शिक्षाशास्त्र

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दक्षिण भारत के एक गाँव में शिक्षण

शिक्षण-कार्य की प्रक्रिया का विधिवत अध्ययन शिक्षाशास्त्र या शिक्षणशास्त्र (Pedagogy) कहलाता है। इसमें अध्यापन की शैली या नीतियों का अध्ययन किया जाता है। शिक्षक अध्यापन कार्य करता है तो वह इस बात का ध्यान रखता है कि अधिगमकर्ता को अधिक से अधिक समझ में आवे।

शिक्षा एक सजीव गतिशील प्रक्रिया है। इसमें अध्यापक और शिक्षार्थी के मध्य अन्तःक्रिया (interaction) होती रहती है और सम्पूर्ण अन्तःक्रिया किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख होती है। शिक्षक और शिक्षार्थी शिक्षाशास्त्र के आधार पर एक दूसरे के व्यक्तित्व से लाभान्वित और प्रभावित होते रहते हैं और यह प्रभाव किसी विशिष्‍ट दिशा की और स्पष्ट रूप से अभिमुख होता है। बदलते समय के साथ सम्पूर्ण शिक्षा-चक्र गतिशील है। उसकी गति किस दिशा में हो रही है? कौन प्रभावित हो रहा है? इस दिशा का लक्ष्य निर्धारण शिक्षाशास्त्र करता है।

शिक्षण के सिद्धान्त[संपादित करें]

प्रत्येक अध्यापक की हार्दिक इच्छा होती है कि उसका शिक्षण प्रभावपूर्ण हो। इसके लिये अध्यापक को कई बातों को जानकर उन्हे व्यवहार में लाना पड़ता है, यथा - पाठ्यवस्तु का आरम्भ कहां से किया जाय, किस प्रकार किया जाय, छात्र इसमें रुचि कैसे लेते रहें, अर्जित ज्ञान को बालकों के लिये उपयोगी कैसे बनाया जाय, आदि। शिक्षाशास्त्रियों ने अध्यापकों के लिये इन आवश्यक बातों पर विचार करके अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-[1]

(१) क्रिया द्वारा सीखने का सिद्धान्त

बालक स्वभावतः ही क्रियाशील होते हैं। निष्क्रिय बैठे रहना उनकी प्रकृति के विपरीत है। उन्हे अपने हाथ, पैर व अन्य इन्द्रियों को प्रयोग में लाने में अत्यन्त आनन्द की प्राप्ति होती है। स्वयं करने की क्रिया द्वारा बालक सीखता है। इस प्रकार से प्राप्त किया हुआ ज्ञान अथवा अनुभव उसके व्यक्तित्व का स्थाई अंग बन कर रह जाता है। अतः अध्यापक का अध्यापन इस प्रकार होना चाहिए जिससे बालक को 'स्वयं करने द्वार सीखने' के अधिकाधिक अवसर मिलें।[2]

(२) जीवन से सम्बद्धता का सिद्धान्त

अपने जीवन से सम्बन्धित वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना बालकों की स्वाभाविक रुचि होती है। अतः पाठ्यवस्तु में जीवन से सम्बन्धित तथ्यों को ही शामिल करना चाहिये अर्थात् वास्तविक जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से लिये गये तथ्यों को ही शामिल करना चाहिये। यदि अध्यापक काल्पनिक अथवा जीवन से असम्बन्धित तथ्यों को ही पढ़ाना चाहेगा तो छात्रों की रुचि उससे हट जायेगी।

(३) हेतु प्रयोजन का सिद्धान्त

जब तक बालकों को पाठ का हेतु अथवा उद्देश्य पूर्णतया ज्ञात नहीं होता है, वे उसमे, पूर्ण ध्यान नहीं दे सकते। केवल पाठ का उद्देश्य जान लेने से भी काम नहीं चलता। यदि पाठ का उद्देश्य बालकों की रुचि को प्रेरणा देने वाला हुआ तो उनका पूरा ध्यान उस पाठ को सीखने में लगता है।

(४) चुनाव का सिद्धान्त

मनुष्य का जीवनकाल अत्यन्त कम है और् ज्ञान का विस्तार असीम है। अतः पाठ्य सामग्री में संसार की अपार ज्ञानराशि में से अत्यन्त उपयोगी वस्तुओं को चुनकर रखा जाना चाहिये।

(५) विभाजन का सिद्धान्त

सम्पूर्ण पाठ्यवस्तु बालक के सम्मुख एकसाथ नहीं प्रस्तुत की जा सकती। उसे उचित खण्डों, अन्वितियों अथवा इकाइयों में विभक्त किया जाना चाहिये। अन्वितियां ऐसी हों जैसी कि सीढ़ियां होती हैं। इन्हें जैसे-जैसे बाल पार करता जाये, वह उन्नति करता जाये।

(६) पुनरावृत्ति का सिद्धान्त

बालक किसी पाठ्यवस्तु अथवा ज्ञान को अपने मस्तिष्क में ठोस प्रकार से तभी जमा कर सकता है जब बार-बार उसकी आवृत्ति करायी जाय।

शिक्षण-सूत्र[संपादित करें]

(१) ज्ञात से अज्ञात की ओर चलो

बालक के पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित करते हुए यदि नया ज्ञान प्रदान किया जाता है तो बालक को उसे सीखने में रुचि व प्रेरणा प्राप्त होती है। मनुष्य सामान्यतया इसी क्रम से सीखता है। इसलिये अध्यापक को अपनी पाठ्य सामग्री इस क्रम में प्रस्तुत करना चाहिये।

(२) सरल से कठिन की ओर चलो

पाठ्यवस्तु को इस प्रकार प्रस्त्तुत करना चाहिये कि उसके सरल भागों का ज्ञान पहले करवाया जाय तथा धीरे-धीरे कठिन भागों को प्रस्तुत किया जाय।

(४) स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलो

सूक्ष्म तथा अमूर्त विचारों को सिखाते समय उनका प्रारम्भ आसपास की स्थूल वस्तुओं तथा स्थूल विचारों से करना चाहिये। बालक की शिक्षा सदैव स्थूल वस्तुओं तथा तथ्यों से होनी चाहिये; शब्दों, परिभाषाओं तथा नियमों से नहीं।

(५) विशेष से सामान्य की ओर चलो

किसी सिद्धान्त की विशेष बातों को पहले रखे, फिर उनका सामान्यीकरण करना चाहिये। गणित, विज्ञान, व्याकरण्, छन्द व अलंकारशास्त्र की शिक्षा देते समय इसी क्रम को अपनाना चाहिये। आगमन प्रणाली में भी इसी का उपयोग होता है।

(६) अनुभव से तर्क की ओर चलो

ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बालक यह तो जान लेता है कि अमुक वस्तु कैसी है किन्तु वह यह नहीं जानता कि वह ऐसी क्यों है। बार-बार निरीक्षण व परीक्षण से वह इन कारणों को भी जान जाता है। अर्थात् वह अनुभव से तर्क की ओर बढ़ता है। बालक के अनुभूत तथ्यों को आधार बनाकर धीरे-धीरे निरीक्षण व परीक्षण द्वारा उनकी तर्कशक्ति का विकास करने का प्रयत्न करना चाहिये।

(७) पूर्ण से अंश की ओर चलो

बालक के सम्मुख उसकी समझ में आने योग्यपूर्ण वस्तु या तथ्य को रखना चाहिये। इसके बाद उसके विभिन्न अंशों के विस्तृत ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहिये। यदि एक पेड़ का ज्ञान प्रदान करना है तो पहले उसका सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत किया जायेगा तथा बाद में उसकी जड़ों, पत्तियों, फलों आदि का परिचय अलग अलग करवाया जायेगा।

(८) अनिश्चित से निश्चित की ओर चलो

इस सूत्र के अंतर्गत अस्पष्ट एवं अनियमित ज्ञान को स्पष्ट एवं नियमित करना होता है। छात्र अपनी संवेदनाओ द्वारा अनेक अष्पष्ट एवं अनियमित वस्तुओं की जानकारी करता है, परंतु शिक्षक को चाहिए कि वह उसे स्पष्ट करे।

(९) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर चलो

यह सूत्र पूर्ण से अंश की ओर सूत्र का विपरीत है, इसके अंतर्गत छात्र को पूर्व ज्ञान प्रदान किया जाय तत्पश्चात इस पूर्ण का विभिन्न अंशो में विश्लेषण किया जाय और इसके उपरांत फिर उसे पूर्णता की और संश्लेषित किया जाय। (१०) तर्क पूर्ण विधि का त्याग व मनोवैज्ञानिक विधि का अनुसरण करो

वर्तमान समय में मनोविज्ञान के प्रचार के कारण इस बात पर जोर दिया जाता है कि शिक्षण विधि व क्रम में बालकों की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं, रुचियों, जिज्ञासा और ग्रहण शक्ति को ध्यान में रखा जाय।

(११) इन्द्रियों के प्रशिक्षण द्वारा शिक्षा दो

(१२) प्रकृति का आधार

बालक को शिक्षा इस प्रकार मिलनी चाहिये कि वह उसके प्राकृतिक विकास में बाधा न बने बल्कि सहायक हो।

शिक्षण कौशल[संपादित करें]

शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक के द्वारा प्रश्न पूछना, व्याख्यान देना, सहायक सामग्री का प्रदर्शन करना, पुनर्बलन देना, उदाहरण प्रस्तुत करना आदि कार्य करने होते हैं, जिसके द्वारा वे अपने शिक्षण प्रक्रिया को सरल, सुगम व रुचिपूर्ण बना सकें, इसी सम्पूर्ण प्रक्रिया को शिक्षण कौशल ( Teaching Skills) कहा जाता है।

अर्थात, शिक्षक द्वारा शिक्षण कार्य करते हुए अपने शिक्षण को प्रभावपूर्ण, रुचिकर व उद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए जो कुछ भी किया जाता है उसे शिक्षण कौशल कहते है।

परिभाषा[संपादित करें]

बी0 के0 पासी ने शिक्षण कौशल शब्द को इस प्रकार परिभाषित किया हैं:- “शिक्षण कौशल उन परस्पर सम्बन्धित शिक्षण-क्रियाओं या व्यवहारों का समूह हैं जो विद्यार्थी के अधिगम में सहायता देते हैं।“

एन0 एल0 गेज के अनुसार, ”शिक्षण कौशल वे अनुदेशनात्मक क्रियाएँ और विधियाँ है जिनका प्रयोग शिक्षक अपनी कक्षा में कर सकता है। ये शिक्षण के विभिन्न स्तरों से सम्बन्धित होती है या शिक्षक की निरन्तर निष्पति के रुप में होती हैं।“

शैक्षिक शब्दकोष के अनुसार, ”कौशल मानसिक शारीरिक क्रियाओं की क्रमबद्ध और समन्वित प्रणाली होता हैं।“

शिक्षण कौशल के प्रकार[संपादित करें]

1- प्रस्तावना कौशल ( Introducing Skill)

किसी भी टॉपिक को पढ़ाने से पहले प्रस्तावना बनाना चाहिए जिससे बच्चे उस टॉपिक को अपने पूर्वज्ञान से जोड़ सके,प्रस्तावना कौशल में आप किसी टॉपिक को किसी कहानी के माध्यम से, खोजपूर्ण प्रश्न पूछ कर, किसी दृश्य श्रव्य सामग्री का प्रयोग करके या कोई चित्र आदि दिखाकर कर सकते हैं।[3]

2- कक्षा- कक्ष प्रबंधन कौशल ( Class Management Skill)

कक्षा- कक्ष में छात्रों के बैठने के तरीके से लेकर, कक्षा में छात्रों में अनुशासन तथा छात्रों की शिक्षण प्रक्रिया में रुचि बनी रहें इन सबका प्रबन्ध करना कक्षा-कक्ष प्रबंधन कौशल के अंतर्गत आता है।

3- श्यामपट्ट कौशल ( Black Board Skill)

शिक्षण प्रक्रिया के दौरान श्यामपट्ट का सही तरीके से प्रयोग करना ही श्यामपट्ट कौशल के अंतर्गत आता है। छोटी कक्षा के लिए श्यामपट्ट कौशल अति आवश्यक होता है। जैसे-

  • १. श्यामपट्ट पर जो भी लिखना स्वच्छ, स्पष्ट व सीधी लाइन में लिखना चाहिए।
  • २. अक्षरों का आकार कक्षा के अनुरूप हो
  • ३. चित्र आदि बनाते समय अलग-अलग रंग के चॉक का प्रयोग करना।
  • ४. श्यामपट्ट पर लिखतें समय सीधी रेखा में लिखना चाहिए।
  • ५. श्यामपट्ट कार्य करतें समय विषय के अनुसार सचित्र वर्णन करना चाहिए।
4- उद्दीपन परिवर्तन कौशल

छात्रों का ध्यान टॉपिक में बना रहे इसके लिए अध्यापक को अपने शरीर का संचालन, अपने हाव-भाव मे परिवर्तन, हाथों का संकेत,स्वर में उतार चढ़ाव, छात्र-शिक्षक की अन्तःक्रियाया में परिवर्तन आदि टॉपिक के अनुसार करना चाहिए, जिससे शिक्षक-छात्र अनुक्रिया सही ढंग से हो सके।

इस प्रकार के कौशल को उद्दीपन परिवर्तन कौशल कहते है।

5- पुनर्बलन कौशल ( Reinforcement Skill)

किसी यैसे पुनर्बलन का प्रयोग करना या पहले से किये गए पुनर्बलन को हटाना जिससे छात्र- शिक्षक की अनुक्रिया बनी रहे। जैसे- छात्रों को शाब्दिक या अशाब्दिक पुनर्बलन देना।

6- खोजपूर्ण प्रश्न कौशल

यदि कोई छात्र किसी प्रश्न का उत्तर न दे पा रहा हो तो उससे संबंधित कोई दूसरा प्रश्न पूछना जो कि पहले प्रश्न से संबंधित हो, जिससे छात्र अपने पूर्व ज्ञान को अपने टॉपिक से जोड़ सके।

7- उद्देश्य कौशल -

शिक्षण कार्य हमेशा उद्देश्य पूर्ण हो, जो भी कक्षा-कक्ष में पढ़ाया जा रहा हो उसका एक अपना निश्चित उद्देश्य हो , वही कार्य या टॉपिक बच्चों को कराया जाना चाहिए। उद्देश्य विहीन शिक्षण नही होना चाहिए।

8- दृष्टान्त या उदाहरण कौशल ( Example Skill)

यदि कोई टॉपिक बच्चों की समझ मे न आ रहा हो तो उसको उदाहरण के माध्यम से बच्चों को समझना या दिखाना चाहिए, जैसे- किसी कहानी के माध्यम से,कोई चित्र,मानचित्र, वास्तविक उदाहरण, प्रायोगिक उदहारण का प्रयोग करना चाहिए जिससे बच्चों में करके सीखने की रुचि जागृति हो सके।

सावधानी- सार्थक, सरल,तथा रोचक हो

9- व्याख्यान कौशल ( Lecture Skill)

बड़ी कक्षा के लिए उपयोगी होती है, व्याख्यान पूर्वज्ञान से संबंधित, रुचिपूर्ण व उद्देश्य पूर्ण होना चाहिए।

10- शिक्षण सहायक सामग्री प्रयोग कौशल--

इस कौशल के अंतर्गत शिक्षकों को दृश्य- श्रव्य सहायक सामग्री का कुशलता पूर्वक प्रयोग करना आता है। जैसे- सहायक सामग्री पाठ्यक्रम के अनुरूप हो, रोचक हो, उद्देश्य पूर्ण हो तथा सस्ती हो।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "भाषा शिक्षण के सिद्धांत". Preptoz (अंग्रेज़ी में). 2019-11-10. मूल से 26 जनवरी 2021 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2021-02-18.
  2. "सम्बद्धता क्या है?". www.pravakta.com.
  3. "Teaching Skills || शिक्षण कौशल". हिंदी साहित्य चैनल (अंग्रेज़ी में). 2019-04-16. अभिगमन तिथि 2021-03-21.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]