शैलकला

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युनेस्को विश्व धरोहर स्थल
विश्व धरोहर सूची में अंकित नाम
हाथी जैसे आकार का शैल चित्र
देश  भारत
प्रकार सांस्कृतिक
युनेस्को क्षेत्र कोकण (महाराष्ट्र)

शैलकला यह प्राक इतिहासकालीन संकल्पना है। पत्थरों में खुदाई करके यह शिल्प बनायी गई है। यह चित्र बनाने का कारण इतिहास से पता लगाना कठिन है। पशु, पक्षी, समझ में न आनेवाली आकृतियाँ इन चित्रों में नजर आती हैं। भीमबेटका के शिल्प जागतिक स्थल नामके घोषित है। राॅक आर्ट (Rock Art) तथा पेट्रोग्लिफ्स (petroglyphs) इस नामसे यह चित्र जाने जाते हैं। ऐसे चित्र महाराष्ट्र राज्य के कोंकण प्रांत में ज्यादातर दिखाई देते हैं।[1]

चित्रांकन और रेंखांकन मनुष्य जाति की सबसे प्राचीन कलाएं हैं। आदि मानव गुफाओं की दीवारों का प्रयोग कैनवास के रूप में किया करता था। उसने रेखांकन और चित्रांकन शायद अपने प्रतिवेश को चित्रित करने अथवा अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का दृश्य रिकार्ड करने के लिए भी किया हो। गुफाओं की चट्टानों पर अपने इतिहास को चित्रित करने का उसका प्रयास शायद वैसा ही था जैसेकि हम अपनी दैनिक डायरी लिखते हैं।

वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि पाषाणयुग (वह समय जबकि वह पत्थर के हथियारों का प्रयोग करता था) का मनुष्य गुफाओं में रहता था और शिलाओं के इन आश्रय स्थलों का प्रयोग वर्षा, बिजली, ठंड और चमचमाती गर्मी से अपनी रक्षा करने के लिए किया करता था। वे यह भी मानते हैं और उन्होंने यह प्रमाणित करने के साक्ष्य भी ढूंढ लिए हैं कि गुफाओं में रहने वाले ये लोग लंबे, बलवान थे और प्राकृतिक खतरों से निबटने और साथ ही विशालकाय जंगली गैंडे, डायनोसोर अथवा जंगली सूअरों के समूह के बीच अपने जीवन की दौड़ दौड़ते रहने के लिए उसके पास अनेक वहशियों की तुलना में कहीं अच्छे दिमाग होते थे। रेनडियर, जंगली घोड़े, सांड अथवा भैंसे का शिकार करते-करते कभी-कभी वह आसपास रहने वाले भालुओं, शेरों तथा अन्य जंगली पशुओं का ग्रास बन जाता था।

हां, इन आदि मानवों के पास कुछ उत्तम चित्र रेखांकित और चित्रांकित करने का समय रहता था। सारे वि में अनेक गुफाओं का दीवारें जिन पशुओं का कन्दरावासी शिकार किया करते थे, उनके बारीकी से उत्कीर्ण और रंगे हुए चित्रों से भरी हुई हैं। ये लोग मानवीय आकृतियों, अन्य मानवीय क्रियाकलापों, ज्यामिति के डिजाइनों और प्रतीकों के चित्र भी बनाते थे।

वैज्ञानिकों ने प्राचीन गुफा आश्रय स्थलों की खोज करके मनुष्य के प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में बहुत कुछ जान लिया है। ये वैज्ञानिक प्राचीन काल की दलदल और नमीदार दीवारों की रेत के कारण दफन हुए शवों की खुदाई करते हैं और गहरी खुदाई करने पर उन्हें हड्डियों और हथियारों की एक और परत मिलती है, जो और भी प्राचीन मनुष्यों का परिचय देती है। इन परतों में उन्हें उन पशुओं के अवशेष (अस्थियां) भी मिलते हैं जिनका अब इन पृथ्वी पर कोई नामों-निशान नहीं बच रहा है। इन अवशेषों और मनुष्यों ने गुफाओं की दीवारों पर जो चित्र बनाए थे उनके सहारे अध्यवसायी वैज्ञानिक उस युग के मनुष्य की कहानी को कण-कण करके जोड़ते हैं और प्रकाश में लाते हैं।

आदिम मानव ने शिला पर अपनी कला के कई निशान छोड़े हैं जो कि कच्चे कोयले से खींची गई आकृतियों अथवा हेमेटाइट नामक पत्थऱ से तैयार किए गए अथवा पौधों से निकाले गए रंग से बनाए गए चित्रों अथवा पत्थर पर उत्कीर्ण नक्काशी के रूप में मौजूद हैं। कच्चे कोयले अथवा रंगों से बनाए गए चित्र (चित्रलेख) पिक्टोग्राफ कहलाते हैं जबकि अपघर्षित चित्र (प्राचीन मनुष्य इन अर्थों में कुशाग्र बुद्धि था कि वह आकृतियों की बहि:रेखाएं खींचता था और दूसरे पत्थर से चित्रांकन किए हुए हिस्से से मिटा देता था, जिससे कि वह चित्रांकनों के लिए पृष्ठभूमि के रूप में प्रयुक्त पत्थर पर आकृतियां उभार सकें) (शीलोत्कीर्णन) पैट्रोग्लिफ कहलाते हैं।


कोकण प्रांतकी शैल शिल्प (चित्र)[संपादित करें]

महाराष्ट्र राज्य के कोकण प्रांतमें रत्नागिरी, लांजा, राजापूर, देवगड़ और सिंधुदुर्ग जिलोमें सबसे ज्यादा शैलशिल्प है।

जयगड, चवे, रामरोड, करबुडे, मासेबाव, निवळी, गोळप, निवळी गावडेवाडी, कापडगाव, उमरे, कुरतडे, कोळंबे, गणेशगुळे, मेर्वी, गावखडी, डोर्ले इ.

  • राजापूर

देवाचे गोठणे, सोगमवाडी, गोवळ, उपळे, साखरे कोंब, विखारे गोठणे, बारसू, पन्हाळे ,शेडे, कोतापूर, देवीहसोळ इ.

  • लांजा तालुका-

भडे, हरचे, रूण, खानावली, रावारी, लावगण इ. देवगड और सिंधुदुर्ग इलाकेमें अभीभी संशोधन जारी है |[2]

काल निर्धारण[संपादित करें]

मध्य अश्मयुगीन कालकी ईसापूर्व १०००० वर्ष पुरानी यह चित्र है ऐसा विद्वतजन कहते है |

संशोधनका भौगोलिक क्षेत्र[संपादित करें]

कोकण प्रांतके पर्वतीय पठार पर यह संशोधन कार्य जारी है । ३७०० चौ कि मी व्यापित क्षेत्र में यह संशोधन हो रहा है ।

विशेषताएं[संपादित करें]

  • यह सब शिल्प शैल के ऊपरी हिस्से में जमीनपर बनाएँ गए है।
  • पशु आकृति पशुके नैसर्गिक आकार में ही बनाई गई है।
  • पक्षी आकृति में पक्षीके नैसर्गिक आकार से बड़ी आकार में आकृति बनाई गई है।
  • कोकण प्रांतमें दिखाई न देनेवाले प्राणी तथा पक्षी इन आकृतियोंमें दिखाई देते है।
  • यह चित्रशैली पोर्तुगाल,ओस्ट्रेलिया की शैल्शिल्पसे मिलीजुली लगती है।

संशोधन कार्य[संपादित करें]

राजापूर, रत्नागिरी व लांंजा ऐसे ४२ गावोंमें ८५० शैल शिल्प मिले है | शोधकर्ता सुरेंंद्र ठाकुरदेसाई, धनंंजय मराठे और सुधीर रिसबूड इन्होंने हर गांवमें जाकर इन शिल्पचित्रोंकी खोज की है |[3]

चित्रदालन[संपादित करें]

यह भी देखिए[संपादित करें]

बाहरी कड़ी[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "कोकणातील कातळशिल्पे (मराठी)". मूल से 19 सितंबर 2018 को पुरालेखित.
  2. "राजापुरात पुन्हा आढळला कातळशिल्पांचा खजिना". २३.३. २०१८. मूल से 19 सितंबर 2018 को पुरालेखित. |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  3. रिसबुड, ठाकुरदेसाई, मराठे. "अशमयुगीन मानवी अस्तित्वाच्या पाऊलखुणांचा शोध-कातळ-खोद-शिल्प". Cite journal requires |journal= (मदद)सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)