रामचन्द्र शर्मा

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सेनानी

रामचन्द्र शर्मा भारत के स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी थे। उनकी की गणना उन कुछ गिने चुने लोगो में की जा सकती है जिनके जीवन का उद्देश्य व्यक्तिगत सुख लिप्सा न होकर समाज के उन सभी लोगो के हित के लिए अत्मोत्सर्ग रहा है। यही कारण है कि स्वतंत्रता संग्राम में अपने अद्वितिय योगदान के पश्चात पंडित जी ने अपने संघर्ष की इति स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी नहीं मानी. वे आजीवन पीड़ित मानवता के कल्याण के लिए जूझते रहे। पंडित जी सर्वे भवंतु सुखीनः में विश्वास करते थे। उनकी मान्यता थी " कीरति भनति भूति भुलि सोई, सुरसरि सम सब कन्ह हित होई."

परिचय[संपादित करें]

पंडित जी का जन्म ७ मार्च १९०२ को ग्राम अमवा, पोस्ट: घाटी, थाना - खाम पार, जनपद - गोरखपुर (वर्तमान देवरिया जनपद) में हुआ था। वे अपने माता पिता की अंतिम संतान थे। पंडित जी से बड़ी पाँच बहने थी। यही कारण था की पंडित जी का बचपन अत्यंत लड़ प्यार से बीता. यद्यपि पंडित जी उच्च शिक्ष प्राप्त नहीं कर सके किंतु स्वाध्याय और बाबा राघवदास के सनिध्य में इतना ज्ञानार्जन किया कि उन्हे किसी विश्वविद्यालीय डिग्री की आवश्यकता नहीं रही। तत्कालीन परम्पराके अनुसार पंडित जी का विवाह भी बचपन में ही ग्राम-अमवा से चार किलोमीटेर उत्तर दिशा में स्थित ग्राम - दुबौलि के पं रामअधीन दूबे जी की पुत्री श्रीमती लवंगा देवी, के साथ हो गया था किन्तु बाबा राघव दास से दीक्षा लेने के पाश्‍चात सभी बंधानो को तोड़कर वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े.

सर्व प्रथम १९२७ ई. में नमक सत्याग्रह में जेल गये। सन १९२८ ई में भेगारी में नमक क़ानून तोड़कर बाबा राघवदास जी के साथ जेल गये। वहाँ बाबा ने उन्हे राजनीति का विधिवत पाठ पढ़ाया. सन १९३० ईमे नेहरू जी के नेतृत्व में गोरखपुर में सत्यग्रह करते समय गिरफ्तार हुए. सन १९३२ ई में थाना भोरे जिला गोपालगंज (बिहार) में गिरफ़तार हुए और गोपालगंज जेल में निरुध रहे। १९३३ में पटना में सत्याग्रह करते समय गिरफ्तार हुए और १ वर्ष तक दानापुर जेल में बंद रहे। १९३९ में लाल बहादुर शास्त्री, डॉ सम्पूर्णानन्द, कमलापति त्रिपाठी के साथ बनारस में गिरफ्तार हुए. कुछ दिनों बनारस जेल में रहने के पश्चात उन्हें बलिया जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। १० अगस्त १९४२ को ये भारत छोडो आन्दोलन में गिरफ्तार हुए. जब ये जेल में ही थे इनके पिता राम प्रताप पाण्डेय का स्वर्गवास हो गया, फिर भी अंग्रेजों ने अपने दमनात्मक दृष्टि कोण के कारण इन्हें पेरोल पर भी नहीं छोड़ा. १९४५ में इनकी माता निउरा देवी भी दिवंगत हो गयीं। इनकी पत्नी श्रीमती लवंगा देवी भी स्वतंत्र भारत देखने से वंचित रही। १४ अगस्त १९४७ को उनका भी निधन हो गया किन्तु पंडित जी के लिए राष्ट्र के सुख दुःख के समक्ष व्यक्तिगत सुख दुःख का अर्थ नहीं रह गया था।

पंडित जी १९४७ में कांग्रेस के जिलामंत्री निर्वाचित हुए. जहा अन्य लोग सत्ता सुख में निमग्न थे, पंडित जी को पुकार रहा था, देश के अनेकानेक वंचित लोगों का कऋण क्रंदन और यही कारण था की पंडित जी समाजवादी आन्दोलन से जुड़ गए। १९५२ में मार्क्स के दार्शनिक चिंतन से अत्यंत प्रभावित हुए और तबसे जीवन पर्यंत एक सच्चे समाजवादी के रूप में संघर्ष रत रहे। यद्यपि २६ अगस्त १९९२ को काल के कुटिल हाथो ने पंडित जी को हमसे छीन लिया, फिर भी अपनी यशः काया से वे हमारे बीच सदैव विद्यमान हैं। पंडित जी अपने पीछे एक भरा पूरा परिवार छोड़ गए हैं। जिनमें उनके एकलौते पुत्र श्री हनुमान पाण्डेय और तीन पुत्रिया श्रीमती अन्ना पूर्ण देवी, श्रीमती धन्नापूर्ण देवी और श्रीमती ललिता देवी के साथ तीन पुत्र श्री वशिष्ठ पाण्डेय, रामानुज पाण्डेय, द्वारिका पाण्डेय और दो पौत्रिया उर्मिला देवी और उषा देवी विद्यमान हैं।