आनन्द

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आनंद उस व्यापक मानसिक स्थितियों की व्याख्या करता है जिसका अनुभव मनुष्य और अन्य जंतु सकारात्मक, मनोरंजक और तलाश योग्य मानसिक स्थिति के रूप में करते हैं। इसमें विशिष्ट मानसिक स्थिति जैसे सुख, मनोरंजन, ख़ुशी, परमानंद और उल्लासोन्माद भी शामिल है। मनोविज्ञान में, आनंद सिद्धांत के तहत आनंद का वर्णन सकारात्मक पुर्नभरण क्रियाविधि के रूप में किया गया है जो जीव को भविष्य में ठीक वैसी स्थिति निर्माण करने के लिए उत्साहित करती है जिसे उसने अभी आनंदमय अनुभव किया। इस सिद्धांत के अनुसार, इस प्रकार जीव उन स्थितियों की पुनरावृत्ति नहीं करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं जिससे उन्हें भूतकाल में किसी प्रकार का संताप हुआ हो. आनंद का अनुभव व्यक्तिपरक है और प्रत्येक व्यक्ति एक ही स्थिति में भिन्न प्रकार एवं परिमाण के सुख का अनुभव करते हैं। अनेक आनंदमय अनुभव, बुनियादी जैविक क्रियाओं के तृप्ती से संलग्न है जैसे कि;भोजन, व्यायाम, काम औरशौच भी. अन्य आनंदमय अनुभव सामाजिक अनुभवों एवं सामाजिक क्रियाओं से संलग्न हैं, जैसे कार्यसिद्धि, मान्यता और सेवा. सांस्कृतिक कलाकृतियों की प्रशंसा एवं कला, संगीत और साहित्य अक्सर आनंदमय होते हैं। मनोरंजक नशीली दवाओं का प्रयोग भी सुखद अनुभूति दे सकता है: कुछ नशीली दवाएं, अवैध और अन्यथा, ग्रहण करने पर वह सीधे मस्तिस्क में उल्लासउन्माद पैदा करती हैं। मन की स्वाभाविक प्रवृतिनुसार (जैसा कि आनंद के सिद्धांत में वर्णन किया गया है) ऐसी अनुभूति की तलब ही अधीनता एवं व्यसन की ओर ले जाती है।

स्टॉकहोम में रॉयल नाटकीय रंगमंच का दिखावा पर हास्य मुखौटा

दार्शनिक विचार[संपादित करें]

एपिकुरुस (Epicurus) और उनके अनुयायियों की परिभाषा के अनुसार, सर्वोत्तम आनंद पीड़ा[1] की अनुपस्थिति है, आनंद का तात्पर्य, "दैहिक पीड़ा से मुक्ति एवं आत्मा की अशांति से मुक्ति है।[2] सिसरो (cicero)(बल्कि उनके चरित्र तोर्कुंतुस) का मानना था कि सुख की अनुभूति प्रमुख कल्याण है (और, इसके विपरीत, पीड़ा प्रमुख बुराई).[3] 12 वीं सदी में फख्र अल दीन अल रजी ने अपनी किताब रूह अल नफस वैल रूह में आनंद का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण विभिन्न प्रकार के आनंदों का विश्लेषण कामुक और बौद्धिक के रूप में किया और इनके एक दूसरे से तुलनात्मक सम्बन्ध की विवेचना की. उन्होंने दृढ़ता पूर्वक कहा की "सुखद अनुभूति का अगर सूक्ष्म परीक्षण किया जाए तो यह प्रकट होगा कि यह अनिवार्य रूप से सिर्फ पीड़ा का उन्मूलन मात्र है।" तत्पश्चात वह निम्न उदाहरण देते हैं,:"व्यक्ति जितना अधिक भूखा होगा खाना खाने पर उसके आनंद की अनुभूति उतनी ही गहरी होगी." उन्होंने यह भी तर्क दिया है कि "आनंद की संतुष्टि जीव के आवश्यकता और अभिलाषा के अनुपात में ही होती है।" और " जब इन जरूरतों की पूर्ति या अभिलाषाओं की संतुष्टि होती है तो यह अनुभूति वास्तव में विकर्षण में तब्दील हो जाती है" क्योंकि" काम अथवा भोजन की अधिकता सुखदाई न हो कर पीड़ादायक बन जाती है।[4] उन्होंने कहा कि मानवीय आवश्यकताएं और इच्छाएं अनंत हैं और "परिभाषा के द्वारा इसकी संतुष्टि असंभव है".[5] 19 वीं शताब्दी में जर्मन दार्शनिक आर्थर स्चोपेन्हौएर ने सुखद अनुभूति को नकारात्मक संवेदना माना है क्योंकि यह पीड़ा नज़रंदाज़ करता है जो कि सार्वभौमिक स्थिति है।[6]

आनंद से जुड़े दर्शन[संपादित करें]

उपयोगितावाद और प्रेमवाद वह दर्शन हैं जो आनंद की अधिकतम वृद्धि और पीड़ा को कम से कम करने पर समर्थन करते हैं। ऐसे दर्शन के कुछ उदाहरण फ्रायड की मानव प्रेरणा के सिद्धांत में मिलते हैं - जिसे मनोवैज्ञानिक सुखवाद कहा गया है; उनके अवलोकन के अनुसार मानव की सहज प्रवृति अनिवार्य रूप से विलासिता (भौतिक आनंद) को प्राप्त करने की चेष्टा है।

तंत्रिका जीव विज्ञान[संपादित करें]

सुख की अनुभूति का केंद्र मस्तिष्क संरचना में एक समुच्चय है, मुख्यतः यह नाभिकीय अकुम्बेंस है जो सिद्धांत के अनुसार विद्युत्तीय तरंगो द्वारा उत्तेजित होने पर अत्यधिक सुख उत्पन्न करता है। कुछ संदर्भ यह उल्लेख करते हैं कि सेप्टम पेल्लुसिदियम (septum pellucidium) ही आम तौर पर सुखद अनुभूति का केंद्र है[7], जबकि अन्य परस्पर अन्तः करोति मष्तिष्क उत्तेजना और सुखद अनुभूति के केंन्द्र का जिक्र होने पर हाइपोथेलेमस (hypothalamus) का उल्लेख करते हैं।[8] ऐसे कुछ रसायन ज्ञात हैं जो मस्तिष्क के सुख अनुभूति केन्द्रों को उत्तेजित करते हैं। इसमें डोपामाइन[9](dopamine) और विभिन्न एंडोर्फिन शामिल हैं। यह कहा गया है कि शारीरिक मेहनत के दौरान एन्दोर्फींस (endorphines) निःसृत होता हैं जिसे धावक परित्तेजना भी कहते हैं। इसी प्रकार चॉकलेट और कुछ मसाले जैसे मिर्चमस्तिस्क को सक्रिय करने वाले वह रसायन निःसृत करते हैं जो यौन क्रिया के दौरान निःसृत होता है।


आनंद एक अद्वितीय मानव अनुभव[संपादित करें]

इस पर विवाद रहा है कि सुख की अनुभूति का एहसास दूसरे पशु भी करते हैं या यह सर्वथा मानव जाति का ही गुणधर्म है। दूसरी ओर जेरेमी बेन्थम(जो आमतौर पर उपयोगितावाद के संस्थापक के रूप में माने जाते हैं)[10] और बेथ डिक्सन[11] इस तर्क से सहमत हैं हालांकि वह बात सतर्कता से कहते हैं। जो लोग मानव अपवाद में विश्वास करतें हैं उनका यह मानना है कि सगुणवाद में, सुख सहित, किसी भी मानवीय अनुभूति को पशुओं की विशेषता नहीं माना जा सकता है। दूसरे लोग पशु व्यवहार को मात्र उत्तेजना की प्रतिक्रिया के रूप में देखते हैं। व्यवहार का अध्यन करने वाले लोग भी, प्रमाण स्वरुप, पावलोव के कुत्तों (उनके द्वारा व्यवहार की दी गयी व्याख्या) को सबसे प्रसिद्ध उदाहरण मानते हैं। हालांकि, यह तर्क किया जा सकता है कि हमें यह नहीं पता कि पशु आनंद अनुभव कर सकते हैं या नहीं और ज्यादातर वैज्ञानिक निरपेक्ष रहना चाहते हैं और आवश्यकतानुसार सगुणवाद का उपयोग करते हैं।[12] ऐसा प्रतीत होता है, कि पशुओं की भावनाओं को मान्यता देने वालों की संख्या बढ़ रही है: कई एथोलोजिस्ट (ethologists) जैसे मार्क बेकोफ्फ़ इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पशु भी भावना की अनुभूति करते हैं हालांकि यह जरूरी नहीं है कि उनका अनुभव मानव अनुभव के जैसा ही हो.[13]

स्वपीड़ासक्ति[संपादित करें]

स्वपीड़ासक्त वह लोग हैं जो पीड़ा से सुख की अनुभूति प्राप्त करते हैं। स्वपीड़ासक्ति का अस्तित्व उस सार्वभौमिक दृष्टी को पेचीदा बना कर नकार देता है जिसके तहत आनंद को एक सकारात्न्मक अनुभव माना जाता है, मूलतः पीड़ा के विरुद्ध यह एक नकारात्मक अनुभव है। स्वपीड़ासक्ति संदर्भ पर निर्भर है: स्वपीड़ासक्त कुछ स्थितियों में कुछ प्रकार के दर्द का आनंद लेते हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. चालीस प्रधान सिद्धांत Archived 2016-02-12 at the वेबैक मशीन,[1] Archived 2016-02-12 at the वेबैक मशीन संख्या III.
  2. मेनोसियस को पत्र Archived 2016-01-18 at the वेबैक मशीन, [2] Archived 2016-01-18 at the वेबैक मशीनधारा 131-2.
  3. अबाउट द एंड्स ऑफ़ गुड्स एंड इवेल्स, बुक I Archived 2018-01-29 at the वेबैक मशीन, सेक्शन IX द्वारा, एपिक्युरस के दर्शनशास्त्र के समझ को टॉरक्वाटस ने प्रदर्शित किया।
  4. Haque, Amber (2004). "Psychology from Islamic Perspective: Contributions of Early Muslim Scholars and Challenges to Contemporary Muslim Psychologists". Journal of Religion and Health. 43 (4): 357–377 [370]. डीओआइ:10.1007/s10943-004-4302-z.
  5. Haque, Amber (2004). "Psychology from Islamic Perspective: Contributions of Early Muslim Scholars and Challenges to Contemporary Muslim Psychologists". Journal of Religion and Health. 43 (4): 357–377 [371]. डीओआइ:10.1007/s10943-004-4302-z.
  6. काउन्सेल्स एंड मैक्सिस्म Archived 2017-12-01 at the वेबैक मशीन, अध्याय 1, जनरल नियम धारा 1.
  7. Walsh, Anthony (1991). The Science of Love – Understanding Love and its Effects on Mind and Body. Prometheus Books. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-87975-648-9.
  8. कैनडेल ईआर (ER), श्वार्ट्ज (Schwartz) जेएच (JH), जेसेल टीएम (TM). प्रिंसिपल्स ऑफ़ न्यूरल साइंस, चतुर्थ संस्करण. मैकग्रौ-हिल, न्यूयॉर्क (2000). ISBN 0-8385-7701-6
  9. Giuliano, F.; Allard J. (2001). "Dopamine and male sexual function". Eur Urol. 40 (6): 601–608. PMID 11805404. डीओआइ:10.1159/000049844.
  10. Bentham, Jeremy (1996). An Introduction to the Principles of Moral Legislation. Oxford: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-820516-6. मूल से 2 अक्तूबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 अक्तूबर 2019.
  11. नीति और पर्यावरण, खंड 6, संख्या 2, ऑटम 2001, पीपी. 22-30, इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस, जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी प्रेस Archived 2016-03-04 at the वेबैक मशीन, इन्हें भी देखें: पशुओं में मनोभाव
  12. होरोविट्ज़ ए. 2007. Archived 2010-04-15 at the वेबैक मशीनमानवीकरण. Archived 2010-04-15 at the वेबैक मशीन, एम. बेकोफ़, एड., मानव-पशु के संबंध पर विश्वकोश, पीपी 60-66, ग्रीनवुड पब्लिशिंग ग्रुप, वेस्टपोर्ट, सीटी.
  13. सन्डे टाइम्स द्वारा क्या जानवरों में भी भावना है? Archived 2011-08-08 at the वेबैक मशीन, 24 अगस्त 2008.


आगे पढ़ें[संपादित करें]

  • पॉल ब्लूम. 'हाओ प्लेज़र वर्क्स: द न्यू साइंस ऑफ़ व्हाए वी लाइक व्हाट वी लाइक (2010) 280 पृष्ठ. हमारी इच्छाओं, आकर्षण और पसंद का अध्यन जो आधारित है न्यूरोसाइंस, दर्शनशास्त्र, बाल विकास अनुसंधान और स्वभावजन्य अर्थशास्त्र पर.