व्यवसाय

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व्यवसाय (Business) विधिक रूप से मान्य संस्था है, जो उपभोक्ताओं को कोई उत्पाद या सेवा प्रदान करने के लक्ष्य से निर्मित की जाती है। व्यवसाय को 'कम्पनी', 'इंटरप्राइज' या 'फर्म' भी कहते हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में व्यापार का प्रमुख स्थान है जो अधिकांशत: निजी हाथों में होते हैं और लाभ कमाने के ध्येय से काम करते हैं तथा साथ-साथ स्वयं व्यापार की भी वृद्धि करते हैं। किन्तु सहकारी संस्थाएँ तथा सरकार द्वारा चलायी जानी वाली संस्थाएं प्राय: लाभ के बजाय अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिये बनायी गयी होती हैं।

हम व्यावसायिक वातावरण में रहते हैं। यह समाज का एक अनिवार्य अंग है। यह व्यावसायिक क्रियाओं के विस्तृत नेटवर्क के माध्यम से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं तथा सेवाएं उपलब्ध कराकर हमारी आश्यकताओं की पूर्ति करता है।

अन्य शब्दों में - व्यवसाय एक ऐसा है जिसमें अर्थोपार्जन के बदले वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन, विक्रय और विनिमय होता है एवं या कार्य नियमित रूप से किया जाता है। "व्यवसाय में वे संपूर्ण मानवीय क्रियाएं आ जाती हैं, जो वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण के लिए की जाती है, जिनका उद्देश्य अपनी सेवा ओं द्वारा समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करके लाभ अर्जन करना होता है।

व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र[संपादित करें]

जब हम अपने आसपास ध्यान देते हैं तो देखते हैं कि ज्यादातर लोग किसी न किसी काम में संलग्न हैं। अध्यापक विद्यालयों में पढ़ाते हैं, किसान खेतों में काम करते हैं, मजदूर कारखानों में काम करते हैं, चालक गाड़ियाँ चलाते हैं, दुकानदार सामान बेचते हैं, चिकित्सक रोगियों को देखते हैं आदि। इस तरह बारहों महीने हर आदमी दिन भर, या कभी-कभी रात भर, किसी न किसी काम में व्यस्त रहता है। लेकिन अब प्रश्न यह उठता है कि हम सब इस तरह किसी न किसी काम में अपने आपको इतना व्यस्त क्यों रखते हैं? इसका सिर्फ एक ही उत्तर है - 'अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए'। इस तरह काम करके या तो हम अपने विभिन्न उत्तरदायित्वों की पूर्ति करते हैं या धन अर्जित करते हैं, जिससे कि हम अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ तथा सेवाएँ खरीद सकें।

मानवीय क्रियाएँ[संपादित करें]

मनुष्य द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाएँ मानवीय क्रियाएँ कहलाती हैं। इन सभी क्रियाओं को हम दो वर्गो में बाँट सकते हैं-

  • आर्थिक क्रियाएँ, और
  • अनार्थिक क्रियाएँ।

आर्थिक क्रियाएँ[संपादित करें]

जो क्रियाएँ धन अर्जित करने के उद्देश्य से की जाती हैं, उन्हें आर्थिक क्रियाएँ कहते हैं। उदाहरण के लिए, किसान खेत में हल चलाकर फसल उगाता है और उसे बेचकर धन अर्जित करता है, कारखाने अथवा कार्यालय का कर्मचारी अपने काम के बदले वेतन या मजदूरी प्राप्त करता है, व्यापारी वस्तुओं के क्रय विक्रय से लाभ अर्जित करता है। ये सभी क्रियाएँ आर्थिक हैं।

अनार्थिक क्रियाएँ[संपादित करें]

जो क्रियाएँ धन अर्जित करने की अपेक्षा, संतुष्टि प्राप्त करने के उद्देश्य से की जाती हैं उन्हें अनार्थिक क्रियाएँ कहते हैं। इस तरह की क्रियाएँ, सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति, मनोरंजन या स्वास्थ्य लाभ के लिए की जाती हैं। लोग पूजा स्थलों पर जाते हैं, बाढ़ अथवा भूकंप राहत कोष में दान देते हैं, स्वास्थ्य लाभ के लिए स्वयं को खेलकूद में व्यस्त रखते हैं, बागवानी करते हैं, रेडियो सुनते हैं, टेलीविजन देखते हैं या इसी तरह की अन्य क्रियाएँ करते हैं। ये कुछ उदाहरण अनार्थिक क्रियाओं के हैं।

आर्थिक क्रियाओं के प्रकार[संपादित करें]

आमतौर पर आर्थिक क्रियाएँ धन अर्जित करने के उद्देश्यों से की जाती है। साधरणतया लोग इस तरह की क्रियाओं में नियमित रूप में संलग्न होते हैं, जिसे आर्थिक क्रिया कहा जाता है।

  • व्यवसाय : व्यवसाय का अर्थ है एक ऐसा धंधा, जिसमें धन के बदले वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन, विक्रय और विनिमय होता है। यह नियमित रूप से किया जाता है तथा इसे लाभ कमाने के उद्देश्य से किया जाता है। खनन, उत्पादन, व्यापार, परिवहन, भंडारण, बैंकिंग तथा बीमा आदि व्यावसायिक क्रियाओं के उदाहरण हैं।
  • पेशा : कोई भी व्यक्ति हर क्षेत्र का विशेषज्ञ नहीं हो सकता। इसलिए हमें दूसरे क्षेत्रों में विशेषज्ञ व्यक्तियों की सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण के लिए, हमें अपने इलाज के लिए डॉक्टर की और कानूनी सलाह के लिए वकील के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। ये सभी व्यक्ति पेशे से जुड़े लोग हैं। इस प्रकार पेशे का अभिप्राय ऐसे धंधे से है, जिसमें उस पेशे के विशेष ज्ञान और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है तथा प्रत्येक पेशे का मुख्य उद्देश्य सेवा प्रदान करना होता है। एक पेशेवर निकाय प्रत्येक पेशे का नियमन करती है। इन पेशेवरों की आचार संहिता होती है, जिसे सम्बन्ध्ति पेशेवर इकाई द्वारा विकसित किया जाता है।
  • नौकरी : नौकरी का अर्थ, एक ऐसे धंधे से है जिसमें व्यक्ति नियमित रूप से दूसरों के लिए कार्य करता है, और उसके बदले में वेतन अथवा मजदूरी प्राप्त करता है। सरकारी कर्मचारी, कंपनियों के कार्यकारी, अफ़सर, बैंक कर्मचारी, पैफक्टरी मजदूर आदि नौकरी में संलग्न माने जाते हैं। नौकरी में काम के घंटे मजदूरी/वेतन की राशि तथा अन्य सुविधाएँ यदि हैं, के सम्बंध में शर्तें होती है। सामान्यतः नियोक्ता इन शर्तों को तय करता है। कोई भी व्यक्ति जो नौकरी चाहता है, उसे तभी कार्य करना आरम्भ करना चाहिए जबकि वह शर्तों से संतुष्ट हो। कर्मचारी का प्रतिफल निश्चित होता है तथा उसका भुगतान मजदूरी अथवा वेतन के रूप में किया जाता है।

व्यवसाय वित्त कि विशेषताएँ[संपादित करें]

व्यवसाय को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है :

‘‘व्यवसाय एक ऐसी क्रिया है, जिसमें लाभ कमाने के उद्देश्य से वस्तुओं अथवा सेवाओं का नियमित उत्पादन क्रय-विक्रय तथा विनिमय सम्मिलित है’’।

व्यवसाय की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं :

  • वस्तुओं तथा सेवाओं का लेन-देन : व्यवसाय में लोग वस्तुओं अथवा सेवाओं के उत्पादन तथा वितरण कार्यों में

संलग्न होते हैं। इन वस्तुओं में ब्रेड, मक्खन, दूध, चाय आदि जैसी उपभोक्ता वस्तुएं भी हो सकती हैं और संयन्त्रा, मशीनरी, उपकरण आदि जैसी पूंजीगत वस्तुएँ भी। सेवाएँ- परिवहन, बैंकिंग, बीमा, विज्ञापन आदि रूपों में हो सकती हैं।

  • वस्तुओं तथा सेवाओं का विक्रय अथवा विनिमय : यदि कोई व्यक्ति अपने उपयोग के लिए या किसी व्यक्ति को उपहार देने के लिए कोई वस्तु खरीदता या उत्पादित करता है तो वह किसी प्रकार के व्यवसाय में संलग्न नहीं है। लेकिन जब वह किसी दूसरे व्यक्ति को बेचने के लिए किसी वस्तु का उत्पादन करता है अथवा खरीदता है तो वह व्यवसाय में संलग्न होता है। इस प्रकार व्यवसाय में क्रेता और विक्रेता के बीच वस्तुओं अथवा सेवाओं के उत्पादन अथवा क्रय में धन अथवा वस्तु (वस्तु विनिमय प्रणाली में) का विनिमय आवश्यक होता है। बिना विक्रय अथवा विनिमय के किसी भी क्रिया को व्यवसाय की संज्ञा नहीं दी जा सकती।
  • वस्तुओं अथवा सेवाओं का नियमित विनिमय : इसमें वस्तुओं का नियमित उत्पादन अथवा क्रय-विक्रय होना आवश्यक होता है। सामान्यतया एकाकी सौदे को व्यवसाय की संज्ञा नहीं दी जा सकती। उदाहरण के लिए, यदि राजू अपनी पुरानी कार हरि को बेचता है तो इसे व्यवसाय नहीं कहा जाएगा, जब तक कि वह नियमित रूप से कारों के क्रय-विक्रय में संलग्न न हो।
  • निवेश की आवश्यकता : प्रत्येक व्यवसाय में भूमि, श्रम अथवा पूंजी के रूप में कुछ न कुछ निवेश की आवश्यकता होती है। इन संसाधनों का उपयोग विविध प्रकार की वस्तुओं अथवा सेवाओं के उत्पादन, वितरण और उपभोग के लिए किया जाता है।
  • लाभ कमाने का उद्देश्य : व्यावसायिक क्रियाओं का प्राथमिक उद्देश्य लाभ के माध्यम से आय अर्जित करना है। बिना लाभ के कोई भी व्यवसाय अधिक समय तक चालू नहीं रह सकता। लाभ कमाना व्यवसाय के विकास और विस्तार की दृष्टि से भी आवश्यक होता है।
  • आय की अनिश्चितता और जोखिम : प्रत्येक व्यवसाय का उद्देश्य लाभ कमाना है। जब कोई व्यवसायी विभिन्न संसाध्नों का निवेश करता है तो वह उसके बदले में कुछ न कुछ आय प्राप्त करना चाहता है। लेकिन उसके श्रेष्ठतम प्रयासों के बावजूद व्यवसाय में आय की अनिश्चितता बनी रहती है। कई बार उसे बहुत लाभ होता है और कई बार ऐसा भी समय आता है, जब उसे भारी हानि उठानी पड़ती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि भविष्य अनिश्चित है। व्यवसायी का आय को प्रभावित करने वाले तत्वों पर कोई नियंत्राण नहीं होता।

व्यवसाय विकास[संपादित करें]

भारत की सांस्कृतिक ध्रोहर बहुत समृद्ध है। लेकिन शायद यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि प्राचीन काल में भारत, अर्थव्यवस्था तथा व्यवसाय के स्तर पर बहुत ही विकसित देश था। यह बात ऐतिहासिक साक्ष्यों, खुदाई से प्राप्त प्रमाणों, साहित्य व लिखित दस्तावेज़ों से सिधि होती हैं। इन सबसे अध्कि भारत की असीम धन संपत्ति से आकर्षित होकर विभिन्न विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा समय-समय पर हुए आक्रमण भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। प्राचीन भारतीय सभ्यता न केवल वृफषि आधारित थी, बल्कि इसके आंतरिक व बाह्य व्यापार व वाणिज्य भी काफी उन्नत थे। व्यावसायिक जगत के विभिन्न क्षेत्रों में भारत का असीम योगदान है। उस समय के अन्य देशों में प्रचलित व्यवसायों से तुलना करने पर हम पाते हैं कि भारतीय व्यवसाय अपनी विलक्षणता, गतिशीलता ;गत्यात्मकताद्ध व गुणात्मकता में इन सबसे कहीं आगे था।

शुरू के दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णतः कृषि आधरित थी। लोग अपने उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन स्वयं करते थे। वस्तुओं को बेचने अथवा विनिमय की आवश्यकता ही नहीं थी। लेकिन विकास के साथ-साथ लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ने लगी। जिसके कारण वस्तुओं के उत्पादन में भी वृधि होने लगी। लोगों ने दैनिक उपयोग तथा विलासिता संबंधी विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में विशेषज्ञता अर्जित करनी शुरू कर दी और इस तरह से उनके पास अपने उपयोग की अन्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए दक्षताऔर समय का व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र अभाव होना शुरू हो गया। इस प्रकार इनकी कुशलता में वृधि होने लगी और ये अपनी आवश्यकता से अध्कि वस्तुओं का उत्पादन करने में सक्षम हो गए। अतः अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी अध्कि उत्पादित वस्तुओं के विनिमय की प्रणाली विकसित हो गई। यह व्यापार की शुरूआत थी।

आज ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि भारत में व्यवसाय व व्यापार के क्षेत्र में इतना विकास स्वतंत्राता प्राप्ति के पश्चात ही हुआ है। भारत, आज औद्योगिक उत्पादन में इतना सक्षम हो गया है कि हम सभी वस्तुओं का उत्पादन देशी तकनीक के प्रयोग से कर सकते हैं। लेकिन इससे यह परिणाम नहीं निकाल लेना चाहिए कि भूत काल में भारतीय सभ्यता विकसित या उन्नत नहीं थी। जबकि हमें आज भी भारत की समृधि व्यापारिक व वाणिज्यिक ध्रोहर पर गर्व है।

आप यह जानकर हैरान होंगे कि भारत ने व्यापार व वाणिज्य के क्षेत्र में अपनी यात्रा 5000 वर्ष ई.पू. शुरू कर दी थी। कई ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह प्रमाणित होता है कि उस समय भारत में सुनियोजित शहर थे। भारतीय कपड़ों, आभूषणों और इत्रा इत्यादि के प्रति पूरे विश्व में आकर्षण था। यह भी प्रमाण मिले हैं कि काफी समय से भारतीय व्यापारियों में व्यवसाय के लिए मुद्रा के प्रयोग का चलन था। व्यापारियों, शिल्पकारों व उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए संघों ;हनपसकद्ध का प्रचलन था। यह भारत में व्यापार व वाणिज्य के जटिल विकास की ओर संकेत करता है। उस समय भारत के व्यापारियों ने न केवल सुदृढ़ आंतरिक व्यवसायिक रास्तों का जाल बुना था, बल्कि उनके व्यावसायिक संबंध अरब, मध्य व दक्षिण पूर्व एशिया के व्यापारियों से भी थे।

भारत विभिन्न प्रकार की धतु सामग्री के उत्पादन में भी सक्रिय था, जैसे तांबा, पीतल की वस्तुएं, बर्तन, गहने तथा सजावटी सामान आदि। भारतीय व्यापारी विश्व के विभिन्न भागों में अपने उत्पादों का निर्यात करते थे और वहां से उनके उत्पादों का आयात करते थे। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि अंग्रेज सर्वप्रथम भारत में व्यापार करने के लिए ही आए थे, जिन्होंने बाद में यहां अपना राज्य स्थापित कर लिया।

भारत ने कई प्रकार से विश्व व्यापार व वाणिज्य में योगदान दिया है। गणना के लिए अंक प्रणाली, जिसका हम आज भी उपयोग करते हैं, भारत में पहले से विकसित थी। संयुक्त परिवार प्रथा तथा व्यवसाय में श्रम विभाजन का विकास भी यहीं हुआ, जो आज तक प्रचलित है। आज आध्ुनिक समय में प्रयोग की जाने वाली उपभोक्ता केंद्रित व्यवसाय तकनीक पुराने समय से भारतीय व्यवसाय का एक अभिन्न अंग रही है।

इसलिए हम कह सकते हैं कि भारत की अपनी समृधि व्यावसायिक ध्रोहर है, जिसने इसकी उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

व्यवसाय के उद्देश्य[संपादित करें]

सभी व्यावसायिक क्रियाएँ कुछ उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जाती हैं। व्यवसाय के उद्देश्यों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है :

आर्थिक उद्देश्य[संपादित करें]

व्यवसाय के आर्थिक उद्देश्यों के अंतर्गत लाभ कमाने के उद्देश्य के साथ वे समस्त आवश्यक क्रियाएँ भी आती हैं, जिनके द्वारा लाभ कमाने के उद्देश्य की पूर्ति की जाती है, जैसे ग्राहक बनाना, नियमित नव प्रवर्तन तथा उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग आदि।

लाभ कमाना[संपादित करें]

लाभ, व्यवसाय के लिए जीवन दायिनी शक्ति का कार्य करता है। इसके बिना कोई भी व्यवसाय प्रतियोगिता के बाजार में टिका नहीं रह सकता। वास्तव में किसी भी व्यावसायिक इकाई के अस्तित्व में आने का उद्देश्य होता है- लाभ कमाना। लाभ, व्यवसायी को न केवल उसकी आजीविका अर्जित करने में सहायता करता है, अपितु लाभ का एक भाग व्यवसाय में पुनः विनियोजित कर व्यावसायिक गतिविध्यिं के विस्तार में भी सहायक होता है।

लाभ कमाने के प्राथमिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए व्यवसाय के कुछ अन्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

  • ग्राहक बनाना : जब तक उत्पाद को और सेवाओं को खरीदने वाले ग्राहक न हों, तब तक किसी भी व्यवसाय का अस्तित्व में बने रहना संभव नहीं है। कोई भी व्यवसायी तभी लाभ अर्जित कर सकता है जबकि वह लाभ के बदले में अपने ग्राहकों को अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ उपलब्ध कराए। इसके लिए यह आवश्यक है वह अपनी विद्यमान वस्तुओं के लिए ग्राहकों को आकर्षित करे तथा अध्कि से अध्कि ग्राहक बनाए और नए-नए उत्पाद बाजार में लाए। विभिन्न विपणन क्रियाओं के द्वारा इसे प्राप्त किया जा सकता है।
  • नियमित नव-प्रवर्तन : व्यवसाय अत्यंत गतिशील है तथा एक उपक्रम अपने वातावरण में हुए परिवर्तनों को अपनाकर ही निरंतर सफल हो सकता है। नव प्रवर्तन का अर्थ है- नया परिवर्तन। ऐसा परिवर्तन, जिससे उत्पाद की गुणात्मकता, प्रक्रिया और वितरण में संशोध्न हो। कीमतों में कमी और बिक्री में वृधि से व्यवसायी को अध्कि लाभ प्राप्त होता है। हथकरघों के स्थान पर पावरलूम और वृफषि में हल अथवा हाथ से चलने वाले यंत्रों के स्थान पर ट्रैक्टर का उपयोग आदि नव-प्रवर्तन के ही परिणाम हैं।
  • संसाधनों का श्रेष्ठतम उपयोग : किसी भी व्यवसाय को चलाने के लिए पर्याप्त पूँजी अथवा कोष की आवश्यकता होती है। इस पूँजी को मशीनें खरीदने, कच्चा माल तथा कर्मचारियों को काम पर रखने और प्रतिदिन के खर्चों की पूर्ति के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इस प्रकार व्यावसायिक क्रियाओं में विभिन्न संसाध्नों जैसे मशीनें, आदमी, माल, मुद्रा आदि की आवश्यकता होती है। कुशल कर्मचारियों की नियुक्ति द्वारा, मशीनों का क्षमता पूर्ण उपयोग करके तथा कच्चे माल के अपव्यय को कम करके इन उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

सामाजिक उद्देश्य[संपादित करें]

सामाजिक उद्देश्य व्यवसाय के वे उद्देश्य होते हैं, जिन्हें समाज के हितों के लिए प्राप्त करना आवश्यक होता है। अतः हर व्यवसाय का उद्देश्य होना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार से समाज को हानि न पहुँचाए। व्यवसाय के सामाजिक उद्देश्यों के अंतर्गत अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन तथा पूर्ति, उचित व्यापारिक प्रथाएँ अपनाना, समाज के सामान्य कल्याणकारी कार्यों में योगदान तथा कल्याणकारी सुविधाओं में योगदान करना सम्मिलित है।

  • अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन तथा पूर्ति : चूंकि व्यवसाय समाज के विविध संसाध्नों का उपयोग करता है। इसलिए समाज की अपेक्षा होती है कि व्यवसाय उसे गुणवत्ता वाली वस्तुओं तथा सेवाओं की आपूर्ति करे। इसलिए व्यवसाय का उद्देश्य होना चाहिए कि वह अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन करे तथा उचित कीमत पर और उचित समय पर उनकी पूर्ति करें। व्यवसायी द्वारा समाज को आपूर्ति की जाने वाली वस्तुओं तथा सेवाओं की गुणवत्ता के अनुसार उनका मूल्य वसूल करना चाहिए।
  • उचित व्यापारिक प्रथाएँ अपनाना : प्रत्येक समाज में जमाखोरी कालाबजारी, अधिक कीमत वसूलना आदि क्रियाएँ अवांछित मानी जाती हैं। इसके अलावा गुमराह करने वाले विज्ञापन, वस्तुओं की गुणवत्ता के बारे में गलत छाप छोड़ते हैं। व्यावसायिक इकाइयों को अधिक लाभ कमाने के लिए आवश्यक वस्तुओं की वृफत्रिम कमी अथवा कीमतों में वृद्धि नहीं करनी चाहिए। ऐसी क्रियाओं से व्यवसायी की बदनामी होती है और कभी-कभी उसे दंड अथवा कानूनन जेल की सजा भी भुगतनी पड़ती है। इस प्रकार उपभोक्ता और समाज के कल्याण को ध्यान में रखते हुए, व्यवसायी को उद्देश्य तथा उचित व्यापारिक प्रथाओं को अपनाना चाहिए।
  • समाज के सामान्य कल्याण कार्यों में योगदान : व्यावसायिक इकायों को समाज के सामान्य कल्याण तथा उत्थान के लिए कार्य करना चाहिए। यह अच्छी शिक्षा के लिए स्कूल तथा कॉलेज बनाकर, लोगों को आजीविका कमाने के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र खोलकर, चिकित्सा की सुविध के लिए अस्पतालों की स्थापना कर, आम जनता के मनोरंजन के लिए पार्क तथा खेल परिसरों आदि की सुविधएँ प्रदान करके संभव है।

मानवीय उद्देश्य[संपादित करें]

मानवीय उद्देश्यों से अभिप्राय उन उद्देश्यों से है, जिनमें समाज के अक्षम तथा विकलांग, शिक्षा अथवा प्रशिक्षण से वंचित लोगों के कल्याण तथा कर्मचारियों की अपेक्षाओं की पूर्ति के लक्ष्य निहित होते हैं। इस प्रकार व्यवसाय के मानवीय उद्देश्यों के अंतर्गत कर्मचारियों की आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक संतुष्टि और मानव संसाधनों का विकास निहित है।

  • कर्मचारियों का आर्थिक कल्याण : व्यवसाय में कर्मचारियों को उचित वेतन, कार्य-निष्पादन के लिए अभिप्रेरणाएं, भविष्यनिधि् ;प्रोविडेंट पंफडद्ध के लाभ, पैंशन तथा अन्य अनुलाभ जैसे चिकित्सा सुविध, आवासीय सुविध आदि उपलब्ध कराए जाने चाहिए। इससे कार्य क्षेत्र में व्यक्ति अधिक संतुष्टि का अनुभव करेंगे और व्यवसाय के लिए अधिक योगदान दे सकेंगे।
  • कर्मचारियों की सामाजिक तथा मानसिक संतुष्टि : यह हर व्यावसायिक इकाई का कर्तव्य बनता है कि वह अपने कर्मचारियों को सामाजिक तथा मानसिक संतुष्टि प्रदान करें और ऐसा वे उनके काम को रोचक और चुनौतीपूर्ण बनाकर, सही कार्य के लिए सही व्यक्ति को नियुक्त कर तथा कार्य की नीरसता को समाप्त करके संभव बना सकते हैं। साथ ही निर्णय लेते समय कर्मचारियों की शिकायतों तथा उनके सुझावों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए। यदि कर्मचारी खुश और संतुष्ट हैं तो वे अपने कार्य भी अच्छे ढंग से कर सकेंगे।
  • मानवीय संसाधनों का विकास : कर्मचारी मनुष्य हैं और इसलिए सदैव अपने पेशागत वृद्धि के लिए तत्पर रहते हैं। इसके लिए उपयुक्त प्रशिक्षण तथा विकास की आवश्यकता होती है। व्यवसाय तभी उन्नति की ओर अग्रसर हो सकता है जब समय के अनुसार उसके कर्मचारी अपनी क्षमताओं, कार्य-कुशलताओं तथा दक्षताओं में सुधर करते रहें। अतः व्यवसाय के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह अपने कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण तथा विकास के कार्यक्रम आयोजित करते रहें।
  • सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का आर्थिक कल्याण : व्यावसायिक इकाइयाँ समाज के पिछड़े तथा शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग लोगों की मदद करके समाज के लिए एक प्रेरणा स्रोत बन सकती हैं। ऐसा वे विभिन्न प्रकार से कर सकती हैं। उदाहरण के लिए व्यवसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करके समाज के पिछड़े समुदाय के लोगों की आय अर्जन क्षमता बढ़ाई जा सकती है। इसके अलावा व्यवसायिक इकाइयाँ मेधवी विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के लिए छात्रावृत्ति प्रदान करके भी ऐसा कर सकती है।

राष्ट्रीय उद्देश्य[संपादित करें]

व्यवसाय, देश का एक महत्वपूर्ण अंग होता है अतः राष्ट्रीय लक्ष्यों और आकांक्षाओं की प्राप्ति प्रत्येक व्यवसाय का उद्देश्य होना चाहिए। व्यवसाय के राष्ट्रीय उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

  • रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना - व्यवसाय के महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लक्ष्य है, लोगों को लाभपूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना। इस लक्ष्य की पूर्ति नई व्यावसायिक इकाईयाँ स्थापित करके, बाजार का विस्तार करके तथा वितरण प्रणाली को और अधिक व्यापक बनाकर की जा सकती है।
  • सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना -एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में एक व्यवसायी से यह आशा की जाती है कि जिन लोगों के साथ वह लेनदेन करता है उन सभी को समान अवसर प्रदान करे। यह भी आशा की जाती है कि वह सभी कर्मचारियों को कार्य करने तथा उन्नति करने के समान अवसर उपलब्ध कराए। इस उद्देश्य के अंतर्गत वह समाज के पिछड़े तथा कमजोर वर्गो के लोगों पर विशेष ध्यान दें।
  • राष्ट्रीय प्राथमिकता के अनुसार उत्पादन करना -व्यावसायिक इकाइयों को सरकार की नीतियों तथा योजनाओं की प्राथमिकता को देखते हुए उन्हीं के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन तथा आपूर्ति करनी चाहिए। हमारे देश में व्यवसाय के राष्ट्रीय उद्देश्यों में से एक उद्देश्य आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ाकर उचित दर पर उपलब्ध कराना होना चाहिए।
  • देश के राजस्व में योगदान व्यवसाय के स्वामियों को करों और बकाया राशि का भुगतान ईमानदारी के साथ करना चाहिए। इससे सरकार का राजस्व बढ़ता है, जिसका उपयोग राष्ट्र के विकास के लिए किया जा सकता है।
  • आत्मनिर्भरता तथा निर्यात को बढ़ावा -देश को आत्मनिर्भर बनने में सहायता करने के लिए व्यावसायिक इकाइयों की एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है कि वे वस्तुओं के आयात को रोकें। इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यावसायिक इकाई को निर्यात बढ़ाने तथा अधिक से अधिक विदेशी मुद्रा देश के कोष में लाने को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए।

वैश्विक उद्देश्य[संपादित करें]

पहले भारत के अन्य देशों के साथ बहुत ही सीमित व्यापारिक संबंध थे। तब वस्तुओं की आयात और निर्यात संबंधी नीतियाँ बहुत कठोर थीं, लेकिन आजकल उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण काफी हद तक विदेशी निवेश पर प्रतिबंध समाप्त हो चुका है, तथा आयातित वस्तुओं पर लगने वाला शुल्क भी काफी कम हो गया है। इन परिवर्तनों से बाजार में प्रतियोगिता काफी बढ़ गई है। आज वैश्वीकरण के कारण पूरी दुनिया एक बड़े बाजार के रूप में परिवर्तित हो चुकी है। आज एक देश में तैयार माल दूसरे देश में आसानी से उपलब्ध है। इस प्रकार विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ने से प्रत्येक व्यवसाय अपने मस्तिष्क में कुछ उद्देश्य रखकर काम करने लगा है, जिसे वैश्विक उद्देश्य कहा जा सकता है।

  • सामान्य जीवन स्तर में वृद्धि  : व्यावसायिक गतिविध्यिं के विकास के कारण अब दुनिया भर में उचित मूल्य पर अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुएँ आसानी से उपलब्ध हैं। इस प्रकार एक देश का व्यक्ति दूसरे देश के व्यक्ति द्वारा उपयोग किए जा रहे उसी प्रकार के सामान का उपयोग कर सकता है। इससे लोगों के सामान्य जीवन स्तर में वृद्धि होती है।
  • विभिन्न देशों के बीच असमानताओं को कम करना : व्यवसाय को अपनी गतिविध्यिं का विस्तार कर अमीर और गरीब राष्ट्रों के बीच की असमानता को कम करना चाहिए। विकासशील तथा अविकसित देशों में पूँजी विनियोजित करके ये औद्योगिक तथा आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित कर सकते हैं।
  • विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्ध वस्तुओं तथा सेवाओं की उपलब्धता : व्यवसाय को उन वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन में वृद्धि करनी चाहिए, जिनकी विश्व बाजार में माँग तथा प्रतिस्पर्ध अधिक है। इससे निर्यातक देश की छवि में सुधार आता है और देश को अधिक विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है।

व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व[संपादित करें]

लोग लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से व्यवसाय चलाते हैं। लेकिन केवल लाभ अर्जित करना ही व्यवसाय का एकमात्रा उद्देश्य नहीं होता। समाज का एक अंग होने के नाते इसे बहुत से सामाजिक कार्य भी करने होते हैं। यह विशेष रूप से अपने अस्तित्व की सुरक्षा में संलग्न स्वामियों, निवेशकों, कर्मचारियों तथा सामान्य रूप से समाज व्यवसाय की प्रकृति तथा क्षेत्र व समुदाय की देखरेख की जिम्मेदारी भी निभाता है। अतः प्रत्येक व्यवसाय को किसी न किसी रूप में इनके प्रति जिम्मेदारियों का निर्वाह करना चाहिए। उदाहरण के लिए, निवेशकों को उचित प्रतिफल की दर का आश्वासन देना, अपने कर्मचारियों को अच्छा वेतन, सुरक्षा, उचित कार्य दशाएँ उपलब्ध कराना, अपने ग्राहकों को अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तुएँ उचित मूल्यों पर उलब्ध कराना, पर्यावरण की सुरक्षा करना तथा इसी प्रकार के अन्य बहुत से कार्य करने चाहिए।

हालांकि ऐसे कार्य करते समय व्यवसाय के सामाजिक उत्तारदायित्वों के निर्वाह के लिए दो बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। पहली तो यह कि ऐसी प्रत्येक क्रिया र्ध्मार्थ क्रिया नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यवसाय किसी अस्पताल अथवा मंदिर या किसी स्कूल अथवा कॉलेज को कुछ धनराशि दान में देता है तो यह उसका सामाजिक उत्तरदायित्व नहीं कहलाएगा, क्योंकि दान देने से सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं होता। दूसरी बात यह है कि, इस तरह की क्रियाएँ कुछ लोगों के लिए अच्छी और कुछ लोगों के लिए बुरी नहीं होनी चाहिए। मान लीजिए एक व्यापारी तस्करी करके या अपने ग्राहकों को धेखा देकर बहुत सा धन अर्जित कर लेता है और गरीबों के मुफ्रत इलाज के लिए अस्पताल चलाता है तो उसका यह कार्य सामाजिक रूप से न्यायोचित नहीं है। सामाजिक उत्तरदायित्व का अर्थ है कि एक व्यवसायी सामाजिक क्रियाओं को सम्पन्न करते समय ऐसा कुछ भी न करे, जो समाज के लिए हानिकारक हो।

इस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधरणा व्यवसायी को जमाखोरी व कालाबाजारी, कर चोरी, मिलावट, ग्राहकों को धेखा देना जैसी अनुचित व्यापरिक क्रियाओं के बदले व्यवसायी को विवेकपूर्ण प्रबंध्न के द्वारा लाभ अर्जित करने के लिए प्रोत्साहित करती है। यह कर्मचारियों को उचित कार्य तथा आवासीय सुविधएँ प्रदान करके, ग्राहकों को उत्पाद विक्रय उपरांत उचित सेवाएँ प्रदान करके, पर्यावरण प्रदूषण को नियंत्रित करके तथा प्राकृतिक संसाध्नों की सुरक्षा द्वारा संभव है।

विभिन्न हित समूहों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]

व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधरणा तथा इसके महत्व के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद आइए जानें कि व्यवसाय का इसके विभिन्न हित-समूहों, जिन पर यह आश्रित है, के प्रति क्या उत्तरदायित्व हैं। व्यवसाय प्रायः स्वामियों, विनिवेशकों, कर्मचारियों, पूर्तिकर्ताओं, ग्राहकों तथा उपभोक्ताओं, प्रतियोगियों, सरकार तथा समाज पर आश्रित है। इन्हें हित-समूह इसलिए कहा जाता है, क्योंकि व्यवसाय की प्रत्येक क्रिया से इन समूहों का हित, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है।

स्वामियों तथा निवेशकों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]

व्यवसाय के अपने स्वामियों के प्रति उत्तरदायित्व हैं :

  • व्यवसाय को प्रभावी ढंग से चलाना,
  • पूँजी तथा अन्य संसाध्नों का उचित प्रयोग करना,
  • पूँजी की वृद्धि एवं मूल्य वृद्धि करना,
  • विनिवेशित पूँजी पर नियमित तथा उचित प्रतिफल सुनिश्चित करना,
  • उनके निवेश की सुरक्षा का आश्वासन देना,
  • ब्याज का नियमित भुगतान करना,
  • मूलध्न की, समय पर वापसी करना।

लेनदारों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]

व्यवसाय के अपने लेनदारों के प्रति उत्तरदायित्व हैः

  • समय पर भुगतान करना,
  • उनके द्वारा दिए गए उधर की सुरक्षा सुनिश्चित करना,
  • अन्य व्यवसायों की भाँति व्यवसाय के मानकों का पालन करना।

कर्मचारियों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]

व्यवसाय के अपने कर्मचारियों के प्रति निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं :

  • वेतन अथवा मजदूरी का नियमित तथा समय पर भुगतान,
  • उचित कार्य दशाएँ तथा कल्याणकारी सुविधएँ,
  • भावी जीविका का श्रेष्ठ अवसर,
  • नौकरी की सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा जैसे भविष्य निधि् की सुविधएँ, सामूहिक बीमा, पेंशन, अवकाश प्राप्ति के बाद की सुविधएँ, मुआवजा आदि,
  • श्रेष्ठ रहन-सहन जैसे- गृह, यातयात, जलपान गृह, शिक्षु संरक्षण गृह उपलब्ध कराना।
  • समयानुसार प्रशिक्षण तथा विकास।

आपूर्तिकर्ताओं के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]

व्यवसाय के अपने आपूर्तिकर्त्ताओं के प्रति उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं :

  • वस्तुओं के क्रय के लिए नियमित आदेश देना,
  • उचित नियमों तथा शर्तों के आधर पर लेन-देन करना,
  • उचित उधर अवधि् का लाभ उठाना,
  • बकाया राशि का समय पर भुगतान करना।

ग्राहकों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]

ग्राहकों के प्रति व्यवसाय के उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं :

  • वस्तुओं तथा सेवाएं ऐसी होनी चाहिएँ कि उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को ध्यान में रख सकें,
  • वस्तुओं तथा सेवाओं की गुणवत्ता श्रेष्ठ होनी चाहिए,
  • वस्तुओं तथा सेवाओं की आपूर्ति में नियमितता होनी चाहिए,
  • वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य उचित तथा सामर्थ्य क्षमता के अनुकूल होने चाहिएँ,
  • वस्तुओं के हर गुण तथा दोष तथा उनके उपभोग के बारे में उपभोक्ता को उचित सूचना दी जानी चाहिए,
  • विक्रय-उपरांत उचित सेवाएँ होनी चाहिए,
  • यदि उपभोक्ताओं की कोई शिकायत है, तो उसे तुरंत दूर किया जाना चाहिए,
  • व्यवसाय को कम वजन, मिलावट आदि अनुचित व्यापारिक प्रथाओं से बचना चाहिए।

प्रतियोगियों के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]

व्यवसाय के अपने प्रतियोगियों के प्रति निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं :

  • अत्यध्कि विक्रय कमीशन का प्रस्ताव न दें,
  • प्रत्येक बिक्री पर ऊँची छूट दर या प्रत्येक वस्तु के साथ मुफ्रत वस्तुएँ न दें,
  • झूठे और अभद्र विज्ञापन के द्वारा अपने प्रतियोगियों को बदनाम करने की कोशिश न करें।

सरकार के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]

सरकार के प्रति व्यवसाय के विभिन्न उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं :

  • सरकार के निर्देशों के अनुसार ही व्यावसायिक इकाइयों की स्थापना करना,
  • फीस, कर, अध्भिर आदि का नियमित तथा ईमानदारी के साथ भुगतान करना,
  • प्रतिबंध्ति तथा एकाध्किरी व्यावसायिक गतिविध्यिं में संलग्न न होना,
  • सरकार द्वारा स्थापित प्रदूषण नियंत्राण मान दंडों का पालन करना,
  • रिश्वत तथा गैर कानूनी क्रियाओं द्वारा भ्रष्टाचार में लिप्त न होना।

समाज के प्रति उत्तरदायित्व[संपादित करें]

एक समाज, व्यक्तियों, समूहों, संगठनों, परिवारों आदि से मिलकर बनता है। ये सभी समाज के सदस्य होते हैं। ये सभी एक दूसरे के साथ मिलते-जुलते हैं तथा अपनी लगभग सभी गतिविधियों के लिए एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। इन सभी के बीच एक संबंध होता है, चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष। समाज का एक अंग होने के नाते, समाज के सदस्यों के बीच संबंध बनाए रखने में व्यवसाय को भी मदद करनी चाहिए। इसके लिए उसे समाज के प्रति कुछ निश्चित उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना आवश्यक है। ये उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं :

  • समाज के पिछड़े तथा कमजोर वर्गों की सहायता करना,
  • सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करना,
  • रोजगार के अवसर जुटाना,
  • पर्यावरण की सुरक्षा करना,
  • प्राकृतिक संसाध्नों तथा वन्य जीवन का संरक्षण करना,
  • खेलों तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देना,
  • शिक्षा, चिकित्सा, विज्ञान प्रोद्यौगिकी आदि के क्षेत्रों में सहायक तथा विकासात्मक शोधें को बढ़ावा देने में सहायता करना।