द सेकेंड सेक्स

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द सेकेंड सेक्स (अंग्रेज़ी: The Second Sex, फ़्रांसीसी: Le Deuxième Sexe) सिमोन द बोउआर द्वारा फ़्रान्सीसी भाषा में लिखी गई पुस्तक है जिसने स्त्री संबंधी धारणाओं और विमर्शों को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। इसे नारीवाद पर लिखी गयी सबसे उत्कृष्ट और लोकप्रिय पुस्तकों में गिना जाता है। उन्होंने यह किताब 38 साल की उम्र में लिखी थी और इसमें उन्हें 14 महीने का वक़्त लगा था।[1] स्त्री अधिकारवादी विचारधारा वाली सिमोन की यह पुस्तक नारी अस्तित्ववाद को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। यह स्थापित करती है कि "स्त्री जन्म नहीं लेती है बल्कि जीवन में बढ़ने के साथ बनाई जाती है।"। उनकी यह व्याख्या हेगेल की सोच को ध्यान में रखकर “दूसरे” (the other) की संकल्पना प्रदान करती है। उनकी इस संकल्पना के अनुसार, नारी को उसके जीवन में उसकी पसंद-नापसंद के अनुसार रहने और काम करने का हक़ होना चाहिए और समाज में पुरुष से आगे बढ़ सकती है। ऐसा करके वो स्थिरता से आगे बढ़कर श्रेष्ठता की ओर अपना जीवन आगे बढ़ा सकती है। ऐसा करने से नारी को उनके जीवन में कर्त्तव्य के चक्रव्यूह से निकल कर स्वतंत्र जीवन की ओर कदम बढ़ाने का हौसला मिलता हैं। द सेकेंड सेक्स एक ऐसी पुस्तक है, जो यूरोप के सामाजिक, राजनैतिक, व धार्मिक नियमों को चुनौती देती हैं, जिन्होंने नारी अस्तित्व एवं नारी प्रगति में हमेशा से बाधा डाली है और नारी जाति को पुरुषो से नीचे स्थान दिया हैं। अपनी इस पुस्तक में सिमोन द बोउआर ने पुरुषों के ढकोसलों से नारी जाति को लाद कर उनके जीवन में आयी समस्याओं पर सोच न करने की नीति के विषय में अपने विचार प्रदान किये हैं। इसका हिन्दी अनुवाद स्त्री उपेक्षिता नाम से हुआ।

इतिहास[संपादित करें]

द सेकेंड सेक्स असल में Les temps modernes के शीर्षक से लिखी गयी थी, जो जून 1949 में छापी गयी थी। इस किताब का दूसरा भाग पहले भाग के छपने के कुछ महीनो बाद प्रकाशित हुआ था। होवार्ड पर्श्ले के द्वारा अंग्रजी में अनुवाद के तुरंत बाद ही दोनों भाग अमेरिका में जल्द ही प्रकाशित की गयी थी। होवार्ड पर अनुवाद करने का प्रस्ताव अल्फ्रेड नोफ की पत्नी, ब्लांच नोफ न रखा था। चुंकि होवार्ड को फ्रेंच बहुत कम समझ आती थी और दर्शन-ज्ञान में उनकी कोई रूचि अथवा समझ न होने के कारण उन्होंने काफी हद तक अनुवाद का काम गलत किया था। वे स्मिथ कॉलेज में जीव विज्ञान पढ़ाते थे। काफी सालों बाद, 2009 में, असल प्रकाशित फ्रेंच पुस्तक की साठवीं सालगिरह के अवसर पर, दोनों भागो की एक दूसरी अनुवादित पुस्तक प्रकाशित की गयी थी।

बेऔविओर ने अपनी विचारधारा दो अलग औरतों से प्रत्याशित की थी, - एरिका जोंग और गेर्मैन ग्रीर। ये दोनों स्त्रियों के अधिकारो का समर्थन करती थीं। “नारी : मिथक या सत्य” एक ऐसा अध्याय है, जहाँ लेखिका बेऔविओर कहती हैं कि किस तरह पुरुष ने समाज में महिला को “दुसरे” का दर्जा दिया हैं। वे कहती हैं कि पुरुष ने नारी के चारो ओर झूठे नियम ओर क़ानून बनाकर उन्हें इस आश्वाशन में रखा हैं कि उनकी जगह पुरुष श्रेष्ठ हैं। लेखिका का मानना था की ऐसा करके पुरुष ने स्त्रियों की परेशानियों को समझने से हाथ धो लिए थे और उन के झूठे ढकोसलों ने स्त्रियों को समाज में हमेशा उनके नीचे बाँध के रखने में उनकी सहायता की हैं। बेऔवोइर का मानना हैं कि ऐसा ही दबाव समज के दूसरे भागो में भी देखा गया है, उदाहरण के लिए, समाज में रंग, जाति, एवं धर्मं को लेकर कट्टर व छोटी सोच वाले पाखंडी लोगों ने कई झगड़े व भेद-भाव फैलाया है। पर उनका मानना है कि स्त्री जाति को जितना समाज के इतिहास में दबाया गया है, वैसा किसी धर्म व जाति को नहीं दबाया गया हैं। नारी को अपने से नीचे रखकर पाखंडी पुरुषों ने समाज में अपना ऊंचा स्थान बनाये रखा हैं। अपनी पुस्तक में बेऔवोइर ने ऐसे ही कई विचारों को उजागर की है, जो समाज की रीतियों अथवा नियमों को चुनौती देती हैं। उन्होंने कहा हैं कि स्त्रियों को कमज़ोर एवं शारीरिक व मानसिक रूप से असामान्य माना गया है और इसी कारणवश स्त्रियों को कहीं भी उचित अवसर नहीं मिला हैं। नारी को हमेशा यह आश्वासन दिया गया हैं कि वे कमज़ोर हैं और उन्हें स्थिर व सामान्य रहने के लिए पुरुषो के मार्ग-दर्शन पर चलना चाहिए।

महत्व[संपादित करें]

द सेकेंड सेक्स के प्रकाशित होने से पहले नारी अस्तित्ववाद के विषय में फ्रांस में कभी कोई भी विचार विमर्श नहीं हुए थे और स्त्रियों को कभी भी समाज के कानूनों से कोई शिकायत नहीं थीं। परन्तु बउआर ने विचारधारा बदल डाली। उनका नारी व पुरुष जाति की समाज में समानता दो मुद्दों की तरफ ध्यान खींचता हैं: एक, कि किस तरह शारीरिक असामान्यता पुरूषों को नारी से ऊपर व बढ़कर होने का कारण बन गयी हैं। दूसरा यह कि किस तरह शारीरिक असामान्यताओं पर बहस व सोच-विचार करने से यह पता चलता है कि शारीरिक असामान्यता असल में प्रकृति की क्रिया है और इसमें पुरुषो का कोई हाथ नहीं। अतः शारीरिक असामान्यता को पुरुषो ओर नारी में सामाजिक असमान्यता करने का कारण व्यर्थ एवं मूर्ख हैं। यहाँ बेऔवोइर प्लेटो के विचारधारा को नकारते हुए कहती है कि किसी व्यक्ति का लिंग एक घटना है जिसपर उस व्यक्ति का कोई जोर नहीं होता हैं। इसलिए, पुरुषो और नारियो में कोई भेद भाव नहीं करना चाहिए। नारी अस्तित्व के लिए बेऔवोइर ने कई योगदान किये हैं, परन्तु फिर भी कभी बेऔवोइर ने स्वयं को एक कट्टर स्त्री अधिकारवादी नहीं कहा। परन्तु 1960 और 1970 के स्त्री अधिकारवादी मोर्चो के बाद सन् 1972 में बेऔवोइर ने अपने आप को एक स्त्री अधिकारवादी घोषित किया था।

बाहरी कड़ियां[संपादित करें]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "NYT". मूल से 19 नवंबर 2018 को पुरालेखित.