राधा कमल मुखर्जी

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राधा कमल मुखर्जी (7 दिसम्बर 1889 - 24 अगस्त 1968 ) आधुनिक भारत के प्रसिद्ध चिन्तक एवं समाजविज्ञानी थे। वे लखनऊ विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र के प्राध्यापक तथा उपकुलपति रहे। उन्होने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

प्रोफेसर मुकर्जी के ही नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में सर्वप्रथम लखनऊ विश्वविद्यालय में 1921 में समाजशास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ हुआ इसलिए वे उत्तर प्रदेश में समाजशास्त्र के प्रणेता के रूप में भी विख्यात हैं।

प्रोफेसर मुकर्जी वे इतिहास के अत्यन्त मौलिक दार्शनिक थे। वे 20वीं सदी के कतिपय बहुविज्ञानी सामाजिक वैज्ञानिकों में से एक थे जिन्होंने विभिन्न विषयों- अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, परिस्थितिविज्ञान, दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य, समाजकार्य, संस्कृति, सभ्यता, कला, रहस्यवाद, संगीत, धर्मशास्त्र, अध्यात्म, आचारशास्त्र, मूल्य आदि विभिन्न अनुशासनों को अपना बहुमूल्य योगदान प्रदान किया है। इन समस्त क्षेत्रों में प्रोफेसर मुकर्जी की अद्वितीय देन उनके द्वारा प्रणयित 50 अमर कृतियों में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है।

भारत सरकार द्वारा उन्हें सन १९६२ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

इनकी बहुचर्चित पुस्तकें निम्न हैं।

  • 1.The Fundamentals of Indian economics
  • 2.The culture and the art of India.

परिचय[संपादित करें]

प्रोफेसर राधा कमल मुकर्जी का जन्म 7 दिसम्बर 1889 को पश्चिमी बंगाल के मुर्शिदाबाद जनपद के एक छोटे से कस्बे बहरामपुर में हुआ था। उन्होने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा जुलाई 1905 में कृष्णनाथ कालेजिएट स्कूल बहरामपुर से प्रारम्भ की। 1904 में माध्यमिक शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् उच्च शिक्षा हेतु कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में प्रवेश लिया। 1908 में अंग्रेजी साहित्य एवं इतिहास तथा सामान्य विषय दर्शनशास्त्र के साथ स्नातक आनर्स परीक्षा उत्तीर्ण की। शिक्षक बनने का लक्ष्य बनाकर अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र विषय का चयन करके कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। उसी वर्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र विषय का स्नातकोत्तर स्तर का संयुक्त पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया गया था। मुकर्जी का स्नातकोत्तर स्तर पर अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र का चयन अनायास ही नहीं था अपितु उनके ही शब्दों में ‘‘कलकत्ता की बस्तियों में दुःख-दारिद्रय, गंदगी और अधःपतन के साथ जो मेरा आमने-सामने परिचय हुआ उसने मेरी भविष्य रूचि को अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र की ओर आकर्षित किया।’’ देश एवं राष्ट्र के लिए अध्ययन के विचार से प्रभावित होकर उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर पर अर्थशास्त्र विषय का चयन किया। उनका दृढ़ विश्वास था कि अर्थशास्त्र ही भारतीय दरिद्रता, शोषण एवं आधीनता जैसे गम्भीर मुद्दों के वैज्ञानिक एवं उचित उत्तर दे सकता है। 21 वर्ष की आयु में वर्ष 1910 में एम.ए. अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वह कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र विषय की स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों के प्रथम समूह में थे।

दिनचर्या एवं वेषभूषा[संपादित करें]

प्रोफेसर मुकर्जी की दिनचर्या एवं वेष-भूषा का वर्णन करते हुए प्रोफेसर बंशीधर त्रिपाठी लिखते हैं

प्रोफेसर मुकर्जी का जीवन घोर संयम की डोर से बँध गया था। वे ब्रह्म मुहूर्त में तीन बजे शैय्या छोड़ देते हैं; नित्य-कर्म के उपरान्त योगासन करते हैं। तदन्तर वे भजन-पूजन, ईश्वर-चिन्तन, आत्म-चिंतन करते हैं। श्रीमद्भागवत एवं श्रीमद्भगवदगीता का नियमित पाठ करते हैं। प्रातःकाल आठ बजे से लेखन-कार्य में जुट जाते हैं। वे नियमित रूप से प्रतिदिन तीन-चार घण्टे लेखन-कार्य करते हैं। इतना सब करके वे विभाग की ओर प्रस्थान करते हैं। विभागीय कार्य के उपरान्त वे समाजसेवा के विभिन्न कार्यों में अपना समय लगाते हैं। प्रोफेसर मुकर्जी की एक निर्धारित वेश-भूषा है। वे सफेद या हल्के पीले रंग की कमीज या बुशर्ट और पैंट पहनते हैं। जाड़े में वे बंद गले का कोट पहनते हैं। सिर पर गांधी टोपी लगाते हैं। टाई लगाने से उन्हें सख्त नफरत है। जहाँ तक संभव है वे खादी अथवा स्वदेशी वस्त्रों का प्रयोग करते हैं। वे भारतीय संस्कृति के जीते-जागते प्रतीक हैं।

कृतियाँ[संपादित करें]

  1. The Three Ways: The Way of Transcend list-Religion as a Social Norm (1929)
  2. Sociology and Mysticism (1931)
  3. The Theory and Art of Mysticism (1937)
  4. The Foundations of Indian Economics (1916)
  5. The Rural Economy of India (1926)
  6. Regional Sociology (1926)
  7. The Land Problems of India (1927)
  8. Introduction of Social Psychology (1928)
  9. Field and Farmers of Oudh (1929)
  10. Regional Balance of Man (1938)
  11. Man and his Habitation (1940)
  12. The Institutional Theory of Economics (1940)
  13. Indian Working Class (1945)
  14. The Social Structure of Values (1949)
  15. The Dynamics of Morals: A Socio-Psychological Theory of Ethics (1950)
  16. Inter-caste Tensions (Co-author) (1951)
  17. Races, Lands and Food (1946)
  18. The Social Function of Art (1948)
  19. The Social Structure of Values (1949)
  20. A General Theory of Society (1956)
  21. The Philosophy of Social Science (1960)
  22. Social Profiles of a Metropolis (1963)
  23. The Dimensions of Human Values (1964)
  24. The Destiny of Civilization (1964)
  25. Flowering of Indian Art (1964)
  26. District Town in Transition: Social and Economic Survey of Gorakhpur (with B. Singh) (1964)
  27. The Oneness of Mankind (1965)
  28. The Way of Humanism: East and West (1968)
  29. Social Sciences and Planning in India (1970).

लोकप्रियता[संपादित करें]

अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि विषयों में उनकी गहरी रुचि थी। कला का अध्ययन भी उनका प्रिय विषय था। उनकी विद्वता ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया था। यूरोप और अमेरिका के प्रमुख विश्वविद्यालय उन्हें अपने यहाँ भाषण देने के लिए आमंत्रित करते रहते थे। भारतीय कलाओं के प्रति अपने अनुराग के कारण ही वे कई वर्षों तक लखनऊ के प्रसिद्ध ‘भातखंडे संगीत महाविद्यालय’ और प्रदेश ललित कला अकादमी के अध्यक्ष भी रहे। 1955 में लन्दन के प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान मैकमिलन ने डॉ. मुखर्जी के सम्मान में एक अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन किया था। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में भी उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया। ‘लखनऊ विश्वविद्यालय’ के ‘जे. के. इंस्टीटयूट’ के निदेशक तो वे जीवन भर रहे।

डॉ. राधाकमल मुखर्जी की मान्यता थी कि ज्ञान का अत्यधिक विखण्डन समाज की सर्वांगीण प्रगति के लिए अहितकर है। वे प्राच्य और पाश्चात्य दोनों विचार धाराओं में समन्वय के समर्थक थे।

निधन[संपादित करें]

राधाकमल मुखर्जी का देहावसान ‘ललित कला अकादमी’ परिसर में ही सामान्य सभा की बैठक की अध्यक्षता करते हुए 24 अगस्त, 1968 में हुआ।

राधाकमल मुकर्जी व्याख्यान[संपादित करें]

‘ललित कला अकादमी’ के द्वितीय अध्यक्ष डॉ. राधाकमल मुखर्जी का योगदान अकादमी के लिये अविस्मरणीय है। राधाकमल मुखर्जी का देहावसान अकादमी परिसर में ही सामान्य सभा की बैठक की अध्यक्षता करते हुए हुआ था। ऐसे महान् पुरुष की स्मृति में वर्ष 1970 से प्रतिवर्ष ‘डॉ. राधाकमल मुखर्जी व्याख्यानमाला’ का आयोजन किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत देश के ख्याति प्राप्त कलाकार, इतिहासकार तथा कला समीक्षकों को आमंत्रित किया जाता है।