जगदीश चन्द्र बसु

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जगदीश चन्द्र बोस
[[Image:J.C.Bose.JPG|225px|alt=|लन्दन के रॉय
जगदीश चन्द्र बसु
[[Image:J.C.Bose.JPG|225px|alt=|लन्दन के रॉयल इंस्टीट्यूशन में (१८९७ ई)]]
लन्दन के रॉयल इंस्टीट्यूशन में (१८९७ ई)
जन्म 30 नवम्बर 1858
मेमनसिंह, पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश), ब्रिटिश भारत
मृत्यु गिरिडीह, बंगाल प्रेसिडेंसी, ब्रिटिश भारत
आवास अविभाजित भारत
राष्ट्रीयता ब्रिटिश भारतीय
क्षेत्र भौतिकी, जीवभौतिकी [जीवविज्ञान], वनस्पतिविज्ञान, पुरातत्व, बांग्ला साहित्य, बांग्ला विज्ञानकथाएँ
संस्थान प्रेसिडेंसी कालेज, कोलकाता
शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय
क्राइस्ट महाविद्यालय, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय
लंदन विश्वविद्यालय
डॉक्टरी सलाहकार जॉन स्ट्रट (लॉर्ड रेले)
प्रसिद्धि मिलिमीटर तरंगें
रेडियो
क्रेस्कोग्राफ़

डॉ॰ (सर) जगदीश चन्द्र बसु (बंगाली: জগদীশ চন্দ্র বসু जॉगोदीश चॉन्द्रो बोशु) (30 नवंबर 185823 नवंबर, 1937) भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे जिन्हें भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान तथा पुरातत्व का गहरा ज्ञान था।[1] वे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर कार्य किया। वनस्पति विज्ञान में उन्होनें कई महत्त्वपूर्ण खोजें की। साथ ही वे भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे।[2] वे भारत के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक अमरीकन पेटेंट प्राप्त किया। उन्हें रेडियो विज्ञान का पिता माना जाता है।[3] वे विज्ञानकथाएँ भी लिखते थे और उन्हें बंगाली विज्ञानकथा-साहित्य का पिता भी माना जाता है।उन्होंने अपने काम के लिए कभी नोबेल नहीं जीता। इनके स्थान पर 1909 में मारकोनी को नोबेल पुरस्कार दे दिया गया।[4]

ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रांत में जन्मे बसु ने सेन्ट ज़ैवियर महाविद्यालय, कलकत्ता से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। ये फिर लंदन विश्वविद्यालय में चिकित्सा की शिक्षा लेने गए, लेकिन स्वास्थ्य की समस्याओं के चलते इन्हें यह शिक्षा बीच में ही छोड़ कर भारत वापिस आना पड़ा। इन्होंने फिर प्रेसिडेंसी महाविद्यालय में भौतिकी के प्राध्यापक का पद संभाला और बहुत से महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रयोग किये। इन्होंने बेतार के संकेत भेजने में असाधारण प्रगति की और सबसे पहले रेडियो संदेशों को पकड़ने के लिए अर्धचालकों का प्रयोग करना शुरु किया। लेकिन अपनी खोजों से व्यावसायिक लाभ उठाने की जगह इन्होंने इन्हें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर दिया ताकि अन्य शोधकर्त्ता इनपर आगे काम कर सकें। इसके बाद इन्होंने वनस्पति जीवविद्या में अनेक खोजें की। इन्होंने एक यन्त्र क्रेस्कोग्राफ़ का आविष्कार किया और इससे विभिन्न उत्तेजकों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। इस तरह से इन्होंने सिद्ध किया कि वनस्पतियों और पशुओं के ऊतकों में काफी समानता है। ये पेटेंट प्रक्रिया के बहुत विरुद्ध थे और मित्रों के कहने पर ही इन्होंने एक पेटेंट के लिए आवेदन किया। हाल के वर्षों में आधुनिक विज्ञान को मिले इनके योगदानों को फिर मान्यता दी जा रही है।ल इंस्टीट्यूशन में (१८९७ ई)]]
लन्दन के रॉय
जगदीश चन्द्र बसु

लन्दन के रॉयल इंस्टीट्यूशन में (१८९७ ई)
जन्म 30 नवम्बर 1858
मेमनसिंह, पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश), ब्रिटिश भारत
मृत्यु गिरिडीह, बंगाल प्रेसिडेंसी, ब्रिटिश भारत
आवास अविभाजित भारत
राष्ट्रीयता ब्रिटिश भारतीय
क्षेत्र भौतिकी, जीवभौतिकी [जीवविज्ञान], वनस्पतिविज्ञान, पुरातत्व, बांग्ला साहित्य, बांग्ला विज्ञानकथाएँ
संस्थान प्रेसिडेंसी कालेज, कोलकाता
शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय
क्राइस्ट महाविद्यालय, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय
लंदन विश्वविद्यालय
डॉक्टरी सलाहकार जॉन स्ट्रट (लॉर्ड रेले)
प्रसिद्धि मिलिमीटर तरंगें
रेडियो
क्रेस्कोग्राफ़

डॉ॰ (सर) जगदीश चन्द्र बसु (बंगाली: জগদীশ চন্দ্র বসু जॉगोदीश चॉन्द्रो बोशु) (30 नवंबर 185823 नवंबर, 1937) भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे जिन्हें भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान तथा पुरातत्व का गहरा ज्ञान था।[1] वे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर कार्य किया। वनस्पति विज्ञान में उन्होनें कई महत्त्वपूर्ण खोजें की। साथ ही वे भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे।[2] वे भारत के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक अमरीकन पेटेंट प्राप्त किया। उन्हें रेडियो विज्ञान का पिता माना जाता है।[3] वे विज्ञानकथाएँ भी लिखते थे और उन्हें बंगाली विज्ञानकथा-साहित्य का पिता भी माना जाता है।उन्होंने अपने काम के लिए कभी नोबेल नहीं जीता। इनके स्थान पर 1909 में मारकोनी को नोबेल पुरस्कार दे दिया गया।[4]

ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रांत में जन्मे बसु ने सेन्ट ज़ैवियर महाविद्यालय, कलकत्ता से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। ये फिर लंदन विश्वविद्यालय में चिकित्सा की शिक्षा लेने गए, लेकिन स्वास्थ्य की समस्याओं के चलते इन्हें यह शिक्षा बीच में ही छोड़ कर भारत वापिस आना पड़ा। इन्होंने फिर प्रेसिडेंसी महाविद्यालय में भौतिकी के प्राध्यापक का पद संभाला और बहुत से महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रयोग किये। इन्होंने बेतार के संकेत भेजने में असाधारण प्रगति की और सबसे पहले रेडियो संदेशों को पकड़ने के लिए अर्धचालकों का प्रयोग करना शुरु किया। लेकिन अपनी खोजों से व्यावसायिक लाभ उठाने की जगह इन्होंने इन्हें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर दिया ताकि अन्य शोधकर्त्ता इनपर आगे काम कर सकें। इसके बाद इन्होंने वनस्पति जीवविद्या में अनेक खोजें की। इन्होंने एक यन्त्र क्रेस्कोग्राफ़ का आविष्कार किया और इससे विभिन्न उत्तेजकों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। इस तरह से इन्होंने सिद्ध किया कि वनस्पतियों और पशुओं के ऊतकों में काफी समानता है। ये पेटेंट प्रक्रिया के बहुत विरुद्ध थे और मित्रों के कहने पर ही इन्होंने एक पेटेंट के लिए आवेदन किया। हाल के वर्षों में आधुनिक विज्ञान को मिले इनके योगदानों को फिर मान्यता दी जा रही है।ल इंस्टीट्यूशन में (१८९७ ई)
जन्म 30 नवम्बर 1858
मेमनसिंह, पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश), ब्रिटिश भारत
मृत्यु गिरिडीह, बंगाल प्रेसिडेंसी, ब्रिटिश भारत
आवास अविभाजित भारत
राष्ट्रीयता ब्रिटिश भारतीय
क्षेत्र भौतिकी, जीवभौतिकी [जीवविज्ञान], वनस्पतिविज्ञान, पुरातत्व, बांग्ला साहित्य, बांग्ला विज्ञानकथाएँ
संस्थान प्रेसिडेंसी कालेज, कोलकाता
शिक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय
क्राइस्ट महाविद्यालय, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय
लंदन विश्वविद्यालय
डॉक्टरी सलाहकार जॉन स्ट्रट (लॉर्ड रेले)
प्रसिद्धि मिलिमीटर तरंगें
रेडियो
क्रेस्कोग्राफ़

डॉ॰ (सर) जगदीश चन्द्र बसु (बंगाली: জগদীশ চন্দ্র বসু जॉगोदीश चॉन्द्रो बोशु) (30 नवंबर 185823 नवंबर, 1937) भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे जिन्हें भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान तथा पुरातत्व का गहरा ज्ञान था।[5] वे पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर कार्य किया। वनस्पति विज्ञान में उन्होनें कई महत्त्वपूर्ण खोजें की। साथ ही वे भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे।[6] वे भारत के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक अमेरिकन पेटेंट प्राप्त किया। उन्हें रेडियो विज्ञान का पिता माना जाता है।[7] वे विज्ञानकथाएँ भी लिखते थे और उन्हें बंगाली विज्ञानकथा-साहित्य का पिता भी माना जाता है। उन्होंने अपने काम के लिए कभी नोबेल नहीं जीता। इनके स्थान पर 1909 में मारकोनी को नोबेल पुरस्कार दे दिया गया।[8]

ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रांत में जन्मे बसु ने सेन्ट ज़ैवियर महाविद्यालय, कलकत्ता से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। ये फिर लंदन विश्वविद्यालय में चिकित्सा की शिक्षा लेने गए, लेकिन स्वास्थ्य की समस्याओं के चलते इन्हें यह शिक्षा बीच में ही छोड़ कर भारत वापिस आना पड़ा। इन्होंने फिर प्रेसिडेंसी महाविद्यालय में भौतिकी के प्राध्यापक का पद संभाला और बहुत से महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रयोग किये। इन्होंने बेतार के संकेत भेजने में असाधारण प्रगति की और सबसे पहले रेडियो संदेशों को पकड़ने के लिए अर्धचालकों का प्रयोग करना शुरु किया। लेकिन अपनी खोजों से व्यावसायिक लाभ उठाने की जगह इन्होंने इन्हें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर दिया ताकि अन्य शोधकर्त्ता इनपर आगे काम कर सकें। इसके बाद इन्होंने वनस्पति जीवविद्या में अनेक खोजें की। इन्होंने एक यन्त्र क्रेस्कोग्राफ़ का आविष्कार किया और इससे विभिन्न उत्तेजकों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। इस तरह से इन्होंने सिद्ध किया कि वनस्पतियों और पशुओं के ऊतकों में काफी समानता है।

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा[संपादित करें]

बसु का जन्म 30 नवम्बर 1858 को बंगाल (अब बांग्लादेश) में ढाका जिले के फरीदपुर के मेमनसिंह में एक प्रख्यात बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता भगवान चन्द्र बसु ब्रह्म समाज के नेता थे और फरीदपुर, बर्धमान एवं अन्य जगहों पर उप-मैजिस्ट्रेट या सहायक कमिश्नर थे।[9][10] इनका परिवार रारीखाल गांव, बिक्रमपुर से आया था, जो आजकल बांग्लादेश के मुन्शीगंज जिले में है।[11] ग्यारह वर्ष की आयु तक इन्होने गांव के ही एक विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। बसु की शिक्षा एक बांग्ला विद्यालय में प्रारंभ हुई। उनके पिता मानते थे कि अंग्रेजी सीखने से पहले अपनी मातृभाषा अच्छे से आनी चाहिए। विक्रमपुर में १९१५ में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए बसु ने कहा- "उस समय पर बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेजना हैसियत की निशानी माना जाता था। मैं जिस बांग्ला विद्यालय में भेजा गया वहाँ पर मेरे दायीं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम परिचारक का बेटा बैठा करता था और मेरी बाईं ओर एक मछुआरे का बेटा। ये ही मेरे खेल के साथी भी थे। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलजीवों की कहानियों को मैं कान लगा कर सुनता था। शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क में प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।"[क][10] विद्यालयी शिक्षा के बाद वे कलकत्ता आ गये और सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश लिया। जगदीश चंद्र बोस की जीव विज्ञान में बहुत रुचि थी और 22 वर्ष की आयु में चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने के लिए लंदन चले गए। मगर स्वास्थ खराब रहने की वजह से इन्होने चिकित्सक (डॉक्टर) बनने का विचार त्यागकर कैम्ब्रिज के क्राइस्ट महाविद्यालय चले गये और वहाँ भौतिकी के एक विख्यात प्रो॰ फादर लाफोण्ट ने बोस को भौतिकशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया।

वर्ष 1885 में ये स्वदेश लौटे तथा भौतिकी के सहायक प्राध्यापक के रूप में प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाने लगे। यहां वह 1915 तक रहे। उस समय भारतीय शिक्षकों को अंग्रेज शिक्षकों की तुलना में एक तिहाई वेतन दिया जाता था। इसका जगदीश चंद्र बोस ने विरोध किया और बिना वेतन के तीन वर्षों तक काम करते रहे, जिसकी वजह से उनकी स्तिथि खराब हो गई और उन पर काफी कर्जा हो गया था। इस कर्ज को चुकाने के लिये उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन भी बेचनी पड़ी। चौथे वर्ष जगदीश चंद्र बोस की जीत हुई और उन्हें पूरा वेतन दिया गया। बोस एक अच्छे शिक्षक भी थे, जो कक्षा में पढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक प्रदर्शनों का उपयोग करते थे। बोस के ही कुछ छात्र जैसे सतेन्द्र नाथ बोस आगे चलकर प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री बने।

रेडियो की खोज[संपादित करें]

कोलकाता विश्वविद्यालय में अन्य वैज्ञानिकों के साथ जगदीश चन्द्र बसु

ब्रिटिश सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने गणितीय रूप से विविध तरंग दैर्ध्य की विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व की भविष्यवाणी की थी, पर उनकी भविष्यवाणी के सत्यापन से पहले 1879 में निधन उनका हो गया। ब्रिटिश भौतिकविद ओलिवर लॉज मैक्सवेल तरंगों के अस्तित्व का प्रदर्शन 1887-88 में तारों के साथ उन्हें प्रेषित करके किया। जर्मन भौतिकशास्त्री हेनरिक हर्ट्ज ने 1888 में मुक्त अंतरिक्ष में विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व को प्रयोग करके दिखाया। इसके बाद, लॉज ने हर्ट्ज का काम जारी रखा और जून 1894 में एक स्मरणीय व्याख्यान दिया (हर्ट्ज की मृत्यु के बाद) और उसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। लॉज के काम ने भारत के बोस सहित विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया।

बोस के माइक्रोवेव अनुसंधान का पहली उल्लेखनीय पहलू यह था कि उन्होंने तरंग दैर्ध्य को मिलीमीटर स्तर पर ला दिया (लगभग 5 मिमी तरंग दैर्ध्य)। वे प्रकाश के गुणों के अध्ययन के लिए लंबी तरंग दैर्ध्य की प्रकाश तरंगों के नुकसान को समझ गए।

1893 में, निकोला टेस्ला ने पहले सार्वजनिक रेडियो संचार का प्रदर्शन किया। एक साल बाद, कोलकाता में नवम्बर 1894 के एक (या 1895) सार्वजनिक प्रदर्शन दौरान, बोस ने एक मिलीमीटर रेंज माइक्रोवेव तरंग का उपयोग बारूद दूरी पर प्रज्वलित करने और घंटी बजाने में किया। लेफ्टिनेंट गवर्नर सर विलियम मैकेंजी ने कलकत्ता टाउन हॉल में बोस का प्रदर्शन देखा। बोस ने एक बंगाली निबंध, 'अदृश्य आलोक' में लिखा था, "अदृश्य प्रकाश आसानी से ईंट की दीवारों, भवनों आदि के भीतर से जा सकती है, इसलिए तार की बिना प्रकाश के माध्यम से संदेश संचारित हो सकता है।" रूस में पोपोव ने ऐसा ही एक प्रयोग किया।

बोस क "डबल अपवर्तक क्रिस्टल द्वारा बिजली की किरणों के ध्रुवीकरण पर" पहला वैज्ञानिक लेख, लॉज लेख के एक साल के भीतर, मई 1895 में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी को भेजा गया था। उनका दूसरा लेख अक्टूबर 1895 में लंदन की रॉयल सोसाइटी को लार्ड रेले द्वारा भेजा गया। दिसम्बर 1895 में, लंदन पत्रिका इलेक्ट्रीशियन (36 Vol) ने बोस का लेख "एक नए इलेक्ट्रो-पोलेरीस्कोप पर" प्रकाशित किया। उस समय अंग्रेजी बोलने वाली दुनिया में लॉज द्वारा गढ़े गए शब्द 'कोहिरर' क प्रयोग हर्ट्ज़ के तरंग रिसीवर या डिटेक्टर के लिए किया जाता था। इलेक्ट्रीशियन ने तत्काल बोस के 'कोहिरर' पर टिप्पणी की। (दिसम्बर 1895). अंग्रेजी पत्रिका (18 जनवरी 1896) इलेक्ट्रीशियन से उद्धृत टिप्पणी है:

"यदि प्रोफेसर बोस अपने कोहिरर को बेहतरीन बनाने में और पेटेंट सफल होते हैं, हम शीघ्र ही एक बंगाली वैज्ञानिक के प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रयोगशाला में अकेले शोध के कारण नौ-परिवहन की तट प्रकाश व्यवस्था में नई क्रांती देखेंगे।"

बोस "अपने कोहिरर" को बेह्तर करने की योजना बनाई लेकिन यह पेटेंट के बारे में कभी नहीं सोचा।

रेडियो डेवलपमेंट में स्थान[संपादित करें]

जगदीश चन्द्र बसु द्वारा विकसित ६० गीगाहर्ट्ज माइक्रोवेव उपकरण

बोस ने अपने प्रयोग उस समय किये थे जब रेडियो एक संपर्क माध्यम के तौर पर विकसित हो रहा था। रेडियो माइक्रोवेव ऑप्टिक्स पर बोस ने जो काम किया था वो रेडियो कम्युनिकेशन से जुड़ा हुआ नहीं था, लेकिन उनके द्वारा किये हुए सुधार एवं उनके द्वारा इस विषय में लिखे हुए तथ्यों ने दूसरे रेडियो आविष्कारकों को ज़रूर प्रभावित किया था। उस दौर में १८९४ के अंत में गुगलिएल्मो मारकोनी एक रेडियो सिस्टम पर काम कर रहे थे जो वायरलेस टेलीग्राफी के लिए विषिठ रूप डिज़ाइन किया जा रहा था। १८९६ के आरंभ तक यह प्रणाली फिजिक्स द्वारा बताये गए रेंज से ज़्यादा दुरी में रेडियो सिग्नल्स ट्रांस्मिट कर रही थी।

जगदीशचन्द्र बोस पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो तरंगे डिटेक्ट करने के लिए सेमीकंडक्टर जंक्शन का इस्तेमाल क्या था और इस पद्धति में कई माइक्रोवेव कंपोनेंट्स की खोज की थि। इसके बाद अगले ५० साल तक मिलीमीटर लम्बाई की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगो पर कोई शोध कार्य नहीं हुआ था। १८९७ में बोस ने लंदन के रॉयल इंस्टीटूशन में अपने मिलीमीटर तरंगो पर किये हुए शोध की वर्णना दी थी। उन्होंने अपने शोध में वेवगाइड्स , हॉर्न ऐन्टेना , डाई -इलेक्ट्रिक लेंस ,अलग अलग पोलअराइज़र और सेमीकंडक्टर जिनकी फ्रीक्वेंसी ६० GHz तक थी -- उनका इस्तेमाल किया था। यह सारे उपकरण आज भी कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट में मौजूद हैं। एक १.३ mm मल्टीबीम रिसीवर जो की एरिज़ोना के NRAO १२ मीटर टेलिस्कोप में हैं , आचार्य बोस १८९७ में लिखे हुए रिसर्च पेपर के सिद्धांतो पर बनाया गया हैं।

सर नेविल्ले मोट्ट को १९७७ में सॉलिड स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स में किये अपने शोधकार्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था। उन्होंने यह कहा था की आचार्य जगदीश चन्द्र बोस अपने समय से ६० साल आगे थे। असल में बोस ने ही P - टाइप और N - टाइप सेमीकंडक्टर के अस्तित्व का पूर्वानुमान किया था।

वनस्पति पर अनुसंधान[संपादित करें]

बायोफिजिक्स (Biophysics ) के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान यह था की उन्होंने दिखाया की पौधो में उत्तेजना का संचार वैद्युतिक (इलेक्ट्रिकल ) माध्यम से होता हैं ना की केमिकल माध्यम से। बाद में इन दावों को वैज्ञानिक प्रोयोगो के माध्यम से सच साबित किया गया था। आचार्य बोस ने सबसे पहले माइक्रोवेव के वनस्पति के टिश्यू पर होने वाले असर का अध्ययन किया था। उन्होंने पौधों पर बदलते हुए मौसम से होने वाले असर का अध्ययन किया था। इसके साथ साथ उन्होंने रासायनिक इन्हिबिटर्स (inhibitors ) का पौधों पर असर और बदलते हुए तापमान से होने वाले पौधों पर असर का भी अध्ययन किया था। अलग अलग परिस्थितियों में सेल मेम्ब्रेन पोटेंशियल के बदलाव का विश्लेषण करके वे इस नतीजे पर पहुंचे की पौधे संवेदनशील होते हैं वे " दर्द महसूस कर सकते हैं , स्नेह अनुभव कर सकते हैं इत्यादि "। वे महान वैज्ञानिक थे।

मेटल फ़टीग और कोशिकाओ की प्रतिक्रिया का अध्ययन[संपादित करें]

बोस ने अलग अलग धातु और पौधों के टिश्यू पर फटीग रिस्पांस का तुलनात्मक अध्ययन किया था। उन्होंने अलग अलग धातुओंं को इलेक्ट्रिकल , मैकेनिकल, रासायनिक और थर्मल तरीकों के मिश्रण से उत्तेजित किया था और कोशिकाओ और धातु की प्रतिक्रिया के समानताओं को नोट किया था। बोस के प्रयोगो ने simulated (नकली) कोशिकाओ और धातु में चक्रीय(cyclical ) फटीग प्रतिक्रिया दिखाई थी। इसके साथ ही जीवित कोशिकाओ और धातुओ में अलग अलग तरह के उत्तेजनाओं (stimuli ) के लिए विशेष चक्रीय (cyclical )फटीग और रिकवरी रिस्पांस का भी अध्ययन किया था।

आचार्य बोस ने बदलते हुए इलेक्ट्रिकल स्टिमुली के साथ पौधों बदलते हुए इलेक्ट्रिकल प्रतिक्रिया का एक ग्राफ बनाया , और यह भी दिखाया की जब पौधों को ज़हर या एनेस्थेटिक (चतनाशून्य करनेवाली औषधि ) दी जाती हैं तब उनकी प्रतिक्रिया काम होने लगती हैं और आगे चलकर शूून्य हो जाती हैं। लेकिन यह प्रतिक्रिया जिंक (zinc ) धातु ने नहीं दिखाई जब उसे ओक्सालिक एसिड के साथ ट्रीट किया गया।

नाइट की उपाधि[संपादित करें]

१९०२ में निर्मित जगदीश चन्द्र बसु का घर (आचार्य भवन) अब संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है।

1917 में जगदीश चंद्र बोस को "नाइट" (Knight) की उपाधि प्रदान की गई तथा शीघ्र ही भौतिक तथा जीव विज्ञान के लिए रॉयल सोसायटी लंदन के फैलो चुन लिए गए। बोस ने अपना पूरा शोधकार्य बिना किसी अच्छे (महगे) उपकरण और प्रयोगशाला के किया था इसलिये जगदीश चंद्र बोस एक अच्छी प्रयोगशाला बनाने की सोच रहे थे। "बोस इंस्टीट्यूट" (बोस विज्ञान मंदिर) इसी सोच का परिणाम है जोकि विज्ञान में शोधकार्य के लिए राष्ट्र का एक प्रसिद्ध केन्द्र है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. A versatile genius Archived 2009-02-03 at the वेबैक मशीन, Frontlin e 21 (24), 2004.
  2. Chatterjee, Santimay and Chatterjee, Enakshi, Satyendranath Bose, 2002 reprint, p. 5, National Book Trust, ISBN 81-237-0492-5
  3. A. K. Sen (1997). "Sir J.C. Bose and radio science", Microwave Symposium Digest 2 (8-13), p. 557-560.
  4. Jain, Vardhman (2019-08-11). "नोबेल पुरस्कार |5 भारतीय वैज्ञानिक जो नोबेल पुरस्कार से वंचित रह गए।". One E-India (अंग्रेज़ी में). मूल से 7 नवंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-01-10.
  5. A versatile genius Archived 2009-02-03 at the वेबैक मशीन, Frontlin e 21 (24), 2004.
  6. Chatterjee, Santimay and Chatterjee, Enakshi, Satyendranath Bose, 2002 reprint, p. 5, National Book Trust, ISBN 81-237-0492-5
  7. A. K. Sen (1997). "Sir J.C. Bose and radio science", Microwave Symposium Digest 2 (8-13), p. 557-560.
  8. Jain, Vardhman (2019-08-11). "नोबेल पुरस्कार |5 भारतीय वैज्ञानिक जो नोबेल पुरस्कार से वंचित रह गए।". One E-India (अंग्रेज़ी में). मूल से 7 नवंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-01-10.
  9. Mahanti, Subodh. "Acharya Jagadis Chandra Bose". Biographies of Scientists. Vigyan Prasar, Department of Science and Technology, भारत सरकार. मूल से 13 अप्रैल 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2007-03-12.
  10. Mukherji, Visvapriya, Jagadish Chandra Bose, second edition, 1994, pp. 3-10, Builders of Modern India series, Publications Division, Ministry of Information and Broadcasting, भारत सरकार, ISBN 81-230-0047-2
  11. Murshed, Md Mahbub. "Bose, (Sir) Jagadish Chandra". Banglapedia. Asiatic Society of Bangladesh. मूल से 13 अप्रैल 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2007-03-12.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]