श्रेणी:उत्तर प्रदेश के हिन्दू तीर्थ

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विंध्यवासिनी धाम प्रमुख शक्तिपीठों में एक है. मार्कंडेय पुराण में वर्णित देवी महात्म्य में कहा गया है कि जब देव-असुर संग्राम हुआ और देवता राक्षसों से पराजित होने लगे तो वे भगवान विष्णु के पास शरणागत हुए. तब भगवान विष्णु सर्वप्रथम अपने तेज को स्वयं से अलग करते हैं, फिर सभी देवता अपना-अपना तेज भाग देते हैं और उसी से आद्यशक्ति मां प्रकट होती हैं. दार्शनिक रूप से इसे काल (समय) के अग्नि रूप में प्रदर्शित किया गया. उसका वर्ण काला, किंतु सिंदूर से आवेष्ठित है और उससे किरणें निकलती रहती हैं. वह सभी प्राणियों की स्वामिनी हैं. ब्रह्मा, विष्णु, देवतागण, दैत्य, पशु-पक्षी एवं संपूर्ण चर-अचर जगत उन्हीं के प्रभाव से संचालित होते हैं. मुख्य रूप से चामुंडा संहार और विनाश की अधिष्ठात्री देवी हैं. आद्यशक्ति सभी की मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं. उन्हें ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के रूप में कार्य करने वाली महाशक्ति कहा गया है और त्रिदेवों की स्त्री शक्ति के रूप में भी स्मरण किया जाता है. देवी पुराण में यही शक्ति दुर्गा, उमा, शिवा देवी, ब्राह्मणी, विंध्यवासिनी, चामुंडा, शक्ति, पराशक्ति, गौरी, कात्यायनी, कौशिकी, पार्वती, नारायणी, मीना, धूमा, अंबिका, लक्ष्मी, चंडी, कपालिनी, काली, महिषासुर मर्दनी, नंदा, भवानी, तारा, वैष्णवी, महालक्ष्मी, श्वेता एवं योगेश्वरी आदि सैकड़ों नामों से जानी जाती है. सभी देवियों की मूल प्रकृति, कार्य एवं महत्व एक हैं. विंध्याचल पर्वत के मस्तक पर विराजमान होने के कारण यही आद्यशक्ति विंध्यवासिनी देवी के रूप में प्रसिद्ध हुईं. यह लोकहित के लिए विंध्य क्षेत्र में महासरस्वती, महाकाली एवं महालक्ष्मी का रूप धारण करती हैं. यद्यपि बाबा भोलेनाथ को काशी बहुत प्रिय है, परंतु शक्ति की उपस्थिति के कारण विंध्य क्षेत्र भी उन्हें उतना ही प्रिय है. इसी कारण इसे छोटी काशी कहा जाता है.

भगवान राम ने त्रेता युग में विंध्याचल आकर शिवपुर के निकट रामगंगा घाट की प्रेतशिला पर अपने पूर्वजों का तर्पण किया. इतिहासकार मानते हैं कि माटी या पत्थर के जिस टुकड़े पर लाखों लोगों की श्रद्धा समर्पित होती है, वह माटी-पत्थर देवता और तीर्थ समान है.

शक्ति पूजा के विशद विवरण मध्यकाल के विविध ग्रंथों में मिलते हैं. पुराणों, जैन और बौद्ध ग्रंथों में इसकी चर्चा बहुतायत मिलती है. वेदों में भी शक्ति की अर्चना के अंश मौजूद हैं. भारत के बाहर भी अनेक प्राचीन देशों जैसे मिस्र, सुमेरिया, बेबीलोनिया, अक्काद, यूनान, रोम एवं चीन आदि में शक्ति पूजा के व्याख्यानों एवं स्थलों की विशेष चर्चा है. मातृ देवी के रूप में सर्जक, पालक एवं संहारक भाव से ज्ञान, धन और रक्षा के लिए उनकी पूजा की जाती थी. सिन, शमस्‌, इस्तर, ईया, अस्सु, एन, बेले एवं थीटिस त्रिक की अर्चना प्रचलित थी. उक्त देवियां हंसवाहिनी, उलूकवाहिनी और पशुवाहिनी मानी जाती हैं. विंध्याचल माता की प्रसिद्धि उनके आदिशक्ति होने के कारण अधिक है. विंध्याचल के त्रिकोण पथ दुर्गा, लक्ष्मी एवं सरस्वती के दया द्वार खोलते हैं, जिससे श्रद्धालुओं के दैहिक, दैविक और भौतिक ताप मिटते हैं. सत, रज और तम संतुलित होकर जीव को मातृधाम की यात्रा करने के योग्य एवं पवित्र कर देते हैं. ॠग्वेद में स्वयं मां अपने स्वरूप के बारे में कहती हैं कि मैं ही संपूर्ण जगत की अधीश्वरी हूं. धन, ज्ञान, योग्यता मैं ही देती हूं. शत्रुओं के नाश का कारण मैं ही हूं. मार्कंडेय पुराण में वर्णित दुर्गा सप्तशती में माता के तीनों स्वरूपों की आराधना के निर्देश हैं. शाक्त मान्यता के लोग नवरात्र पूजन के प्रथम तीन दिन दुर्गा रूप, अगले तीन दिन लक्ष्मी रूप और अंतिम तीन दिन सरस्वती रूप की आराधना करते हैं.

विश्वास और तंत्र पथ के अनुसार, अलग-अलग देवी के तीन अलग-अलग रूपों की अलग-अलग विधि से उपासना की जाती है. जनसाधारण मां के सौम्य रूप की आराधना करते हैं. देवी के प्रचंड रूप की पूजा कापालिक और कालमुख जैसे घोर पंथी करते हैं. इसमें पंचमकार तक का प्रयोग होता है. कामरूपिणी देवी की उपासना शाक्त लोग करते हैं. ये देवी को त्रिपुर सुंदरी, आनंद भैरवी और ललिता आदि नामों से पुकारते हैं. यहां भैरव को देवी की आत्मा माना गया है, जिनके नौ व्यूह हैं. काल व्यूह, कुल व्यूह, नाम व्यूह, ज्ञान व्यूह एवं अहंकार व्यूह आदि प्रमुख हैं. विंध्याचल में इन तीनों रूपों की स्थापना है. दार्शनिक सत्ता में शिव और शक्ति आदि तत्व हैं. शक्ति ही अंतर्मुखी होने पर शिव हैं और शिव ही बहिर्मुखी होने पर शक्ति हैं. विंध्यवासिनी देवी का उल्लेख महाभारत, वाल्मीकि रामायण, मार्कंडेय पुराण, कल्कि पुराण, देवी पुराण, देवी भागवत, श्रीमदभागवत, लक्ष्मी यंत्र, हरिवंश पुराण, वामन पुराण, दुर्गा सप्तशती, चंद्रकला नाटिका और कादंबरी जैसे महाकाव्यों, पुराणों और साहित्य में है. 12 महापीठों में भी इस धाम का पावन स्थान है. तारकेश्वर महादेव से लेकर विरोही तक विंध्य क्षेत्र में असंख्य मंदिर और कुंड हैं, जिनमें तारकेश्वर महादेव, पंचमुखी महादेव, लोंहदी महावीर, संकट मोचक महावीर, कृष्ण मंदिर, मुक्तेश्वर महादेव, तारा देवी, रामेश्वर महादेव, दुग्धेश्वर महादेव, अक्रोधेश्वर लिंग, वीर भद्रेश्वर मंदिर, गोकणेश्वर महादेव, कामतेश्वर महादेव, कंकाल काली नंदजा, नारायण कुंड, लक्ष्मी कुंड, ब्रह्म कुंड, सप्तर्षि कुंड, नकादि कुंड, धर्मकुंड, गोकर्ण कुंड, सीता कुंड, रामकुंड, मुक्ति कुंड, भैरव कुंड श्मशान तारा एवं भैरव कुंड स्थित तारा शिवालय-श्रीयंत्र आदि विंध्यधाम के वैभव और प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं. भगवान राम ने त्रेता युग में विंध्याचल आकर शिवपुर के निकट रामगंगा घाट की प्रेतशिला पर अपने पूर्वजों का तर्पण किया. इतिहासकार मानते हैं कि माटी या पत्थर के जिस टुकड़े पर लाखों लोगों की श्रद्धा समर्पित होती है, वह माटी-पत्थर देवता और तीर्थ समान है. भारत को विंध्याचल की पावनता के कारण तीर्थों का देश कहा जाता है.

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