संधारणीयता

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A view of the Earth from space.
संधारणीयता पृथ्वी पर जीवन को जारी रखने से संबंधित है

संधारणीयता का अर्थ पारिस्थितिकी विज्ञान में होता है कि कोई जैविक तंत्र कैसे विविधता बनाये रखते हुए लंबे समय तक उत्पादन करता रह सकता है। दीर्घ अवधि से क्रियाशील और जैविक रूप से स्वस्थ आर्द्रभूमियाँ और वन इसके प्रमुख उदाहरण हैं। सामान्य अर्थों में संधारणीयता का अर्थ सीमित प्राकृतिक संसाधनों का इस तरह से उपयोग करना है कि भविष्‍य में वे हमारे लिए समाप्‍त न हो जाएं।

संधारणीयता को बनाये रखते हुए मानव विकास की अवधारणा को संधारणीय विकास की संज्ञा दी जाती है और इसके अध्ययन को संधारणीयता विज्ञान कहते हैं।

संधारणीयता की संकल्पना मानव-पर्यावरण संबंधों के एक सरल सिद्धांत पर आधारित है कि हमारे अस्तित्व के बने रहने के लिये और मानव कल्याण के लिये जो भी जरूरत की चीजें हैं वे किसी न किसी रूप में हमें अपने प्राकृतिक पर्यावरण से प्राप्त होती हैं।[1] अतः संधारणीयता होना यह सुनिश्चित करना है कि मनुष्य और उसका पर्यावरण एक स्वस्थ और सुसंबद्ध रूप से आपस में संबंधित रहें और ये उत्पादक दशाएँ और विविधता चिरकाल तक बने रहें। इन अर्थों में संधारणीयता संसाधन उपयोग का एक मार्गदर्शक सिद्धांत है जिससे हमारी पृथ्वी और प्राकृतिक पर्यावरण की विविधता, प्राकृतिक उत्पादनशीलता क्षमता और स्थायित्व बने रहें और मानव जीवन चिरकाल तक संकटमुक्त रह सके।

संधारणीयता और संधारणीय विकास जैसे शब्दों का उपयोग अस्सी के दशक से काफ़ी प्रचलन में आया जब मार्च 20, 1987 को संयुक्त राष्ट्र की ब्रंटलैण्ड रिपोर्ट जारी हुई और इसमें संधारणीय विकास (sustainable development) का उल्लेख हुआ।[2] संधारणीयता और संधारणीय विकास जैसे शब्दों की पापुलरिटी में लगातार बढ़ोत्तरी के बावज़ूद अगर पर्यावरणीय अवनयन, उपभोग की प्रवृत्तियाँ और आर्थिक समृद्धि की दौड़ और होड़ को गणना में लिया जाए तो इस बात पर अभी भी सवालिया निशान हैं कि मानव सभ्यता संधारणीयता प्राप्त कर पायेगी।[3][4]

"पृथ्‍वी के पास सभी लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्‍त संसाधन हैं लेकिन एक भी व्‍यक्ति का लालच पूरा करने के लिए पर्याप्‍त संसाधन नहीं हैं।"

--महात्‍मा गाँधी

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