स्वनिम

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

किसी भाषा या बोली में, स्वनिम (phoneme) उच्चारित ध्वनि की सबसे छोटी ईकाई है। स्वनिम के लिए ध्वनिग्राम, स्वनग्राम आदि शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। अंग्रेजी में इसका पर्यायी शब्द फोनीम (phoneme) है। Phoneme के लिए प्रयुक्त होने वाला ‘स्वनिम’ शब्द ‘ध्वनिग्राम’ की अपेक्षा कहीं अधिक नया है, किन्तु आजकल इसका ही प्रयोग चल रहा है।

स्वरूप[संपादित करें]

स्वनिम के स्वरूप के संदर्भ में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। विभिन्न विद्वानों ने इसे भिन्न-भिन्न विषयों से सम्बन्धित माना है। ब्लूमफील्ड और डैनियल जोन्सने ने इसे भौतिक इकाई के रूप में स्वीकार किया है। एडवर्ड सापीर इसे मनोवैज्ञानिक इकाई मानते हैं। डब्ल्यू. एफ. ट्वोडल स्वनिम को अमूर्त काल्पनिक इकाई मानते हैं। स्वन या ध्वनि-परिवर्तन से सदा अर्थ-परिवर्तन नहीं होता है, जबकि स्वनिम-परिवर्तन से अर्थ-परिवर्तन निश्चित है।

स्वनिम उच्चारित भाषा की ऐसी लघुत्तम इकाई है, जिससे दो ध्वनियों का अन्तर स्पष्ट होता है। इस प्रकार यह भी स्पष्ट है कि स्वनिम का सम्बन्ध ध्वनि से है। ध्वनि का सम्बन्ध यदि उच्चारण से होता है, तो श्रवण से भी इसका अटूट सम्बन्ध होता है। यदि ध्वनि सुनी नहीं जाएगी तो उसका अस्तित्व भी संदिग्ध होगा। ध्वनि के उच्चारण तथा श्रवण-सम्बन्धों के ही कारण स्वनिम को शरीर-विज्ञान तथा भौतिक विज्ञान से सम्बन्धित कहा गया है, क्योंकि उच्चारण और श्रवण-प्रक्रिया यदि शरीर विज्ञान से सम्बन्धित होती है, तो संवहन-प्रक्रिया पूर्णतः भौतिक विज्ञान से।

किसी भी भाषा की मूलभूत ध्वनियाँ लगभग पन्द्रह से पचास तक होती हैं। इन्हीं ध्वनियों के निर्धारण पर स्वनिम का निर्धारण होता है। स्वनिम के ही माध्यम से ध्वनियों के मध्य अन्तर प्रदर्शित होता है। ज, न, प भिन्न-भिन्न स्वनिम हैं। इसलिए इनमें भिन्नता है। 'जान' तथा 'पान' का अन्तर स्वनिम की भिन्नता के ही आधार पर होता है। यहाँ ‘ज’ तथा ‘प’ दो भिन्न सार्थक ध्वनियाँ हैं। इन्हीं भिन्न सार्थक ध्वनियों के आधार पर ‘ज्ञान’ तथा ‘पान’ में अर्थ भिन्नता भी है। इन्हीं सार्थक ध्वनियां को ध्वनि विज्ञान में स्वनिम कहते हैं। उन दो शब्दो की 'न' ध्वनियों में सूक्ष्म अन्तर है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति यदि एक ध्वनि को दो बार उच्चारण करेगा, तो उनमें सूक्ष्म अन्तर होना स्वाभाविक है; यथा- पान, जान, पानी, मनु, मीनू, माने, मानो आदि शब्दों की विभिन्न ‘न’ ध्वनियों में सामान्य रूप से कोई अन्तर नहीं लगता है, किन्तु सूक्ष्म चिन्तन पर इन ध्वनियों में सूक्ष्म भिन्नता का ज्ञान होता है। स्वनिक रूप से यदि इनमें भिन्नता है, तो उच्चारण के स्थान, प्रयत्न तथा कारण आदि आधारों पर इनमें पर्याप्त समानता ही स्वनिम की अवधारणा का आधार है।[1]

स्वनिम रेखांकन के लिए इस प्रकार का आधार अपनाते हैं - कमल को - क / म / ल

स्वनिम व्यवस्था[संपादित करें]

किसी भी भाषा के स्वनिम अपने वितरण में व्यतिरेकी (contranstive) होते हैं। इसका आशय यह है कि जहाँ एक की उपस्थिति होगी वहाँ दूसरा नहीं आ सकता। जैसे - कमल में म और ल के वितरण को ल और म से बदल दें तो वह कलम हो जाएगा, इस प्रकार स्वनिम परिवर्तन से अर्थ परिवर्तन भी घटित होता है। इसका आशय यह है कि जहाँ एक की उपस्थिति होगी वहाँ दूसरा नहीं आ सकता। जैसे - कमल में म और ल के वितरण को ल और म से बदल दें तो वह कलम हो जाएगा, इस प्रकार स्वनिम परिवर्तन से अर्थ परिवर्तन भी घटित होता है। हालांकि किसी स्वनिम के सहस्वन या उपस्वन (Allophone) का वितरण व्यतिरेकी न होकर परिपूरक (Complementary) होता है। वितरण की एक ऐसी भी अवस्था है जब ध्वनि में अन्तर होने पर भी अर्थ-परिवर्तन नहीं होता, इसको मुक्त वितरण (Free Distribution) कहते हैं। हिन्दी में स्वनिम के ऐसे प्रयोग मिल जाते हैं; यथा- दीवार > दीवाlल, ग़म > गम। यहाँ प्रथम शब्द में / र / - / ल और द्वितीय में / ग / - / ग / ध्वनियों के अतिरिक्त पूरा परिवेश समान है। इसके लिए ~ चिन्ह का प्रयोग करते हैं; यथा- दीवार > दीवाल / र / ~ / ल।[2]

किसी शब्द के आदि, मध्य और अन्त में प्रयुक्त होने पर यदि अर्थ-परिवर्तन हो, तो स्वनिम रूप निश्चित हो जाता है; यथा - 'आप' शब्द के आदि और अन्त में 'ज' प्रयोग से अर्थ-परिवर्तित रूप इस प्रकार मिलते हैं -

ज > आज, जाप

इस प्रकार 'ज' स्वनिम है।

'ल' स्वनिम को इस प्रकार दिखा सकते हैं -

आदि मध्य अन्त्य
ल- -ल- -ल
लखन कलम कमल

विशेषताएँ[संपादित करें]

  • 1. स्वनिम भाषा की लघुत्तम इकाई है; यथा - अ, त, क, प आदि।
  • 2. स्वनिम विभिन्न समान ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करता है। यदि एक ध्वनि का एक से अधिक या अनेक तरह से उच्चारण किया जाए, तो उसके लिए एक ही स्वनिम होगा। यथा- 'क' ध्वनि को दस व्यक्ति बोले या एक ही व्यक्ति दस बार बोले तो इसके दस रूप होंगे, किन्तु इन दसों ध्वनि-रूपों के लिए एक ही स्वनिम होगा।
  • 3. स्वनिम अर्थ-भेदक इकाई है; यथा- तन और मन शब्दों में अर्थ-भिन्नता त और म स्वनिमों की भिन्नता के कारण है। तन के न और मन के न के उच्चारण में सूक्ष्म भिन्नता अवश्य है, किन्तु दोनों एक ही स्वनिम से सम्बन्धित है; इसलिये इनसे अर्थ-भिन्नता नहीं होती है।
  • 4. स्वनिम उच्चारित भाषा से सम्बन्धित है। लिखित भाषा से इसका सम्बन्ध नहीं होता। लिखित भाषा में इसी प्रकार की इकाई लेखिम होती है। हिन्दी में क एक स्वनिम है जिसके लिये अंग्रेजी में कई लेखिमों का प्रयोग होता है; यथा- C > कैमल (camel) K > काइट (kite) > केमेस्ट्री (chemistry), Que > चैक (cheque) ck > बैक (Back) आदि।
  • 5. प्रत्येक भाषा के अपने स्वनिम होते हैं, जो अन्य किसी भी भाषा के स्वनिम से भिन्न होते हैं। अर्थात् स्वनिम भाषा विशेष पर आधारित होते हैं; यथा - प, फ हिन्दी के स्वनिम हैं, जब कि अन्य भाषा में ये ध्वनियाँ भी हो सकती हैं जब कोई व्यक्ति अपनी भाषा के स्वनिमों से भिन्न किसी अन्य भाषा के स्वनिमों का प्रयोग करता है, तो उनके उच्चारण में कठिनाई आती है। ऐसे समय वह न स्वनिमों की भिन्नता के आधार पर विभिन्न भाषा-भाषियों की पहचान सम्भव है यदि हिन्दी में 'जल' है तो बंगला में 'जॉल'।
  • 6. स्वनिम समपवर्ती ध्वनियों से प्रभावित होते हैं; त अघोष, अल्पप्राण, दन्त्य ध्वनि जब न के साथ प्रयुक्त होती है तो नासिक्य ध्वनि 'न' का प्रभाव उस पर पड़ जाता है - तन झ तँन।
  • 7. सभी भाषाओं में ध्वनियों की एक निश्चित व्यवस्था होती है जिसके आधार पर उनमें ध्वन्यात्मक संतुलन बना रहता है; यथा - हिन्दी के क, घ, छ, झ, ठ, ढ आदि स्वनिमों का ज्ञान हो तो स्वनिम-व्यवस्था के अनुसार अल्पप्राण-महाप्राण के क्रम के अनुसार 'क' वर्ग में 'घ' के अतिरिक्त 'ख' एक अन्य महाप्राण ध्वनि की सम्भावना स्पष्ट हो जाएगी। इस प्रकार स्वनिम-व्यवस्था पूरी हो जाती है।
  • 8. कभी-कभी दो ध्वनियाँ बिना अर्थ-परिवर्तन के एक-दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त होती हैं। यह प्रायः बोलियों की सहजीकरण की स्थिति में होता है, किन्तु यदा-कदा मानक उच्चारण में भी ऐसे प्रयोग मिल जाते हैं; यथा- क > क > ख़ > ख, ज़ > ज (इल्जाम) प्रथम शब्द का अर्थ दोष है और द्वितीय का अर्थ है- घोड़े के मुख में लगाम देना यहाँ दोनों ही शब्द समान 'दोष' अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं।
  • 9. प्रत्येक भाषा के स्वनिमों की संख्या भिन्न होती है।
  • 10. यदि कोई ध्वनि एक बार निश्चित हो जाए कि स्वनिम है, तो वह सदा प्रत्येक स्थिति में स्वनिम होगी। (Once phoneme ever phoneme.)
  • 11. यदि कोई ध्वनि आदि, मध्य और अन्त में से किसी एक में मिले तो स्वनिम स्थिति विचारणीय है। हिन्दी में ऐसी स्थिति नहीं दिखाई देती। अंग्रेजी ध्वनियाँ p + k की आदि स्थिति में क्रमशः Ph , Th , Kh हो जाती हैं, किन्तु मध्य और अन्त में पूर्ववत PTK रहती हैं।
 आदि  मध्य   अन्य
Ph   -p-   -p
th   -t-   -t
kh   -k-   -k

प्रवर्तित ध्वनि केवल आदि में है, इसके अर्थ में परिवर्तन भी नहीं होता। अन्त में स्वनिम नहीं है। मध्य तथा अन्त स्थिति में अधिक परिवेश में प्रयुक्त होने से p.t.k. स्वनिम हैं। ये ध्वनियाँ आपस में संस्वन हैं।[3]

उपयोगिता[संपादित करें]

  1. स्वनिम ज्ञान से भाषा के शुद्ध उच्चारण में सरलता होती है। स्वनिम के माध्यम से ही किसी भाषा की मूल ध्वनियों का ज्ञान होता है। इस प्रकार भाषा-शिक्षण में स्वनिम ज्ञान का विशेष महत्त्व है।
  1. स्वनिम उच्चरित भाषा से सम्बन्धित है। इनके माध्यम से भाषा की ध्वनियों की संख्या का नियंत्रण होता है। इस प्रकार के नियंत्रण से भाषा उच्चारण में समुचित व्यवस्था बनी रहती है। स्वनिम व्यवस्था से नई ध्वनियों के आगम पर उनका सीखना संभव और सरल होता है।
  1. स्वनिम भाषा की अर्थ भेदक इकाई है। भाषा की अन्य इकाइयाँ - शब्द, पद, वाक्य आदि का ज्ञान तब तक संभव नहीं होता जब तक स्वनिम का ज्ञान न हो, क्योंकि भाषा की परवर्ती वृहत्तर इकाइयाँ स्वनिम पर आधारित हैं।
  1. लिपि-निर्माण में स्वनिम की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी भाषा के स्वनिमों के निश्चयन के पश्चात ही लिपि का निर्माण होता है। इस प्रकार स्वनिम को लिपि का मूलाधार कह सकते हैं।
  1. आदर्श लिपि का निश्चय ही स्वनिम के माध्यम से होता है। जिस लिपि में एक स्वनिम के लिए एक लिपि चिह्न हो, उसे आदर्श लिपि कह सकते हैं।
  1. स्वनिम के माध्यम से ही अन्तरराष्ट्रीय लिपि (I.N.P.A) का रूप सामने आया है। सभी भाषाओं के विभिन्न स्वनिमों के लिए इसमें समुचित रूप से एक-एक चिह्न की व्यवस्था होती है। इस प्रकार भाषा के शुद्ध उच्चारण, आदर्श लिपि और अन्तरराष्ट्रीय लिपि निर्माण आदि में स्वनिम की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।[4]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Aadhunik Bhaska Vigyan. Vani Prakashan. पपृ॰ 223–.
  2. Hindi Bhasa Ki Sanrachna. Vani Prakashan. पपृ॰ 12–.
  3. तिवारी, भोलानाथ (1955). भाषाविज्ञान (2015 संस्करण). नई दिल्ली: किताब महल. पृ॰ 369-375. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-225-0007-2.
  4. शर्मा, देवेन्द्रनाथ, दीप्ति (1966). भाषाविज्ञान की भूमिका (2018 संस्करण). नई दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन. पपृ॰ 221–222. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7119-743-9.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]