वार्ता:काव्यप्रकाश

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काव्यप्रकाश[संपादित करें]

उपरोक्त विषय के लीये एक पुस्तक का लिन्क नीचे दिया गया है। http://www.jainlibrary.org/jlib/Kavyaprakash_Khandan.pdf

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Vkvora2001 ०३:२१, ३१ जनवरी २००८ (UTC)

काव्यप्रकाश और काव्यप्रकाशखण्डनम्[संपादित करें]

कृपया स्पष्ट करें कि काव्यप्रकाश के बजाय कहीं काव्यप्रकाशखण्डनम के बारे में तो नहीं लिख दिया गया है? यह प्रश्न इसलिये उठ रहा है क्योंकि मुझे तो काव्यप्रकाश में कहीं भी दस अध्याय या उच्छ्वास नहीं दीख रहे हैं। दस उच्छ्वास , काव्यप्रकाशखण्डनम में अवश्य दिख रहे हैं।

अनुनाद सिंह ०५:२६, ३१ जनवरी २००८ (UTC)

मैने यहाँ जो लिखा है वह काव्य प्रकाश के विषय में ही लिखा है। लिंक की गई पीडीएफ फाइल मैने देखी है। उसमें काव्य प्रकाश खंडन नाम से जो ग्रंथ दिया गया है उसमें लिखे हुए श्लोकों को पढ़ने के बाद यह पता लगा कि यह मूल काव्य प्रकाश पर लिखी गई महोपाध्याय खुशफहम सिद्धचंद्र गणि नामक किसी विद्वान की टीका है। अगर आप पीडीएफ फाइल को ध्यान से देखें तो किंचित प्रस्ताविक के ३ पृष्ठों में से दूसरे पृष्ठ पर इस बात को स्पष्ट लिखा भी गया है। संस्कृत के शास्त्रों में यह एक परंपरा है कि किसी प्रसिद्ध ग्रंथ पर अनेक विद्वान अपने अपने व्याख्याग्रंथ लिखते हैं। काव्य प्रकाश पर अनकों ऐसे ग्रंथ लिखे गए हैं। काव्य प्रकाश का रचनाकाल १० और ११वीं विक्रमी शती के बीच का माना जाता है। महोपाध्याय खुशफहम सिद्धचंद्र गणि नाम से प्रतीत होता है कि इनके समय तक भारत में विदेशी प्रभाव आ चुका था। अतः यह टीका मुस्लिम आक्रमण के बाद की हो सकती है। टीका में जैसा कि आप जानते होंगे मूल पहले लिखा जाता है (जो अधिकतर श्लोकों में हैं बहुत ही कम गद्य में है।) और उसके बाद गद्य (या यदाकदा पद्य में भी) टीकाकार अपनी टिप्पणी देता है। इसलिए टीका ग्रंथों में भी उतने ही अध्याय होते हैं जितने मूल ग्रंथ में। भूमिका टिप्पणी और संदर्भ अलग से होते हैं। टीकाग्रंथ मूलग्रंथ को समझने में सहायता करते हैं। काव्य प्रकाश संस्कृत साहित्य का अध्ययन करने वालों को पढ़ना और समझना आज भी ज़रूरी है। इसलिए शायद ही कोई ऐसा विश्वविद्यालय होगा जहाँ काव्य प्रकाश संस्कृत की लौकिक साहित्य के पाठ्यक्रम में न हो। (वैदिक संस्कृत साहित्य, अभिलेख या दर्शन में एम ए करने वाले संस्कृत के विद्यार्थियों के लिए यह ज़रूरी नहीं है) इस कारण यह ग्रंथ आसानी से हर जगह उपलब्ध है। इस समय भी मेरे पास १९६० में प्रकाशित इसकी एक प्रति है। इसलिए काव्य प्रकाश के संबंध में कोई संदेह जैसी बात नहीं है। --पूर्णिमा वर्मन ०९:२४, १ फरवरी २००८ (UTC)
और हाँ यहाँ तो सब उल्लास ही उल्लास है, इसको उच्छवास बना देना ठीक नहीं :)--पूर्णिमा वर्मन ११:२१, १ फरवरी २००८ (UTC)