लोक संस्कृति

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के ए ट्रुटोवस्की : कुर्स्क राज्य में 'गोल नृत्य' (१८६०)

संस्कृति ब्रह्म की भाँति अवर्णनीय है। वह व्यापक, अनेक तत्त्वों का बोध कराने वाली, जीवन की विविध प्रवृत्तियों से संबन्धित है, अतः विविध अर्थों व भावों में उसका प्रयोग होता है। मानव मन की बाह्य प्रवृत्ति-मूलक प्रेरणाओं से जो कुछ विकास हुआ है उसे सभ्यता कहेंगे और उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों से जो कुछ बना है, उसे संस्कृति कहेंगे।[1]

लोक का अभिप्राय सर्वसाधारण जनता से है, जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान है। दीन-हीन, शोषित, दलित, जंगली जातियाँ, कोल, भील, गोंड (जनजाति), संथाल, नाग, किरात, हूण, शक, यवन, खस, पुक्कस आदि समस्त लोक समुदाय का मिलाजुला रूप लोक कहलाता है। इन सबकी मिलीजुली संस्कृति, लोक संस्कृति कहलाती है। देखने में इन सबका अलग-अलग रहन-सहन है, वेशभूषा, खान-पान, पहरावा-ओढ़ावा, चाल-व्यवहार, नृत्य, गीत, कला-कौशल, भाषा आदि सब अलग-अलग दिखाई देते हैं, परन्तु एक ऐसा सूत्र है जिसमें ये सब एक माला में पिरोई हुई मणियों की भाँति दिखाई देते हैं, यही लोक संस्कृति है। लोक संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नहीं रही है, उलटे शिष्ट समाज लोक संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त करता रहा है।

लोक संस्कृति का एक रूप हमें भावाभिव्यक्तियों की शैली में भी मिलता है, जिसके द्वारा लोक-मानस की मांगलिक भावना से ओत प्रोत होना सिद्ध होता है। वह 'दीपक के बुझने' की कल्पना से सिहर उठता है। इसलिए वह 'दीपक बुझाने' की बात नहीं करता 'दीपक बढ़ाने' को कहता है। इसी प्रकार 'दूकान बन्द होने' की कल्पना से सहम जाता है। इसलिए 'दूकान बढ़ाने' को कहता है।[2] लोक जीवन की जैसी सरलतम, नैसर्गिक अनुभूतिमयी अभिव्यंजना का चित्रण लोक गीतों व लोक कथाओं में मिलता है, वैसा अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ है। लोक साहित्य में लोक मानव का हृदय बोलता है। प्रकृति स्वयं गाती गुनगुनाती है। लोक जीवन में पग पग पर लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। लोक साहित्य उतना ही पुराना है जितना कि मानव, इसलिए उसमें जन जीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ समाहित है।[3]

लोकसंस्कृति पर विभिन्न विद्वानों यथा डाॅ हजारी प्रसाद द्विवेदी, डाॅ सत्येन्द्र आदि ने भी लिखा है, जिसका सार यह है कि लोकसंस्कृति वह संस्कृति है, जो अनुभव, श्रुति और परम्परा से चलती है। इसके ज्ञान का आधार पोथी नहीं होती।

लोक संस्कृति की आत्मा[संपादित करें]

लोक संस्कृति के संरक्षक, प्रतिष्ठापक ये ग्रामीण, परमहंस अथवा अबोध बालक की भाँति स्वयं अपने को कुछ भी नहीं समझा करते। इनके मर्म और वास्तविक स्वरूप को अध्ययन-मननशील विद्वान ही समझते हैं। भारतीय लोक संस्कृति की आत्मा भारतीय साधारण जनता है जो नगरों से दूर गाँवों, वन-प्रांतों में निवास करती है।

लोक संस्कृति के विविध आयाम[संपादित करें]

भरतीय लोक संस्कृति श्रमशील समाज की संवेदनात्मक आवेगों की अभिव्यक्ति रही है। धरती के हर हिस्से के मूल निवसियों ने अपनी लोक संस्कृति की रक्षा की है। लोक संस्कृति प्रकृति की गोद में पनपती है। लोक संस्कृति के उपासक या संरक्षक बाहर की पुस्तकें न पढ़कर अन्दर की पुस्तकें पढ़ते हैं। लोक संस्कृति की शिक्षा प्रणाली में श्रद्धा-भक्ति की प्राथमिकता रहती है। उसमें अविश्वास, तर्क का कोई स्थान नहीं रहता। लोक संस्कृति में श्रद्धा भावना की परम्परा शाश्वत है, वह अन्तः सलिला सरस्वती की भाँति जनजीवन में सतत प्रवाहित हुआ करती है। लोक संस्कृति एवं लोकोत्तर संस्कृति तथा विश्व की सभी संस्कृतियों का बीज एक ही है। यह बीज लोक संस्कृति ही है।[4] लोक संस्कृति बहुत व्यापक है, वहाँ वह सब कुछ है जो लोक में है, लोक संस्कृति लोक से छन-छन कर आती है, लोक से हटकर जब हम उसकी व्याख्या करने लगते हैं तो उसकी तमाम बातें अश्लील लग सकती हैं, जैसे गालियाँ, परन्तु ये गालियाँ लोक में प्रचलित हैं और दैनिक जीवन में इनका भरपूर प्रयोग भी देखा जा सकता है पर जब इनकी आप व्याख्या करने बैठ जायें तो शर्म आने लगती है। कोई गाँव, कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाँ गालियाँ नहीं प्रयुक्त होती। लोक जीवन में इनका भी महत्व है, मन की ग्रंथि खुल कर साफ हो जाती है। लोक को समझना इतना आसान भी नहीं है, लोक परम्परा और लोक संस्कृति में भी बड़ा अन्तर है, परम्पराओं में से अच्छी अच्छी बातें निकल निकल कर कालांतर में लोक संस्कृति बनती रहती है, लोक संस्कृति अन्तस में रची बसी होती है। गालियाँ और अपशब्द लोक संस्कृति के अन्तर्गत नहीं लोक परम्परा में आते हैं।..... लोक संस्कृति नष्ट नहीं होती परम्पराएँ बनती बिगड़ती रहती हैं।.... लोक संस्कृति में कुछ भी अश्लील नहीं है लेकिन लोक परम्परा में, लोक जीवन में अश्लीलता देखी जा सकती है। लोक में जो कुछ है वह सब का सब लोक संस्कृति नहीं है। टोना और टोटका लोक जीवन के अंग हैं। लोक जीवन में इनका प्रयोग खूब होता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. सम्मेलन पत्रिका, लोक संस्कृति अंक, सम्पादकीय, पृष्ठ-७. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग. १९७३.
  2. लोक संस्कृति की आत्मा- नर्मेदेश्वर चतुर्वेदी, सम्मेलन पत्रिका, लोक संस्कृति अंक, पृष्ठ-120. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग. १९७३.
  3. डॉ॰ जगदीश व्योम का लेख- "बाल साहित्य का केन्द्र लोक साहित्य"- कादम्बिनी मासिक पत्रिका - जून- १९९८, पृष्ठ-८०.
  4. भारतीय संस्कृति में लोक जीवन की अभिव्यक्ति, महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज, एम.ए., सम्मेलन पत्रिका, लोक संस्कृति अंक, पृष्ठ-२४. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग. १९७३.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]