कुन्दकुन्द

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कुन्दकुन्द
कुंदकुंदाचार्य की प्रतिमा जी (कर्नाटक)

कुंदकुंदाचार्य दिगंबर जैन संप्रदाय के सबसे प्रसिद्ध आचार्य थे। इनका एक अन्य नाम 'कौंडकुंद' भी था। इनके नाम के साथ दक्षिण भारत का कोंडकुंदपुर नामक नगर भी जुड़ा हुआ है। प्रोफेसर ए॰ एन॰ उपाध्ये के अनुसार इनका समय पहली शताब्दी ई॰ है परंतु इनके काल के बारे में निश्चयात्मक रूप से कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता।[1] श्रवणबेलगोला के शिलालेख संख्या ४० के अनुसार इनका दीक्षाकालीन नाम 'पद्मनंदी' था और सीमंधर स्वामी से उन्हें दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ था।

आचार्य कुन्दकुन्द ने ११ वर्ष की उम्र में दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण की थी। इनके दीक्षा गुरू का नाम आचार्य जिनचंद्र था। ये जैन धर्म के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके द्वारा रचित समयसार, नियमसार, प्रवचन, अष्टपाहुड, और पंचास्तिकाय - पंच परमागम ग्रंथ हैं। ये विदेह क्षेत्र भी गए। वहाँ पर इन्होने सीमंधर नाथ की साक्षात् दिव्यध्वनि को सुना।

वे ५२ वर्षों तक जैन धर्म के संरक्षक एवं आचार्य रहे। वे जैन साधुओं की मूलसंघ क्रम में आते हैं। वे प्राचीन ग्रंथों में इन नामों से भी जाने जातें हैं-

१. पदमनंदि
२. एलाचार्य
३. वक्रग्रीव
४. गृद्धपिच्छ

आचार्य कुन्दकुन्द को जैन शास्त्रों के संवर्धन के लिए दर्शनिक परम्परा में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। दिगम्बरों के लिए इनके नाम का शुभमहत्त्व है और भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद पवित्र स्तुति में तीसरा स्थान है-

मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी।
मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम्॥

आचार्य कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्र के रचियता आचार्य उमास्वामी के गुरु थे।

परिचय[संपादित करें]

कुन्दकुन्दाचार्य मूलसंघ के प्रधान आचार्य थे। तपश्चरण के प्रभाव से अनेक अलौकिक सिद्धियाँ इन्हें प्राप्त थीं। जैन परंपरा में इनका बड़े आदर से उल्लेख होता है। शास्त्रसभा के आरंभ में मंगल भगवान वीर के साथ-साथ मंगल कुदकुंदाद्यो कहकर इनका स्मरण किया जाता है जिससे जैन शासन में इनक महत्व का पता चलता है।

इन्होंने सर्वप्रथम जैन-आगम-सम्मत पदार्थों का तर्कपूर्ण प्रतिपादन किया है। इनके सभी उपलब्ध ग्रंथ प्राकृत में हैं। इनकी विशेषता रही है कि इन्होंने जैन मत का स्वकालीन दार्शनिक विचारधारा के आलोक में प्रतिपादन किया है, केवल जैन आगमों का पुन:प्रवचन नहीं किया। इनके विभिन्न ग्रंथों में ज्ञान, दर्शन और चरित्र का निरूपण मिलता है। इन्होंने एक एक विषय का निरूपण करने के लिए स्वतंत्र ग्रंथ लिखे जिन्हें पाहुड़ कहते हैं। इनके ८४ पाहुड़ों का उल्लेख जैन वाङ्मय में मिलता है। इनके मुख्य ग्रंथ निम्नलिखित हैं:

  1. प्रवचनसार,
  2. समयसार,
  3. पंचास्तिकाय,
  4. नियमसार,
  5. बारस अणुवेक्खा,
  6. दसंण पाहुड़,
  7. चारित्तपाहुड़,
  8. बोध पाहुड़,
  9. मोक्ख पाहुड़,
  10. शील पाहुड़,
  11. रयणसार,
  12. सिद्धभक्ति और
  13. मूलाचार (वट्टकेर)।
प्रवचनसार जैन ग्रन्थ का हिंदी अनुवाद

जैन दर्शन को उन्होंने एक नई दृष्टि दी है। इनको 'परसंग्रहावलंबी अभेदवाद' का प्रतिपादक माना जाता है। जैन आगमों में द्रव्य और पर्याय में भेद और अभेद दोनों माना जाता है। परंतु इनके अनुसार इनका भेद व्यावहारिक है, परमार्थत: दोनों अभिन्न है। इसी प्रकार आत्मा में वर्ण का सदभाव और असदभाव दोनों आगमसम्मत हैं, परंतु इनके अनुसार व्यावहारिक रूप में तो वर्ण आत्मा में हैं, पारमार्थिक रूप में नहीं हैं। इन्होंने देह और आत्मा के ऐक्य को व्यवहारनय में माना परंतु निश्चयनय में दोनों का भेद माना।

वे द्रव्य को सत्ता से अभिन्न मानते है। वैशेषिक दर्शन में सत्ता सामान्य के कारण द्रव्य को सत् मानते हैं, परंतु उनका कहना है कि इस मत में तो सत्ता से भिन्न होने के कारण द्रव्य असत् हो जाएगा। अत: द्रव्य सत्ता रूप ही है और यही परमतत्व है। सत्ता ही द्रव्य, गुण और पदार्थ के रूप में नाना देशकाल में विकसित होती है अत: सब कुछ द्रव्य (सत्ता) रूप ही है। गुण और पर्याय का द्रव्य से अभेद मानना तथा नयभेद से सत्कार्यवाद और सत्यकार्यवाद दोनों को स्वीकार करना, उनका अभिप्रेत था। परमाणु के बारे में इनका कहना है कि सभी स्कंधों का अंतिम अवयव परमाणु है। यह शाश्वत, शब्दरहित, अविभाज्य और मूर्त है। परमाणु को रस, गंध, वर्ण और स्पर्श से युक्त इंद्रियग्राह्य परिणामी तत्व कहा गया और पृथ्वी, जल, तेज और वायु का मूल माना गया।

औपनिषद् और महायान दर्शनों में व्यवहार और परमार्थ अथवा प्रतिभास और सत्य का भेद माना गया है। इस भेद को मानकर ही अध्यात्मवादी दार्शनिक एक अद्वयतत्व की प्रतिष्ठा करते हैं। जैन दर्शन भूतवादी है, अध्यात्मवादी नहीं। फिर भी इन्होंने व्यवहारनय और निश्चयनय में भेद माना। जो सामान्यत: दिखाई देता है वह सर्वदा सत्य नहीं होता और कोई आवश्यक नहीं कि सत्य सदा शुद्ध रूप में गोचर हो। उन्होंने आत्मा के तीन रूप माने। बाह्य पदार्थों में आसक्त, देह को अपने से अभिन्न समझने वाली मूढात्मा बहिरात्मा है। देह का भेदज्ञान हो जाने पर मोक्षमार्ग आरूढ़ आत्मा को अंतरात्मा कहा गया है। ध्यानबल से कर्ममल का क्षय हो जाने पर जब आत्मा शुद्ध रूप प्राप्त कर लेती है। तब उसको परमात्मा कहते हैं। इसी परमात्मा को उन्होंने शिव, ब्रह्मा, विष्णु, बुद्ध आदि कहकर तत्कालीन दर्शन से अपने को परमार्थत: अभिन्न घोषित किया है जो संभवत: किसी जैन आचार्य ने नहीं किया। यही इनकी विशेषता है जो अन्य जैनाचार्यों से इन्हें अलग करती है और इनकी समन्वयवादी प्रवृत्ति का निदर्शन है। उन्होंने आत्मा को कार्य-करण से भिन्न मानकर सांख्य के कूटस्थ पुरुष की कल्पना के साथ समन्वित किया परंतु आत्मा को अकर्ता नहीं माना। उनके मत में आत्मा अनात्मक परिणमन (पुद्गल कर्मों) का कर्त्ता नहीं है किंतु परिणामी होने के कारण उसको कर्त्ता भी माना है। आत्मा ज्ञान आदि स्वगत परिणामों का तो कर्ता है ही।

उनका कहना था कि तत्व का व्यवहार और निश्चयनयों से वर्णन हो ही नहीं सकता। तत्व पक्षातिक्रांत है। जीव शुद्ध रूप में ने तो बद्ध है, न अबद्ध। बंध-अबंध से विमुक्त जीव ही सहयसार और परमात्मा परमतत्व कहा गया है। व्यवहारनय का निराकरण निश्चयनय से होता है। इनका कहना है कि निश्चयनय का आश्रय लेकर यद्यपि तत्व का ज्ञान होता है, तथापि तत्वज्ञान हो जाने पर निश्चियनय का भी नाश हो जाता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. जैन २०१२, पृ॰ v.

सन्दर्भ सूची[संपादित करें]

  • जैन, विजय कुमार (२०१२), आचार्य कुन्दकुन्द समयसार, Vikalp Printers, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-903639-3-8, मूल से 6 अगस्त 2016 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 20 सितंबर 2015 |year= / |date= mismatch में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  • जुगलकिशोर मुख्तार : जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, १ भाग;
  • दलसुख मालवणियां : न्यायावतार वार्तिक वृत्ति की भूमिका;
  • ए॰ एन॰ उपाध्ये : प्रवचनसार की भूमिका।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]