श्रीहर्ष

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श्रीहर्ष 12वीं सदी के संस्कृत के प्रसिद्ध कवि तथा दार्शनिक थे। उनमें उच्चकोटि की काव्यात्मक प्रतिभा थी तथा वे अलंकृत शैली के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। वे शृंगार के कला पक्ष के कवि थे। महान कवि होने के साथ-साथ वे बड़े दार्शनिक भी थे। ‘खण्डन-खण्ड-खाद्य’ नामक ग्रन्थ में उन्होंने अद्वैत मत का प्रतिपादन किया। इसमें न्याय के सिद्धान्तों का भी खण्डन किया गया है।

वे बनारस एवं कन्नौज के गहड़वाल शासकों - विजयचन्द्र एवं जयचन्द्र की राजसभा को सुशोभित करते थे। उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘नैषधीयचरित्’ महाकाव्य उनकी कीर्ति का स्थायी स्मारक है। नैषधचरित में निषध देश के शासक नल तथा विदर्भ के शासक भीम की कन्या दमयन्ती के प्रणय सम्बन्धों तथा अन्ततोगत्वा उनके विवाह की कथा का काव्यात्मक वर्णन मिलता है।

परिचय[संपादित करें]

श्रीहर्ष, भारवि की परम्परा के कवि थे। उन्होंने अपनी रचना विद्वज्जनों के लिए की, न कि सामान्य मनुष्यों के लिए। इस बात की उन्हें तनिक भी चिन्ता नहीं थी कि सामान्य जन उनकी रचना का अनादर करेंगे। वह स्वयं स्वीकार करते हैं कि उन्होंने अपने काव्य में कई स्थानों पर गूढ़ तत्त्वों का समावेश कर दिया था, जिसे केवल पण्डितजन ही समझ सकते हैं। अत: पण्डितों की दृष्टि में तो उनका काव्य माघ तथा भारवि से भी बढ़कर है। किन्तु आधुनिक विद्वान इसे कृत्रिमता का भण्डार कहते हैं।

महाकवि श्रीहर्ष की माता का नाम मामल्ल देवली और पिता का 'हीरपंडित' था। गहड़वालवंशी काशी के राजा विजयचंद्र और उनके पुत्र राजा जयचंद्र (जयतचंद्र) - दोनों के वे राजसभापंडित थे। राजा कान्यकुब्जेश्वर कहे जाते थे, यद्यपि उनकी राजधानी बाद में चलकर काशी में हो गई थी। कान्यकुब्जराज द्वारा समादृत होने के कारण उन्हें राजसभा में दो बीड़े पान तथा आसन का सम्मान प्राप्त था। इन राजाओं का शासनकाल 1156 ई. से 1193 ई. तक माना गया है। अत: श्रीहर्ष भी बारहवीं शती के उत्तरार्ध में विद्यमान थे। किंवदंती के अनुसार 'चिन्तामणि' मंत्र की साधना द्वारा त्रिपुरा देवी के प्रसन्न होने से उन्हें वरदान मिला तथा वाणी, काव्यनिर्माणशक्ति एवं पांडित्य की अद्भुत क्षमता उन्हें प्राप्त हुई। यह भी कहा जाता है कि काव्यप्रकाशकार 'मम्मट' उनके मामा थे जिन्होंने 'नैषध महाकाव्य' में आ गए कुछ दोषों से श्रीहर्ष को परिचित कराया।

श्रीहर्ष केवल काव्यनिर्माण की विलक्षण प्रतिभा से ही संपन्न न थे अपितु वे उच्च कोटि के दर्शन-शास्त्र मर्मज्ञ भी थे। सुकुमार वस्तुमय साहित्यनिर्माण में उनकी वाणी का जैसा अबाधित विलास प्रगट होता है वैसी ही शक्ति प्रौढ़ तर्कों से पुष्ट, शास्त्रीय ग्रंथ के निर्माण में भी उन्हें प्राप्त थी। पंडित मंडली में प्रसिद्ध जनश्रुति के अनुसार तार्किकशिरोमणि उदयनाचार्य को भी उन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। नैयायिकों की तर्कमूलक पद्धति से न्याय के सिद्धांतों का खंडन करनेवाला श्रीहर्ष का 'खण्डनखण्डखाद्यम्' नामक ग्रंथ अद्वैत वेदान्त की अति प्रकृष्ठ और प्रौढ़ रचना मानी जाती है। इसके अतिरिक्त 'स्थैर्यविचारप्रकरण' और 'शिवशक्तिसिद्धि' नामक दो दार्शनिक ग्रंथों का श्रीहर्ष ने निर्माण किया था।

'विजय प्रशस्ति', 'गौडोवींशकुलप्रशस्ति' तथा 'छिंदप्रशस्ति' नामक तीन प्रशस्तिकाव्यों के तथा 'अर्णव वर्णन' और 'नवसाहसांकचरित' चंपू काव्यों के भी वे प्रणेता थे।

नैषधीयचरित्[संपादित करें]

श्रीहर्ष का 'नैषधीयचरित्‌' 'बृहत्त्रयी' में बृहत्तम महाकाव्य है। परम प्रौढ़ शास्त्रीय वैदुष्य से ओतप्रोत, कविप्रोढ़ोक्तिसिद्ध कल्पना से वैदग्ध्यपूर्ण और अलंकृत काव्यशैली के उत्कृष्टतम महाकाव्य के रूप में 'नैषधीय चरित्‌' का संस्कृत महाकाव्यों में अद्वितीय स्थान है। 'भारवि' के किरातार्जुनीयम् से आरंभ अलंकरणप्रधान सायास काव्यरचना शैली का चरमोत्कर्ष नैषधीयचरित्‌ (नैषधचरित्‌ या नैषध काव्य) में विकसित है। महाभारत के नलोपाख्यान से ली गयी इस महाकाव्य की कथावस्तु में नल और दमयंती के पूर्वराग, विरह, स्वयंवर, विवाह और नवदंपतिमिलन एवं संगमकेलियों का वर्णन हुआ है। प्रसंगत: अन्य मध्यागत विषय भी काव्यप्रबंध में गुंफित हैं। 22 सर्गोंवाले इस विशालकाय काव्य के अनेक सर्गों की श्लोकसंख्या 150 से भी अधिक है। परंतु इसका वर्ण्य कथानक काव्याकार के अनुपात में छोटा है। कथाविस्तार में सीमालघुता रहने पर अवांतर प्रसंगों में वर्णनविस्तृति के कारण ही इसका काव्यकलेवर बड़ा है।

चार सर्गों में नल का श्रोत्रानुराग, पूर्वरागजन्य विरह, हंसमिलन का दौत्य, दमयंतीविरह आदि मात्र वर्णित है। इंद्र, अग्नि, वरुण, यम इन चार देवां में से किसी को पतिरूप में वरण करने के लिए नल का दूत बनकर दमयंती के यहाँ जाना, उसे समझाना बुझाना और दूतकार्य में असफल होना - इतनी ही कथा का वर्णन 5 से 9 सर्ग तक दसवें सर्ग से सोलहवें सर्ग तक, सांगोपांग, दमयंती स्वयंवर, नलवरण और विवाहादि का विवरण दिया गया है। सत्रहवाँ सर्ग कलि और देवों के बीच संवाद है जिसमें नास्तिकवाद और उसका खंडन है। अठारहवें सर्ग में नवविवाहित दंपति का प्रथम समागम वर्णित है। शेष चार सर्गों में-राजा रानी की दिनचर्या, विलास विहार आदि के सरस विवरण प्रस्तुत किए गए हैं। इतनी स्वल्प कथावस्तु मात्र को लेकर इस खंडकाव्यदेशीय महाकाव्य की रचना हुई है।

इस काव्य का मुख्य वर्ण्यप्रवाह शृंगार रस है। विविध उपधाराओं और अवांतर तरंगभगों के साथ वही रसधारा आद्यंत प्रवहमान है, चाहे स्थान स्थान पर उसकी गति कितनी ही मंद क्यों न हो। दंडी आदि काव्यशास्त्रियों के महाकाव्य-लक्षणानुसार ही प्राय: अधिकांश वर्ण्यविषय गुंफित हैं। तेरहवें सर्ग में श्लिष्ट काव्य उत्कर्ष के चरमबिंदु पर पहुँचा है जहाँ प्राय: सर्ग भर में श्लिष्टार्थपरक पद्यों द्वारा एक साथ ही इंद्र, अग्नि, वरुण, यम और नल का प्रशस्तिगान किया गया है। अलंकृत और चमत्कारचित्रित काव्यरचना शैली से बोझिल होने पर भी 'नैषध' में अद्भुत काव्यात्मक प्रौढ़ता और आकर्षण है। भंगिमावैविध्य के साथ वर्णन की अनेकचित्रता, कल्पना की चित्रविचित्र उड़ान, प्रकृतिजगत्‌ का सजीव रूपचित्रण, भावों का समुचित निवेश, ललनारूप का अलंकृतरूढ़ पर प्रोढ़िरमणीय सौंदर्यवर्णन, अर्थगुंफन में नव्य अपूर्वता, संस्कृत भाषा के शब्दकोश पर असाधारण अधिकार, शास्त्रीय पक्षों की मार्मिक और प्रौढ़ संयोजना, अलंकारमूलक चमत्कारसर्जन की विलक्षण प्रतिभा, वैलासिक और उच्चवर्गीय कामकेलि एवं सुखविहार का मोहक चित्रण आदि में अपूर्व सामर्थ्य के कारण श्रीहर्ष कवि को संस्कृत-पंडितमंडली में जो प्रतिष्ठा मिली है वह अन्य को अप्राप्त है। पाँच अर्थोंवाले (पंचनली) (13वाँ सर्ग) से उनके नानार्थ शब्दप्रयोग की अद्भुत क्षमता सिद्ध है। प्रस्तुत अप्रस्तुत रूप में दार्शनिक और शास्त्रीय ज्ञान की प्रौढ़ता का प्रकाश सर्वत्र काव्य में बिखरा हुआ है।

वे अद्वैत वेदान्त ही नहीं तंत्र, योग, न्याय, मीमांसा आदि के भी प्रौढ़ मर्मज्ञ थे। पर दर्शन के ज्ञानकाठिन्य ने उनके कविहृदय की भावुकता के प्रवाहन में समय समय पर सहायता भी दी है। इन सबके साथ दृश्यजगत्‌ की स्वाभाविक सहज छवियों में भी उनका मन रमा रहा। प्रथम सर्ग में नल के सामने प्रकट हंस के जिन नैसर्गिक और पक्षिसंबद्ध रूपों, चेष्टाओं और व्यापारों का अंकन हुआ है - उनकी स्वभावोक्ति में प्रकृति के प्रति दृढ़ासक्ति लक्षित है। इन्हीं सब वैशिष्टों के कारण श्रीहर्ष को विलक्षण प्रतिभाशाली, शास्त्रमर्मज्ञ, अप्रस्तुत विधान में परम समर्थ और अलंकरण काव्यरचना में अतिनिपुण महाकवि कहा गया है। वाल्मीकि, कालिदास आदि के समान भावलोक के सहजांकन में विशेष अनुराग के न रहने पर भी अपने पांडित्य और कलापक्ष की निपुणता के कारण कवि के रूप में उनका अपना विशिष्ट महत्व और स्थान है। इसी कारण बृहत्त्रयी के कवियों में उन्हें उच्च प्रतिष्ठा मिली है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • हर्षवर्धन
  • बृहतत्रयी - बृहत्त्रयी के अंतर्गत संस्कृत के तीन महाकाव्य आते हैं - "किरातार्जुनीय" "शिशुपालवध" और "नैषधीयचरित"।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]