बढ़ई

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बढ़ई
काष्ठकारी से सम्बन्धित औजार

बढ़ई संस्कृत के वर्धकि शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ होता है काष्ठकार(Carpenter) ये वास्तु शास्त्र के चार वास्तुकारों(Architect) मे से एक हैं।

उत्पत्ति[संपादित करें]

स्कंदपुराण के नागर खंड में एवं श्री विश्वकर्मा पुराण में काष्ठकार का वर्णन मिलता हैं जो भगवान विश्वकर्मा के पांचों संतानों मनु, मय,त्वष्ठा,शिल्पी और देवज्ञ में से महर्षि मय के अनुयायी/ वंशज ही काष्ठकार समुदाय(वर्तमान में जांगिड़(खाती)/बढ़ई/सुथार) से संबंधित हैं।[1]

परिचय[संपादित करें]

वास्तु शास्त्र को स्थापत्य वेद भी कहा जाता है यह अथर्ववेद की शाखा है। वास्तु शास्त्र के पंडित व वास्तुकारों को मुख्यतः चार उपाधियों से जाना जाता है - स्थपति, सूत्रग्राहिन् (सूत्रधार), वर्धकी और तक्षक । इनकी पौराणिक उत्पत्ति सर्वोच्च रचना के देवता ब्रह्मा से मानी जाती है।[2] [3] वर्तमान में ये विशेषतः काष्ठकारी के काम से जाने जाते हैं।

वैदिक काष्ठकार के कर्म - यज्ञ वेदी बनाना, अरणी मंथन व यज्ञ पात्र बनाना, मंदिरो को बनाना, मंदिरो में मूर्ति बनाना व चित्रकारी करना हैं। ये प्राचीन काल से ही समाज के प्रमुख अंग रहे है। घर व मंदिरो की आवश्यक लकड़ी की वस्तुएँ वर्धकि द्वारा बनाई जाती हैं।

इनके ईस्ट देव परब्रह्मा विश्वकर्मा है। ये ज्ञान और कर्म को श्रेष्ठ मानते है। प्राचीन काल में उड़न खटोला, पुष्पक विमान, उड़नेवाला घोड़ा, बाण, यान तथा तरकस और विभिन्न प्रकार के रथ इत्यादि का विवरण मिलता है जिससे पता चलता है कि काष्ठ के कार्य करनेवाले अत्यंत निपुण थे।

पटना के निकट बुलंदी बाग में मौर्य काल के बने खंभे और दरवाजे अच्छी हालत में मिले है, जिनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में काष्ठ शुष्कन तथा काष्ठ परिरक्षण निपुणता से किया जाता था।


इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "Online Hindu Spiritual Books,Hinduism Holy Books,Hindu Religious Books,Bhagwat Gita Books India". web.archive.org. 2010-06-25. मूल से पुरालेखित 25 जून 2010. अभिगमन तिथि 2024-02-26.सीएस1 रखरखाव: BOT: original-url status unknown (link)
  2. Acharya, Prasanna Kumar. (1922). "The Training of Architects in Ancient India".
  3. Vibhuti Chakrabarti (1998). Indian Architectural Theory and Practice: Contemporary Uses of Vastu Vidya. Routledge. पपृ॰ 1–4. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-136-77882-7.