भाषाविज्ञान का इतिहास

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प्राचीन काल में भाषावैज्ञानिक अध्ययन मूलत: भाषा के सही व्याख्या करने की कोशिश के रूप में था। सबसे पहले चौथी शदी ईसा पूर्व में पाणिनि ने संस्कृत का व्याकरण लिखा।

संसार के प्रायः सभी देशों में भाषा-चिन्तन होता रहा है। भारत के अतिरिक्त चीन, यूनान, रोंम, फ्रांस, इंग्लैंड, अमरीका, रूस, चेकोस्लाविया, डेनमार्क आदि देशों में भाषाध्ययन के प्रति अत्यधिक सचेष्टता बरती गई है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से भाषाध्ययन के इतिहास को मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है :

(१) पौरस्त्य
(२) पाश्चात्य

पौरस्त्य अथवा भारतीय भाषा-चिन्तन[संपादित करें]

भारत में भाषाध्ययन की सुदीर्घ परम्परा रही है। यहाँ भाषा के सभी अंगों एवं तत्त्वो पर सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप से विचार किया गया है। संक्षेप में भारतीय भाषाशास्त्रीय चिन्तन को निम्नांकित रूपों में प्रस्तुत किया जा सकता है:

(अ) प्राचीन भाषा-चिन्तन

(आ) आधुनिक भाषाशास्त्रीय अध्ययन

प्राचीन भाषा-चिन्तन[संपादित करें]

भारत के प्राचीन भाषा-चिन्तन पर निम्नलिखित रूपों में विचार करना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है :

(क) पाणिनिपूर्व भाषा-चिन्तन

(ख) पाणिनि और पाणिनिकालीन भाषाशास्त्रीय चिन्तन

(ग) पाणिनि-पश्चात् भाषाध्ययन।

पाणिनिपूर्व भाषा-चिन्तन[संपादित करें]

प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में अनेक बार 'वाक्' के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। भाषाशास्त्र में वाक (स्पीच)-विवेचन एक अत्यंत जटिल विषय है। 'वाक्' वह मूल शक्ति है, जिसे हम सामाजिक सन्दर्भो के माध्यम से भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं। वेद में इसी वाक्-शक्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में सरस्वती का आह्वान किया गया है, जिसमें इस बात की कामना की गई है कि वे वाक्-शक्ति का पान कराकर विश्व को पुष्ट करें। अर्थात् मनुष्यों को सम्यरूपेण वाणी-प्रयोग के योग्य बनाए। 'उच्चारण भाषा का प्राणतत्त्व होता है', इसे सभी भाषाविज्ञानी स्वीकार करते हैं। वेद में शुद्ध उच्चारण को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। चूँकि वेद 'अपौरुषेय' है, इसलिए उसका समय निश्चित नहीं है।

वेदो के बाद ब्राह्मणग्रन्थों का समय आता है। ऐतरेय ब्राह्मण में भाषाविज्ञान के दो मुख्य विषयों - भाषा-वर्गीकरण एवं शब्द-अर्थ का विवेचन किया गया है। वेद-पाठ थोड़ा कठिन है। उसके अध्ययन को सरल बनाने के लिए पदपाठ की रचनाकर 'वेद-वाक्य' को पदों में विभक्त किया गया और इस क्रम में सन्धि, समास, स्वराघात जैसे विषयों का विश्लेषण भी हुआ। यह निश्चय ही भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन था। 'पदपाठ' के पश्चात् प्रातिशाख्यों एवं शिक्षाग्रन्थों का निर्माण कर ध्वनियों का वर्गीकरण, उच्चारण, स्वराघात, मात्रा आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाषावैज्ञानिक विषयों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया। विभिन्न संहिताओं के उच्चारण-भेदों को सुरक्षित रखने एवं ध्वनि की सूक्ष्मताओ का विवेचन करने में क्रमशः प्रातिशाख्यों और शिक्षाग्रन्थों का अपना विशिष्ट स्थान है।

प्रातिशाख्यों में ऋप्रातिशाख्य (शौनक), शुक्लयजुः प्रातिशाख्य (कात्यायन), मैत्रायणी प्रातिशाख्य आदि प्रमुख हैं और शिक्षाग्रन्थों (ध्वनिशास्त्रों) के निर्माताओं में याज्ञवल्क्य, व्यास, वसिष्ठ आदि विख्यात हैं। इसी क्रम में उपनिषदों की चर्चा भी अपेक्षित है - विशेषकर तैत्तिरीय उपनिषद् की। इसमें अक्षर, अथवा वर्ण, स्वर, मात्रा, बल आदि भाषीय तत्त्वों पर भी चिन्तन किया गया है।

वैदिक शब्दों का जो कोश तैयार किया गया, उसे 'निघंटु' की संज्ञा दी गई। इसका निर्माण-काल ८०० ई. पू. के आसपास माना जाता है। 'निघंटु' में संगृहीत वैदिक शब्दों का अर्थ-विवेचन किया गया 'निरुक्त' में। निरुक्तकार यास्क ने अर्थ के साथ-शाथ शब्द-भेद, शब्द-अर्थ का सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी विचार किया।

पाणिनि और पाणिनिकालीन भाषाशास्त्रीय चिन्तन[संपादित करें]

पाणिनि और उनकी अष्टाध्यायी

संसार के भाषाविज्ञानियों में पाणिनि (४५० ईपू) का स्थान सर्वोपरि है। न केवल पौरस्त्य विद्वानों ने, अपितु पाश्चात्य विद्वानों ने भी पाणिनि की श्रेष्टता मुक्तकण्ठ से स्वीकार कर ली है। ईसा के लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व ऐसा विलक्ष्ण भाषाविज्ञानी उत्पन्न हुआ था, यह प्रसंग विश्व को प्रेरित करने के साथ ही चकित करने वाला भी रहा है।

पाणिनि का अप्रतिम भाषावैज्ञानिक ग्रन्थ, आठ अध्यायों में विभक्त रहने के कारण, अष्टाध्यायी कहलाता है। आठों अध्यायों में चार-चार पाद हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ सूत्र रूप में रचित है और कुल सूत्रों की संख्या लगभग चार सहस्र (३९९७) है। प्रसिद्ध चौदह माहेश्वर सूत्र ही अष्टाध्यायी के मूलाधार माने गए हैं। अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में संज्ञा (सुबन्त), क्रिया (तिङन्त), समास, कारक, सन्धि, कृत् और तद्धित प्रत्यय, स्वर-ध्वनि-विकार और पद का विवेचन किया गया है। परिशिष्ट में गणपाठ एवं धातुपाठ देकर ग्रन्थ की उपादेयता और बढ़ा दी गई है।

'अष्टाध्यायी'की प्रमुख विशेषताएँ हैं :

  • (१) वाक्य को भाषा की मूल इकाई मानना।
  • (२) ध्वनि-उत्पादन-प्रक्रिया का वर्णन एवं ध्वनियों का वर्गीकरण।
  • (३) सुबन्त एवं तिङन्त के रूप में सरल और सटीक पद-विभाग।
  • (४) व्युत्पत्ति - प्रकृति और प्रत्यय के आधार पर शब्दों का विवेचन।

पाणिनि के अन्य ग्रन्थ हैं - उणादिसूत्र, लिंगानुशासन और पाणिनीय शिक्षा। पाणिनिकालीन (कुछ विद्वानों के अनुसार उत्तरकालीन) में कात्यायन एवं पतंजलि विशेष उल्लेखनीय हैं। कात्यायन ने कार्तिक में पाणिनि के सूत्रों का विश्लेषण तो किया ही, अनेक दोषों की ओर भी संकेत किया। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से उन संकेतों का भी बड़ा महत्त्व है, क्योंकि समय-परिवर्त्तन तथा भाषा-विकास के साथ भाषा-सम्बन्धी नियमों में भी परिवर्त्तन की अपेक्षा हुआ करती है।

पतंजलि और उनका महाभाष्य

अबतक सम्पूर्ण संसार में महाभाष्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने का श्रेय केवल पतंजलि को है। पतंजलि (१५० ईपू) कात्यायन के समकालीन थे अथवा नहीं, यह अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है। परन्तु इतना निश्चित है कि महाभाष्य लिखने के मूल में कात्यनीय वार्तिको की प्रेरणा काम करती रही है। कारण यह कि महाभाष्य का अधिकांश भाग कात्यायन द्वारा उठायी गई शंकाओं के समाधान से सम्बद्ध हैं। पतंजलि का मुख्य उद्देश्य उन पाणिनीय सूत्रों को दोषमुक्त सिद्ध करने का रहा है, जो कात्यायन की दृष्टि में या तो दोषमुक्त थे अथवा बहुत उपादेय नहीं थे। इसके अतिरिक्त, उन्होने अष्टाध्यायी के कठिन सूत्रों का भाष्य भी प्रस्तुत किया है, जो अत्यन्त स्पष्ट और विस्तृत है। महाभाष्य में कुल १६८९ सूत्रों की व्याख्या की गई है। यद्यपि महाभाष्य का आधार अष्टाध्यायी ही रही है, तथापि इसमें पतंजलि ने जनभाषा का जैसा विस्तृत विवेचन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उनका भाषाविषयक अध्ययन तो गहन एवं व्यापक था ही, भाषा-विश्लेषण की क्षमता भी उनमें विलक्षण थी। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों प्रकार की भाषाओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भाषा को एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। भाषा-चिन्तन के क्षेत्र में उनका यह विशिष्ट अवदान माना जाता है।

पाणिनि, कात्यायन एवं पतंजलि को 'मुनित्रय' के रूप में सादर स्मरण किया जाता है। इन तीनों महान भाषाचिन्तको को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। ये तीनों भाषाशास्त्री विश्व-विश्रुत हो चुके हैं और जबतक भाषा-विश्लेषण होता रहेगा, उनका उल्लेख अपेक्षित समझा जाएगा

पाणिनि-पश्चात् का भाषाध्ययन[संपादित करें]

अष्टाध्यायी की टीका एवं उसकी मौलिक व्याख्या की दृष्टि से क्रमशः काशिका एवं कौमुदी ग्रन्थों का विशिष्ट महत्त्व है। कौमुदी ग्रन्थों में सिद्धान्तकौमुदी (भट्टोजिदीक्षित) एवं लघुकौमुदी प्रसिद्ध हैं।

मण्डन मिश्र प्रसिद्ध भाषाचिन्तक थे। इन्होंने 'स्फोटसिद्धि' नामक ग्रन्थ की रचना की। आप आदिगुरु शंकराचार्य के समकालीन थे। पर, कुछ लोग शंकराचार्य का समय ७८२-८२० ई. मानते हैं। ऐसा मानना उचित नहीं प्रतीत होता। मण्डन मिश्र ओर शंकराचार्य इससे पहले हुए थे।

भाषाविज्ञान को भर्तृहरि की देन : वाक्यपदीय का महत्त्व पाणिनि-पतंजलि-पश्चात् के भाषाशास्त्रियो में वाक्यपदीयकार भर्तृहरि (सातवीं शताब्दी) का स्थान अत्युच्च है। न केवल प्राचीन भाषाशास्त्र की दृष्टि से भर्तृहरि महान है, अपितु आधुनिक भाषाविज्ञानी भी उनके चिन्तन से अत्यधिक प्रभावित हैं। तीन काण्डो - ब्रह्मकाण्ड, वाक्यकाण्ड और पदकाण्ड में विभक्त वाक्यपदीय भाषाविज्ञान का एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है। अत्यन्त संक्षेप में इस ग्रंथ की विशेषताओ पर निम्नांकित रूपों में प्रकाश डाला जा सकता है :

  • (१) भाषा की इकाई वाक्य ही होता है, चाहे उसका अस्तित्व एक वर्ण के रूप में क्यों न हो।
  • (२) वाक्शक्ति विश्व-व्यवहार का सर्वप्रमुख आधार है।
  • (३) वाक्-प्रयोग एक मनोवैज्ञानिक क्रिया होता है, जिसमें वक्ता और श्रोता दोनों का होना आवश्यक है। ज्ञातव्य है कि गार्डीनर, जेस्पर्सन एवं चॉम्सकी प्रभृति अधिक चर्चित आधुनिक भाषाविज्ञानी भी इसका पूर्ण समर्थन करते हैं।
  • (४) हर वर्ण में उस के अतिरिक्त भी किंचित वर्णांश सम्मिलित रहता है। अमरीकी भाषाविज्ञान ने भी प्रयोग द्वारा इसे सिद्ध करने का सफल प्रयास किया है। भौतिक विज्ञान भी यही बतलाता है।
  • (५) ध्वनि उत्पादन, उच्चारण, ध्वनि-ग्रहण, स्फोट आदि का विस्तृत विवेचन भर्तृहरि ने किया है। भाषाविज्ञान के ये प्रमुख विषय हैं।
  • (६) भर्तृहरि अर्थग्रहण में लोक प्रसिद्ध को ही महत्त्व देते हैं। पतंजलि के बाद इन्होंने ही इस पर विशद रूप से विचार किया है।
  • (७) भर्तृहरि ने शिष्ट भाषा के साथ-साथ लोक भाषा के अध्ययन पर भी बहुत बल दिया है। यही प्रवृति आज सम्पूर्ण विश्व में दिखाई पड़ती है। इस प्रकार, भर्तृहरि के भाषा सिद्धांत अत्यन्त व्यापक अथच पूर्ण वैज्ञानिक हैं।


कौण्ड भट्ट एवं नागेश भट्ट

भर्तृहरि के बाद के भाषाचिन्तकों में कौण्डभट्ट (१५००ई) और नागेश भट्ट (१६७०ई) प्रमुख हैं। नागेश ने अपने 'शब्देन्दुशेखर', 'परिभाषेन्दुशेखर', 'स्फोटवाद' एवं 'वैयाकरण सिद्धांत-मंजूषा' ग्रन्थों का बड़ा ही सूक्ष्म विवेचन किया है।

प्राचीन एवं मध्यकाल में पाश्चात्य भाषाविज्ञान[संपादित करें]

भारत की तुलना में यूरोप में भाषाविषयक अध्ययन बहुत देर से प्रारंभ हुआ और उसमें वह पूर्णता और गंभीरता न थी जो भारतीय शिक्षाग्रंथों, प्रातिशाख्यों और पाणिनीय व्याकरण में थी। पश्चिमी दुनिया के लिये भाषाविषयक प्राचीनतम उल्लेख ओल्ड टेस्टामेंट (Old Testament) में बुक ऑफ़ जेनिसिस (Book of Genesis) के दूसरे अध्याय में पशुओं के नामकरण के संबंध में मिलता है।

यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस (पाँचवी शताब्दी ई0 पू0) ने मिस्र के राजा संमेतिकॉस (Psammetichos) द्वारा संसार की भाषा ज्ञात करने के लिये दो नवजात शिशुओं पर प्रयोग करने का उल्लेख किया है। यूनान में प्राचीनतम भाषावैज्ञानिक विवेचन प्लेटो (425-348 47 ई0 पू0) के संवाद में मिलता है, जो मुख्यतया ऊहापोहात्मक है।

अरस्तू (384-322, 21 ई0 पू0) पाश्चात्य भाषाविज्ञान के पिता कहे जाते हैं। उन्होंने भाषा की उतपत्ति और प्रकृति के संबंध में अपने गुरू प्लेटो से भिन्न विचार व्यक्त किए। उनके अनुसार भाषा समझौते (thesis) और परंपरा (Synthesis) का परिणाम है। उन्होंने भाषा को यादृच्छिक कहा है। अरस्तू का यह मत आज भी सर्वमान्य है। गाय को "गाय" इसलिये नहीं कहा जाता है कि इस शब्द से इस विशेष चौपाए जानवर का बोध होना अनिवार्य है, बल्कि इसलिये कहा जाता है कि कभी उक्त पशु का बोध कराने के लिये इस शब्द का यादृच्छिक प्रयोग कर लिया गया था, जिसे मान्यता मिल गई और जो परंपरा से चला आ रहा है उन्होंने शब्दों के तीन भेद "संज्ञा", "क्रिया", "निपात" किया।

यूनान में भाषा का अध्ययन केवल दार्शनिकों तक ही सीमित रहा। उन्होंने अपनी भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं में कोई रुचि नहीं दिखाई। सिकंदर की सेनाओं ने यूनान से लेकर भारत की उत्तरी सीमा तक के विस्तृत प्रदेश को पदाक्रांत किया, किंतु उनके विवरणों में उन प्रदेशों की बोलियों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। यूनान में भाषा विषयक कुछ उल्लेखनिय कार्य भी हुए।

  • अरिस्तार्कस (Aristarchus) ने होमर की कविता की भाषा का विश्लेषण किया।
  • अपोलोनिअस डिस्कोलस (Appollonios Dyskolos) ने ग्रीक वाक्यप्रक्रिया पर प्रकाश डाला।
  • डिओनिसओस थ्रैक्स (Dionysios Thrax) ने एक प्रभावशाली व्याकरण लिखा।

इसके साथ ही कुछ शब्दकोश ऐसे भी मिलते है जिनमें ग्रीक और लैटिन के अतिरिक्त एशिया माइनर में बोली जानेवाली भाषाओं के अनेक शब्दों का समावेश किया गया है। यूनानियों ने भाषा को तत्वमीमांसा की दृष्टि से परखा है। उनके द्वारा प्रस्तुत भाषाविश्लेषण को दार्शनिक व्याकरण की संज्ञा दी गई है। यूनानियों की तरह रोमणों ने भी व्याकरण और कोश बनाए।

  • वारो (116-27 ई0 पू0) ने 26 खंडों में लैटिन व्याकरण रचा।
  • प्रिस्किअन (512-60) ने 20 खंडो में लैटिन व्याकरण रचा।

मध्ययुग में ईसाई मिशनरियों को औरों की भाषाएँ सीखनी पड़ी। जनता को जनता की भाषा में उपदेश देना प्रचार के लिये अनिवार्य था। फलस्वरूप परभाषा सीखने की व्यावहारिक पद्धतियाँ निकलीं। मिशनरियों ने अनेक भाषाओं के व्याकरण तथा कोश बनाए। पर ग्रीक लैटिन व्याकरण के ढाँचों में रचे जाने के कारण ये अपूर्ण तथा अनुपयुक्त थे। उसी युग में सैनिकों और उपनिवेशों ने शासकीय वर्ग के लोगों ने स्थानीय भाषाओं का विश्लेषण शुरू किया। साथ ही व्यापार विस्तार के कारण अनेकानेक भाषाओं से यूरोपीयों का परिचय बढ़ा। 17वीं शताब्दी में (1647 ई) फ्रैंसिस लोडविक (Francis Lodwick) तथा रेवरेंड केव डेक (Rev. Cave Deck) जैसे विद्वानों ने "ए कॉमन राइटिंग" तथा "यूनिवर्सल कैरेक्टर" जैसे ग्रंथ लिखे थे, जिससे उनके 'स्वनविज्ञान' के ज्ञान का परिचय मिलता है। लोडविक ने एक आशुलिपि का आविष्कार किया था, जो अंग्रेजी और डच दोनो के लिये 1650 ई0 के लगभग व्यवहृत की गई थी। मध्यकाल में सभी ज्ञात भाषाओं के सर्वेक्षण का प्रयत्न हुआ। अतएव अनेक बहुभाषी कोश तथा बहुभाषी संग्रह निकले। 18वीं शताब्दी में पल्लास (P.S. Pallas) की विश्वभाषाओं की तुलनात्मक शब्दावली में 285 शब्द ऐसे हैं जो 272 भाषाओं में मिलते हैं। एडेलुंग (Adelung) की माइथ्रेडेटीज (Mithridates) में 500 भाषाओं में "ईश प्रार्थना" है।

इस प्रकार 18वीं शती के पूर्व भाषाविषयक प्रचुर सामग्री एकत्र हो चुकी थी। किंतु विश्लेषण तथा प्रस्तुतीकरण क पद्धतियाँ वही पुरानी थीं। इनमें सर्वप्रथम जर्मन विद्वान् लाइबनित्स (Leibnitz) ने परिष्कार किया। इन्होंने ही संभवत: सर्वप्रथम यह बताया कि "यूरेशियाई" भाषाओं का एक ही प्रागैतिहासिक उत्स है। इस प्रकार 18वीं शती में तुलात्मक ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की भूमिका बनी, जो 19वीं शती में जाकर विकसित हुई।

संक्षेप में, 19वीं शताब्दी से पूर्व यूरोपीय भाषाओं का जो अध्ययन किया गया, वह भाषावैज्ञानिक की अपेक्षा तार्किक अधिक, रूपात्मक (Formal) की अपेक्षा संकल्पनात्मक अधिक और वर्णनात्मक की अपेक्षा विध्यात्मा (Prescriptive) अधिक था।

19वीं शती (ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान)[संपादित करें]

उन्नीसवीं शती ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान का युग था| इसके प्रारंभ का श्रेय संस्कृत भाषा से पाश्चात्यों के परिचय को है। तुलनात्मक भाषा विज्ञान का सूत्रपात एक प्रकार से उस समय हुआ जब 2 फ़रवरी 1786 को सर विलियम जोंस ने कलकत्ते में यह घोषणा की कि संस्कृत भाषा की संरचना अद्भुत है, वह ग्रीक से अधिक पूर्ण, लैटिन से अधिक समृद्ध और दोनों से ही अधिक परिष्कृत है। फिर भी इसका दोनों से घनिष्ठ संबंध है। उन्होंने देखा कि संस्कृत की एक ओर ग्रीक और लैटिन तथा दूसरी और गॉथीक, केल्टी से इतनी अधिक समानता है कि निश्चय ही इन सब का एक ही स्रोत रहा होगा। यह पारिवारिक धारणा इस नए विज्ञान के मूल में है।

इस दिशा में पहला सुव्यवस्थित कार्य डेनमार्क वासी रास्क (1787-1832) का है। रास्क ने भाषाओं की समग्र संरचना की तुलना पर अधिक बल दिया और कहा कि केवल शब्दावली का साम्य आगत शब्दों के कारण भी हो सकता है। इन्होंने स्वनों के साम्य को भी पारिवारिक संबंध निर्धारण का महत्वपूर्ण अंग माना। इस धारणा को सुव्यवस्थित पुष्टि दी याकोव ग्रीम (1785-1863) ने, जिनके स्वन नियम भाषा विज्ञान में प्रसिद्ध हैं। इन स्वन नियमों में भारत-यूरोपीय भाषा से प्राग्जर्मनीय में, तदनंतर उच्चजर्मनीय में होनेवाले व्यवस्थित व्यंजन स्वन परिवर्तनों की व्याख्या है। इसी बीच संस्कृत के अधिकाधिक परिचय से पारिवारिक तुलना का क्रम अधिकाधिक गहरा होता गया। बॉप (1791-1867) ने संस्कृत, अवेस्ता ग्रीक, लैटिन, लिथुएनी, गॉथिक, जर्मन, प्राचीन स्लाव केल्टी और अल्बानी भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण प्रकाशित किया। रास्क और ग्रिम ने स्वन परिवर्तनों पर प्रकाश डाला, बॉप ने मुख्यत: रूपप्रक्रिया का आधार ग्रहण किया।

रास्क, ग्रिम और बॉप के पश्चात् मैक्समूलर (1823-1900) और श्लाइखर (1823-68) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मैक्सूमूलर की महत्वपूर्ण कृति "लेसंस इन दि सायंस ऑव लैंग्वेज" (1861) है। श्लाइखर ने भारत-यूरोपीय परिवार की भाषाओं का एक सुव्यवस्थित सर्वागीण तुलनात्मक व्याकरण प्रस्तुत किया| श्लाइखर ने तुलनात्मक भाषा विज्ञान के सैद्धांतिक पक्ष पर भी विशेष कार्य किया। इनके अनुसार यदि दो भाषाओं में समान परिवर्तन पाए जाते हैं, तो ये दोनों भाषाएँ किसी काल में एक साथ रही होंगी। इस प्रकार उन्होंने तुलनात्मक आधार पर आदिभाषा (Ursprache) की पुनर्रचना (Reconstruction) के लिये मार्ग प्रशस्त किया। पुनर्रचना के अतिरिक्त भाषाविज्ञान को इनकी एक और मुख्य देन भाषाओं का प्ररूपसूचक वर्गीकरण है। इन दिनों भाषाविज्ञान के क्षेत्र में आनेवाली अमेरिकी विद्वानों में हिवटनी (1827-1894) अग्रणी हैं। इन्होंने भाषा के विकास और भाषा के अध्ययन पर पुस्तकें लिखीं। 1876 में प्रकाशित इनक संस्कृत व्याकरण अपने क्षेत्र का अद्वितीय ग्रंथ है। श्लाइखर के तुरंत बाद फिक (1833-1916) ने 1868 में सर्वप्रथम भारत-यूरोपीय भाषाओं का तुलनात्मक शब्दकोश प्रकाशित किया, जिसमें आदि भाषा के पुनर्रचित रूप भी दिए गए थे।

कुछ समय बाद विद्वानों का ध्यान ग्रिम नियम की कुछ अंसगतियों पर गया। डेनमार्क वासी वार्नर ने 1875 में एक ऐसी असंगति को नियमबद्ध अपवाद के रूप में स्थापित किया। यह असंगति थी भारत-यूरोपीय प्, त्, क् का जर्मनीय में सघोष बन जाना। वार्नर ने ग्रीक और संस्कृत की तुलना से इसका अपवाद ढूँढ़ निकाला जो वार्नर नियम के नाम से प्रचलित है। ऐसे अपवादों की स्थापना से विद्वानों के एक संप्रदाय को उनके अपने विश्वासों में पुष्टि मिली। ये नव्य वैयाकरण (Jung grammatiker) कहलाते हैं। इनके मत से स्वन नियमों का कोई अपवाद नहीं होता। स्वन परिवर्तन आकस्मिक और अव्यवस्थित नहीं है, प्रत्युत नियत और सुव्यवस्थित हैं। असंगति इस कारण मिलती है कि हम उनकी प्रक्रिया को पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं, क्योकि भाषा के नमूनों की कमी है। कुछ असंगतियों के मूल में सादृश्य है, जिसकी पूर्वाचार्यो ने उपेक्षा की थी। इस प्रकार ये नव्य वैयाकरण बड़े व्यवस्थावादी थे।

ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान पर 20वीं सदी में भी कार्य हुआ है। भारत यूरोपीय परिवार पर ब्रुगमैन और डेलब्रुक एवं हर्मन हर्ट (Hermann Hirt) के तुलनात्मक व्याकरण महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। मेइए (Meillet) का भारत-यूरोपीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन की भूमिका नामक ग्रंथ सनातन महत्व का कहा जा सकता है। हिटाइट नामक प्राचीन भाषा का पता लगने के बाद भारत-यूरोपीय भाषा विज्ञान पर नये सिरे से कार्य प्रारंभ हुआ। भारत यूरोपीयेतर परिवारों पर ऐतिहासिक तुलनात्मक कार्य हो रहा है। ग्रीनबर्ग का अफ्रीकी भाषाओं का वर्गीकरण अनुकरणीय है। इसकी अधुनातन शाखा भाषा कालक्रम विज्ञान (Giotto chronology या Lixico statistics) है, जिसके अंतर्गत तुलनात्मक पद्धति से उस समय के निरूपण का प्रयास किया जाता है जब किसी भाषापरिवार के दो सदस्य पृथक् पृथक् हुए थे। अमरीकी मानव विज्ञानी मॉरिस स्वेडिश इस प्रक्रिया के जन्मदाता हैं। यह पद्धति रेडियो रसायन द्वारा ली गई है।

बीसवीं शती (वर्णनात्मक भाषाविज्ञान)[संपादित करें]

बीसवीं शती का भाषाविज्ञान मुख्यत: वर्णनात्मक अथवा संरचनात्मक भाषाविज्ञान कहा जा सकता है। इसे आधुनिक रूप देनेवालों में प्रमुख बॉदें (Baudouin de courtenay), हेनरी स्वीट और सोसुर (Saussure) हैं। स्विस भाषावैज्ञानिक सोसुर (1857-1913) द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों से भी पूर्व हंबोल्ट (Humboldt) ने प्रतिपादित किया था कि भाषाविशेष का अध्ययन किसी अन्य भाषा से तुलना किए बिना उसी भाषा के आंतरिक अवयवों के आधार पर होना चाहिए। सोसुर ने सर्वप्रथम भाषा की प्रवृति पर प्रकाश डालते हुए संकेतित (Signified) और संकेतन (Signifier) के संबंध को वस्तु न मानकर प्रकार्य माना और उसे भाषाई चिह्न (Linguistic Sign) से अभिहित किया। चिह्न यादृच्छिक है अर्थात ‘संकेतित’ का ‘संकेतक’ से कोई तर्कसंगत संबंध नहीं है। वृक्ष के लिये ‘पेड़’ कहने में कोई तर्क नहीं है; ‘प’, ‘ए’, ‘ड’, स्वनों में कुछ ऐसा नही है कि वह वृक्ष का ही संकेतक हो, यह केवल परंपरा के कारण है। इसके अतिरिक्त चिह्न का मूल्य भाषा में प्रयुक्त पूरी शब्दावली (अन्य सभी चिह्नों) के परिप्रेक्ष्य में होता है, अर्थात् उनके विरोध से होता है। भाषा का इन्हीं विरोधों की प्रकार्यता पर निर्भर रहना वर्णनात्मक भाषा विज्ञान का आधारस्तंभ है। इन (स्वनिम, रूपिम, अर्थिम आदि) की सत्ता विरोध के सिद्धांत पर ही आश्रित है।

सोसूर ने भाषा के दो प्रयोगों पैरोल (वाक) और लांग (भाषा) में भी भेद किया। प्रथम भाषा का जीवित रूप है, हमारा भाषणउच्चार पैरोल है। किंतु द्वितीय भावानयन (Abstraction) की प्रक्रिया से उद्भूत एक अमूर्त भावना है। आपकी हिंदी, हमारी हिंदी, सभी की हिंदी व्यक्तिगत स्तर पर उच्चारण, शब्दप्रयोगादि के भेद से भिन्न है: फिर भी हिंदी भाषा जैसी अमूर्त धारणा लांग है जो भावानयन प्रक्रिया का परिणाम है और जो इन अनेक वैयक्तिक भेदों से परे और सामान्यकृत हैं। यह साकालिक है (Synchronic) है।

सोसुर का महत्व संरचनत्मक भाषाविज्ञान में क्रांतिकारी माना जा सकता है। बाद में यूरोप के अनेक स्कूल कोपेनहेगेन, प्राहा (प्राग), लंदन तथा अमेरिका के भाषावैज्ञानिक संप्रदाय इनके कुछ मूल सिद्धांतो को लेकर विकसित हुए हैं।

प्राहा सम्प्रदाय (स्कूल)[संपादित करें]

यूरोप में सोसुर की प्रेरणा से विकसित एक संप्रदाय प्राह स्कूल के नाम से प्रसिद्ध है। इसके प्रवर्तक रूसी विद्वान त्रुबेजकोय (Trubetzkoy, 1890-1938) थे। बद में इसके मुख्य प्रचारक रोमन यॉकोबसन (1896-1982) बने। इस स्कूल की सिद्धांत प्रदर्शिका पुस्तक त्रबेजकोआ लिखित (Grundzige der Phonologie), स्वनप्रक्रिया के सिद्धांत (1936) है| इस स्कूल में स्वनप्रक्रिया (Phonology) पर विशेष बल दिया जाता है। इनके यहाँ यह शब्द एक विशेष विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसके अंतर्गत भाषण स्वनों के प्रकार्य का सर्वांगीण अध्ययन आ जाता है और इसी कारण ये लोग प्रकार्यवादी (Functionalists) कहलाते हैं। इस संप्रदाय की महत्ता भाषासंरचना की निर्धारक पद्धति में है जिसमें विचार किया जाता है कि स्वन इकाइयाँ विशिष्ट भाषा संबंधी व्यवस्थाओं में किस प्रकार संघटित होती है। यह पद्धति विरोध पर आश्रित है। स्वनात्मक अंतर जब अर्थात्मक अंतर को भी प्रकट करते हैं, विरोधात्मक अर्थात स्वनिमात्मक (Phonematic) माने जाते हैं। उदाहरण के लिये हिंदी 'काल' और 'गाल' शब्दों को लें। इनमें स्वनात्मक अंतर स्वनिमात्मक है। परिणामस्वरूप ‘क’ और ‘ग’ दो पृथक पृथक् स्वनिम हैं। यहाँ यह ध्यान देना चाहिए कि क और ग स्वत: स्वनिम नही है, ये स्वनिम केवल इस कारण हैं कि अर्थ के अनुसार ये विरोधात्मक हैं। स्वन स्वत: स्वनिम को निर्धारित नहीं करते| स्वनिमत्व की निर्धारक है इन स्वनों की विरोधात्मक प्रकार्यता। इस प्रकार, स्वनिम ‘क, ग’ (क, ग) स्वनों के समान वास्तविक नहीं है। ये केवल अमूर्त भाव या विरोधात्मक प्रकार्यों के योग हैं।

यह विरोध इस संप्रदाय में बड़े विस्तार के साथ वर्णित हुआ है। इसके अनेक प्रतिरूप युग्म, जैसे द्विपाश्र्विक, बहुपार्श्विक आनुपातिक, विलगति आदि परिभाषित किए गए हैं। निवैषम्यीकरण (Neutralization), आर्कीस्वनिम (Archiphoneme), सहसंबध (Correlation), आदि टेकनिकल शब्द इसी स्कूल के हैं। फ्रांस के आंद्रे मार्तिने (Andres Martinet) ने इस विरोध की महत्ता का ऐतिहासिक स्वनविकास में भी प्रयोग किया और कालक्रमिक स्वनप्रक्रिया की नींव डाली। कालक्रम से उत्पन्न अनेक स्वनपरिवर्तन भाषा की स्वनसंघटना में भी अंतर उपस्थित करते हैं। ये प्रकार्यात्मक परिवर्तन कहलाते हैं। ये प्रकार्यात्मक परिवर्तन भी व्यवस्था से आते हैं और सामंजस्य (harmony) अथवा लाघव (economy) की दिशा में होते हैं। इस प्रकार प्राहा स्कूल ऐतिहासिक विकासों की भी तर्कसंगत व्याख्या में सफल हुआ है।

कोपेनहेगेन सम्प्रदाय (स्कूल)[संपादित करें]

इन्हीं दिनों यूरोप में एक अन्य संप्रदाय चल निकला। यह ‘कोपेनहेगेन स्कूल’, ‘डेनिश स्कूल’, अथवा ‘ग्लासेमेटिक्स’ कै नाम से प्रसिद्ध है। इसके प्रर्वतक हेल्मस्लेव (Hjelmslev) (सन् 1899) हैं और इनकी सिद्धांत दर्शिका है Omkring Sprogteorienx Grundloeggelse, 1943 अंग्रेजी अनुवाद ह्विटफील्ड द्वारा Prolegomena to a Theory of Language, 1953। यह संप्रदाय अधिकतर सिद्धांतों के विवेचन में सीमित रहा। पर अभी इन सिद्धांतों का भाषाविशेष पर प्रयोग अत्यल्प मात्रा में हुआ है| इस संप्रदाय की महत्ता इसमें है कि यह शुद्ध रूपवादी है। भाषा को यह भी सोसुर की भाँति मूल्यों की व्यवस्था मानता है, किंतु भाषाविश्लेषण में भावेतर तत्वों का तथा भाषाविज्ञानेतर विज्ञानों का, जैसे भौतिकी, शरीरप्रक्रियाविज्ञान, समाजशास्त्र आदि का आश्रय नही लेना चाहता। विश्लेषण पद्धति शुद्ध भाषापरक होनी चाहिए स्वयं में समर्थ और स्वयं में पूर्ण। इस संप्रदाय में अभिव्यक्ति और आशय प्रत्येक के दो दो भेद किए गए रूप और सार भाषेतर तत्व है। रूप शुद्ध भाषापरक तत्व है जो सार तत्वों की संघटना व्यवस्था के रूप में है। इस प्रकार अभिव्यक्ति बनती है और अभिव्यक्ति के रूप में संरचना व्यवस्था, जैसे, स्वनिम, रूपिम आदि है। इसी प्रकार आशय के सार के अंतर्गत शब्दार्थ हैं और रूप में अर्थसंघटना है|

लंदन सम्प्रदाय (स्कूल)[संपादित करें]

हेनरी स्वीट इसके आधारस्तंभ कहे जा सकते है। इसका विशेष परिवर्धन लंदन विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान तथा स्वनविज्ञान के विद्वान प्रोफेसर फर्थ द्वारा हुआ है। यह स्कूल अर्थ को भी मान्यता देता है। इसके अनुसार भाषा एक सार्थक क्रिया है और अर्थप्रसंग के महत्व को भी स्वीकार किया गया है। इस स्कूल में ध्वन्यात्मक विवेचन के साथ ही साथ रागात्मक (prosodic) तत्वों की चर्चा होती है। रागात्मक विश्लेषण अमेरिकी स्वनिम वैज्ञानिक विश्लेषण से भिन्न है और इसका क्षेत्र कहीं अधिक विस्तृत है। रागात्मक विश्लेषण बहुव्यवस्थाजनित है, जब कि स्वनिम विज्ञान एकव्यवस्थाजनित है। फर्थ ने जिस रागात्मक स्वनप्रक्रिया का प्रवर्तन किया उसे आगे बढ़ानेवालों में मुख्य हें रॉबिंस, लायंस (Lyons), हेलिडे और डिक्शन। जहाँ तक स्वनविज्ञान का संबंध है, लंदन स्कूल के अंतर्गत स्वीट के बाद डेनियल जोन्स का कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

अमरीकी सम्प्रदाय (स्कूल)[संपादित करें]

यद्यपि ‘प्राहास्कूल’ और ‘कोपेनहेगन स्कूल’ जैसे शब्दों के वजन पर अमरीकी स्कूल नामकरण उचित नहीं होगा, क्योंकि यहाँ केवल एक पद्धति पर काम नहीं हुआ; फिर भी सुविधा के लिये अमेरिकी स्कूल कहा गया है।

अमरीका में संरचनात्मक भाषाविज्ञान के प्रवर्तकों में बोआज (1858-1942), सैपीर (1884-1939) तथा ब्लूमफील्ड (1887-1949) के नाम आते हैं। इनमें पहले दो मूलत: मानवविज्ञानी थे तथा भाषाविश्लेषण उनके लिये व्यावहारिक आवश्यकता थी। उन्होंने अमरीकी जंगली जातियों की भाषाओं के वर्णन का प्रयास किया है। ब्लूमफील्ड निस्संदेह ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान के अच्छे ज्ञाता थे और जर्मनीय भाषाओं पर उनका पूर्ण अधिकार था। ब्लूमफील्ड अमरीकी भाषाविज्ञान के प्रेरणास्त्रोत रहे हैं और आप की पुस्तक भाषा (लैंग्वेज) बड़े आदर के साथ पढ़ी-पढ़ाई जाती है।

ब्लूमफील्ड की महत्ता इसमें है कि इन्होंने भाषाविज्ञान को विज्ञान की कोटि में स्थापित किया और व्याकरण तथा भाषाई विवेचन को सही अर्थो में विज्ञान का रूप दिया। इनका आग्रह रहा है कि भाषा का विश्लेषण वर्गीकरण तथा प्रस्तुतीकरण वैज्ञानिक रीति से होना चाहिए। अर्थ का भाषाविश्लेषण से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। मनोविज्ञान दर्शन आदि का आश्रय नहीं लेना चाहिए, न अटकलें लगानी चाहिए और न शिथिल, अस्पष्ट शब्दावली में तथ्यों को प्रकट करना चाहिए। स्वन नियमों की अटूटता में इनका विश्वास था।

किंतु ब्लूमफील्ड ने विश्लेषण पद्धति पर कोई विशेष प्रकाश नहीं डाला। यह कमी उनकी अगली पीढ़ी के विद्वानों ने पूरी की। पाइक ने "स्वनिविज्ञान" में और नाइडा ने रूपप्रक्रिया (Morphology) में विश्लेषण पद्धति का विस्तार से विवेचन किया है। पाइक ने टैग्मेमिक पद्धति निकाली जो कि रूपप्रक्रिया और वाक्यप्रक्रिया दोनों में एक समान प्रयुक्त होने से स्पृहणीय हो गई है। इस पद्धति पर अनेकानेक भाषाओं के विश्लेषण और विवरण प्रस्तुत किए गए हैं और सर्वत्र यह सफल रही है। इन्हीं के समकालीन जैलिग हैरिस (Zellig Harris) ने भी संरचनात्मक पद्धति पर अपनी पुस्तक लिखी। इसी समय वेल्स ने अव्यवहित अवयव (Ic. Immediate constituent) की पद्धति से वाक्यों का विश्लेषण करना शुरू किया, जिसे अनेक भाषाविदों ने अपनाया। फिर हैरिस के शिष्य चौमस्की (Chomsky) ने एक नितांत गणितीय एवं तर्कसंगत पद्धति निकाली। यह है रूपांतरण-जनन (ट्रांसफॉर्मेशन जैनरेटिव) पद्धति| यह अधुनातन पद्धति है और भाषावैज्ञानिकों को सर्वाधिक प्रिय हो चली है। अब हैरिस ने अव्यवहित अवयव पद्धति और रूपांतरण विश्लेषण पद्धति की कमियों को देखते हुए सूत्र अवयव (S. C-String constituent) का सिद्धांत प्रस्तुत् किया है| यह विश्लेषण पद्धति और रूपांतरण पद्धति के बीच का रास्ता है। यह प्रत्येक वाक्य में से एक ‘मौलिक वाक्य’ (elementary sentence) पृथक कर देती है| अव्यवहित अवयव विश्लेषण पद्धति में इस तरह ‘मौलिक वाक्य’ का पृथक्करण नहीं होता जब कि रूपांतरण विश्लेषण पद्धति में पूरे वाक्य को अलग अलग ‘मौलिक वाक्यों’ और उनके ‘अनुलग्नक शब्दों’ (Adjuncts) में पृथक कर दिया जाता है।

स्वनिमिक, रूपिमिक और वाक्य स्तर पर भाषा का विश्लेषण प्रस्तुत करने का महत्वपूर्ण कार्य जितना पुस्तकें लिखकर किया गया है, उससे कहीं अधिक भाषाविज्ञान से संबंधित अमरीकी पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से हुआ है। इनके लेखकों में से कुछ हैं : ब्लॉक, हैरिस, हॉकेट, स्मिथ, ट्रेगर, वेल्स आदि।

भारतीय भाषावैज्ञानिक[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]