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उच्चतम को पहले बाहर निकालने कि विधि[संपादित करें]

इस विधि के अनुसार, माल की सूची को सबसे कम संभव मूल्य पर मूल्य की जानी चाहिए। जिस माल को अधिक या उच्चतम मूल्य से खरीदी गयी है उस माल को पहले बेच दिया जाता है। इस माल के खरीद के तारीख पर विचार नहि किया जाता है। यह विधि उपयुक्त है जब बाज़ार अस्थिर होता है क्योंकी भारी कीमत सामग्रियों की लागत उत्पादन या बिक्री से यथाशीघ्र बरामद कर सकते है।

अधारभूत सूची विधि[संपादित करें]

यह विधि प्रत्येक उध्यम एक न्यूनतम मात्रा में सूची में सभी सामग्री को कायम रखने के अधार पर बनाया है। इस मात्रा को ही अधारभूत सूची से जाना जाता है। यह समझा जाता है कि अधारभूत सूची पहले खरीदी गयी सूची भाग से बनाया जाता है। और इसलिए इसे हमेशा इसी कीमत पर मूल्यवान है और इसे निश्चित संपत्ति के रूप में दिखाया जाता है। अगर अधारभूत सूची के ऊपर मात्रा चली जाए तो उस मात्रा को किसि ओर उपयुक्त विधि से मूल्यवान की जाए।

अगले सूची के मूल्य को पहले को दिया जाने वाला विधि[संपादित करें]

यह विधि प्रयास करता है कि जो भी माल वास्तविक कीमत पर जारी या बेच दिया हो, उसके कीमत संभव बाज़ार मूल्य के करीब हो। इस विधि में बेच वस्तुओं की लागत को अगले कीमत से मूल्यवान किया जाता है। अगले कीमत से मूल्यवान करने का अभिप्राय यह है कि वह सूची या माल का कीमत जो मंगवाया गया है लेकिन प्राप्त नही हुए हो। सूची मूल्यांकन ह्मे सूची खरीदा माल के कुल मूल्य से बेचा जारी माल की लागत घटाने के द्वारा पता लगाया जाता है।

=== भारित औसत अवधि विधि === [1]

इस विधि यह अनुमान पर अधारित है कि जब सभी माल को एक ही सूची समझा जाए तो वह माल की अपना सरूपता या पहचान खो जाता है। इसलिए सूची में कोई विशिष्ट खेप नही होती। इसलिए माल की कीमत औसत कीमतों के अधार पर रखा गया है। यह माल प्रत्येक मूल्य पर खरीदी गई मात्रा के अनुसार भारित है।


== शुद्ध वसूली मूल्य या शुद्ध वसूली योग्य मूल्य == [2]

सूली मूल्य का अर्थ यह होता है कि " व्यापार के सामान्य पाठ्यक्रम में अनुमानित बिक्रि कीमत कम पूरा करने की लागत और अनुमानित लागत आवश्यक है जो बिक्री बनाने के लिए होता है।" शुद्ध वसूली मूल्य को सभी व्यय जो बिक्री बनाने के लिए खर्च किया जा करने के लिए है हो सकता है ध्यान में लेने के बाद की गणना की जाती है।

सूची को हमेशा लागत या शुद्ध वसूली मूल्य (इन में से जो भी कम हो) पर दिखाना चाहिए। विभिन्न वस्तुओं की शुद्ध वसूलि मूल्य और ऐतिहासिक लागत के साथ तुलना कि प्रतीति निम्र तरीकों में से किसी के द्वारा किया जा सकता है :-

समुच्चय या कुल सूची विधि[संपादित करें]

इस विधि के अन्सार, सूची के विभिन्न वस्तुओं के कुल लागत कीमतों का गणना लगाया जाता है। प्राप्त किए कुल मूल्य को कुल शुद्ध वसूली मूल्य से तुलना की जाती है। इन दो मूल्यों में से जो भी मूल्य कम हो, उस मूल्य का उपयोग किया जाता है।

समूह विधि[संपादित करें]

विधि के अनुसार, सूची में सजातीय वस्तुओं की समूह बनाया जाता है। हर एक समूह के लागत और शुद्ध वसूलि मूल्य की गणना की जाती है। प्रत्येक समूह के लागत या शुद्ध वसूलि मूल्य जो भी कम हो वह मूल्य को सूची मूल्यांकन के लिए उपयोग किया जाता है।

मद मद द्वारा विधि[संपादित करें]

इस विधि के अनुसार, सूची के प्रत्येक वस्तुओं की लागत और शुद्ध वसूली मूल्य क पता लगाया जाता है। फिर सभी वस्तुओं को लागत या शुद्ध वसूली मूल्य से भी कम कीमयत से मूल्य दिया जाता है।

प्रत्याशित मूल्य गिरावट[संपादित करें]

सूची को सिर्फ कम लागत या शुद्ध वसूली मूल्य पर मूल्यांकन की सिद्धांत तभी लागु होती है जब मूल्य की गिरावट वास्तव में हुआ है और नाकी भविश्य में मूल्य की गिरावट की संभावना हो।

खरीद की लागत[संपादित करें]

इस लागत में खरीद की लागत के अलावा शुक्ल और करों, माल दुलाई अंदर की ओर और अन्य व्यय जो अधिग्रहण के सीधे कारण माने जाते हैं भी शामिल है। व्यापार छूट, छूट, आदि जैसे अन्य वस्तुओं को खरीद की लागत से घटाया जाता है।

रूपांतर की लागत[संपादित करें]

रूपांतर की लागत में जो भी लागत सीधे उत्पादन की इकाइयों से संबंधित हो जैसे की प्रत्यक्ष श्रम। इस लागत में व्यवस्थित आवंटन के निश्चित और चर उत्पादन परिचालन, जो सामग्रि को तैयार माल में परिवर्तित करते समय खर्च हो, वे भी शामिल किया गया है।

अन्य लागत[संपादित करें]

इन लागतों में वही खर्च डाले जाते है जो सामग्रियों को एक जगह से दूसरी जगह तक पहुँचाने के लिये हो। इसमें कभी कभी विशिष्ट ग्राहकों के लिये उत्पादों की बनावट की लागत भी डाल दिया जाता है।

प्रकटीकरण[संपादित करें]

वित्तीय विवरणों यह सब जानकारी का खुलासा करना चाहिए :

१) सूची मापने के लिये जो भी लेखांकन नीतियों को अपनाया हो, उसका खुलासा अवश्यक है २) सूची और इसके वर्गीकरण की कुल किमत का भी खुलासा अवश्यक है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

Maheshwari, S., Maheshwari, S., & Maheshwari, S. (2012). Inventory valuation. In Financial Accounting (Fifth ed.). Noida: Vikas Publishing House Pvt. Shukla, M. (2009). Final Accounts. In Advanced Accounts. New Delhi: S. Chand &.