श्रेणी वार्ता:हिन्दी साहित्यकार

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अवनीश सिंह चौहान

४ जून १९७९ को इटावा (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव चंदपुरा में जन्मे सहज एवं सहयोगी प्रवृत्ति के अवनीश सिंह चौहान पेशे से अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं ।आपके नवगीत, आलेख, समीक्षाएँ, साक्षात्कार, कहानियाँ, कविताएँ आदि देश-विदेश की अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। साप्ताहिक पत्र ‘प्रेस मेन’, भोपाल, म०प्र० के ‘युवा गीतकार अंक’ (३० मई, २००९) तथा ‘मुरादाबाद जनपद के प्रतिनिधि रचनाकार’ (२०१०) में आपके गीत संकलित किये गए हैं। आपने एक दर्जन हिंदी एवं अँग्रेजी पुस्तकों का लेखन, सह लेखन एवं संपादन किया है। अंग्रेजी नाटककार विलियम शेक्सपियर द्वारा विरचित दुखान्त नाटक ‘किंग लियर’ का आपने हिन्दी अनुवाद किया है। आयरलेंड की कवयित्री मेरी शाइन द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह 'ए स्ट्रिंग ऑफ वर्ड्स' में भी आपकी रचनाएँ संकलित की गईं हैं। आपका एक नवगीत संग्रह, एक कहानी संग्रह तथा एक गीत, कविता और कहानी से संदर्भित समीक्षकीय आलेखों का संग्रह प्रकाशनाधीन है। प्रख्यात गीतकार, आलोचक, संपादक श्री दिनेश सिंहजी (रायबरेली, उ०प्र०) की चर्चित एवं स्थापित कविता-पत्रिका ‘नये-पुराने’ (अनियतकालिक) के कार्यकारी संपादक पद पर अवैतनिक कार्यरत हैं। आप वेब पत्रिका ‘गीत-पहल’ के समन्वयक एवं सम्पादक तथा वेब पत्रिका 'ख़बर इण्डिया' के साहित्य संपादक हैं। आपके साहित्यिक अवदान के परिप्रेक्ष्य में आपको 'ब्रजेश शुक्ल स्मृति साहित्य साधक सम्मान' (वर्ष २००९ ), 'हिंदी साहित्य मर्मज्ञ सम्मान' (वर्ष २०१०) तथा 'प्रथम पुरुष सम्मान' (उत्तरायण, लखनऊ -२०१०) से अलंकृत किया जा चुका है।

क़लमकार की पीड़ा[संपादित करें]

"वर्षों पहले मैं मेटाबोलिक अस्थि रोग की चपेट में आ गया, जिससे सामान्य व्यक्तिकी तरह चलने-फिरने, उठने-बैठने में असमर्थ हो गया। मेरी हड्डियों में छोटे-छोटे फ्रेक्चर हैं। लेकन दिमाग़ मेरा साथ दे रहा है। मेरी स्मृतियाँ सजग हैं। मैं अभी कुछ और उपन्यास तथा कहानियाँ लिखना चाहता हूँ। मैं फिर कहता हूँ कि यह किसी के विरुद्ध नहीं, बल्कि व्यवस्था का रूप है, जिसमें मेरे जैसा हिन्दी का लेखक फँसकर निरूपाय अवस्था में आ गया है। मेरे सामने यह समस्या है कि कैसे स्वाभिमान की ज़िंदगी बिताकर अपनी समस्याएँ हल कर सकूँ।"- अमरकांत [clip_image001[3].gif]

उक्त पँक्तियाँ वरिष्ठ कथाकार अमरकांत जी की उस पीड़ा भरी पाती से ली गयी हैं जिसमें इस अस्वस्थ एवं घोर आर्थिक संकट से गुज़र रहे क़लमकार की कारुणिक स्थिति उजागर होती है, जिससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपने समय का यह महान कथाकार विषम स्थितियों में बुरी तरह से फँसा होने के बावजूद भी सामाजिक ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिए संकल्परत है और चाहता हे कि उसका शेष जीवन भी स्वाभिमान एवं सम्मान से साहित्य सेवा करते ही बीते। वर्तमान समय की जटिलता एवं वीभत्सता से जूझते हुए अमरकांत जी द्वारा अभी और लिखने-पढ़ने की बात करना उनके अटूट साहित्य प्रेम एवं सामाजिक सरोकारों को व्यंजित करने की प्रबल इच्छा तो दर्शाता ही है, यह भी परिलक्षित होता है कि वह इस निरूपाय स्थिति में भी सकारात्मक सोच रखते हैं, जोकि असाधारण बात है। ऐसा साहस, ऐसी भावना उन्हें वर्तमान समय के महानायकों की पंगत में बड़े गर्व से बिठाने के लिए काफ़ी है। उनकी वैचारिकी प्रख्यात गीतकार एवं संपादक दिनेश सिंह जी के चिन्तन-मनन एवं सोच से काफ़ी मेल खाती है। दिनेश सिंह जी 'सरवाइकल प्रॉब्लम्स' के कारण लगभग तीन वर्ष पहले हाथ-पैर से ठीक से कोई काम नहीं कर पाते थे, यहाँ तक कि क़लम चला पाना भी उनके लिए संभव नहीं था। जबकि उनका मष्तिष्क पूरी तरह से काम कर रहा था। ऐसी दयनीय स्थिति में भी उन्होंने अपने सहायक (अवनीश सिंह चौहान) के सहयोग से नये-पुराने का ‘‘कैलाश गौतम स्मृति अंक‘‘ निकाला, जिसकी साहित्यिक समाज ने ख़ूब प्रसंशा की। आज तो उनका स्वास्थ्य पहले से भी ज़्यादा ख़राब है, न तो वह चल-फिर सकते हैं और ना ही बोल-बतिया सकते हैं। उनको भी उतना स्नेह एवं सहयोग नहीं मिल पा रहा है, जितना कि मिलना चाहिए था। फिर भी उनकी लिखने-पढ़ने की छटपटाहट को संग-साथ रहकर महसूस किया जा सकता है। गूगल सर्च इंजन से साभार

अमरकांत जी अपनी पाती में वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के कोढ़- भृष्टाचार एवं शोषण की बात खुलकर करते हैं, जिसका उनको सामना करना पड़ा अपनी असल ज़िंदगी में। इन विसंगतियों के मूल में जाने पर धन एवं वैभव पाने की आज के आदमी की तीव्र लालसा साफ़ झलकती है, जिसके चलते उसके लिए पैसा ही सब कुछ हो गया है। जबकि मानवीय आयमों के प्रति उसकी आस्था कम होती चली जा रही है। पैसे के अभाव में अच्छा काम करने वाला व्यक्ति भी जीते-जी पर्याप्त मान-सम्मान और स्नेह प्राप्त नहीं कर पाता है अपने समाज में। ऐसे में बुद्धिजीवी भले ही बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव एवं पैसे की खुदाई पर बहुत कुछ अच्छा लिखते-बोलते हों, उनके इन शाब्दिक प्रयासों से इस दिशा में बदलाव की कोई संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ती।

ऐसा इसलिए भी है कि अच्छी-अच्छी बातें करने वाले तो बहुत मिल जायेंगे, किन्तु उस पर अमल करने वाले कम ही हैं और जब इस अल्पसंख्यक समुदाय के लोग आदर्श जीवन जीने का प्रयत्न करते हैं, तो उन्हें कई बार ऐसी विडम्बनीय स्थितियों से गुज़रना पड़ जाता है, कि वे अन्दर तक टूट जाते हैं। उनके दुर्दिनों में विरला ही कोई उनके साथ दिखाई पड़ता है। तब यह बात बहुत मायने रखती है कि जहाँ एक सच्चा साहित्यकार दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझकर अपनी लेखनी से अपनी संवेदना व्यक्त करता है, वहीं उसकी स्वयं की विषम स्थिति में कोई उसके प्रति संवेदित क्यों नहीं होता? ऐसे मौक़ों पर अपना निजी स्वार्थ छोड़कर और आपसी भेदभाव तथा कटुता आदि को भुलाकर कम से कम बुद्धिजीवियों को एक मंच पर आना ही चाहिए और पीड़ित लेखक-साहित्यकार की समस्याओं का हल खोजने का दायित्व निभाना चाहिए और इन क़लमकारों के अच्छे साहित्य को 'प्रमोट' कर ऐसे प्रयास किये जाने चाहिए, जिससे उन्हें फटेहाली का जीवन जीने के लिए मजबूर न होना पड़े। साथ ही यह भी ध्यान देना होगा कि उनका किसी प्रकार का शोषण न होने पाए। इस हेतु उनके साहित्य के प्रकाशन एवं वितरण का काम ऐसे लोगों को सौंपा जाये, जो उनको उनका पूरा हक दिला सकें।

ऐसी साहित्य सेवी संस्थाएँ भी स्थापित की जा सकती है जो दानदाताओं से पैसा ओर अन्य संसाधन जुटाकर ज़रूरतमन्द रचनाकारों की मदद कर सके। मीडिया, सरकार, डॉक्टर्स एवं सुधी समाज-सेवाकों को भी इस ओर ध्यान देना होगा तभी ऐसे साहित्यकारों का कुछ भला हो सकता है और तभी पीड़ित-व्यथित क़लमकार की अपील का कोई माने निकल पायेगा। यहाँ यह भी विचारणीय हो जाता है कि क़लमकार के प्रति समाज का नजरिया कैसा है? समाज का एक बड़ा तबका इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विशेषकर चेनलों के वशीभूत होकर साहित्य के पठन-पाठन में अपनी रुचि खो चुका है, उसके लिए रचनाधर्मिता फ़ालतू का काम है। वहीं धनाढ्य वर्ग रचनाकार को पागल या बहुत फ़ुर्सत में है, समझकर उससे अपना पल्ला झाड़ लेता है। घर-परिवार के लोग उसे किसी काम का नहीं या किताबी-कीड़ा मान बैठते हैं। बौद्धिक वर्ग भी कई खेमों में बँटा हुआ है, सो वह जिस खेमे से नहीं जुड पाता, वही अपनी आत्ममुग्धता में उसकी आलोचना एवं निन्दा करने लगता है, उसकी रचनाधर्मिता पर चुप्पी साधकर उसकी उपेक्षा करने का प्रयत्न करता है या तीखी प्रतिक्रिया कर उसके साहित्यक को कमतर आंकने की बौद्धिक कवायद करता है।

प्रकाशन तथा व्यावसायी वर्ग को साहित्य से माथापच्ची करने की कहाँ फुर्सत! उसे तो इससे पैसा बनाना है और वह बना भी लेता है। लेखक की पीड़ा एवं परिश्रम की किसे परवाह वह चलता है तो चले, मरता है तो मरे, किसी को क्या लेना-देना। ऐसा ही अमरकांत जी के साथ देखा जा सकता है। केवल उनके साथ ही नहीं ऐस बहुत से क़लमकार हुए हैं और आज भी हैं, जिनका जीवन सामाजिक व्यवस्था में फंसकर दूभर हो गया। कबीर को ही लें, बादशाह सिकन्दर लोदी के आदेश पर उन्हें जानलेवा प्रताड़ना दी गई, सिर्फ़ इसलिए कि उन्होंने सच बोल दिया था। वहीं जायसी जी शेरशाह सूरी द्वारा अपमानित किये गये। कुंभनदास जी ने ‘संतन को कहाँ सीकरी सो काम‘ कहकर मुगल बादशाह की नाराज़गी मोल ले ली थी। जबकि मोहन राकेश को अपने पिता की अर्थी तब उठाने को मिली जब उन्होंने अपनी माँ का कंगन बेंचकर मकान मालिक को किराया चुका दिया। महाप्राण निरालाजी जीवन-भर दर-दर की ठोकरें खाते रहे, तो शैलेश मटियानी जी अपना साहित्य बेचकर और एक साहित्यिक पत्रिका निकालकर जैसे-तैसे अपनी रोज़ी-रोटी जुटाते थे। जबकि अमरकांत जी तथा दिनेश सिंह जी क़िश्तों में जीवन जी रहे हैं। इसकी तह में जाने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आख़िर इतने बड़े स्तर पर चिन्तन-मनन करने वाले अनुकरणीय व्यक्तिव अपने व्यक्तिगत जीवन में आर्थिक दृष्टिकोण से अगर सफल नहीं हो पाते तो कहीं न कहीं इसके पीछे उनके सिद्धांत हैं-स्वाभिमान है, सच्चाई है, किसी के सामने हाथ न फैलाने का दृढ़संकल्प भी। उनके जीवन में कितनी भी फटेहाली रहे, कितना ही कष्ट आये परन्तु ये लोग अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता नहीं कर पाते और समाज भी इनसे अपनी क़दमताल मिलाना मुनासिब नहीं समझता। इस दिशा में सोचने और उस पर अमल करने की विशेष आवश्यकता है।


लेखक: अवनीश सिंह चौहान ग्राम/पो.-चन्दपुरा (निहाल सिंह), जनपद-इटावा (उ.प्र.)-206127