सांख्यकारिका

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सांख्यकारिका, सांख्य दर्शन के उपलब्ध ग्रन्थों में सबसे प्राचीन एवं बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रकरण ग्रन्थ है जिसने अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की है। इसके रचयिता ईश्वरकृष्ण हैं। संस्कृत के एक विशेष प्रकार के श्लोकों को "कारिका" कहते हैं। सांख्यकारिका में ७२ कारिकाएँ हैं जो आर्या छन्द में हैं। इसलिये इसे 'साङ्ख्यसप्तति' भी कहते हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि अन्तिम ३ कारिकाएँ बाद में जोड़ी गयी (प्रक्षिप्त) हैं। चीन में इसे 'सुवर्णसप्तति' कहा जाता है। अनुयोगद्वार सूत्र में इसे "कणग सत्तरी" कहा गया है। [1]

सांख्यकारिका का समय बहुमत से ई. तृतीय शताब्दी का मध्य माना जाता है। वस्तुतः इनका समय इससे पर्याप्त पूर्व का प्रतीत होता है।

इसमें ईश्वरकृष्ण ने कहा है कि इसकी शिक्षा कपिल से आसुरी को, आसुरी से पंचाशिका को और पंचाशिका से उनको प्राप्त हुई। इसमें उन्होने सांख्य दर्शन की 'षष्टितंत्र' नामक कृति का भी उल्लेख किया है।

सांख्‍यकारिका पर विभिन्न विद्वानों द्वारा अनेक टीकाएँ की गयीं जिनमें युक्तिदीपिका, गौडपादभाष्‍यम्, जयमंगला, तत्‍वकौमुदी, नारायणकृत सांख्‍यचन्द्रिका आदि प्रमुख हैं। सांख्यकारिका पर सबसे प्राचीन भाष्य गौड़पाद द्वारा रचित है। दूसरा महत्वपूर्ण भाष्य वाचस्पति मिश्र द्वार रचित सांख्यतत्वकौमुदी है।

सांख्यकारिका का चीनी भाषा में अनुवाद ६ठी शती में हुआ। सन् १८३२ में क्रिश्चियन लासेन ने इसका लैटिन में अनुवाद किया। हेनरी टामस कोलब्रुक ने इसको सर्वप्रथम अंग्रेजी में रूपान्तरित किया।

सांख्यकारिका का आरम्भिक श्लोक इस प्रकार है-

दुःखत्रयाऽभिघाताज्जिज्ञासा तदभिघातके हेतौ।
दुष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात ॥
(तीन प्रकार के दुःख से (प्राणी) पीड़ित रहते हैं। अतः उसके अभिघातक (विनाशक) कारण को जानने की इच्छा करनी चाहिये। "दृष्ट (प्रत्यक्ष-लौकिक) उपायों से ही उस जिज्ञासा की पूर्ति हो जायेगी?" नहीं, (दृष्ट उपायों से) निश्चित रूप से और सदा के लिये दुःखों का निवारण नहीं होता।)

आज सांख्यदर्शन के जो ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, उनमें व्याख्या-ग्रन्थ ही अधिक हैं। मूल ग्रन्थ तो केवल तीन ही प्राप्त होते हैं- सांख्यकारिका, तत्त्वसमास एवं सांख्यप्रवचनसूत्र। आज प्राप्त होने वाले सांख्यदर्शन के अन्य ग्रन्थ इन तीन मूल ग्रन्थों की ही टीका या व्याख्या के रूप में हैं। इन व्याख्या-ग्रन्थों में से अधिकांश ‘सांख्यकारिका’ की ही व्याख्याओं और इन व्याख्याओं की भी अनुव्याख्याओं के रूप में हैं। इस प्रकार ईश्वरकृष्ण की ‘सांख्यकारिका’ सांख्यदर्शन का प्रमुख प्रतिनिधि ग्रन्थ है।

शंकर आदि आचार्यों ने ही नहीं, अपितु ईसा की चौदहवीं शताब्दी तक के आचार्यों ने ‘तत्त्वसमास’ या ‘सांख्यप्रवचनसूत्र’ को अपने ग्रन्थों में उद्धृत न कर ‘सांख्यकारिका’ को ही उद्धृत किया है। साथ ही पन्द्रहवीं शताब्दी में होने वाले अनिरुद्ध से पूर्व किसी ने इन सूत्र-ग्रन्थों की व्याख्या भी नहीं की, जबकि विभिन्न विद्वानों के द्वारा बहुत पहले से ही ‘सांख्यकारिका’ की व्याख्याएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। अतः स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन के आज उपलब्ध होने वाले उक्त तीन मूल ग्रन्थों - सांख्यकारिका, तत्त्वसमास एवं सांख्य-प्रवचनसूत्र- में से ‘सांख्यकारिका’ प्राचीनतम है। चूंकि शंकर आदि आचार्यों के द्वारा इसे उद्धृत किया जाता रहा है, अतः यह भी स्पष्ट है कि यह सांख्यदर्शन की एक प्रामाणिक कृति मानी जाती रही है।

सांख्यकारिकाकार ईश्वरकृष्ण ने यह घोषणा भी की है कि सांख्य के प्रथम आचार्य परमर्षि कपिल ने जो ज्ञान अपने शिष्य आसुरि को दिया, उसे आसुरी ने अपने शिष्य पंचशिख को दिया, पंचशिख ने उसे विस्तृत किया और फिर उसके बाद शिष्य-परम्परा से प्राप्त-उसी विस्तृत ज्ञान को संक्षिप्त रूप से उन्होनें सांख्यकारिका की सत्तर कारिकाओं में प्रस्तुत कर दिया है। इस घोषणा से सांख्यकारिका की रूप में प्रामाणिकता स्पष्ट होती है कि इसमें सांख्य के परम्परागत ज्ञान को प्रस्तुत किया गया है। कहना न होगा कि इस ज्ञान और प्रामाणिकता के अनुरूप ही इस ग्रन्थ को दार्शनिक क्षेत्र में परम सम्मान प्राप्त हुआ है।

सांख्यकारिका की प्रमुख टीकाएँ[संपादित करें]

सांख्यकारिका को इसकी रचना के बाद से ही लोकप्रियता एवं प्रामाणिकता प्राप्त हुई कि प्रायः तभी से इसकी व्याख्याओं या टीकाओं की परम्परा चल पड़ी। इसकी सर्वप्राचीन वृत्ति माठरवृत्ति है। इस वृत्ति के रचयिता आचार्य माठर सम्राट् कनिष्क के काल में वर्तमान माने जाते हैं। इस प्रकार यह वृत्ति प्रथम शताब्दी ईसवी की रचना मानी जाती है। कालक्रम से माठरवृत्ति के बाद सांख्यकारिका की दूसरी प्रमुख व्याख्या गौडपादभाष्य मानी जाती है। विद्वानों का बहुमत इसके रचयिता गौडपाद को माण्डूक्यकारिका के रचयिता एवं अद्वैत वेदान्त के आचार्य गौडपाद से भिन्न मानने के पक्ष में हैं। सांख्यकारिका के व्याख्याकार गौडपाद का समय प्रायः ईसा की षष्ठ शताब्दी माना जाता है। कुछ विद्वान् ईसा की सप्तम शताब्दी मानते हैं। माठरवृत्ति और गौडपाद-भाष्य में बहुत से अंशों में साम्य के दर्शन होते हैं। गौडपादभाष्य संक्षिप्त होते हुए भी गम्भीर है।

सांख्यकारिका की ‘युक्तिदीपिका’ टीका भी प्राचीन टीकाओं में से एक है। इसके रचयिता का नाम अज्ञात है। इसमें प्राचीन सांख्याचार्यों के विभिन्न सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है। फलतः इस टीका से सांख्य-सिद्धान्तों की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। चूंकि इसमें वसुबंधु एवं दिङ्नाग आदि बौद्ध आचार्यों के मतों का उल्लेख है और साथ ही मीमांसकों में शबरस्वामी का निर्देश होते हुए कुमारिल या प्रभाकर का निर्देश नहीं है, अतः प्रतीत होता है कि यह उक्त बौद्ध आचार्यों से बाद की और कुमारिल से पूर्व की रचना है। कुमारिल का समय ईसा की सप्तम शताब्दी का अन्त और अष्टम शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है, अतः बहुत सम्भव है कि युक्ति-दीपिका ईसा की सप्तम शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है। शंकराचार्य द्वारा विरचित ‘जयमंगला’ टीका भी सांख्यकारिका की प्रसिद्ध टीका है। विद्वानों का मत है कि यह टीका वाचस्पति मिश्र से पूर्व की रचना है, क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि ‘सांख्यतत्त्वकौमुदी’ में कुछ स्थलों पर इसके प्रतिपाद्यों का निर्देश या अनुसरण किया गया है।

आचार्य वाचस्पति मिश्र की ‘सांख्यतत्त्वकौमुदी’ टीका सांख्यकारिका की सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका है। इसने दार्शनिक जगत् में पर्याप्त ख्याति एवं लोकप्रियता प्राप्त की है। इस टीका में सांख्यकारिका के प्रतिपाद्य विषय को पूर्णतः उद्घाटित करने का प्रयत्न किया गया है।

प्रमुख विवेचनीय विषय[संपादित करें]

सर्वप्रथम ईश्वरकृष्ण ने मंगल के साथ-साथ शास्त्रारम्भ के प्रयोजन की सूचना दी है। मङ्गलाचरण में वे कहते हैं-

उस कपिल को नमस्कार है जिनने अविद्या-समुद्र में डूबते हुए संसार के लिये, दया करके सांख्यस्वरूप ऐसी नाव बनायी, जिससे आसानी से इस (अविद्यारूप समुद्र) को पार किया जा सके॥[2]

इसके आगे वे कहते हैं कि आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन तीनों दुःखों का एकान्त परिहार प्राणिमात्र का इष्ट है। दुःखों का यह परिहार दृष्ट (लौकिक) एवं आनुश्रविक (वैदिक) उपायों से सम्भव नहीं है, कारण कि दृष्ट कारणों से सर्वथा कार्य होते नहीं तथा आनुश्रविक (वैदिक यज्ञादि) उपायों से होने योग्य दुःख निवृत्ति एकान्त हो ही नहीं सकती। दुःख की एकान्त निवृत्ति तो केवल ‘व्यक्ताव्यक्तज्ञ विज्ञान’ से हो सकती है, वही इस शास्त्र में प्रतिपादित है।

सांख्य-दर्शन में यह समस्त विश्व २५ तत्व का खेल माना गया है। इन पच्चीस तत्त्वों का वर्णन इस प्रकार है -

प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः।
तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि॥

सांख्यकारिका के प्रमुख विवेच्य विषय निम्नलिखित हैं-

  1. दुःखत्रय तथा उनका अपघात -- आध्यात्मिक , आधिदैविक , और आधिभौतिक ।
  2. प्रमाण-विवेचन -- प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्तवाक्य
  3. सत्कार्यवाद
  4. गुण विवेचन
  5. प्रकृति स्वरूप तथा उसके अस्तित्व की सिद्धि
  6. पुरुष स्वरूप, पुरूष के अस्तित्व की सिद्धि तथा पुरुष बहुत्व
  7. सृष्टि प्रक्रिया -- प्रकृति और पुरुष के संयोग से सर्ग (सृष्टि) की रचना होती है। प्रकृति और पुरुष का संयोग पंगु और अंधे व्यक्ति के समान है (पङ्गु-अन्धवत्)।
  8. लिङ्ग शरीर की अवधारणा
  9. प्रत्यय सर्ग की अवधारणा

जिन २५ तत्त्वों से सम्पूर्ण जगत बना माना गया है, इनमे दो मुख्य विभाग हैं- पुरुष ओर प्रकृति । इनमें "पुरुष" अथवा आत्मा तो चैतन्य स्वरूप है वह न किसी तत्व से बनता है ओर न उससे कुछ बनता है। प्रकृति के आठ विभाग माने गये है ओर उसमें से सोलह विकारों (विकृति) की उत्पत्ति कही गई है।

पुरुष अथवा चेतन तत्व[संपादित करें]

पुरुष अथवा चेतन तत्व किसी जड़ पदार्थ की तरह अनुभव की चीज नहीं है, पर जब इस विश्व की रचना और उसके प्रयोजन पर विचार किया जाता है तो स्वभावतः उसे स्वीकार करना पड़ता है | जब विश्व के कार्य में एक व्यवस्था, क्रम, चेतना पाई जाती है तो किसी "चेतन" का होना भी आवश्यक है। सांख्यशास्त्र में प्रकृति के २४ विभागों के पश्चात्‌ जो पच्चीसवाँ "पुरुष" या 'चेतन' माना है, उसका प्रमाण देते हुए कहा है-

सङ्घातपरार्थत्वात्‌ त्रिगुणादिविपर्ययात्‌ अधिष्ठानात्‌ ।
पुरुषोऽस्ति भोक्तृत्वभावात्‌ केवल्यार्थप्रवृत्तेश्च ॥

अर्थात्‌ संघात्‌ के परार्थ होने से, त्रिगुणादि के विपरीत होने से, अधिष्ठान से, भोक्ताभाव से और मोक्ष की ओर होने से "पुरुष" का अस्तित्व सिद्ध होता है। सांख्य प्रत्येक जीवात्मा की स्वतन्त्र सत्ता बतलाता है। इस सिद्धान्त की पुष्टि में वह तीन प्रमाण उपस्थित करता है-

जन्म मरण करणानां नियमात्‌ अयुगपत्‌ प्रवृत्तेश्च ।
पुरुषस्य बहुत्वं सिद्धम्‌ त्रेगुण्यविपर्ययाच्यैव ॥ ( साख्यकारिका १८)

प्रकृति तथा विकृतियाँ[संपादित करें]

सांख्यदर्शन में प्रकृति उसे कहा है जिससे कोई अन्य तत्त्व उत्पन्न होता है, जो स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होती। आठ प्रकृतियाँ ये है-

१- मूलप्रकृति, २-महनत्तत्व (बुद्धि) ३-अहंकार, ४-शब्द ५-स्पर्श, ६रूप, ७-रस, ८-गन्ध । शब्द से लेकर गन्ध तक पांच तन्मात्राएँ कही जाती हैं। सांख्य मे प्रकृति उसको कहते हैं जिसमे आगे चलकर कोई अन्य तत्व उत्पन्न हो | इसीलिये बुद्धि और अहंकार के साथ पाँचों तन्मात्राओं को भी प्रकृति माना गया है क्योकि उनसे ही सोलह विकृतियों की उत्पत्ति होती है। सोलह विकृतिर्यौ ये हैं- पाँच स्थूल-भूत- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। पाँच ज्ञानेन्द्रिय- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना ओर घ्राण, तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ : वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा। इन पाँच स्थूल भूत तथा मन सहित ग्यारह इन्द्रियों से आगे चलकर किसी अन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, इसलिए इन्हें विकृति कहा गया है।

प्रकृति की व्याख्या ३ गुणों ( सत्व गुण, रजोगुण, तमोगुण) के माध्यम से की गयी है। प्रकृति की दो अवस्थाएँ हैं - साम्यावस्था तथा वैषम्यावस्था। सत्त्वगुण, रजोगुण, और तमोगुण की साम्यावस्था में चेतन के संयोग से वैषम्य होने लगता है। इसी से सर्ग का प्रारम्भ हाेता है। सृष्टि के पूर्व यह सारा कार्य जगत् इसी में अव्यक्त रुप से रहता है, इसलिए इसे 'अव्यक्त' कहते हैं। प्रकृति के अन्य नाम हैं- 'अव्यक्त' , 'प्रधान' तथा 'मूलप्रकृति' । यद्यपि प्रकृति, जड़ है तथापि पुरुष के भोग - अपवर्ग के लिए यह बिना किसी स्वार्थ के लिए प्रवृत्त होती है। प्रकृति और पुरुष का संयोग पंगु और अंधे व्यक्ति के समान है (पङ्गु-अन्धवत्)। प्रकृति के अस्तित्व की सिद्धि के 5 तर्क हैं।

महत् , अहंकार, पञ्च तन्मात्राएँ ( कुल 7 ) पदार्थ प्रकृति और विकृति दोनो माने जाते हैं। विकृतियाँ सोलह हैं (एकादश इन्द्रिय + पञ्च महाभूत) । सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष न तो प्रकृति है न विकृति।

बुद्धि की प्रकृति है - मूल प्रकृति। बुद्धि की विकृति है - महत् (अहंकार)। अहंकार ३ प्रकार का होता है - सात्विक, राजसिक, तामसिक। सात्विक अहंकार से एकादश इन्द्रियो की उत्पत्ति होती है। पञ्च तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श , रूप, रस, गंध) से पञ्चमहाभूत ( आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी) उत्पन्न होते हैं।

सत्कार्यवाद[संपादित करें]

व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ - ये तीनों शब्द इस शास्त्र में विशेष महत्वशाली हैं। इनके महत्व काे जानने के लिए इस शास्त्र के मेरुदण्ड सत्कार्यवाद को समझना परमावश्यक है। सांख्यदर्शन का ‘सत्कार्यवाद’ उसका अत्यन्त प्रसिद्ध तथा अन्य दर्शनों से भिन्न सिद्धान्त है। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य उत्पन्न होने के पूर्व अव्यक्त रुप से अपने कारण में वर्तमान रहता है। इस सत्कार्यवाद सिद्धान्त काे सांख्यदर्शन ने अनेक तर्कों और युक्तियों से सिद्ध करने का प्रयास किया है। सत्कार्यवाद की सिद्धि के 5 हेतु (साधक) हैं- असद्करणात् , उपदान ग्रहणात् , सर्वसम्भवाभावात् , शक्तस्य शक्यकरणात् , कारणाभावात् ।

प्रमाण[संपादित करें]

सांख्य दर्शन ने 3 प्रमाण स्वीकार किए हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और आप्तवाक्य। प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण है - "प्रतिविषयाध्यवसाय"। प्रत्यक्ष प्रमाण दो प्रकार के होते हैं - निर्विकल्पक और सविकल्पक। अनुमान का लक्षण है - "लिङ्गलिङ्गी पूर्वकम् "। अनुमान तीन प्रकार के हैं-

मोक्ष[संपादित करें]

विपर्यय बन्धन का कारण है। ज्ञान से अपवर्ग की प्राप्ति होती है।

प्रत्ययसर्ग मूल रूप से 4 प्रकार का हैं- विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि, सिद्धि। प्रत्ययसर्ग के कुल 50 भेद हैं (विपर्यय - 5 , अशक्ति - 28 , तुष्टि - 9 , सिद्धि - 8 )।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. सांख्यकारिका (स्वामी जगन्नाथ शास्त्री)
  2. सांख्यकारिका, पृष्ट-२

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]