सप्तपदार्थी

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सप्तपदार्थी, न्याय-वैशेषिक का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। शिवादित्य मिश्र ने ९५० ई से १०५० ई के मध्य इसकी रचना की थी।

वैशेषिक सम्मत छः पदार्थों के अतिरिक्त अभाव को सातवाँ पदार्थ निरूपित कर शिवादित्य ने वैशेषिकों के चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। पदार्थ-संख्या के संबन्ध में सूत्रकार कणाद और भाष्यकार प्रशस्तपाद के मत का अतिक्रमण करके शिवादित्य ने अपने मत की स्थापना की। वैशेषिक सूत्र में तीन और न्यायसूत्र में परिगणित पाँच हेत्वाभासों के स्थान पर शिवादित्य ने छः हेत्वाभास माने। प्रशस्तपाद ने दश दिशाओं का निर्देश किया, जबकि सप्तपदार्थी में दिशाओं की संख्या ग्यारह बताई गई है। इसी प्रकार कई अन्य सिद्धान्तों के प्रवर्तन में भी शिवादित्य ने अपने मौलिक विचारों का उद्भावन करके वैशेषिक के आचार्यों में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है।

तत्त्वचिन्तामणि के प्रत्यक्षखण्ड के निर्विकल्पक-प्रकरण में गंगेश उपाध्याय ने शिवादित्य का उल्लेख किया और खण्डनखण्डखाद्य के प्रमाण लक्षण के विश्लेषण के अवसर पर शिवादित्य के लक्षणों की समीक्षा की, जो शिवादित्य के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। आज भी वैशेषिक के जिन ग्रन्थों के पठन-पाठन का अत्यधिक प्रचलन है, उनमें सप्तपदार्थी प्रमुख है। सप्तपदार्थी पर अनेक टीकाएँ लिखी गईं, जिनमें से कुछ ये हैं:

जिनवर्धनी : वाग्भटालंकार के व्याख्याता जिन राजसूरि के शिष्य अनादितीर्थापरनामा, जिनवर्धन सूरि (1418 ई.) ने इस टीका की रचना की।

मितभाषिणी : सप्तपदार्थी पर माधवसरस्वती (1500 ई.) द्वारा रचित इस मितभाषिणी व्याख्या में वैशेषिक के मन्तव्यों का संक्षिप्तीकरण किया गया है।

पदार्थचन्द्रिका : शेष शाङर्गधर के आत्मज शेषानन्ताचार्य (1600 ई.) द्वारा सप्तपदार्थी पर पदार्थचन्द्रिका नामक टीका लिखी गई।

शिशुबोधिनी : भैरवेन्द्र नाम के किसी आचार्य ने सप्तपदार्थी पर शिशुबोधिनी नामक टीका लिखी।

सन्दर्भ[संपादित करें]

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