वार्ता:मानव विकास सूचकांक

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लेखक- कमलेश पलसानिया पता- श्रीमाधोपुर सीकर राजस्थान 332715

मानव विकास (Human Development - Essay in Hindi)

प्रस्तावना: - संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम लगभग दो दशक से ज्यादा समय से मानव विकास सूचकांक तैयार करने लगा है। इस सूचकांक से हमारे बीच यह तथ्य प्रकट होकर आने लगे हैं कि भारत में अमीर और गरीब की खाई दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। जहां एक ओर 2000 में उपरी वर्ग के एक प्रतिशत की कुल संपति निचले तबके के 99 प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति से 58 गुना ज्यादा थी। यह 2005 में 75 गुना, 2010 में 94 गुना और 2014 में 95 गुना हो गयी। जबकि, दूसरी ओर औसत प्रति-व्यक्ति आय जो 1980 में 1255 डालर थी 34 साल में मात्र 3.4 गुना ही बढ़ी। देश में बढ़ रही आर्थिक असामनता के कारण को हमें समझने की कोशिश चाहिए।

लिंग-भेद: - जरा गौर करें! कैसा लगता है यह जानकार कि बांग्लादेश तो छोड़िए पाकिस्तान और इराक भी लिंग-भेद (यानी नारी सशक्तिकरण) के स्तर पर हमसे काफी बेहतर स्थिति में हैं! गरीब-अमीर के बीच बढ़ती असमानता में हम दुनिया के 188 देशों में 150वें स्थान पर हैं और यह खाई लगातार बढ़ती जा रही है तो क्या हमारे पुरखों द्वारा खून बहाकर दिलाई गयी आजादी बेमानी नहीं लगेगी? अर्थात उनकी यह आजादी बेकार ही गई हैं।

विकास: -पिछले वर्षों में चुनावों में जिन मुद्दों को लेकर मतदान हुए उनमें कहीं भी मानव विकास का मुद्दा नहीं था कि क्यों देश में अगर हम जीडीपी में दुनिया के शिखर दस देशों में हैं तो मानव विकास सूचकांक में 185 देशों में 130वें या 135वें स्थान पर क्यों? गलती किसकी है? हम हर पांच साल पर सरकार चुनते हैं पर हम अपनी समस्याएं भी नहीं समझ पाते। पिछले सात दशकों में या जब से (1990 से) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) मानव विकास सूचकांक बनाने लगा है एक बार भी यह मुद्दा जन-धरातल पर नहीं आया कि अगर हमारा आर्थिक विकास हो रहा है तो अमीर और अमीर क्यों और गरीब और गरीब क्यों होते जा रहे हैं? हमने कभी भी इस बात पर जन-मत तैयार कर इस बात पर मतदान नहीं किया कि जब सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था तो मानव विकास क्यों ठहरा रहा? अर्थात मानव का विकास क्यों नहीं हो पाया। कहना न होगा कि अगर जीडीपी बढ़ रहा है तो उसका लाभ जन-जन तक पहुंचाना सत्ता-पक्ष की नीति और शासन के अभिकरणों का काम है।

रिपोर्ट: -यूएनडीपी द्वारा जारी की गई ताजा रिपोर्ट (14 दिसंबर, 2015) ने एक बार फिर मायूस किया हैं। पिछले 24 साल में हम मानव विकास के मामले में वहीं के वहीं खड़े हैं। जिस तरह से करेले में नीम चढ़ा होता है उसी प्रकार हम वहीं के वहीं हैंं। सन्‌ 2000 में देश एक प्रतिशत धनाढ्‌य लोगों के पास देश की कुल सपंत्ति का 37 प्रतिशत होता था, वह बढ़कर 2014 में 70 प्रतिशत हो गया है। मतलब केवल एक प्रतिशत लोगों का ही विकास हुआ हैं। हालांकि हमने सन 1976 में अपने संविधान की प्रस्तावना के 42वें संशोधन के तहत समाजवादी शब्द भी डाला था। फिर क्यों आज 99 प्रतिशत के पास मात्र 30 प्रतिशत संपत्ति है, और साल-दर-साल धनाढ्‌यों की संपत्ति में इजाफा होता जा रहा है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि देश के जन-धरातल पर इन वर्षों में जो मुद्दे रहे या चुनावों में जिन मुद्दों को लेकर मतदान हुआ उनमें कहीं भी यह मुद्दा नहीं था कि देश में अगर हम सकल घरेलू उत्पाद में दुनिया के शिखर के 10 राष्ट्रों में हैं तो मानव विकास में 185 देशों में पिछले 24 सालों में 130 वें या 135 वें स्थान पर ही क्यों रहे हैं? अगर तीन साल पहले शुरू किया गया नया पैमाना असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक देखा जाए तो हम और फिसल कर 151 वें स्थान पर चले जाते हैं।

असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की वर्ष 2014 की मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) रिपोर्ट, में कई चौकाने वाले तथ्य पेश किए गए हैं। वैसे तो पिछले 70 साल से देश का शासक वर्ग जनता को छलता आ रहा है गरीबी हटाने, समाजवाद लाने ऊंच-नीच, गरीब-अमीर के बीच की खाई पाटने के नाम पर पिछले 24 साल से हमें इस धोखे का अहसास होने लगा जब 1990 में इस विश्व संगठन ने हर साल दुनिया के तमाम मुल्कों के बारे में यह तथ्य बताना शुरू किया कि मानव विकास के पैमाने पर अमूक देश कहां है। यह पैमाना तीन तत्वों पर आधारित होता है देश की प्रतिव्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता। चूंकि इस पैमाने से यह नहीं पता चलता था किसी अम्बानी और किसी घर के बीच कितना अंतर है इसलिए पिछले कुछ वर्षों से असमानता-संयोजित सूचकांक बनाया जाने लगा (हालांकि जिनी-कोएफिसेंट पैमाना अर्थ-शास्त्र में मौजूद था) तब पता चला।

भेदभाव: - भारत के इस मानक पर नीचे गिरने का एक और कारण है कि यहां शिक्षा को लेकर भयानक भेदभाव है। वर्तमान शिक्षा इतनी महंगी हो गयी है कि अन्य देशों के मुकाबले भारत में औसत व्यस्क शिक्षा 5.4 साल की है जो तमाम मध्यम आय वर्ग के देशों से काफी कम है। लेकिन आज तक शिक्षा को लेकर कोई आंदोलन नहीं हुआ क्योंकि मंत्री से लेकर सरकारी कर्मचारी तक अपने बच्चों को शहरों के स्कूल में भेजने में सक्षम हैं जबकि किसान का बेटा 5वीं तक पढ़ने के बाद खेती या मजदूरी से रोटी कमाने में जुट जाता है।

आज जन-सरोकार के मुद्ददे गायब हैं। अगर बाजारी ताकतों को सीजन में पांच रुपये किलो आलू खरीद कर उसे चिप्स के नाम पर 250 रुपये किलो बेचना है तो समाज की सोचने की शक्ति खत्म करना जरूरी है। राजनीतिक वर्ग को भी इससे लाभ है कि जनता सड़क-पानी या बेटे की नौकरी के बारे में नहीं पूछेगीं। यहीं वजह है कि देश के एक छोर पर ताज महल के नीचे शिवालय है कि नहीं इस पर जबरदस्त चर्चा होती है दूसरे छोर पर टीपू का जन्म दिन कर्नाटक सरकार मानती है और उससे उभरा गुस्सा दो प्रदर्शनकारियों की बलि ले लेता है। लेकिन पिछले 20 सालों में हर दिन 2057 किसान क्यों खेती छोड़कर मजदूरी करने लगता है और क्यों हर 35 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा हैं? समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के अनुसार जनविमर्श में सही मुद्दे आए और इन पर जनमत तैयार हो ताकि सत्ता वर्ग इन मुद्ददों पर नीति बनाकर कार्रवाई करे इसके लिए जनता में शिक्षा, तर्क-शक्ति और सार्थक सामूहिक सोच की जरूरत होती है हमने पिछले 65 सालों में इतनी तरक्की तो की है कि आज चुनाव 65 फीसदी तक मतदान करते हैं पर हमें अपने मुद्दे ही नहीं पता।

अहम: - एचडीआई तैयार करने में यूएनडीपी देश की प्रतिव्यक्ति आमदनी, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता, को आधार बनाता हैं। देश के सबसे बड़े उद्योगपति और गरीब आदमी के बीच कितना अंतर है, लेकिन देश की हालत मोटे तौर पर पता तो चल ही जाती हैं।

यूएनडीपी: - संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) 1990 से एचडीआई बनाने लगा है यह संगठन हर साल दुनिया में तमाम मुल्कों के बारे में सर्वेक्षण के आधार पर यह तथ्य बताने लगा कि मानव विकास के पैमाने पर अमुक देश कहां और किस पायदान पर खड़ा हुआ है। इस सर्वेक्षण से दुनिया के पैमाने पर लोगों को अपने देश के विकास की हकीकत का अंदाजा लगने लगा। अब हमारे जन-प्रतिनिधि हमें अंधेरे में रख पाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं, लेकिन वह दिन अभी दूर है जब इसे चुनाव में मुद्दा बनाया जाएगा।

धोखा: - वर्ष 1992 से संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से अभी तक 20 सम्मेलन हो चुके हैं और यह उस कड़ी में 21वां सम्मेलन है, इसलिए इसे सीओपी-21 भी कहा जा रहा है। इसके साथ ही साथ यह क्योटो समझौते 1997 का 11 वां सत्र है, इसलिए इसे सीएमपी-11 भी कहा जा रहा है। ध्यान देने योग्य है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से 1997 में क्योटों समझौते को अंजाम दिया गया था, जिसके तहत अमीर मुल्कों द्वारा अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2012 तक 1990 के स्तर से नीचे लाना तय किया। इस प्रतिबद्धता से भारत, चीन, ब्राजील आदि को मुक्त रखा गया, क्योंकि ऐसा माना गया कि ये मुल्क अपने आर्थिक विकास के प्रथम चरण में हैं और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की प्रतिबद्धता से उनका आर्थिक विकास बाधित हो सकता है। अब तक हुए मौसम परिवर्तन पर हुए तमाम सम्मेलनों का उद्देश्य यह रहा है कि किसी न किसी तरीके से धरती पर बढ़ रही गर्मी को औद्योगिकीकरण के पहले के स्तर से 2050 तक 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने दिया जाए। चिंता का विषय यह है कि अभी तक यह गर्मी 1 डिग्री सेल्सियस तक पहले ही बढ़ चुकी है। अगर सही दिशा में प्रयास नहीं हुए तो यह गर्मी 3 डिग्री सेल्सियस तक ज्यादा बढ़ सकती है। कानूनी बाध्यता यह है कि हर देश पांच साल में अपने देश कार्बन उत्सर्जन घटाने की योजनाएं पेश करेंगे। लेकिन गरीब मुल्कों को 100 अरब डॉलर की सहायता के लिए कोई ठोस कानूनी प्रतिबद्धता नहीं दिखाई गई।

उपसंहार: - देश में आर्थिक विकास तो हुआ परन्तु उसका लाभ कुछ हाथों में सिमट कर रहकर गया। लोक-प्रशासन के विद्वानों का मानना है कि अगर किसी देश में आर्थिक विकास और मानव विकास का सीधा रिश्ता है और इस रिश्ते को बरकरार रखने में मात्र राजनीतिक वर्ग की सोच, सत्ताधारी दलों के प्रयास, जनोन्मुखी शासकीय अभिकरणों व पर्यावरण की भूमिका होती है। और प्रजातंत्र में यह सबको सही रास्ते पर रखने का काम करता है तो यह सचेत और तार्किक जनमत हैं। अत: इन्हीं आधारों के माध्यम से मानव विकास संभव हो सकता हैं। इसके लिए आगे भी सरकार को ओर बेहतर प्रयास करने चाहिए। जिससे मानव का विकास सही रूप से हो सके।

प्रस्तावना: - संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम लगभग दो दशक से ज्यादा समय से मानव विकास सूचकांक तैयार करने लगा है। इस सूचकांक से हमारे बीच यह तथ्य प्रकट होकर आने लगे हैं कि भारत में अमीर और गरीब की खाई दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। जहां एक ओर 2000 में उपरी वर्ग के एक प्रतिशत की कुल संपति निचले तबके के 99 प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति से 58 गुना ज्यादा थी। यह 2005 में 75 गुना, 2010 में 94 गुना और 2014 में 95 गुना हो गयी। जबकि, दूसरी ओर औसत प्रति-व्यक्ति आय जो 1980 में 1255 डालर थी 34 साल में मात्र 3.4 गुना ही बढ़ी। देश में बढ़ रही आर्थिक असामनता के कारण को हमें समझने की कोशिश चाहिए।

लिंग-भेद: - जरा गौर करें! कैसा लगता है यह जानकार कि बांग्लादेश तो छोड़िए पाकिस्तान और इराक भी लिंग-भेद (यानी नारी सशक्तिकरण) के स्तर पर हमसे काफी बेहतर स्थिति में हैं! गरीब-अमीर के बीच बढ़ती असमानता में हम दुनिया के 188 देशों में 150वें स्थान पर हैं और यह खाई लगातार बढ़ती जा रही है तो क्या हमारे पुरखों द्वारा खून बहाकर दिलाई गयी आजादी बेमानी नहीं लगेगी? अर्थात उनकी यह आजादी बेकार ही गई हैं।

विकास: -पिछले वर्षों में चुनावों में जिन मुद्दों को लेकर मतदान हुए उनमें कहीं भी मानव विकास का मुद्दा नहीं था कि क्यों देश में अगर हम जीडीपी में दुनिया के शिखर दस देशों में हैं तो मानव विकास सूचकांक में 185 देशों में 130वें या 135वें स्थान पर क्यों? गलती किसकी है? हम हर पांच साल पर सरकार चुनते हैं पर हम अपनी समस्याएं भी नहीं समझ पाते। पिछले सात दशकों में या जब से (1990 से) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) मानव विकास सूचकांक बनाने लगा है एक बार भी यह मुद्दा जन-धरातल पर नहीं आया कि अगर हमारा आर्थिक विकास हो रहा है तो अमीर और अमीर क्यों और गरीब और गरीब क्यों होते जा रहे हैं? हमने कभी भी इस बात पर जन-मत तैयार कर इस बात पर मतदान नहीं किया कि जब सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था तो मानव विकास क्यों ठहरा रहा? अर्थात मानव का विकास क्यों नहीं हो पाया। कहना न होगा कि अगर जीडीपी बढ़ रहा है तो उसका लाभ जन-जन तक पहुंचाना सत्ता-पक्ष की नीति और शासन के अभिकरणों का काम है।

रिपोर्ट: -यूएनडीपी द्वारा जारी की गई ताजा रिपोर्ट (14 दिसंबर, 2015) ने एक बार फिर मायूस किया हैं। पिछले 24 साल में हम मानव विकास के मामले में वहीं के वहीं खड़े हैं। जिस तरह से करेले में नीम चढ़ा होता है उसी प्रकार हम वहीं के वहीं हैंं। सन्‌ 2000 में देश एक प्रतिशत धनाढ्‌य लोगों के पास देश की कुल सपंत्ति का 37 प्रतिशत होता था, वह बढ़कर 2014 में 70 प्रतिशत हो गया है। मतलब केवल एक प्रतिशत लोगों का ही विकास हुआ हैं। हालांकि हमने सन 1976 में अपने संविधान की प्रस्तावना के 42वें संशोधन के तहत समाजवादी शब्द भी डाला था। फिर क्यों आज 99 प्रतिशत के पास मात्र 30 प्रतिशत संपत्ति है, और साल-दर-साल धनाढ्‌यों की संपत्ति में इजाफा होता जा रहा है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि देश के जन-धरातल पर इन वर्षों में जो मुद्दे रहे या चुनावों में जिन मुद्दों को लेकर मतदान हुआ उनमें कहीं भी यह मुद्दा नहीं था कि देश में अगर हम सकल घरेलू उत्पाद में दुनिया के शिखर के 10 राष्ट्रों में हैं तो मानव विकास में 185 देशों में पिछले 24 सालों में 130 वें या 135 वें स्थान पर ही क्यों रहे हैं? अगर तीन साल पहले शुरू किया गया नया पैमाना असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक देखा जाए तो हम और फिसल कर 151 वें स्थान पर चले जाते हैं।

असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की वर्ष 2014 की मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) रिपोर्ट, में कई चौकाने वाले तथ्य पेश किए गए हैं। वैसे तो पिछले 70 साल से देश का शासक वर्ग जनता को छलता आ रहा है गरीबी हटाने, समाजवाद लाने ऊंच-नीच, गरीब-अमीर के बीच की खाई पाटने के नाम पर पिछले 24 साल से हमें इस धोखे का अहसास होने लगा जब 1990 में इस विश्व संगठन ने हर साल दुनिया के तमाम मुल्कों के बारे में यह तथ्य बताना शुरू किया कि मानव विकास के पैमाने पर अमूक देश कहां है। यह पैमाना तीन तत्वों पर आधारित होता है देश की प्रतिव्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता। चूंकि इस पैमाने से यह नहीं पता चलता था किसी अम्बानी और किसी घर के बीच कितना अंतर है इसलिए पिछले कुछ वर्षों से असमानता-संयोजित सूचकांक बनाया जाने लगा (हालांकि जिनी-कोएफिसेंट पैमाना अर्थ-शास्त्र में मौजूद था) तब पता चला।

भेदभाव: - भारत के इस मानक पर नीचे गिरने का एक और कारण है कि यहां शिक्षा को लेकर भयानक भेदभाव है। वर्तमान शिक्षा इतनी महंगी हो गयी है कि अन्य देशों के मुकाबले भारत में औसत व्यस्क शिक्षा 5.4 साल की है जो तमाम मध्यम आय वर्ग के देशों से काफी कम है। लेकिन आज तक शिक्षा को लेकर कोई आंदोलन नहीं हुआ क्योंकि मंत्री से लेकर सरकारी कर्मचारी तक अपने बच्चों को शहरों के स्कूल में भेजने में सक्षम हैं जबकि किसान का बेटा 5वीं तक पढ़ने के बाद खेती या मजदूरी से रोटी कमाने में जुट जाता है।

आज जन-सरोकार के मुद्ददे गायब हैं। अगर बाजारी ताकतों को सीजन में पांच रुपये किलो आलू खरीद कर उसे चिप्स के नाम पर 250 रुपये किलो बेचना है तो समाज की सोचने की शक्ति खत्म करना जरूरी है। राजनीतिक वर्ग को भी इससे लाभ है कि जनता सड़क-पानी या बेटे की नौकरी के बारे में नहीं पूछेगीं। यहीं वजह है कि देश के एक छोर पर ताज महल के नीचे शिवालय है कि नहीं इस पर जबरदस्त चर्चा होती है दूसरे छोर पर टीपू का जन्म दिन कर्नाटक सरकार मानती है और उससे उभरा गुस्सा दो प्रदर्शनकारियों की बलि ले लेता है। लेकिन पिछले 20 सालों में हर दिन 2057 किसान क्यों खेती छोड़कर मजदूरी करने लगता है और क्यों हर 35 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा हैं? समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के अनुसार जनविमर्श में सही मुद्दे आए और इन पर जनमत तैयार हो ताकि सत्ता वर्ग इन मुद्ददों पर नीति बनाकर कार्रवाई करे इसके लिए जनता में शिक्षा, तर्क-शक्ति और सार्थक सामूहिक सोच की जरूरत होती है हमने पिछले 65 सालों में इतनी तरक्की तो की है कि आज चुनाव 65 फीसदी तक मतदान करते हैं पर हमें अपने मुद्दे ही नहीं पता।

अहम: - एचडीआई तैयार करने में यूएनडीपी देश की प्रतिव्यक्ति आमदनी, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता, को आधार बनाता हैं। देश के सबसे बड़े उद्योगपति और गरीब आदमी के बीच कितना अंतर है, लेकिन देश की हालत मोटे तौर पर पता तो चल ही जाती हैं।

यूएनडीपी: - संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) 1990 से एचडीआई बनाने लगा है यह संगठन हर साल दुनिया में तमाम मुल्कों के बारे में सर्वेक्षण के आधार पर यह तथ्य बताने लगा कि मानव विकास के पैमाने पर अमुक देश कहां और किस पायदान पर खड़ा हुआ है। इस सर्वेक्षण से दुनिया के पैमाने पर लोगों को अपने देश के विकास की हकीकत का अंदाजा लगने लगा। अब हमारे जन-प्रतिनिधि हमें अंधेरे में रख पाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं, लेकिन वह दिन अभी दूर है जब इसे चुनाव में मुद्दा बनाया जाएगा।

धोखा: - वर्ष 1992 से संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से अभी तक 20 सम्मेलन हो चुके हैं और यह उस कड़ी में 21वां सम्मेलन है, इसलिए इसे सीओपी-21 भी कहा जा रहा है। इसके साथ ही साथ यह क्योटो समझौते 1997 का 11 वां सत्र है, इसलिए इसे सीएमपी-11 भी कहा जा रहा है। ध्यान देने योग्य है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से 1997 में क्योटों समझौते को अंजाम दिया गया था, जिसके तहत अमीर मुल्कों द्वारा अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2012 तक 1990 के स्तर से नीचे लाना तय किया। इस प्रतिबद्धता से भारत, चीन, ब्राजील आदि को मुक्त रखा गया, क्योंकि ऐसा माना गया कि ये मुल्क अपने आर्थिक विकास के प्रथम चरण में हैं और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की प्रतिबद्धता से उनका आर्थिक विकास बाधित हो सकता है। अब तक हुए मौसम परिवर्तन पर हुए तमाम सम्मेलनों का उद्देश्य यह रहा है कि किसी न किसी तरीके से धरती पर बढ़ रही गर्मी को औद्योगिकीकरण के पहले के स्तर से 2050 तक 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने दिया जाए। चिंता का विषय यह है कि अभी तक यह गर्मी 1 डिग्री सेल्सियस तक पहले ही बढ़ चुकी है। अगर सही दिशा में प्रयास नहीं हुए तो यह गर्मी 3 डिग्री सेल्सियस तक ज्यादा बढ़ सकती है। कानूनी बाध्यता यह है कि हर देश पांच साल में अपने देश कार्बन उत्सर्जन घटाने की योजनाएं पेश करेंगे। लेकिन गरीब मुल्कों को 100 अरब डॉलर की सहायता के लिए कोई ठोस कानूनी प्रतिबद्धता नहीं दिखाई गई।

उपसंहार: - देश में आर्थिक विकास तो हुआ परन्तु उसका लाभ कुछ हाथों में सिमट कर रहकर गया। लोक-प्रशासन के विद्वानों का मानना है कि अगर किसी देश में आर्थिक विकास और मानव विकास का सीधा रिश्ता है और इस रिश्ते को बरकरार रखने में मात्र राजनीतिक वर्ग की सोच, सत्ताधारी दलों के प्रयास, जनोन्मुखी शासकीय अभिकरणों व पर्यावरण की भूमिका होती है। और प्रजातंत्र में यह सबको सही रास्ते पर रखने का काम करता है तो यह सचेत और तार्किक जनमत हैं। अत: इन्हीं आधारों के माध्यम से मानव विकास संभव हो सकता हैं। इसके लिए आगे भी सरकार को ओर बेहतर प्रयास करने चाहिए। जिससे मानव का विकास सही रूप से हो सके। प्रस्तावना: - संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम लगभग दो दशक से ज्यादा समय से मानव विकास सूचकांक तैयार करने लगा है। इस सूचकांक से हमारे बीच यह तथ्य प्रकट होकर आने लगे हैं कि भारत में अमीर और गरीब की खाई दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। जहां एक ओर 2000 में उपरी वर्ग के एक प्रतिशत की कुल संपति निचले तबके के 99 प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति से 58 गुना ज्यादा थी। यह 2005 में 75 गुना, 2010 में 94 गुना और 2014 में 95 गुना हो गयी। जबकि, दूसरी ओर औसत प्रति-व्यक्ति आय जो 1980 में 1255 डालर थी 34 साल में मात्र 3.4 गुना ही बढ़ी। देश में बढ़ रही आर्थिक असामनता के कारण को हमें समझने की कोशिश चाहिए।

लिंग-भेद: - जरा गौर करें! कैसा लगता है यह जानकार कि बांग्लादेश तो छोड़िए पाकिस्तान और इराक भी लिंग-भेद (यानी नारी सशक्तिकरण) के स्तर पर हमसे काफी बेहतर स्थिति में हैं! गरीब-अमीर के बीच बढ़ती असमानता में हम दुनिया के 188 देशों में 150वें स्थान पर हैं और यह खाई लगातार बढ़ती जा रही है तो क्या हमारे पुरखों द्वारा खून बहाकर दिलाई गयी आजादी बेमानी नहीं लगेगी? अर्थात उनकी यह आजादी बेकार ही गई हैं।

विकास: -पिछले वर्षों में चुनावों में जिन मुद्दों को लेकर मतदान हुए उनमें कहीं भी मानव विकास का मुद्दा नहीं था कि क्यों देश में अगर हम जीडीपी में दुनिया के शिखर दस देशों में हैं तो मानव विकास सूचकांक में 185 देशों में 130वें या 135वें स्थान पर क्यों? गलती किसकी है? हम हर पांच साल पर सरकार चुनते हैं पर हम अपनी समस्याएं भी नहीं समझ पाते। पिछले सात दशकों में या जब से (1990 से) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) मानव विकास सूचकांक बनाने लगा है एक बार भी यह मुद्दा जन-धरातल पर नहीं आया कि अगर हमारा आर्थिक विकास हो रहा है तो अमीर और अमीर क्यों और गरीब और गरीब क्यों होते जा रहे हैं? हमने कभी भी इस बात पर जन-मत तैयार कर इस बात पर मतदान नहीं किया कि जब सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था तो मानव विकास क्यों ठहरा रहा? अर्थात मानव का विकास क्यों नहीं हो पाया। कहना न होगा कि अगर जीडीपी बढ़ रहा है तो उसका लाभ जन-जन तक पहुंचाना सत्ता-पक्ष की नीति और शासन के अभिकरणों का काम है।

रिपोर्ट: -यूएनडीपी द्वारा जारी की गई ताजा रिपोर्ट (14 दिसंबर, 2015) ने एक बार फिर मायूस किया हैं। पिछले 24 साल में हम मानव विकास के मामले में वहीं के वहीं खड़े हैं। जिस तरह से करेले में नीम चढ़ा होता है उसी प्रकार हम वहीं के वहीं हैंं। सन्‌ 2000 में देश एक प्रतिशत धनाढ्‌य लोगों के पास देश की कुल सपंत्ति का 37 प्रतिशत होता था, वह बढ़कर 2014 में 70 प्रतिशत हो गया है। मतलब केवल एक प्रतिशत लोगों का ही विकास हुआ हैं। हालांकि हमने सन 1976 में अपने संविधान की प्रस्तावना के 42वें संशोधन के तहत समाजवादी शब्द भी डाला था। फिर क्यों आज 99 प्रतिशत के पास मात्र 30 प्रतिशत संपत्ति है, और साल-दर-साल धनाढ्‌यों की संपत्ति में इजाफा होता जा रहा है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि देश के जन-धरातल पर इन वर्षों में जो मुद्दे रहे या चुनावों में जिन मुद्दों को लेकर मतदान हुआ उनमें कहीं भी यह मुद्दा नहीं था कि देश में अगर हम सकल घरेलू उत्पाद में दुनिया के शिखर के 10 राष्ट्रों में हैं तो मानव विकास में 185 देशों में पिछले 24 सालों में 130 वें या 135 वें स्थान पर ही क्यों रहे हैं? अगर तीन साल पहले शुरू किया गया नया पैमाना असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक देखा जाए तो हम और फिसल कर 151 वें स्थान पर चले जाते हैं।

असमानता-संयोजित मानव विकास सूचकांक में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की वर्ष 2014 की मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) रिपोर्ट, में कई चौकाने वाले तथ्य पेश किए गए हैं। वैसे तो पिछले 70 साल से देश का शासक वर्ग जनता को छलता आ रहा है गरीबी हटाने, समाजवाद लाने ऊंच-नीच, गरीब-अमीर के बीच की खाई पाटने के नाम पर पिछले 24 साल से हमें इस धोखे का अहसास होने लगा जब 1990 में इस विश्व संगठन ने हर साल दुनिया के तमाम मुल्कों के बारे में यह तथ्य बताना शुरू किया कि मानव विकास के पैमाने पर अमूक देश कहां है। यह पैमाना तीन तत्वों पर आधारित होता है देश की प्रतिव्यक्ति आय, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता। चूंकि इस पैमाने से यह नहीं पता चलता था किसी अम्बानी और किसी घर के बीच कितना अंतर है इसलिए पिछले कुछ वर्षों से असमानता-संयोजित सूचकांक बनाया जाने लगा (हालांकि जिनी-कोएफिसेंट पैमाना अर्थ-शास्त्र में मौजूद था) तब पता चला।

भेदभाव: - भारत के इस मानक पर नीचे गिरने का एक और कारण है कि यहां शिक्षा को लेकर भयानक भेदभाव है। वर्तमान शिक्षा इतनी महंगी हो गयी है कि अन्य देशों के मुकाबले भारत में औसत व्यस्क शिक्षा 5.4 साल की है जो तमाम मध्यम आय वर्ग के देशों से काफी कम है। लेकिन आज तक शिक्षा को लेकर कोई आंदोलन नहीं हुआ क्योंकि मंत्री से लेकर सरकारी कर्मचारी तक अपने बच्चों को शहरों के स्कूल में भेजने में सक्षम हैं जबकि किसान का बेटा 5वीं तक पढ़ने के बाद खेती या मजदूरी से रोटी कमाने में जुट जाता है।

आज जन-सरोकार के मुद्ददे गायब हैं। अगर बाजारी ताकतों को सीजन में पांच रुपये किलो आलू खरीद कर उसे चिप्स के नाम पर 250 रुपये किलो बेचना है तो समाज की सोचने की शक्ति खत्म करना जरूरी है। राजनीतिक वर्ग को भी इससे लाभ है कि जनता सड़क-पानी या बेटे की नौकरी के बारे में नहीं पूछेगीं। यहीं वजह है कि देश के एक छोर पर ताज महल के नीचे शिवालय है कि नहीं इस पर जबरदस्त चर्चा होती है दूसरे छोर पर टीपू का जन्म दिन कर्नाटक सरकार मानती है और उससे उभरा गुस्सा दो प्रदर्शनकारियों की बलि ले लेता है। लेकिन पिछले 20 सालों में हर दिन 2057 किसान क्यों खेती छोड़कर मजदूरी करने लगता है और क्यों हर 35 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा हैं? समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के अनुसार जनविमर्श में सही मुद्दे आए और इन पर जनमत तैयार हो ताकि सत्ता वर्ग इन मुद्ददों पर नीति बनाकर कार्रवाई करे इसके लिए जनता में शिक्षा, तर्क-शक्ति और सार्थक सामूहिक सोच की जरूरत होती है हमने पिछले 65 सालों में इतनी तरक्की तो की है कि आज चुनाव 65 फीसदी तक मतदान करते हैं पर हमें अपने मुद्दे ही नहीं पता।

अहम: - एचडीआई तैयार करने में यूएनडीपी देश की प्रतिव्यक्ति आमदनी, जीवन प्रत्याशा और साक्षरता, को आधार बनाता हैं। देश के सबसे बड़े उद्योगपति और गरीब आदमी के बीच कितना अंतर है, लेकिन देश की हालत मोटे तौर पर पता तो चल ही जाती हैं।

यूएनडीपी: - संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) 1990 से एचडीआई बनाने लगा है यह संगठन हर साल दुनिया में तमाम मुल्कों के बारे में सर्वेक्षण के आधार पर यह तथ्य बताने लगा कि मानव विकास के पैमाने पर अमुक देश कहां और किस पायदान पर खड़ा हुआ है। इस सर्वेक्षण से दुनिया के पैमाने पर लोगों को अपने देश के विकास की हकीकत का अंदाजा लगने लगा। अब हमारे जन-प्रतिनिधि हमें अंधेरे में रख पाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं, लेकिन वह दिन अभी दूर है जब इसे चुनाव में मुद्दा बनाया जाएगा।

धोखा: - वर्ष 1992 से संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से अभी तक 20 सम्मेलन हो चुके हैं और यह उस कड़ी में 21वां सम्मेलन है, इसलिए इसे सीओपी-21 भी कहा जा रहा है। इसके साथ ही साथ यह क्योटो समझौते 1997 का 11 वां सत्र है, इसलिए इसे सीएमपी-11 भी कहा जा रहा है। ध्यान देने योग्य है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से 1997 में क्योटों समझौते को अंजाम दिया गया था, जिसके तहत अमीर मुल्कों द्वारा अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2012 तक 1990 के स्तर से नीचे लाना तय किया। इस प्रतिबद्धता से भारत, चीन, ब्राजील आदि को मुक्त रखा गया, क्योंकि ऐसा माना गया कि ये मुल्क अपने आर्थिक विकास के प्रथम चरण में हैं और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की प्रतिबद्धता से उनका आर्थिक विकास बाधित हो सकता है। अब तक हुए मौसम परिवर्तन पर हुए तमाम सम्मेलनों का उद्देश्य यह रहा है कि किसी न किसी तरीके से धरती पर बढ़ रही गर्मी को औद्योगिकीकरण के पहले के स्तर से 2050 तक 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने दिया जाए। चिंता का विषय यह है कि अभी तक यह गर्मी 1 डिग्री सेल्सियस तक पहले ही बढ़ चुकी है। अगर सही दिशा में प्रयास नहीं हुए तो यह गर्मी 3 डिग्री सेल्सियस तक ज्यादा बढ़ सकती है। कानूनी बाध्यता यह है कि हर देश पांच साल में अपने देश कार्बन उत्सर्जन घटाने की योजनाएं पेश करेंगे। लेकिन गरीब मुल्कों को 100 अरब डॉलर की सहायता के लिए कोई ठोस कानूनी प्रतिबद्धता नहीं दिखाई गई।

उपसंहार: - देश में आर्थिक विकास तो हुआ परन्तु उसका लाभ कुछ हाथों में सिमट कर रहकर गया। लोक-प्रशासन के विद्वानों का मानना है कि अगर किसी देश में आर्थिक विकास और मानव विकास का सीधा रिश्ता है और इस रिश्ते को बरकरार रखने में मात्र राजनीतिक वर्ग की सोच, सत्ताधारी दलों के प्रयास, जनोन्मुखी शासकीय अभिकरणों व पर्यावरण की भूमिका होती है। और प्रजातंत्र में यह सबको सही रास्ते पर रखने का काम करता है तो यह सचेत और तार्किक जनमत हैं। अत: इन्हीं आधारों के माध्यम से मानव विकास संभव हो सकता हैं। इसके लिए आगे भी सरकार को ओर बेहतर प्रयास करने चाहिए। जिससे मानव का विकास सही रूप से हो सके।