स्वामी निगमानन्द परमहंस

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स्वामी निगमानंद

(परमहंस श्रीमद स्वामी निगमानंद सारस्वती देव)
गुरु/शिक्षक १) बामाक्षेपा २) सच्चीदानंद ३) सुमेरु दासजी ४) गौरी देवी
खिताब/सम्मान परमहंस, सदगुरु
कथन बत्छ ! इस्ट चिंता से गुरु चिंता का फल अधिक है; कियूँकी श्रीगुरु प्रतक्ष्य बिद्यमान है ; इसीलिए तुम गुरुके स्वरुप चिंता करनेसे उनकी अगाध ज्ञानरासी तुम्हे प्राप्त होगी
धर्म हिन्दू
दर्शन वेदान्त दर्शन - तन्त्र, योग, ज्ञान योग और प्रेम(भक्ति)

स्वामी निगमानन्द परमहंस (18 अगस्त 1880 - 29 नवम्बर 1935) भारत के एक महान सन्यासीसदगुरु थे।[1] उनके शिश्य लोगं उन्हें आदरपूर्वक श्री श्री ठाकुर बुलाते हैं। ऐसा माना जाता है की स्वामी निगमानंद ने तंत्र, ज्ञान, योग और प्रेम(भक्ति) जैशे चतुर्विध साधना में सिद्धि प्राप्त की थी, साथ साथ में कठिन समाधी जैसे निर्विकल्प समाधी का भी अनुभूति लाभ किया था। उनके इन साधना अनुभूति से बे पांच प्रसिध ग्रन्थ यथा ब्रह्मचर्य साधन, योगिगुरु, ज्ञानीगुरु, तांत्रिकगुरु और प्रेमिकगुरु बंगला भाषा में प्रणयन किये थे।[2] उन्होंने असाम बंगीय सारस्वत मठ जोरहट जिला[3][4] और नीलाचल सारस्वत संघ पूरी जिला में स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है।[5][6] उन्होने सारे साधना मात्र तिन साल में (1902-1905) समाप्त कर लिया था और परमहंस श्रीमद स्वामी निगमानंद सारस्वती देव के नाम से विख्यात हुए।

जीवन[संपादित करें]

बाल्य जीवन[संपादित करें]

स्वामी निगमानंद जी के जन्म स्थान नदिया जिल्ले में अबस्तिथ गाँब : कुतबपुर
स्वामी निगमानंद जी के जन्म स्थान नदिया जिल्ले में अबस्तिथ गाँब : कुतबपुर

स्वामी निगमानन्द का जन्म तत्कालीन नदिया जिला (अब बंगलादेश का मेहरपुर जिला) के कुतबपुर में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।[1] उनके बचपन का नाम नलिनीकांत था।[2] उनके पिता भुबन मोहन भट्टाचार्य एक सरल अध्यात्मिक ब्यक्ति के नाम से सुपरिचित थे। बचपन में ही उनकी मां, माणिक्य सुंदरी, का स्वर्गबास हुआ था।

सांसारिक जीवन[संपादित करें]

सत्रह बर्ष की आयु में हलिसहर निबसी स्वर्गीय बैद्यनाथ मुखोपाधाय की जेष्ठ कन्या एकादस वर्षीय सुधांशुबाला के साथ नलिनीकांत का बिबाह सम्पर्न हुआ।[1] इस बिच नलिनीकांत ने सर्भे स्कूल का पाठक्रम पूरा करके ओबरसिअर की नौकरी की। [1] उनके बाद उन्होंने दीनाजपुर जमीदारी के अंतर्गत नारायणपुर में नौकरी शुरु की। एक दिन साम को नारायणपुर कचहरी में कार्यरत रहते समय सुधादेवी (उनकी पत्नी) की छायामूर्ति देखकर बह चौंक उठे। कुछ देर बाद बह मूर्ति गायब हो गई।[1] बाद में गांब पहंच कर पता चला कि सुधादेवी इस संसार में नही रहीं। इस घटना से उनमे परलोग के प्रति बिश्वास पैदा हुआ क़ी मृत्यु के साथ परलोग का घनिष्ठ संबंध है। इस मृत्यु और परलोग तत्त्व को जानने केलिए उन्होंने मद्रास स्थित थिओसफि संप्रदाय में शामिल हो कर बह बिद्या सीखी।[1] बह दिबंगत सुधांशुबाला को प्रत्यक्ष रूप में देखना चाहते थे। इसलिए मीडियम के भीतर उनकी आत्मा को लाकर आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन ना होनेसे नलिनीकांत तृप्त नहीं हो पाये। अभ्यास करते समय उन्हें पता चला कि हिन्दू योगियों की कृपा से उन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति होगी। इसलिए नलिनीकांत मद्रास से लौटकर हिन्दूयोगियों की खोज में लग गये।

साधक जीवन[संपादित करें]

तंत्र साधना[संपादित करें]

एक दिन रात को नलिनीकांत ने देखा, उनकी शय्या के पास एक ज्योतिर्मय महापुरुष खड़े होकर कह रहे हें - "बत्स ! अपना यह मंत्र ग्रहण करो"। इतना कहकर उन्होंने नलिनीकांत को बिल्वपत्र पर लिखित एकाख्यर मंत्र प्रदान किया और उसके बाद पलभर में ही गायब हो गये। उसके बाद नलिनीकांत काफी खोज की, फिर भी कोई भी उन्हें उस मंत्र का रहस्य नहीं समझा पाया। उस समय बहुत ही निरुत्चायहित होकर नलिनीकांत ने आत्म हत्या करने का संकल्प किया और उसके बाद बह नींद में सो गये। तत्पश्यात एक बृद्ध ब्राहमण ने स्वप्न में कहा, बेटा, तुम्हारे गुरु तारापीठ के बामाक्षेपा हें।

एक दिन रात को नलिनीकांत ने देखा, उनकी शय्या के पास एक ज्योतिर्मय महापुरुष खड़े होकर कह रहे हें - बत्स ! अपना यह मंत्र ग्रहण करो। इतना कहकर उन्होंने नलिनीकांत को बिल्वपत्र पर लिखित एकाख्यर मंत्र प्रदान किया और उसके बाद पलभर में ही गायब हो गये। उसके बाद नलिनीकांत काफी खोज की, फिर भी कोई भी उन्हें उस मंत्र का रहस्य नहीं समझा पाया। उस समय बहुत ही नीरू उत्चाया निरुत्चायहित होकर नलिनीकांत ने आत्म हत्या करने का संकल्प किया और उसके बाद बह नींद में सो गये। तत्पश्यात एक बृद्ध ब्राहमण ने स्वप्न में कहा, बेटा, तुम्हारे गुरु तारापीठ के बामाखेपा हें

नलिनीकांत बीरभूम जिले के तारापीठ में साधू बामाक्षेपा के पास पहुंचे।[2] सिद्ध महात्मा बामाक्षेपा ने उन्हें मंत्र की साधन प्रणाली सिखाने का बचन दिया। उनकी कृपा से नलिनीकांत ने देबी तारा को सुधांसूबाला की मूर्ति में दर्शन किया और देवी के साथ बर्तालाप किया। देवी के बार बार दर्शन पाकर भी नलिनीकांत उन्हें स्पर्श करने में असमर्थ रहे। इसका तत्व जानने के लिए बह तंत्रिक्गुरु बामाक्षेपा के उपदेशानुसार संन्यासी गुरु के खोज करने लगे।

ज्ञान साधना[संपादित करें]

गुरु की खोज करते करते उन्होंने भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण किया और अंत में पुष्कर तीर्थ में स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती के दर्शन पाकर बह उनके चरनाश्रित हुए |[2] सच्चिदानंद के दर्शन करते ही नलिनीकांत जान पाये की जिन महात्मा ने उन्हें स्वप्न में मंत्र दान किया था, बे ही यही सच्चिदानंद स्वामी है। नलिनीकांत गुरु के पास रहकर उनके आदेश से अनेक श्रमसाध्य कार्य किये। उनकी सेवा से संतुस्ट होकर गुरुदेव ने उन्हें सन्यास की दिक्ष्या दे कर उनका नाम निगमानंद रखा।

योग साधना[संपादित करें]

सन्यास लेने के बाद तत्व की उपलब्धि के लिए उन्होंने गुरु के आदेश पर चारधामों का भम्रण किया।[7] परन्तु जिस तत्व की उन्होंने उपलब्धि की, उस तत्व की अंतर में उपलब्धि के लिये बे ज्ञानी गुरु के आदेश से उनसे विदा ले कर योगी गुरु की खोज में निकल पड़े। योगी गुरु की खोज के समय, एक दिन बनों के रमणीय दृश्य को देखकर बह इतने मोहित ओ गये कि दिन ढल जाने कि बाद भी उन्हें पता ही नहीं चल पाया कि शाम हो चुकी है। फलतः उन्हाने बस्ती में न लौटकर एक पेड़ के कोटर में रात बिताई | रात बीत जाने का बाद परिब्राजक निगमानंद ने पेड़ के नीचे एक दीर्घकाय तेजस्बी साधू के दर्शन किये और उनके इशारे पर उनका अनुसरण किया। बाद में उस साधुने निगमानंद को अपना परिचय दिया और उन्हें योग शिख्या देने का बचन देकर उन्हें अपनी कुटिया में ठहराया। उस साधू के आश्रम में रहकर स्वामी निगमानंद ने योगसाधन के कौशल सीखे और उनके आदेश से बह योग साधना के लिय लोकालय में लौटे। उनके उन योग शिख्यादाता गुरु का नाम उदासिनाचार्य सुमेरुदास महाराज है।[2][3]

निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति

निगमानंद हठ योग की साधना के लिए पावना जिला के हरिपुर गांव में रहने लगे। साधना में अनेक बिघ्न पैदा होने के कारण निगमानंद कामाख्या चलें गये और पहेले सविकल्प समाधि प्राप्त की। उसके बाद कामाख्या पहाड़ में निर्विकल्प समाधि प्राप्त की। ऐसा माना जाता हे, निगमानंद निर्विकल्प समाधि में निमग्न होकर में गुरु हूँ - यह स्वरुप-ज्ञान लेकर पुनः बापस आये थे। लेखक दुर्गा चरण महान्ति ने लिखा "में कौन हूँ" यह जानने केलिए स्वामी निगमानंद संसार को त्याग कर बैरागी बने थे और "में गुरु हूँ", यह भाव लेकर वह संसार में लौट आये।

भाव साधना[संपादित करें]

पूर्णज्ञानी, यह अभिमान ले कर निगमानंद काशी में पहुंचे। बहां पर माँ अर्णपुर्न्ना (काशी नगरी की इष्ट देवी) ने उनके भीतर अपूर्णता-बोध का जागरण कर दिया और कहा, तुमने ब्रहमज्ञान प्राप्त किया हे सही, परन्तु अबर ब्रहमज्ञान, या प्रेम-भक्ति के पथ में जो भगबत ज्ञान है, तुम्हें प्राप्ति नहीं हुई। इसलिए तुम पूर्ण नहीं हो । तत्पचात श्री निगमानंद देव प्रेम शिद्धा गौरीदेवी की कृपा से अबर ब्रहम ज्ञान प्राप्त कर चरम सिद्धि में पहुंचे। प्रेम सिद्धि के बाद स्वामी निगमानंद देव की इष्ट देवी तारा उन्हें प्रतख्य दर्शन देकर कहा तुम्ही सार्वभौम गुरु हो; जगत बासी तुम्हारी संतान है। तुम लोकलय में जाकर अपने शिष्य भक्त को स्वरुप ज्ञान दोतारादेवी के बाक्य से निगमानंद ने अपने को पूर्ण समझा।

परमहंस पद से अलंकृत[संपादित करें]

इस बिच बह गुरुदेव को दर्शन के लिए कुम्भ मेले में पहुंचे। बहां उन्होंने सब से पहले अपने गुरु सच्चिदानंद देव को प्रणाम करने के बाद जगदगुरु शंकराचार्य को प्रणाम किया। दुसरे साधुओने उस पर आपति जताई। स्वामी निगमानंद ने उसका सही उत्तर देकर जगदगुरु को संतुष्ट किया।

जब उन्होंने जगदगुरु शंकराचार्य के कुछ सुचिंतित प्रश्नों के सही उत्तर दिये, तो जगदगुरु ने उनके गुरु सच्चिदानंद को निर्देश दिया की उन्हें परमहंस की उपाधि से अलंकृत करें। साधुमंडली की श्रद्धा पूर्ण सम्मति से गुरु सच्चिदानंद देव ने स्वामी निगमानंद को परमहंस की उपाधि दी। उनका पूरा नाम इसी प्रकार से रहा परिब्राजकाचार्य परमहंस श्री मद स्वामी निगमानंद सरस्वती देव[8]

कर्म[संपादित करें]

स्वामी निगमानंद प्रकाशित सनातन धर्म मुख पत्र आर्य दर्पण

देश बासियों का मनोभाव बदल कर उन्हें प्रवृति से निवृति मार्ग में लौटाने के लिए श्री निगमानंद ने योगी गुरु, ज्ञानी गुरु, ब्रहमचर्य साधन, तांत्रिक गुरु और प्रेमिक गुरु आदि ग्रंथो का प्रणयन किया और सनातन धर्म के मुख पत्र के रूप में आर्य दर्पण नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया।[2] उसके अतिरिक्त सत शिख्या के बिश्तार और सनातन धर्म के उद्देश्य से साल 1912 में जोरहट स्तित (असम) कोकिलामुख में शांति आश्रम (सारस्वत मठ) की प्रतिष्टा की और संघ, सम्मलेन का अनुष्ठान किया।[1] संघ और सम्मलेन के माध्यम से आदर्श गृहस्थ समाज का गठन, संघ शक्ति की प्रतिष्टा और भाव बिनिमय कराकर जगत बासियों की सेवा करना ही उनका उद्देश्य था। नारायण के ज्ञान से जिव सेवा करने का उपदेश देकर श्री निगमानंद ने शिष्य-भक्तों और जनसाधारण को उदबुद्ध किया। इस प्रकार बहुत ही कम समय के भीतर बंगाल, बिहार, असम और ब्रहमदेश के कुछ खेत्रों में उपनी भावधारा का ब्यापक प्रचार पर उन्होंने असम स्तित मठ छोड़ दिया और बे जीवन के शेष भाग को पुरीधाम में निर्जन बास में (नीलाचल कुटीर में) बिताने लगे। उन्होंने ओडिशा के भक्तों को संघबद्ध करने के उद्देश्य में उपने शुभ जन्मदिन साल 1934 की श्रावण पूर्णिमा को नीलाचल सारस्वत संघ की स्तापना करके उपनी आध्यात्मिक भावधारा का प्रचार करने का निर्देश दिया। आदर्श गृहस्थ जीवन यापन करके संघ शक्ति की प्रतिष्टा करने के साथ साथ उन्होंने शिष्य भक्तों को भाव बिनिमय करने का उपदेश दिया।

दर्शन[संपादित करें]

इष्ट और गुरु अभिर्ण व एक है

स्वामी निगमानंद ने कहा, इष्ट-देव के स्थान पर उपने गुरुदेव को ध्यान कर सकते हो इसीलिए इष्ट और गुरु अभिर्ण व एक है।

शंकर की मत्त और महाप्रभु गौरांग की पथ

जगदगुरु शंकर की मत्त (ज्ञान) और महाप्रभु गौरांग देव की पथ (प्रेम) यह आदर्श अपनाने केलिए शिष्य भक्तों को आदेश दिया है।

शिक्षा[संपादित करें]

सदगुरु निगमानंद
  • जिन्होंने निर्विकल्प समाधि से उत्तीर्ण होकर बापस इस संसार को आये, उन्हें सदगुरु कहा जाता है। केवल वे ही दुसरों पर कृपा करने में समर्थ है।
  • जो गुरु महापुरुष त्रिगुणमयी माया को पार कर आत्मस्वरूप में प्रतिष्टित रहकर जीव उधार करते हें, वे ही सदगुरु है।
  • प्रेम भक्ति ही पृथ्वी की श्रेष्ट शक्ति है। इसलिए श्रीगुरु देव के चरणों का आश्रय लेकर भगवत चर्चा करने केलिय शास्त्रों का नीरेश है।
  • भक्ति समस्त धर्मों का मूल है। भक्ति मार्ग पर चलने से आखरी में ज्ञान की प्राप्ति होती है।
  • श्री गुरु देव ही मुक्ति दाता और गुरुसेवा ही शिष्यों का एकमात्र परमधर्म है।
  • सनातन धर्म में सदगुरु और इस्टदेवता अभिन्न है।
  • सदगुरु अवतार नहीं है, वे युग धर्म के पदर्शित मत और पथ पर शिषों को संचालित करते है।
  • सदगुरु के निर्देशानुसार कर्म करना ही कर्म योग है।
  • मनुष्य जीवन का लख्य आनंद की प्राप्ति है, भगवत प्राप्ति होने पर ही उस आनंद की प्राप्ति होती है।
  • कलियुग में संघ शक्ति ही श्रेष्ट है

महासमाधि[संपादित करें]

इस तरह पूरीधाम में अवस्थान करके समय वे सामान्य अस्वस्थता के कारण कलकता चले गये। उसके बाद 29 नवम्बर 1935 अग्रहायण शुक्ल चतुर्थी तिथि को उस महानगरी में एक निर्जन कमरे में महासमाधि ली।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

ध्यान दें[संपादित करें]

  1. Moni Bagchee (1987). Sadguru Nigamananda: a spiritual biography. (स्वामी निगमानन्द का जन्म १८८० में हुआ था). Assam Bangiya Saraswat Math. पृ॰ 43. मूल से 26 जून 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 नवम्बर 2011. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "Bagchee1987" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  2. Benoy Gopal Ray (1965). Religious movements in modern Bengal. स्वामी निगमानन्द (तंत्र, ज्ञान, योग और प्रेम(भक्ति)- चतुर्विध साधना में सिद्धि प्राप्त की थी). Visva-Bharati. पृ॰ 102. मूल से 23 जून 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 नवम्बर 2011. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "Ray1965" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  3. M. C. Behera (1 जनवरी 1998). Pilgrim centre Parashuram Kund: articulation of Indian society, culture, and economic dimension. (असाम बंगीय सारस्वत मठ). Commonwealth Publishers. पृ॰ 18. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7169-503-4. मूल से 23 जून 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 नवम्बर 2011. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "Behera1998" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  4. Sher Singh; S. N. Sadhu (1991). Indian books in print. (स्वामी निगमानन्द परमहंस की असाम बंगीय सारस्वत मठ जोरहट जिला). Indian Bureau of Bibliographies. पृ॰ 572. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-85004-46-4. मूल से 23 जून 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 नवम्बर 2011.
  5. Sher Singh; S. N. Sadhu; Indian Bibliographies Bureau (2003). Indian books in print. (नीलाचल सारस्वत संघ). Indian Bureau of Bibliographies. पृ॰ 866. अभिगमन तिथि 26 नवम्बर 2011.
  6. Indian Anthropological Society (2001). Journal of the Indian Anthropological Society. (स्वामी निगमानन्द परमहंस की नीलाचल सारस्वत संघ पूरी जिला). The Society. पृ॰ 156. मूल से 23 जून 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 नवम्बर 2011.
  7. Swami Nigamananda's visit to Char Dham Archived 2011-10-03 at the वेबैक मशीन Swami Nigamananda was instructed by his guru Swami Sachidananda to visit all these spiritual centers (dhamas) to realize the deeper significance of the four great sayings of Vedas and Upanishads. Page: 1 (Para - 2nd)
  8. Paramahamsa Prajnanananda (1 दिसम्बर 2005). My Time With The Master. Paramahansa Swami Nigamananda. Sai Towers Publishing. पपृ॰ 25–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7899-055-2. मूल से 23 जून 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 मई 2012.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]


लेख