उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन

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उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन
North Atlantic Treaty Organization

नाटो गठबन्धन का ध्वज
स्थापना ४ अप्रैल १९४९
मुख्यालय ब्रुसेल्स, बेल्जियम
सदस्यता

मैंसीडोनिया मॉन्टेनीग्रो फिनलैंड

फिनलैंड
आधिकारिक भाषा
अंग्रेजी
फ्रांसीसी
महासचिव
जेन्स स्टोल्टेनबर्ग
सैन्य समिति के अध्यक्ष
गियामपाओलो दी पाओला
जालस्थल www.nato.int

उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (अंग्रेज़ी: North Atlantic Treaty Organization, NATO ; नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन, नाटो ) एक सैन्य गठबंधन है, जिसकी स्थापना ४ अप्रैल १९४९ को हुई। इसका मुख्यालय ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में है। संगठन ने सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था बनाई है, जिसके अन्तर्गत सदस्य राज्य बाहरी आक्रमण की स्थिति में सहयोग करने के लिए सहमत होंगे।

गठन के प्रारम्भ के कुछ वर्षों में यह संगठन एक राजनीतिक संगठन से अधिक नहीं था। किन्तु कोरियाई युद्ध ने सदस्य देशों को प्रेरक का काम किया और दो अमरीकी सर्वोच्च कमाण्डरों के दिशानिर्देशन में एक एकीकृत सैन्य संरचना निर्मित की गई। लॉर्ड इश्मे पहले नाटो महासचिव बने, जिनकी संगठन के उद्देश्य पर की गई टिप्पणी, "रूसियों को बाहर रखने, अमेरीकियों को अन्दर और जर्मनों को नीचे रखने" (के लिए गई है।) खासी चर्चित रही। यूरोपीय और अमरीका के बीच सम्बन्ध की भाँति ही संगठन की ताकत घटती-बढ़ती रही। इन्हीं परिस्थितियों में फ्रांस स्वतन्त्र परमाणु निवारक बनाते हुए नाटो की सैनिक संरचना से 1966 से अलग हो गया। मैसिडोनिया ६ फरवरी 2019 को नाटो का ३०वाँ सदस्य देश बना।[1]

1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने के पश्चात संगठन का पूर्व की तरफ बाल्कन हिस्सों में हुआ और वारसा संधि से जुड़े हुए अनेक देश 1999 और 2004 में इस गठबन्धन में शामिल हुए। १ अप्रैल 2009 को अल्बानिया और क्रोएशिया के प्रवेश के साथ गठबन्धन की सदस्य संख्या बढ़कर 28 हो गई। संयुक्त राज्य अमेरिका में 11 सितम्बर 2001 के आतंकवादी आक्रमण के पश्चात नाटो नई चुनौतियों का सामना करने के लिए नए सिरे से तैयारी कर रहा है, जिसके तहत अफ़गानिस्तान में सैनिकों की और इराक में प्रशिक्षकों की नियुक्ति की गई है।

बर्लिन प्लस समझौता नाटो और यूरोपीय संघ के बीच 16 दिसम्बर 2002 को बनाया का एक व्यापक पैकेज है, जिसमें यूरोपीय संघ को किसी अन्तरराष्ट्रीय विवाद की स्थिति में कार्यवाही के लिए नाटो परिसम्पत्तियों का उपयोग करने की छूट दी गई है, बशर्ते नाटो इस दिशा में कोई कार्यवाही नहीं करना चाहता हो। नाटो के सभी सदस्यों की संयुक्त सैन्य खर्च दुनिया के रक्षा व्यय का 70% से अधिक है, जिसका संयुक्त राज्य अमेरिका अकेले दुनिया का कुल सैन्य खर्च का आधा हिस्सा खर्च करता है और ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इटली 15% खर्च करते हैं।

इतिहास[संपादित करें]

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विश्व रंगमंच पर अवतरित हुई दो महाशक्तियों सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीत युद्ध का प्रखर विकास हुआ। फुल्टन भाषण व ट्रूमैन सिद्धान्त के तहत जब साम्यवादी प्रसार को रोकने बात कही गई तो प्रत्युत्तर में सोवियत संघ ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन कर १९४८ में बर्लिन की नाकेबन्दी कर दी। इसी क्रम में यह विचार किया जाने लगा कि एक ऐसा संगठन बनाया जाए जिसकी संयुक्त सेनाएँ अपने सदस्य देशों की रक्षा कर सके।

मार्च १९४८ में ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैण्ड तथा लक्सेमबर्ग ने बूसेल्स की सन्धि पर हस्ताक्षर किए। इसका उद्देश्य सामूहिक सैनिक सहायता व सामाजिक-आर्थिक सहयोग था। साथ ही सन्धिकर्ताओं ने यह वचन दिया कि यूरोप में उनमें से किसी पर आक्रमण हुआ तो शेष सभी चारों देश हर सम्भव सहायता देगे।[2]

इसी पृष्ठभूमि में बर्लिन की घेराबन्दी और बढ़ते सोवियत प्रभाव को ध्यान में रखकर अमेरिका ने स्थिति को स्वयं अपने हाथों में लिया और सैनिक गुटबन्दी दिशा में पहला अति शक्तिशाली कदम उठाते हुए उत्तरी अटलाण्टिक सन्धि संगठन अर्थात् नाटो की स्थापना की। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद १५ में क्षेत्रीय संगठनों के प्रावधानों के अधीन उत्तर अटलांटिक सन्धि पर हस्ताक्षर किए गए। उसकी स्थापना ४ अप्रैल, १९४९ को वांशिगटन में हुई थी जिस पर १२ देशों ने हस्ताक्षर किए थे। ये देश थे- फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमर्ग, ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, डेनमार्क, आइसलैण्ड, इटली, नार्वे, पुर्तगाल और संयुक्त राज्य अमेरिका।[3]

शीत युद्ध की समाप्ति से पूर्व यूनान, टर्की, पश्चिम जर्मनी, स्पेन भी सदस्य बने और शीत युद्ध के बाद भी नाटों की सदस्य संख्या का विस्तार होता रहा। १९९९ में मिसौरी सम्मेलन में पोलैण्ड, हंगरी, और चेक गणराज्य के शामिल होने से सदस्य संख्या १९ हो गई। मार्च २००४ में ७ नए राष्ट्रों को इसका सदस्य बनाया गया फलस्वरूप सदस्य संख्या बढ़कर २६ हो गई। इस संगठन का मुख्यालय बेल्जियम की राजधानी ब्रूसेल्स में हैं।[4]

स्थापना के कारण[संपादित करें]

  • (१) द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप से अपनी सेनाएँ हटाने से मना कर दिया और वहाँ साम्यवादी शासन की स्थापना का प्रयास किया। अमेरिका ने इसका लाभ उठाकर साम्यवाद विरोधी नारा दिया। और यूरोपीय देशों को साम्यवादी खतरे से सावधान किया। फलतः यूरोपीय देश एक ऐसे संगठन के निर्माण हेतु तैयार हो गए जो उनकी सुरक्षा करे। व नाटो सगठन बनाया गया[1]
  • (२) द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पश्चिम यूरोपीय देशों ने अत्यधिक नुकसान उठाया था। अतः उनके आर्थिक पुननिर्माण के लिए अमेरिका एक बहुत बड़ी आशा थी ऐसे में अमेरिका द्वारा नाटो की स्थापना का उन्होंने समर्थन किया।

उद्देश्य[संपादित करें]

  • 1. यूरोप पर आक्रमण के समय अवरोधक की भूमिका निभाना।[5]
  • 2. सोवियत संघ के पश्चिम यूरोप में तथाकथित विस्तार को रोकना तथा युद्ध की स्थिति में लोगों को मानसिक रूप से तैयार करना।
  • 3. सैन्य तथा आर्थिक विकास के लिए अपने कार्यक्रमों द्वारा यूरोपीय राष्ट्रों के लिए सुरक्षा छत्र प्रदान करना।
  • 4. पश्चिम यूरोप के देशों को एक सूत्र में संगठित करना।
  • 5. इस प्रकार नाटों का उद्देश्य "स्वतंत्र विश्व" की रक्षा के लिए साम्यवाद के लिए और यदि संभव हो तो साम्यवाद को पराजित करने के लिए अमेरिका की प्रतिबद्धता माना गया।
  • 6 नाटो के 6 सदस्य देश एक दूसरे देशों के मध्य सुरक्षा प्रधान करता हैं ।
  • 7 प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका चाहता है कि पूरी दुनिया पर उसका शासन बने" (डॉ अनिल बाबरे)

संरचना[संपादित करें]

नाटों का मुख्यालय ब्रसेल्स में हैं। इसकी संरचना 4 अंगों से मिलकर बनी है-

1. परिषद : यह नाटों का सर्वोच्च अंग है। इसका निर्माण राज्य के मंत्रियों से होता है। इसकी मंत्रिस्तरीय बैठक वर्ष में एक बार होती है। परिषद् का मुख्य उत्तरायित्व समझौते की धाराओं को लागू करना है।[1]

2. उप परिषद् : यह परिषद् नाटों के सदस्य देशों द्वारा नियुक्त कूटनीतिक प्रतिनिधियों की परिषद् है। ये नाटो के संगठन से सम्बद्ध सामान्य हितों वाले विषयों पर विचार करते हैं।

3. प्रतिरक्षा समिति : इसमें नाटों के सदस्य देशों के प्रतिरक्षा मंत्री शामिल होते हैं। इसका मुख्य कार्य प्रतिरक्षा, रणनीति तथा नाटों और गैर नाटों देशों में सैन्य संबंधी विषयों पर विचार विमर्श करना है।

4. सैनिक समिति : इसका मुख्य कार्य नाटों परिषद् एवं उसकी प्रतिरक्षा समिति को सलाह देना है। इसमें सदस्य देशों के सेनाध्यक्ष शामिल होते हैं।

नाटो की भूमिका एवं स्वरूप[संपादित करें]

1. नाटों के स्वरूप व उसकी भूमिका को उसके संधि प्रावधानों के आलोक में समझा जा सकता है। संधि के आरंभ में ही कहा गया हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र के सदस्य देशों की स्वतंत्रता, ऐतिहासिक विरासत, वहाँ के लोगों की सभ्यता, लोकतांत्रिक मूल्यों, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून के शासन की रक्षा की जिम्मेदारी लेगे। एक दूसरे के साथ सहयोग करना इन राष्ट्रों का कर्तव्य होगा इस तरीके से यह संधि एक सहयोगात्मक संधि का स्वरूप लिए हुए थी।[6]

2. संधि प्रावधानों के अनुच्छेद 5 में कहा गया कि संधि के किसी एक देश या एक से अधिक देशों पर आक्रमण की स्थिति में इसे सभी हस्ताक्षरकर्ता देशों पर आक्रमण माना जाएगा और संधिकर्ता सभी राष्ट्र एकजुट होकर सैनिक कार्यवाही के माध्यम से एकजुट होकर इस स्थिति का मुकाबला करेंगे। इस दृष्टि से उस संधि का स्वरूप सदस्य देशों को सुरक्षा छतरी प्रदान करने वाला है।

3. सोवियत संघ ने नाटो को साम्राज्यवादी और आक्रामक देशों के सैनिक संगठन की संज्ञा दी और उसे साम्यवाद विरोधी स्वरूप वाला घोषित किया।

प्रभाव[संपादित करें]

1. पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा के तहत बनाए गए नाटो संगठन ने पश्चिमी यूरोप के एकीकरण को बल प्रदान किया। इसने अपने सदस्यों के मध्य अत्यधिक सहयोग की स्थापना की।[7]

2. इतिहास में पहली बार पश्चिमी यूरोप की शक्तियों ने अपनी कुछ सेनाओं को स्थायी रूप से एक अंतर्राष्ट्रीय सैन्य संगठन की अधीनता में रखना स्वीकार किया।

3. द्वितीय महायुद्ध से जीर्ण-शीर्ण यूरोपीय देशों को सैन्य सुरक्षा का आश्वासन देकर अमेरिका ने इसे दोनों देशों को ऐसा सुरक्षा क्षेत्र प्रदान किया जिसके नीचे वे निर्भय होकर अपने आर्थिक व सैन्य विकास कार्यक्रम पूरा कर सके।

4. नाटो के गठन से अमेरिकी पृथकक्करण की नीति की समाप्ति हुई और अब वह यूरोपीय मुद्दों से तटस्थ नहीं रह सकता था।

5. नाटो के गठन ने शीतयुद्ध को बढ़ावा दिया। सोवियत संघ ने इसे साम्यवाद के विरोध में देखा और प्रत्युत्तर में वारसा पैक्ट नामक सैन्य संगठन कर पूर्वी यूरोपीय देशों में अपना प्रभाव जमाने की कोशिश की।

6. नाटो ने अमेरिकी विदेश नीति को भी प्रभावित किया। उसकी वैदशिक नीति के खिलाफ किसी भी तरह के वाद-प्रतिवाद को सुनने के लिए तैयार नहीं रही और नाटो के माध्यम से अमेरिका का यूरोप में अत्यधिक हस्तक्षेप बढ़ा।

7. यूरोप में अमेरिका के अत्यधिक हस्तक्षेप ने यूरोपीय देशों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि यूरोप की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान यूरोपीय दृष्टिकोण से हल किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण ने “यूरोपीय समुदाय” के गठन का मार्ग प्रशस्त किया।

विस्तार : शीतयुद्ध के बाद नेटो= नेटो की स्थापना के बाद विश्व में और विशेषकर यूरोप में अमेरिका तथा तत्कालीन सोवियत संघ इन दो महाशक्तियों के बीच युद्ध खतरनाक मोड़ लेने लगा और नेटो का प्रतिकर करने के लिए पोलैण्ड की राजधानी वारस में पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों के साथ मिलकर सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट की स्थापना की।

१९९० – ९१ में सोवियत संघ के विखंडन के साथ ही शीतयुद्ध की भी समाप्ति हुई। वारसा पैक्ट भी समाप्त हो गया। किंतु अमेरिका ने नेटों को भंग नहीं किया बल्कि अमेरिकी नेतृत्व में नेटों का और विस्तार हुआ। इसी बिन्दु पर यह सवाल उठता है कि शीतयुद्ध कालीन दौर में निर्मित इस संगठन का शीत युद्ध के अंत के बाद मौजूद रहने का क्या औचित्य है।

शीत युद्धोत्तर काल में अमेरिका द्वारा नेटों की भूमिका पुनर्परिभाषित की गई। इसके तहत कहा गया कि सम्पूर्ण यूरोप के क्षेत्रों में यह पारस्परिक सहयोग और संबंधों के विकास का माध्यम है। इतना ही नहीं प्रजातांत्रिक मूल्यों व आदर्शों के विकास एवं प्रसार में भी नाटों की भूमिका को वैध बनाने का प्रयास किया।

अमेरिका ने नाटो की भूमिका को शीत युद्ध कालीन गुटीय राजनीति से बाहर निकालकर वैश्विक स्वरूप प्रदान किया। नाटो को अब शांति स्थापना के अंतर्गत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के उन्मूलन में भी इसकी भूमिका को रेखांकित किया जा रहा है। निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत शीतयुद्धोत्तर कालीन नाटों की भूमिका एवं विस्तार को देखा जा सकता है-

  • (क) १९९१ में खाड़ी युद्ध के दौरान अल्बानिया को नोटो द्वारा नागरिक एवं सैन्य सहायता प्रदान की गई।
  • (ख) सामूहिक सुरक्षा के सन्दर्भ में भी नाटो की भूमिका महत्वपूर्ण रही। इसमें अंतर्राष्ट्रीय आंतकवाद से निपटने तथा मानवता के लिए खतरा बने “दुष्ट राज्यों” से सुरक्षा की बात की गई। २००२ के प्राग शिखर सम्मेलन में नाटों के अंतर्गत त्वरित कार्यवाही बल (Rapid Response Force) के गठन का प्रस्ताव लाया गया ताकि आतंकवादी हमले और दुष्ट राज्यों की प्रतिक्रियाओं को प्रतिसंतुलित किया जा सके।
  • (ग) नाटो की सदस्यता में वैचारिक और पूर्व के प्रतिपक्षी गुटों में शामिल देशों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया गया। १९९१ के मिसौरी सम्मेलन में तीन नए राष्ट्रों पोलैण्ड, हंगरी और चेक गण्राज्य को सदस्यता प्रदान की गई। फलतः सदस्य संख्या 19 हो गई और ये तीनों ही शीतयुद्ध काल के एस्टोनिया, लिथुआनिया, लाटविया, स्लोवेनिया, और सदस्यों और सदस्यों की कुल संख्या बढ़कर 26 हो गई। इस तरह अब पूर्वी यूरोप के देश भी नाटोमें सम्मिलित हो गए और यूरोप के एकीकरण को बल मिला।
  • (घ) यद्यपि आरंभ में रूस ने नाटों के विस्तार पर चिंता जताई थी लेकिन बदलती अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार नाटों सदस्य देशों के साथ पारस्परिक सहयोग हेतु रूस को भी इसके अंतर्गत लाने की बात की जा रही है। नाटो के महासचिव और संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव ने नाटों के विस्तार के सकारात्मक पक्षों पर बल दिया उनके अनुसार यह राजनीतिक-आर्थिक संबंधों को बल प्रदान कर पास्परिक सहयोग को बढ़ावा देगा। नाटो का विस्तार रूस के लिए खतरा नहीं है। नाटो को रूस की आवश्यकता एवं रूस को नाटों की आवश्यकता है।

नाटो अपने इस विस्तार से में यूरोप में एक प्रमुख प्रतिनिधि के रूप में उभरा। शीत युद्ध के काल में जो पश्चिम यूरोप के एकीकरण का प्रतिनिधित्व करता था वही नाटो शीतयुद्धोत्तर काल में सम्पूर्ण यूरोप के एकीकरण का प्रतिनिधित्व करता है।

नाटो के विस्तार के पक्ष में जो सकरात्मक बाते कही गई इसके बावजूद उसकी आलोचना भी की जाती है। वस्तुतः नाटो की भूमिका शांति स्थापना, आपसी सहयोग आदि के संबंध में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका का हनन करती है। समझने की बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के रूप में की गई, जिसका उद्देश्य विश्व शांति है जबकि नाटो की स्थापना एक क्षेत्रीय संगठन के रूप में की गई। किंतु इसके बावजूद अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में शांति स्थापना हेतु नाटो की भूमिका यूएनओ के समानांतर दिखती है। ओर अब अमेरिकी सीनेेेट ने भारत देेश को नाटो सहयोगी देश का दर्जा देेने के लियेे विधयेक को पारित किया है। रूस और यूक्रेन के युद्ध अब अंतिम दौर में है।इससे पहले यूक्रेन ने नेटो देशों को सहायता करने के लिए भी कहा था। अभी के मौजूदा हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि नेटो में शामिल जितने भी देश हैं, वो यूक्रेन की कोई भी मदद नहीं करे

  1. "नाटो' क्यों और कब बना था?". Jagranjosh.com. 2018-12-04. अभिगमन तिथि 2020-06-16.
  2. "BBCHindi". www.bbc.com. मूल से 16 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-06-16.
  3. यादव, राम. "अगर मिखाइल गोर्बाचोव न होते तो न तो जर्मनी ऐसा होता और न रूस". Satyagrah. मूल से 16 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-06-16.
  4. इवांस, गैरेथ (2018-03-27). "रूस का झगड़ा: क्या शीत युद्ध का प्रेत लौट आया है?". BBC News हिंदी. मूल से 10 जुलाई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-06-16.
  5. "अमेरिका ने भारत को दिया नाटो देश जैसा दर्जा, रक्षा सौदों में आसानी होगी". Amar Ujala. मूल से 17 जुलाई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-06-17.
  6. "नाटो की उठक-बैठक". Navbharat Times. मूल से 10 जुलाई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-06-17.
  7. यादव, राम. "'दिमाग़ी तौर पर मृत' नाटो ने 70 साल पूरे किये". Satyagrah. मूल से 14 मई 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-06-17.