विषाणु विज्ञान

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विषाणु विज्ञान, जिसे प्रायः सूक्ष्मजैविकी या विकृति विज्ञान का भाग माना जाता है, जैविक विषाणुओं व विषाणु-सम अभिकर्ताओं के वर्गीकरण, संरचना एवं विकास, उनकी प्रजनन हेतु कोशिका दूषण या संक्रमण पद्धति, उनके द्वारा होने वाले रोगों, उन्हें पृथक करने व संवर्धन करने की विधियां, तथा उनके अन्तर्निहित शक्तियां शोध व प्रयोगों में करने के अध्ययन को विषाणु विज्ञान कहते हैं।

एच आई वी विषाणु, जो एड्स की भयंकर रोग के लिये उत्तरदायी है।

विषाणु संरचना एवं वर्गीकरण[संपादित करें]

विषाणु विज्ञान की एक प्रधान शाखा है विषाणु वर्गीकरण। विषाणुओं को उनके द्वारा संक्रमित हुए होस्ट के आधार पर वर्गीकृत किया जासकता है: पशु विषाणु, पादप विषाणु, कवक विषाणु, बैक्टीरियोफेज (जीवाणु को संक्रमित करते विषाणु), इत्यादि। अन्य वर्गीकरण के तहत उनके कैपसिड (प्रायः हैलिक्स या किया जाता है (उदा० लिपिड वायरल एनवेलप की उपस्थिति या अनुपस्थिति)। विषाणुओं का आकार 30nm से लेकर 450nm तक होता है। अतएव अधिकांश विषाणु साधारण सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे नहीं जा सकते हैं। विषाणुओं का आकार व उनकी संरचना का दर्शन इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी के संग एन एम आर स्पैक्ट्रोस्कोपी द्वारा ही किया जा सकता है। खासकर इसे एक्सरे क्रिस्टलोग्राफी द्वारा देखा जा सकता है।

सर्वाधिक प्रयोग होने वाला व उपयोगी वर्गीकरण विषाणुओं को उनके द्वारा अनुवांशिकी हेतु प्रयोग होने वाले न्यूक्लिक अम्ल व तथा वायरल प्रतिकृति पद्धति के आधार पर किया जाता है:

विषाणु का प्रतिकृतिकरण

इनके साथ ही विषाणुज्ञ उपविषाणु कण (सब-वायरल पार्टिकल्स), संक्रामक अस्तित्व (जो विषानुओं से भी छोटे हैं) का अध्ययन भी करते हैं: वायरॉयड (पादप स्म्क्रमण करते नग्न वृत्ताकार आर एन ए अणु), सैटेलाइट बॉडीज़ (न्यूक्लिक अम्ल अणु, कैपसिड के साथ या बिना, जिन्हें संक्रमण और प्रजनन हेतु एक सहायक विषाणु आवश्यक होता है) एवं प्रायन (रोग विज्ञानीय आकृति में रह रहे प्रोटीन, जो अन्य प्रायन अणुओं को वही आकृति दिलवा देते हैं)

विषाणु टैसोनॉमी पर अन्तर्राष्ट्रीय समिति (2005) ने 5450 विषाणु सूचिबद्ध किये हैं, जो 2000 स्पीशिज़, 287 जैनेरा, 73 परिवार व 3 ऑर्डर में वर्गीकृत हैं।

विषाणु विज्ञान में टैक्सा अनिवार्य रूप से मोनोफायलिटिक नहीं होते। वरन भिन्न विषाणु समूहों के विकासशील संबंध अभी भी अस्पष्ट हैं। इनके उद्गम के बारे में तीन प्राक्कल्पनाएं हैं:

  1. विषाणु अजीवित पदार्थॊं से निकले हैं, जो कि अन्य जीवन प्रकारों से भिन्न व साथ साथ हैं। संभवतः स्वप्रजननशील आर एन ए राइबोज़ोम से, जो कि वायरॊयड के समान हैं।
  2. विषाणु एक पूर्ववर्ती, सक्षमतर कोशिकीय जीवन प्रकार से निकले हैं, जो अपने होस्ट कोशिका के परजीवी बन गये, व बाद में अपने अधिकांश प्रकार्य भूल गये, ऐसे क्षुद्र परजीवी प्रोकैर्योट के उदाहरण हैं माइकोप्लाज़मा अवं नैनोआर्काइया
  3. विषाणु अपने जीनोम कोशिका के भाग स्वरूप उत्पन्न हुए, बहुत संभव ट्रांस्पोसॉन या प्लाज़्मिड, जिन्हें अपने होस्ट कोशिका से टूट निकलने व अन्य कोशिकाओं को संक्रमित करने की क्षमता बना ली।

यह बिलकुल संभव है, कि भिन्न विकल्प, भिन्न विषाणु समूहों पर लागू होते हैं।

यहां मिमिवायरस, जो एक वृहत विषाणु है, व अमीबा में संक्रमण करता है, के बारे में संदर्भ देना उचित है; जो अधिकांश आण्विक मशीनरी रखता है, जो कि जीवाणुओं से संबद्ध है। क्या यह परजीवी प्रोकैर्योट का सरलीकृत रूप है, या कि यह एक सरल विषाणु रूप में उद्गम हुआ, जिसने अपने होस्ट के जीन ले लिये?

विषाणुओं का क्रम-विकास, जो प्रायः अपने होस्ट के क्रम-विकास के साथ होता है, विषाणु क्रम विकास के अन्तर्गत अध्ययनित है।

जबकि विषाणु प्रजनन व विकास करते हैं, फिर भी उनमें चयापचय नहीं होता है, व अपने होस्ट कोशिका पर प्रजनन हेतु निर्भर हैं।

वायरल रोग एवं होस्ट रक्षा[संपादित करें]

विषाणुओं के अध्ययन की एक मुख्य प्रेरणा यह तथ्य है, कि वे कई संक्रामक रोग पैदा करते हैं। इन रोगों में जुखाम, इंफ्लुएन्ज़ा, रेबीज़, खसरा, दस्त के कई रूप, हैपेटाइटिस, येलो फीवर, पोलियो, चेचक,कोरोना वायरस तथा एड्स तक आते हैं। कई विषाणु, जिन्हें ऑन्कोवायरस कहते है< कई तरह के कैंसर में भी योगदान देते हैं। कई उप-विषाणु कण भी रोग का] का निमित्त है एक उपग्रह विषाणु|

विषाणु जिस शैली में रोग करते हैं, उसका अध्ययन विषाण्वीय रोगजनन या वायरल पैथोजैनेसिस कहलाता है। जिस श्रेणी तक कोई विषाणु रोग करता है, उसे "वायरुलेंस कहते हैं|

जब किसी कशेरुकी जीव की उन्मुक्ति प्रणाली का विषाणु से सामना होता है, वह विशिष्ट रोगप्रतिकारक या एंटीबॉडी का निर्माण करती है, जो विषाणु को बांध कर उसे विध्वंस के लिये विह्नित कर देती है| इन रोगप्रतिरोधकों की उपस्थिति कभी कभी यह जानने के लिये भी जांची जाती है, कि कोई व्यक्ति पूर्व में उस विषाणु से आक्रमित हुआ है या नहीं| ऐसे परीक्षणों में से एक है ऐलाइज़ा या ई एल आई एस ए| विषाणु जनित रोगों से बचाव हेतु टीकाकरण लाभदायी होता है, जिसमें व्यक्ति के शरीर में प्रतिरोधक तत्व पहले से ही डाल दिये जाते हैं, या उनमें प्रतिरोधकों का निर्माण कराया जाता है| खास तौर पर बनायी मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ का भी प्रयोग विषाणुओं की उपस्थिति जाँच हेतु किया जा सकता है, जिसे फ्ल्यूरोसेंस सूक्ष्मदर्शिकी या फ्ल्यूरोसेंस माइक्रोस्कोपी कहा जाता है|

विषाणुओं के विरुद्ध कशेरुकियों की दूसरी रक्षा पद्धति है कोशिका मध्यस्थ उन्मुक्ति या सेल मेडियेटेड इम्म्युनिटी जिसमें प्रतिरोधित कोशिकाएं, जिन्हें टी-कोशिका कहते है, कार्यरत होते हैं| शरीर की कोशिकाएं, अन्वरत रूप से अपने प्रोटीन कोशिका का एक छोटा अंश कोशिका की सतह पर प्रदर्शित करतीं हैं| यदि टी-कोशिका को संदेहजनक विषाणु अंश वहां मिलता है, तो उसका होस्ट (आतिथेय) कोशिका मिटा दिया जाता है, व विषाणु विशिष्ट टी-कोशिका बढ़्ती जातीं हैं| यह पद्धति कुछ टीकों द्वारा आरंभ की जा सकती है|

पादप, पशु श्रेणी व कई अन्य यूकैर्योट्स में पायी जाने वाली, एक महत्वपूर्ण कोशिकीय पद्धति, आर एन ए इंटरफेयरेंस, विषाणुओं के विरुद्ध रक्षा कए लिये यथासंभव उपयुक्त है| इंटरैक्टिंग किण्वकों का एक समूह, डबल स्टअंडेड आर एन ए अणुओं (जो कि कई विषाणुओं में जीवन चक्र का भाग होते हैं) पहचानते हैं और फिर उस आर एन ए अणु के सभि सिंगल स्ट्रैंडेड अणुओं को नष्ट कर देते हैं|

हरेक हानिकारक विषाणु एक विरोधाभार प्रस्तुत करता है: होस्ट को नष्ट करना विषाणु के लिये आवश्यक नहीं है| फिर क्यों और कैसे इस विषाणु का विकास हुआ? आज यह माना जाता है, कि अधिकांश विषाणु, अपने होस्ट के भीतर अपेक्षाकृत कृपालु होते हैं| हानिकारक विषाणु रोगों को ऐसे समझा जा सकता है, कि कोई कृपालु विषाणु, जो अपनी जाति में कृपालु है, कूद कर एक नयी जाति में चला जाता है, जो उसकी देखि समझी नहीं है| (

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उदा० इन्फ्लुएंज़ा विषाणु के प्राकृतिक होस्ट सुअर या पक्षी होते हैं, व एड्स को कृपालु मर्कट विषाणु से निकला बताया जाता है|

हालांकि कई विषाणुजनित रोगों से बचाव टीकों द्वारा लम्बे समय तक संभव है, विषाणु विरोधी औषधियों का विकास, रोगों के उपचार हेतु, अपेक्षाकृत नया विकास है| पहला ड्रग था इंटरफैरोन, वह पदार्थ, जो कि प्राकृतिक रूप से कुछ उन्मुक्त कोशिकाओं द्वारा संक्रमण दिखने पर उत्पादित होते हैं, व उन्मुक्ति प्रणाली के अन्य भागों को उत्तेजित (स्टिमुलेट) करते हैं|

आण्विक जैविकी शोध एवं विषाणु उपचार[संपादित करें]

बैक्टीरियोफेज, वे विषाणु जो जीवाणु को इन्फैक्ट करते हैं, को जीवाण्विक संवर्धन द्वारा सरलता से वायरल प्लाक के रूप में, वर्धन किया जा सकता है| बैक्टीरियोफेज कभी-कभी ट्रांस्डक्शन की प्रक्रिया द्वारा अनुवांशिक पदार्थ को एक जीवाणु से दूसरे में स्थानांतरित कर देता है| और यह क्षैतिज जीन स्थानांतरण, एक मुख्य कारण है, कि वे आण्विक जीवविज्ञान के आरम्भिक विकास में प्रधान अनुसंधान उपकरण बने| अनुवांशिक कोड, राइबोज़ोम के प्रकार्य, प्रथम पुनर्योजी डी एन ए या रीकॉम्बिनैंट डी एन ए एवं आरम्भिक अनुवांशिक पुस्तकालय, सभि बैक्टीरियोफेज का प्रयोग किया करते थे| विषाणुओं से व्युत्पन्न, कुछ खास अनुवांशिक घटक, जैसे उच्च प्रभावी प्रोमोटर, सामान्यतया आण्विक जीवविज्ञान अनुसंधान में आज प्रयोग किये जाते हैं|

जीवित होस्ट से बाहर पशु विषाणुओं का वर्धन अतीव कठिन है| फर्टिलाइज़्ड चूज़ों के अण्डों को प्रायः प्रयोग किया गया है, किन्तु कोशिका संवर्धन आजकल अधिकतर प्रयोग में है|

यूकैर्योट्स को संक्रमित करने वाले विषाणुओं को अपने अनुवांशिक पदार्थ को होस्ट कोशिका की नाभि में स्थानांतरित करना होता है, अतएव वे होस्ट में नये जीन डालने में प्रयोगशाली होते हैं| इसे ही जीन ट्रांस्फॉर्मेशन कहते हैं| इस उद्देश्य हेतु प्रायः सुधारे हुए रिट्रोवायरस प्रयोग हिते हैं, क्योंकि वे अपने जीन को होस्ट के क्रोमोज़ोम में एकीकृत कर देते हैं|

अनुवांशिक रोगों के उपचार हेतु, जीन थैरेपी में, विषाणुओं को जीन-चालक रूप में इस प्रकार प्रयोग किया जाता है| विषाणु जीन थैरेपि में डाले गये जीन का उन्मुक्ति प्रणाली द्वारा अस्वीकृति, ही इस पद्धति की मुख्य समस्या है|

फाज थैरेपी में बैक्टीरियोफेज को जीवाण्विक रोगों के विरुद्ध प्रयोग किया जाता है| जैवप्रतिरोधी (एण्टीबायोटिक्स) की खोज से पूर्व, यह एक बड़ा शोध विषय रहा है|

ऑन्कोलिटिक विषाणु वे विषाणु होते हैं, जो कैंसर कोशिकाओं को संक्रमित करते हैं| हालांकि कैंसर उपचार हेतु इन विषाणुओं का प्रयोग विफल रहा, 2005-06 में इस प्रयोग की आरम्भिक सफलता के समाचार मिले हैं|[1]

विषाणुओं के अन्य उपयोग[संपादित करें]

अनुवांशिक रूप से

अभिकल्पित विषाणुओं को नैनितकनीक में एक नया अनुप्रयोग हाल ही में बताया गया है।

इतिहास[संपादित करें]

टीकाकरण का एक आरंभिक रूप वैरोलिअशन कहलाता था, जो कि चीन में कई हजार वर्षों पूर्व विकसित हुआ था। इसमें चेचक के रोगियों के शरीर से प्राप्त पदार्थ को अन्य लोगों को उन्मुक्त करने हेतु प्रयोग किया जाता था। सन 1717 में, लेडी मैरी वोर्ट्ले मॉन्टैग्यू ने यह अभ्यास इस्तांबुल में देखी और इसे ब्रिटेन में प्रचलित करने का प्रयास किया, जिसका भरसक विरोध हुआ। 1796 में एड्वार्ड जैनर ने एक अति सुरक्षित तरीका खोजा, जिसमें काओपॉक्स को एक युवा लड़के को चेचक से उन्मुक्त करने हेतु प्रयोग किया गया था, जिसका स्वागत हुआ। इसके बाद अन्य वायरल रोगों के भी टीके निकले, जिसमें 1886 में लुई पाश्चर द्वारा रेबीज़ का सफल टीका भी था। अन्य शोधकर्ताओं को विषाणुओं की प्रकृति वैसे तब भी पुई तरह स्पष्ट नहीं थी। 1892 में, डिमित्री आइवानोस्की ने प्रदर्शित किया, कि तम्बाकु मोज़ायक की बीमारी उसके सार को अति बारीक फिल्टर्स से, जिनमें से वीवाणु भी नहीं निकल पाते थे, छानने के बाद भी आगे फैल सकती है। 1898 में मार्टिनस बेइजरिंक ने तम्बाकु पौधों पर कार्य करते हुए पाया, कि वह छनन योग्य वस्तु होस्ट में वर्धित हो सकता था, मात्र विषाक्त पदार्थ नहीं था। अब यह प्रश्न शेष था, कि क्या यह एजेंट जीवित तरल था, या कोई कण था?





इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Viruses: The new cancer hunters Archived 2006-02-13 at the वेबैक मशीन, IsraCast, 1 मार्च 2006

  • Villarreal, L. P. (2005) Viruses and the Evolution of Life. ASM Press, Washington DC ISBN 1-55581-309-7
  • Samuel Baron (ed.) (1996) Medical Microbiology, 4th ed., Section 2: Virology (freely searchable online book)
  • Coffin, Hughes, Varmus. (1997) Retroviruses (freely searchable online book)

वाहरी कड़ियां व स्रोत[संपादित करें]