राग-रागिनी पद्धति

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

रागों के वर्गीकरण की यह परंपरागत पद्धति है। 19वीं सदी तक रागों का वर्गीकरण इसी पद्धति के अनुसार किया जाता था। हर एक राग का परिवार होता था। सब छः राग ही मानते थे, पर अनेक मतों के अनुसार उनके नामों में अन्तर होता था। इस पद्धति को मानने वालों के चार मत थे।

शिव मत[संपादित करें]

इसके अनुसार छः राग माने जाते थे।

कल्लिनाथ मत[संपादित करें]

इसके अनुसार भी छः राग माने जाते थे। प्रत्येक राग की छः-छः रागिनियाँ तथा आठ पुत्र माने जाते थे। इस मत के अनुसार भी वही छः राग माने गए हैं जो ?शिव मत" के हैं, पर रागिनियाँ व पुत्र-रागों में अन्तर है।

भरत मत[संपादित करें]

इस मत के अनुसार भी छः राग ही माने जाते थे। प्रत्येक की पाँच-पाँच रागिनियाँ आठ पुत्र-राग तथा आठ वधू मानी जाती थीं। इस मत में मान्य छः राग निम्नलिखित हैं-

1. राग भैरव, 2. राग मालकोश, 3. राग मेघ,

4. राग दीपक, 5. राग श्री, 6. राग हिंडोल

हनुमान मत[संपादित करें]

इस मत के अनुसार भी वही छः राग माने जाते थे जो ?भरत मत" के हैं, परन्तु इनकी रागिनियाँ पुत्र-रागों तथा पुत्र-वधुओं में अन्तर है।


ये चारों पद्धति बहुत समय तक चलती रही। 1813ई. में इसकी आलोचना होने लगी और आगे चलकर पं॰ भातखंडे जी ने थाट राग पद्धति का प्रचार व प्रसार किया।

सन्दर्भ[संपादित करें]

संगीत श्री- एन। सी। इ। आर। टी।