वारा होता है। इन दोनों की स्थिति परस्पर एक दूसरे के विपरीत होती है और इन दोनों के परस्पर विरोधी आर्थिक स्वार्थ के कारण इन दोनों में निरंतर संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था में इन दोनों वर्गो के बीच आर्थिक स्वार्थ के भिन्न होते हैं। वर्ग चेतना पर आधारित वर्ग संघर्ष की अवधारणा के द्वारा कार्ल मार्क्स ने सामाजिक क्रांति की बात की है। स्तरीकरण के नजरिये से देखा जाये तो पूंजीपति वर्ग तथा मजदूर वर्ग दोनों के सामाजिक स्तर परस्पर अलग-अलग हैं। पूंजीपति वर्ग अपने आप को ऊँचा मानकर सदैव अपनी स्थिति मजबूत करता है वहीं दूसरी ओर मजदूर वर्ग अपने स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए हमेशा पूंजीपति वर्ग के उत्पादन की प्रणाली में अंतर्द्वन्द देखता है और अपनी स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए पूँजीपति द्वारा कमाये गये मुनाफे में अपना हिस्सा माँगता है।

वेबर ने भी समाज में वर्ग के आधार पर आर्थिक स्तर पर मतभेद देखा। वेबर का कहना था कि वर्गों के उन्नति के अवसर परस्पर अलग-अलग होते हैं। जहाँ मार्क्स ने मुख्य रूप से दो वर्गों की बात की है वहीं वेबर ने निम्न चार वर्गों की बात की हैं-

  • (क) धनी वर्ग
  • (ख) बुद्धिजीवी, प्रशासकीय तथा प्रबंधन वर्ग
  • (ग) परंपरागत व्यापारी वर्ग
  • (घ) मजदूर वर्ग

वेबर ने सामाजिक स्तरीकरण के संदर्भ में वर्ग के साथ-साथ एक और विशेषता को प्रमुख बताया, जो था सामाजिक सम्मान या सामाजिक स्थिति। इसलिए वेबर ने वर्ग के स्थान पर स्थिति समूह (Status group) शब्द का प्रयोग किया है। वर्ग एक बंद समूह न होकर ज्यादा खुला समूह है। वेबर के वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्ग को पूर्णतया एक आर्थिक इकाई न मानकर उसे औद्योगिक समाज से जोड़कर देखा जाना चाहिए। टी एच मार्शल ने भी स्थिति समूह की व्याख्या व्यक्तिगत तथा स्थिति के आधार पर की है। व्यवसाय की भिन्नता को ध्यान में रखकर भी स्थिति समूह का विवेचन किया जाता है। कुछ समाजशास्त्रियों ने समाजिक गतिशीलता (सोअशल मोबिलिटी) का अध्ययन उनके व्यवसायिक स्थिति को ध्यान में रखकर किया है।

वि पैरेटो के अनुसार अभिजात्य वर्ग (Elite group) की दो श्रेणियों का वर्णन किया जा सकता है जो निम्न हैं-

  • (क) शासक अभिजात्य वर्ग (Governing Elite)
  • (ख) शासित अभिजात्य वर्ग (Non-governing Elite)

शासक अभिजात्य वर्ग की सामाजिक स्थिति गैर अभिजात्य वर्ग के सामाजिक स्थिति से बिल्कुल भिन्न होती है। एक का सामाजिक स्तरीकरण में स्थान ऊँचा होता है जबकि दूसरे का नीचा। परंतु पैरेटो का मानना था कि दोनों की स्थिति में सदैव बदलाव आता रहता है। उन्होंने चक्रीय सिद्धान्त के रूप में इसका वर्णन किया है। आज जो 'शासक अभिजात्य वर्ग' हैं उनकी स्थिति मजबूत है पर सदैव उसकी स्थिति मजबूत नहीं रहेगी क्योंकि जो वर्ग सत्ता में नहीं आ पाते है वे सत्ता में बने रहने वालों के ऊपर पूरी निगरानी रखते है और उनके कमजोर होते ही उनपर हावी हो जाते हैं। उनके सिद्धान्त को 'अभिजात्य वर्ग का चक्रण सिद्धान्त' (Circulation of Elite) कहा जाता है।

जाति पर आधारित स्तरीकरण की प्रकृति की विवेचना कीजिए[संपादित करें]

जाति पर आधारित स्तरीकरण को सामाजिक स्थिति को समझने का ही एक तत्व माना जाता है। जब स्थिति पूर्णतः पूर्व निर्धारित हो जाती है, जिससे व्यक्ति जहाँ जन्म लेता है उससे उसकी सामाजिक स्थिति में परिवर्तन लाना सर्वथा असंभव हो तो ऐसी स्थिति में वर्ग जाति का रूप ले लेता है। मेकाईवर तथा पेज के इस कथन का समर्थन करते हुए किंगस्ले डेविस का यह मानना था कि जाति के आधार पर जब स्तरीकरण के स्वरूप की बात की जाती है तो दो प्रकार की स्थिति का सहज रूप से स्मरण हो आता है और ये दोनों स्थितियां हैं- प्रदत्त स्थिति (Ascribed status) तथा अर्जित स्थिति (Achieved status)। स्तरीकरण के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि जाति शब्द के द्वारा जो स्थिति बनती है उसे प्रदत्त स्थिति कहा जाता है क्योंकि इसके आधार पर गतिशिलता नहीं होती है और इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता जबकि इसके विपरित वर्ग से जो स्थिति व्यक्ति को मिलती है उसे बदला जा सकता है और इसलिए वर्ग में ज्यादा लचीलापन होता है। इसलिए जाति की व्याख्या करते हुए समाजशास्त्र इसे 'बंद समूह' की संज्ञा देते हैं जहाँ व्यक्ति की स्थिति स्थायी रूप से निश्चित होती है। किंग्सले डेविस ने जाति की व्याख्या करते हुए यह माना है कि जाति के द्वारा कुछ गुण हमें विरासत में मिलते हैं- अर्थात इसके कारण असमानता विरासत के रूप में मिलती है। इस प्रकार उनका मानना था कि दो प्रकार के सामाजिक व्यवस्था की बात की जा सकती है- एक वह असमानता जो उत्तराधिकार में जाति के द्वारा मिलती है और दूसरा वह जो समानता के आधार पर समान अवसर से जुड़ा होता है। ये दोनों स्तरीकरण को दर्शाते हैं एक में एक व्यक्ति की वही स्थिति होती है जो उसके पिता की होती है और दूसरे में व्यक्ति वह स्थिति प्राप्त करता है जो उसके पिता का हो भी सकता है या नहीं भी। व्यक्ति मेहनत कर अपने पिता की स्थिति से अपने आप को और भी ऊपर उठाने की संभावना पैदा करता है। यह कहा जा सकता है कि भारतीय जाति व्यवस्था पहली स्थिति का उदाहरण है जबकि दूसरी स्थिति अमेरिकी वर्ग पर आधारित समाज है जहाँ मेहनत व परिश्रम से एक व्यक्ति अपने पिता से ऊँचा स्थान प्राप्त करता है।

जाति पर आधारित समाज की निम्न विशेषताओं का उल्लेख करना यहाँ उचित है-

  • (१) जाति में सदस्यता वंशानुक्रम पर निर्भर करता है। बचपन से ही जन्म के बाद उसे वह स्थान मिल जाता है।
  • (२) इस प्रकार के विरासत में मिली सदस्यता निर्धारित तथा स्थायी होती है क्योंकि व्यक्ति चाहकर भी इसे छोड़ नहीं सकता है।
  • (३) यहाँ विवाह के लिए उसके पास अंतर्विवाही (Endogammy) विकल्प के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं होता।
  • (४) खाने-पीने में उसकी पसंद सीमित होती हैं अर्थात किसी और के हाथ का बना खाना, वह खा नहीं सकता।
  • (५) जाति द्वारा उसे जो पहचान व नाम मिलता है उसे वह चाहकर भी नहीं बदल सकता।
  • (६) जाति के लोग परंपरागत पेशे से बँधे होते हैं।
  • (७) प्रत्येक जाति की अपनी प्रतिष्ठा व सम्मान होता है जो उस जाति से स्थापित होता है।
  • (८) जाति के आधार पर न केवल भोजन, बल्कि स्थान भी पवित्र तथा अपवित्र जैसी धारणा से जुड़े होते हैं।
  • (९) जाति के लोग भी उप जाति के आधार पर बँटे होते हैं (अर्थात जाति के अन्दर ही एक स्तरीकृत उप जाति होती है) जिसकी स्थिति एक दूसरी से भिन्न होती है। ब्राह्मण जाति में भी कई उप जातियां होती हैं जिनकी सामाजिक स्थिति एक जैसी नहीं होती और उनके बीच विवाह भी सर्वथा वख्रजत होता है।

जहाँ तक वर्ग और जाति पर आधारित सामाजिक स्तरीकरण का प्रश्न है- ऐसी मान्यता है कि जाति तथा वर्ग को लेकर जो पहले संकीर्ण दृष्टिकोण था उसमें काफी बदलाव आया है। भारतीय समाजशास्त्र यह मानते हैं कि जाति की संरचना में काफी बदलाव आया है और आज जाति जो स्वरूप हमें देखने को मिलता है उसमें काफी बदलाव आया है। के0एम शर्मा का कहना है कि वर्ग पर आधारित अंतर, जाति में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। गाँव में रहने वाले लोग कभी-कभी भारतीय वर्ग संरचना का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उनका मत था कि जाति और वर्ग को एक दूसरे का विरोधी स्वरूप नहीं समझना चाहिए। ये दोनों भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अविभाज्य पहलू हैं और इन दोनों के बीच गहरा संबंध है जिसकी निरंतरता और परिवर्तित स्वरूप का अध्ययन किया जाना आवश्यक है। जाति और वर्ग के बीच के संबंध की व्याख्या करते हुए योगेन्द्र सिंह ने कहा है कि जाति तथा वर्ग भारतीय समाज के संरचनात्मक तत्व का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। वर्ग, जाति के ढांचे के अंतर्गत ही कार्य करते हैं। एम एन श्रीनिवास ने भी इस बात पर ज्यादा बल दिया है कि जाति तथा वर्ग के बीच के संबंध को केवल ग्रामीण तथा शहरी समाज और शिक्षा से जुड़ी सुविधाओं को प्राप्त करने तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। इसमें भूमिका को नौकरशाही, मजदूर युनियन, राजनीतिक दलों, शहरीकरण तथा आर्थिक विकास के क्षेत्र में भी देखा जाना चाहिए तभी इसके परिवर्तित स्वरूप तथा निरंतरता को समझा जा सकता है। आज आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में जाति का आधुनिक स्वरूप एक समिति के रूप में उभरने लगा है और जाति अपने आप को परंपरागत संरचनाओं तथा सांस्कृतिक तत्वों तक ही सीमित रहने के बजाय आधुनिक युग के नये उभरते समूह तथा समितियों का भी अभिन्न अंग बनाता जा रहा है और इस प्रकार नये संबंध विकसित हो रहें हैं और जाति तथा वर्ग के आपसी संबंध काफी गहरे हो गये हैं इसलिए इनके इस सम्मिलित स्वरूप की पहचान को नये तरीके से अध्ययन करने की जरूरत है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]