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वर्षा जल संचयन

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(वाटर हार्वेस्टिंग से अनुप्रेषित)
ठाठवाड़, राजस्थान के एक गांव में जोहड़ में संचयन

वर्षा के जल को किसी मानव-निर्मित आवाह-क्षेत्र (catchment areas) में एकत्र करने और उसे संचय करने की प्रक्रिया को वर्षा जल संचयन (rain water harvesting) कहा जाता है। घर की छत पर, आहाते में, पहाड़ी की ढाल पर, या कृत्रिम भूमि पर बने कृत्रिम तलों आदि में जल संचयन किया जा सकता है। अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिये जल संचयन बहुत उपयोगी है क्योंकि वहाँ वर्ष भर सिंचाई के लिये जल उपलब्ध नहीं होता। जल-संचयन का मुख्य लाभ ये है कि यह एक सरल, सस्ती, दक्ष, पर्यावरण-मित्र, और टिकाऊ पद्धति है।

विश्व भर में पेयजल की कमी एक संकट बनती जा रही है। इसका कारण पृथ्वी के जलस्तर का लगातार नीचे जाना भी है। इसके लिये अधिशेष मानसून अपवाह जो बहकर सागर में मिल जाता है, उसका संचयन और पुनर्भरण किया जाना आवश्यक है, ताकि भूजल संसाधनों का संवर्धन हो पाये। अकेले भारत में ही व्यवहार्य भूजल भण्डारण का आकलन २१४ बिलियन घन मी. (बीसीएम) के रूप में किया गया है जिसमें से १६० बीसीएम की पुन: प्राप्ति हो सकती है।[1] इस समस्या का एक समाधान जल संचयन है। पशुओं के पीने के पानी की उपलब्धता, फसलों की सिंचाई के विकल्प के रूप में जल संचयन प्रणाली को विश्वव्यापी तौर पर अपनाया जा रहा है। जल संचयन प्रणाली उन स्थानों के लिए उचित है, जहां प्रतिवर्ष न्यूनतम २०० मिमी वर्षा होती हो। इस प्रणाली का खर्च ४०० वर्ग इकाई में नया घर बनाते समय लगभग बारह से पंद्रह सौ रुपए मात्र तक आता है।[2]

उपयोग

जल संचयन में घर की छतों, स्थानीय कार्यालयों की छतों या फिर विशेष रूप से बनाए गए क्षेत्र से वर्षा का एकत्रित किया जाता है। इसमें दो तरह के गड्ढे बनाए जाते हैं। एक गड्ढा जिसमें दैनिक प्रयोग के लिए जल संचय किया जाता है और दूसरे का सिंचाई के काम में प्रयोग किया जाता है। दैनिक प्रयोग के लिए पक्के गड्ढे को सीमेंटईंट से निर्माण करते हैं और इसकी गहराई सात से दस फीट व लंबाई और चौड़ाई लगभग चार फीट होती है। इन गड्ढों को नालियों व नलियों (पाइप) द्वारा छत की नालियों और टोटियों से जोड़ दिया जाता है, जिससे वर्षा का जल साधे इन गड्ढों में पहुंच सके और दूसरे गड्ढे को ऐसे ही (कच्चा) रखा जाता है। इसके जल से खेतों की सिंचाई की जाती है। घरों की छत से जमा किए गए पानी को तुरंत ही प्रयोग में लाया जा सकता है। विश्व में कुछ ऐसे इलाके हैं जैसे न्यूजीलैंड, जहां लोग जल संचयन प्रणाली पर ही निर्भर रहते हैं। वहां पर लोग वर्षा होने पर अपने घरों के छत से पानी एकत्रित करते हैं।

संचयन के तरीके

पहाड़ियों में जल संचयन की प्रणाली का आरेख

शहरी क्षेत्रों में वर्षा के जल को संचित करने के लिए बहुत सी संचनाओं का प्रयोग किया जा सकता है।[3] ग्रामीण क्षेत्र में वर्षा जल का संचयन वाटर शेड को एक इकाई के रूप लेकर करते हैं। आमतौर पर सतही फैलाव तकनीक अपनाई जाती है क्योंकि ऐसी प्रणाली के लिए जगह प्रचुरता में उपलब्ध होती है तथा पुनर्भरित जल की मात्रा भी अधिक होती है। ढलान, नदियों व नालों के माध्यम से व्यर्थ जा रहे जल को बचाने के लिए इन तकनीकों को अपनाया जा सकता है। गली प्लग, परिरेखा बांध (कंटूर बंड), गेबियन संरचना, परिस्त्रवण टैंक (परकोलेशन टैंक), चैक बांध/सीमेन्ट प्लग/नाला बंड, पुनर्भरण शाफ्‌ट, कूप डग वैल पुनर्भरण, भूमि जल बांध/उपसतही डाईक, आदि।[3] ग्रामीण क्षेत्रों में छत से प्राप्त वर्षाजल से उत्पन्न अप्रवाह संचित करने के लिए भी बहुत सी संरचनाओं का प्रयोग किया जा सकता है। शहरी क्षेत्रों में इमारतों की छत, पक्के व कच्चे क्ष्रेत्रों से प्राप्त वर्षा जल व्यर्थ चला जाता है। यह जल जलभृतों में पुनर्भरित किया जा सकता है व ज़रूरत के समय लाभकारी ढंग से प्रयोग में लाया जा सकता है। वर्षा जल संचयन की प्रणाली को इस तरीके से अभिकल्पित किया जाना चाहिए कि यह संचयन/इकट्‌ठा करने व पुनर्भरण प्रणाली के लिए ज्यादा जगह न घेरे। शहरी क्षेत्रों में छत से प्राप्त वर्षा जल का भण्डारण करने की कुछ तकनीके इस प्रकार से हैं[3]: पुनर्भरण पिट (गड्ढा), पुनर्भरण खाई, नलकूप और पुनर्भरण कूप, आदि।

भारत में संचयन

फतेहपुर, शेखावाटी की एक बावड़ी

भारत में जल संचयन की एक महान और लम्बी परम्परा है। जल-संचयन की ये प्रणालियाँ कच्छ, सौराष्ट्र, पश्चिमी राजस्थान आदि के सर्वाधिक शुष्क और जल की कमी वाले क्षेत्रों में विकसित की गयीं थी। जल-संचयन के समुचित उपयोग से भारत में जल की कमी को पूरा किया जा सकता है। इतिहास से पता चलता है कि बाढ़ और सूखा भारत में समय-समय पर हुआ करते थे। इसलिये भारत के हर क्षेत्र ने अपनी पारम्परिक विशिष्ट जल-संचयन प्रणाली विकसित कर ली जो उस क्षेत्र के भूगोल और संस्कृति के अनुकूल थी। पुरातात्विक प्रमाणों से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय विज्ञान और तकनीकी में जल-संचयन की जड़ें बहुत गहरी थीं। सिन्धु घाटी की सभ्यता में उत्कृष्ट जल-संचयन और जल-निकासी प्रणाली देखने को मिली है। धोलावीरा की वस्तियों में जल-इंजीनियरी के बहुत अच्छे उदाहरण मिलते हैं।

भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जल-संचयन की प्रणाली भी भिन्न-भिन्न हैं। केरल में सुरंगम, तमिलनाडु में एरि, कर्नाटक में मडका, आन्ध्र प्रदेश में चेरुवु, महाराष्ट्र का फाड, मध्य प्रदेश और उड़ीसा का कटा, गुजरात का विरदास, राजस्थान के नाला बन्ध, टांका, और बावड़ी, तोहड ; उत्तराखण्ड के नौला और गुल ; हिमाचल प्रदेश का कुल, जम्मू कश्मीर का जिंग, उत्तर प्रदेश का कुण्ड, बिहार का आहर पाइन्स,[4] मेघालय का बाँस द्वारा बूँद-बूँद सिंचाई, अरुणाचल प्रदेश का अपतानी, असम के डोंग, गढ़, और बांध, नागालैंड का जाबो आदि। भारत के भिन्न-भिन्न जलवायु वाले क्षेत्रों में निर्मित दुर्गों में जल-संचयन की अपनी-अपनी विशिष्ट प्रणालियाँ हैं जो उस दुर्ग की पानी की आवश्यकता की पूर्ति करती थीं। भारत में शताब्दियों पहले बने मन्दिरों के प्रांगण में बड़े-बडे जलशय हैं। आज की सिविल इंजीनियरी को जल-संचयन की इन संरचनाओं का गहन अध्ययन करना चाहिये और उससे सीखना चाहिये।[5]

भारत के जल की कमी वाले क्षेत्रों, जैसे राजस्थान के थार रेगिस्तान क्षेत्र में लोग जल संचयन से जल एकत्रित किया करते हैं। यहां छत-उपरि जल संचयन तकनीक अपनायी गयी है। छतों पर वर्षा जल संचयन करना सरल एवं सस्ती तकनीक है जो मरूस्थलों में हजारों सालों से चलायी जा रही है। पिछले दो ढाई दशकों से बेयरफूट कॉलेज पंद्रह-सोलह राज्यों के गांवों और अंचलों के पाठशालाओं में, विद्यालय की छतों पर इकठ्ठा हुए वर्षा जल को, भूमिगत टैंकों में संचित करके ३ करोड़ से अधिक लोगों को पेयजल उपलब्ध कराता आया है। यह कॉलेज इस तकनीक को मात्र वैकल्पिक ही नहीं बल्कि स्थायी समाधान के रूप में विस्तार कर रहा है।[6] इस संरचना से दो उद्देश्यों पूर्ण होते हैं:-

  • पेयजल स्रोत, विशेषत: शुष्क मौसम के चार से पांच माह
  • स्वच्छता सुविधाओं में सुधार के लिए साल भर जल का प्रावधान

इस प्रकार स्थानीय तकनीकों से, विशेषत: आंचलिक क्षेत्रों में, समाज के विभिन्न वर्गों के अनेक प्रकार से प्रत्यक्ष लाभ मिल रहा है।

सन्दर्भ

  1. कृत्रिम पुनर्भरण एवं वर्षा जल संचयन अध्ययन Archived 2009-04-10 at the वेबैक मशीनजल संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार(हिन्दी)
  2. वॉटर हार्वेस्टिंगहिन्दुस्तान लाइव(हिन्दी)२६ अक्तूबर, २००९
  3. भू-जल स्तर की वृद्धि हेतु वर्षा जल संचयन तकनीक Archived 2011-01-16 at the वेबैक मशीन। इंडिया डवलपमेंट गेटवे।(हिन्दी)। जल संसाधन मंत्रालय, केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड, फरीदाबाद
  4. आहर पाइंस, पारंपरिक बाढ़ जल संचयन प्रणाली दक्षिण बिहार में कृषि को पुनर्जीवित करने में मदद कर सकती है
  5. A Review of Indian Traditional Method of Rain Water Harvesting
  6. रुफटोप वर्षा जल संचयन Archived 2011-07-09 at the वेबैक मशीन। इंडिया वॉटर पोर्टल।(हिन्दी)। सौजन्य:जर्मन एग्रो एक्शन- केस स्टडी

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