कविसमय

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कविसमय (poetic convention) से तात्पर्य है - कवि समुदाय में प्रचलित मान्यताएँ जो प्राचीन परंपरा के अनुसार प्रयोजनविशेष के लिए काव्य में प्रयुक्त होती आई हैं।

परिचय[संपादित करें]

सामाजिक परंपरा की भाँति साहित्य या काव्य के क्षेत्र में भी अनुकरण तथा अत्यधिक प्रयोग के कारण प्रत्येक देश या वर्ग के साहित्य में कुछ साहित्य संबंधी अभिप्राय बन जाते हैं और उनका यांत्रिक ढंग से प्रयोग होने लगता है। इन अभिप्रायों को कविसमय (साहित्यिक अभिप्राय) की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वामन (काव्यालंकरसूत्र, ४ : १) ने सबसे पहले 'काव्यसमय' शब्द का प्रयोग व्याकरण, छंद एवं लिंग के संबंध में प्रतिष्ठित कविपरिपाटी का बोध कराने के लिए किया। किंतु यह शब्द अधिक प्रचलित न हो सका। राजशेखर (काव्यमीमांसा, पृ. १९०, अनुवाद केदारनाथ शर्मा, १९५४ ई.) ने कविसमय की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की हैं-

अशास्त्रीयमलौकिकं च परम्परायातं यमर्थमुपनिबघ्नन्ति कवय: स कविसमय:।
अर्थात् अशास्त्रीय (शास्त्र से बहिर्भूत), अलौकिक (लोकव्यवहार से बहिर्भूत), केवल परंपरा प्रचलित जिस अर्थ का कविजन उल्लेख करते हैं, वह कविसमय है।

इस विषय में आगे चलकर (काव्यमीमांसा, पृ. १९१) उन्होंने यह भी लिखा है–

"प्राचीन विद्वानों ने सहस्रों शाखावाले वेदों का अंगोंसहित अध्ययन करके, शास्त्रों का तत्वज्ञान करके, देशांतरों और द्वीपांतरों का भ्रमण करके जिन वस्तुओं को देख, सुन और समझकर उल्लिखित किया है उन वस्तुओं और पदार्थों का देशकाल और कारणभेद होने पर या विपरीत हो जाने पर भी उसी प्राकृत, अविकृत रूप में वर्णन करना कविसमय' है।

राजशेखर के परवर्ती संस्कृत के आचार्यों हेमचंद्र (काव्यानुशासन, अध्याय १), अमरचंद्र (काव्यकल्पलतावृत्ति, प्रतान १), केशवमिश्र (अलंकारशेखर, रत्न ६), तथा हिंदी के आचार्यों केशवदास (कविप्रिया, चौथा प्रभाव) और जगन्नाथप्रसाद "भानु' (काव्यप्रभाकर) इत्यादि ने कविसमय पर जो विवेचन किए हैं, वे प्राय: सभी राजशेखर के आधार पर हैं। डॉ॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी (हिंदी साहित्य की भूमिका, कवियों सप्तम संस्करण, पृ. १८०) के अनुसार "कविसमय शब्द का अर्थ है कवियों का आचार या संप्रदाय।

प्रमदाओं की विभिन्न क्रियाओं से अशोक, मंदार, बकुल, आम (सहकार), कुरबक आदि का फूलना ; नदियों में कमल का खिलना ; चुकोर का आग खाना; चातक का मात्र स्वातिजल पीना आदि कुछ प्रमुख "कविसमय' हैं।[1] इन्हें "कविप्रसिद्धि' भी कहा जाता है और ये अधिकांश्त: कविकल्पनाश्रित तथा एक सीमा तक संभावनाश्रित वास्तविकता पर आधारित होते हैं। यहाँ इस तथ्य का भी उल्लेख कर देना आवश्यक है कि कला में किसी काल्पनिक या वास्तविक वस्तु को अलंकृति मात्र के लिए अभिप्राय के रूप में प्रयुक्त किया जाता है जब कि काव्य में अभिप्राय या कविसमय मुख्यस्वरूप से उस परंपरागत विचार (आइडिया) को कहते हैं जो अलौकिक और अशास्त्रीय होते हुए भी उपयोगिता और अनुकरण के कारण कवियों द्वारा गृहीत होता है तथा बाद में चलकर रूढ़ हो जाता है।

कोटियाँ[संपादित करें]

राजशेखर ने "कविसमयों" को तीन प्रमुख कोटियों में रखा है :

स्वर्ग्य[संपादित करें]

स्वर्गलोक संबंधी; यथा, चंद्रमा में दिखाई देनेवाले काले धब्बे को कलंक, खरगोश या हिरन मानना; कामदेव की पताका में मीन या मकर के आकार का वर्णन करना; कामदेव को मूर्त या अमूर्त दोनों रूपों में प्रस्तुत करना; चद्रमा का जन्म समुद्रमंथन से या अत्रि ऋषि के नेत्र से मानना; शिव के मस्तक पर बालचंद्र को मानना आदि।

पातीलीय[संपादित करें]

पाताललोक संबंधी; यथा, नाग और सर्पों को एक मानना तथा इसी प्रकार दैत्य, दानव और असुर को भी एक मानना।

भौम[संपादित करें]

पृथ्वीलोक संबंधी। इस कोटि के कविसमय चार वर्गों में बाँटे गए हैं :

(क) जातिरूप, (ख) द्रव्यरूप, (ग) क्रियारूप तथा (घ) गुणरूप।

इनमें से भी प्रत्येक के तीन तीन भेद हैं : (१) असत्‌, जो विद्यमान नहीं है उसका वर्णन करना, (२) सत्‌, विद्यमान होने पर भी जिसका वर्णन न किया जाए तथा (३) नियम, किसी वस्तु का स्थानविशेष के प्रसंग में ही वर्णन करना तथा उसके अन्यत्र मिलने पर भी उस स्थान के प्रसंग में वर्णन न करना। अत: भौम कविसमयों के १२ भेद हैं:-

(१) असत्‌ जातिरूप : यथा, नदियों में कमल का वर्णन, जलाशय मात्र में हंसों का वर्णन आदि,
(२) असत्‌ द्रव्यरूप : यथा, अधंकार का मुष्टिग्राह्यत्व तथा सूचीभेद्यत्व, चाँदनी का घड़ों में भरकर ले जाया जा सकना आदि,
(३) असत्‌ क्रियारूप : यथा, चकवे चकवी का रात में विलग हो जाना, चकोरों का अंगार चुगना या चंद्रिकापान करना,
(४) असत्‌ गुणरूप : यथा, यश, हास आदि को शुक्ल बताना; अयश, पाप आदि का काले रूप में वर्णन; अनुराग क्रोध आदि को लाल बताना आदि,
(५) सत्‌ जातिरूप : यथा, वसत में मालती, चंदनवृक्ष पर फल फूलों का, अशोक वृक्ष में फलों का वर्णन न करना आदि,
(६) सत्‌ द्रव्यरूप : यथा, कृष्णपक्ष में चाँदनी और शुक्लपक्ष में अंधकार का वर्णन न करना आदि,
(७) सत्‌ क्रियारूप : यथा, दिन में नीलोत्पल के अविकास तथा शेफालिका के पुष्पों के झड़ने का वर्णन करना आदि,
(८) सत्‌ गुणरूप : यथा कुंद, कुड्मल और दाँतों की लाली का ; कमल, मुकुल आदि के हरे रंग का तथा प्रियंगु पुष्पों के पीतवर्ण का वर्णन न करना आदि,
(९) नियम जातिरूप : यथा, समुद्र में ही मकरों का वर्णन करना, मोतियों का स्रोत ताम्रपर्णी को ही बताना आदि,
(१०) नियम द्रव्यरूप : यथा, मलयगिरि को ही चंदन का उत्पत्ति स्थल तथा हिमालय को ही भूर्जपत्र का प्रभवस्थान मानना आदि,
(११) नियम्‌ क्रियारूप : यथा, केवल वसंत में ही कोयल के कूकने का वर्णन, मयूरों के कूजन और नृत्य का वर्षा ऋतु में ही वर्णन अदि तथा
(१२) नियम गुणरूप : यथा, माणिक्य में लाली, फूलों में शुक्लता और मेघों में कालिमा का वर्णन करना।

वस्तुत: कविगण प्राचीन काल से ही कविसमयों का उपयोग जाने अनजाने अपने-अपने काव्य में करते आ रहे थे। राजशेखर ने सर्वप्रथम उनका नामकरण, शास्त्रीय विवेचन एंव वर्गीकरण प्रस्तुत किया और तत्पश्चात्‌ उन्हें कविशिक्षा में सम्मिलित कर लिया गया।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. [https://books.google.co.in/books?id=_UhEvnIZjT4C&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false Indian Poetics By T. Nanjundaiya Sreekantaiya] Archived 2015-04-16 at the वेबैक मशीन (गूगल पुस्तक)

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]