ठाकुर (कवि)

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'ठाकुर' नाम के हिंदी में तीन प्रसिद्ध कवि हुए हैं - असनीवाले प्राचीन ठाकुर, असनीवाले दूसरे ठाकुर और तीसरे ठाकुर बुंदेलखंडी। संख्या में तीन होने के कारण ये 'ठाकुरत्रयी' भी कहलाए।

ठाकुर १[संपादित करें]

इनमें पहले दो ठाकुर असनी (फतेहपुर) के रहने वाले ब्रह्मभट्ट थे। प्राचीन ठाकुर का समय सं० १७०० के लगभग माना जाता है। इनकी स्वच्छ और चलती भाषा में लिखी फुटकल कविताएँ ही 'कालिदास हजारा' आदि काव्यसंग्रहों में यत्र-तत्र बिखरी पाई जाती हैं। वैसे तीनों ठाकुरों की रचनाएँ परस्पर इतनी घुल मिल गई हैं कि सहज रूप से उनमें अंतर कर पाना काफी कठिन है।

ठाकुर २[संपादित करें]

असनीवाले दूसरे ठाकुर ऋषिनाथ कवि के पुत्र थे और इनके पौत्र कवि सेवक के भतीजे श्रीकृष्ण के अनुसार इनके पूर्वज कवि देवकीनंदन मिश्र गोरखपुरवासी सरयूपारी ब्राह्मण पयासी मिश्र थे, जिन्हें मझौली के राजा के यहाँ विवाह में भाटों की तरह एक कवित्त पढ़ने के नाते जातिच्युत होना पड़ा। बाद में वे असनी के प्रसिद्ध भाट कवि नरहरि की पुत्री से विवाह कर भाट बने और वहीं बस भी गए। इस वंश में कवि होते ही आए थे। ठाकुर का जन्म, रामनरेश त्रिपाठी के अनुसार, सं० १७९२ में हुआ था। काशी के नामी रईस और काशीराज के संबंधी बाबू देवकीनंदन ठाकुर कवि के आश्रयदाता थे जिनके प्रीत्यर्थ कवि ने 'बिहारी सतसई' को 'देवकीनंदन टीका', 'सतसई बरनार्थ' बनाई। उनकी कविता में भाव और भाषागत लालित्य, चमत्कार और सरसता देखने योग्य होती है। सुकुमार भावव्यंजना, विमुग्धकारी उक्तिचमत्कार और निर्बाध दृश्यनिर्वाह, दूसरे ठाकुर की कविता के प्रमुख गुण हैं।

ठाकुर ३[संपादित करें]

तीसरे बुंदेलखंडी ठाकुर रीतिकालीन रीतियुक्त भाव-धारा के विशिष्ट और प्रेमी कवि थे जिनका जन्म ओरछे में सं० १८२३ और देहावसान सं० १८८० के लगभग माना गया है। इनका पूरा नाम था ठाकुरदास। ये श्रीवास्तव कायस्थ थे। ठाकुर जैतपुर (बुंदेलखंड) के निवासी और वहीं के स्थानीय राजा केसरीसिंह के दरबारी कवि थे। पिता गुलाबराय महाराजा ओरछा के मुसाहब और पितामह खंगराय काकोरी (लखनऊ) के मनसबदार थे। दरियाव सिंह 'चातुर' ठाकुर के पुत्र और पौत्र शंकरप्रसाद भी सुकवि थे। बुंदेलखंड के प्राय: सभी राजदरबारों में ठाकुर का प्रवेश था। बिजावर नरेश ने उन्हें एक गाँव देकर सम्मानित किया था। सिंहासनासीन होने पर राजा केसरीसिंह के पुत्र पारीछत ने ठाकुर को अपनी सभा का एक रत्न बनाया। बाँदा के हिम्मतबहादुर गोसाईं के यहाँ भी, जो पद्माकर के प्रमुख आश्रयदाताओं में थे, ठाकुर का बराबर आना जाना था। चूँकि ठाकुर पद्माकर के समसामयिक थे इसलिए वहाँ जाने पर दोनों की भेंट होती जिसके फलस्वरूप दोनों में कभी-कभी काव्य-स्पर्धा-प्रेरित जबर्दस्त नोक-झोंक तथा टक्कर भी हो जाया करती थी जिसका पता इस तरह की अनेक लोकप्रचलित जनश्रुतियाँ देती हैं।

काव्यात्मक समीक्षा[संपादित करें]

प्रकृति से ठाकुर स्वच्छंद, मनमौजी, निर्भीक, स्पष्टवादी, स्वाभिमानी, सौंदर्यप्रेमी, भावुक, 'विरोधियों के प्रति उग्र एवं सहयोगियों के प्रति सहृदय', उदार और बुद्धि के दूरदर्शी, कुशल, मर्म तक पहुँचनेवाले तथा देशकाल की गति को अच्छी तरह पहचाननेवाले व्यक्ति थे। दरबारी होते हुए भी उन्होंने किसी आश्रयदाता की अतिरंजित प्रशंसा कभी नहीं की। 'सेवक सिपाही' शब्दों से आरंभ होनेवाला कवित्त कवि की अंत:प्रकृति की अच्छी झाँकी प्रस्तुत करता है जिसे ठाकुर ने हिम्मतबहादुर की कटूक्ति का उत्तर देने के लिए भरी सभा में तलवार खींचकर पढ़ा था। काव्य में सरस, सच्चे और उमंग भरे अनुभूत भावचित्रण के कायल होने के कारण ठाकुर रीतिबद्ध कवियों की परंपरायुक्त काव्य-सृजन की रटंत परिपाटी से उतने ही चिढ़ते थे जितने गोरखपंथियों और कबीरपंथियों से तुलसीदास। 'लोगन कवित्त कीवो खेल करि जानो है' से अंत होनेवाला कवित्त उक्त कथन का प्रत्यक्ष प्रमाण और कवि की खीझ, फटकार तथा उस काल की रीत्याश्रयी ह्रासोन्मुखी कविता पर करारे व्यंग्य का सूचक है।

बहुत दिनों तक अनेक प्राचीन काव्यसंग्रहों में ठाकुर की रचनाएँ स्फुट रूप में ही दिखती रहीं परंतु काफी बाद में 'ठाकुर शतक' और 'ठाकुर ठसक' नाम के दो संग्रह तैयार किए गए। 'ठाकुर शतक' के, जिसमें तीनों ठाकुरों की कविताएँ, संग्रहकर्ता थे डुमराँव निवासी नकछेदी तिवारी 'अजान' कवि (हिंदी साहित्य कोश, भाग २, के अनुसार इसके संग्रहकर्ता थे चरखारी निवासी काशीप्रसाद) और जिसका प्रकाशन काशी के 'भारत जीवन प्रेस' से उसके अध्यक्ष बाबू रामकृष्ण वर्मा 'वीर' के निर्देशन में सन् १९०४ ई० में हुआ था। तत्पश्चात् लाला भगवानदीन ने सन् १९२६ ई० में काशी के 'साहित्य सेवक' कार्यालय से एक ऐसा संग्रह 'ठाकुर ठसक' निकाला जिसमें तीसरे ठाकुर की ही फुटकल रचनाएँ थीं परंतु भरकस प्रयत्न करने पर भी ठाकुरों की रचनाओं में वे पूर्णतया और स्पष्टतया विभेद न कर पाए। लाला जी ने 'ठाकुर ठसक' में १०४ छंद तो 'ठाकुर शतक' से ही लिए, शेष ८८ छंद नए ढूँढ़े। ठाकुर सहज और स्वाभाविक अनुभूति के कवि थे। उनकी कविताओं में सर्वत्र यह सरल और निश्चल भावानुभूति तरंगित मिलती है। कला का आग्रह पूरी तरह से स्वीकार करते हुए भी भावक्षेत्र में वे स्वतंत्रता के पक्षपाती थे। कवि के पास जीवन के सरस और अनूठे भावों के साथ अनूठी भाषा भी थी। यद्यपि ठाकुर के काव्य का वर्ण्य विषय भी रीतिमार्गी कवियों की भाँति शृंगार, भक्ति और नीति ही है तथापि प्रयोग का प्रकार उससे पर्याप्त भिन्न है। 'प्रेम के पंथ' को अपनाकर भी कवि नायिकाभेद के चक्कर में नहीं पड़ा। सामान्य व्यवहार की चलती हुई ब्रजभाषा का प्रयोग ही उसने किया है। अकृत्रिम भाषाशैली, सुकुमार भावाभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त सक्षम है। लोकोक्ति, मुहावरे और लोकप्रचलित तद्भव शब्दों का जैसा युक्तियुक्त और सटीक उपयोग इस कवि ने किया है वैसा अन्य किसी ने नहीं। इससे अभिव्यक्ति स्वाभाविक, मनोहर, सजीव और व्यंजनापूर्ण हो उठी है। सवैया छंद में कवि की सहज गति थी जिसका स्पष्ट प्रभाव भारतेंदु पर पड़ा था। इन्हीं विशेषताओं के कारण अनेक समीक्षकों ने कवि के काव्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है - 'प्रेमविषयक ऐसे सच्चे और टकसाली छंद प्राय: किसी भी कवि की रचना में नहीं पाए जाते। इस महाकवि ने मानुषीय प्रकृति और हृदयंगम भावों एवं चितसागर की तरंगों को बड़ी ही सफलतापूर्वक चित्रित किया है' (मिश्रबंधु)। 'भाषा, भाव-व्यंजना, प्रवाह, माधुरी किसी भी विचार से ठाकुर का कोई भी कवित्त या सवैया उठाइए, पढ़ते ही हृदय नाच उठेगा (विश्वनाथप्रसाद मिश्र)।'

सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

  • हिंदी साहित्य का इतिहास : आचार्य रामचंद्र शुक्ल ;
  • मिश्रबंधु विनोद (भाग २) - मिश्रबंधु ;
  • हिंदी साहित्य कोश (भाग २) सं० - डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा आदि ;
  • हिंदी साहित्य का अतीत (भाग २) - पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र ;
  • रीतिकाव्य - संग्रह - डॉ॰ जगदीश गुप्त