महाराणा प्रताप

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{{Pp-vandalism|small=yes} महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया ( ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत 1597 तदनुसार 9 मई 1540 – 19 जनवरी 1597) उदयपुर, मेवाड़ में भिल्ल सिसोदिया राजवंश के राजा थे।[1] उनका नाम इतिहास में वीरता, शौर्य, त्याग, पराक्रम और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने मुगल बादशहा अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया, अंततः अकबर महाराणा प्रताप को सुधारने मैं असफल रहा। महाराणा प्रताप की नीतियां ब्रिटिश के खिलाफ बंगाल के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बनीं।[2][3][4]

उनका जन्म वर्तमान राजस्थान में महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जयवन्ताबाई के घर हुआ था। लेखक जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के जनजाति में हुआ था। इतिहासकार विजय नाहर के अनुसार राजपूत समाज की परंपरा व महाराणा प्रताप की जन्म कुण्डली व कालगणना के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म पाली के भिल्ल जनजाति में हुआ।[5][6][7]

महाराणा प्रताप का जन्म पाली जिले में हुआ था और उनका ननिहाल पाली में था मुंशी देवी प्रसाद द्वारा रचित सरस्वती के भाग 18 में सात पंक्तियां में ताम्र पत्र उल्लेखित है

और सोमानी रचित पुस्तक में महाराणा प्रताप द्वारा ब्राह्मणों को दान की गई भूमि का उल्लेख है इन स्रोतों से सत्य है की महाराणा प्रताप के ननिहाल की भूमि का उल्लेख पाली का करना उचित हैु

मेवाड़

जन्म स्थान

महाराणा प्रताप के जन्मस्थान के प्रश्न पर दो धारणाएँ है। पहली महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था क्योंकि महाराणा उदयसिंह एवम जयवंताबाई का विवाह कुंभलगढ़ महल में हुआ। दूसरी धारणा यह है कि उनका जन्म पाली के भिल्ल जनजाति में हुआ। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता , भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे , भील अपने पुत्र को कीका कहकर पुकारते है, इसलिए भील महाराणा को कीका नाम से पुकारते थे।[8] लेखक विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार जब प्रताप का जन्म हुआ था उस समय उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे हुए थे।[9] कुंभलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नही था। जोधपुर के शक्तिशाली राठौड़ी राजा राजा मालदेव उन दिनों उत्तर भारत मे सबसे शक्तिसम्पन्न थे। एवं जयवंता बाई के पिता एवम पाली के शाषक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक था।

इस कारण पाली और मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित था और रणबंका राठौड़ो की कमध्व्ज सेना के सामने अकबर की शक्ति बहुत कम थी, अतः जयवंता बाई को पाली भेजा गया। वि. सं. ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सं 1597 को प्रताप का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ। प्रताप के जन्म का शुभ समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना ने प्रयाण प्रारम्भ कर दिया और मावली युद्ध मे बनवीर के विरूद्ध विजय श्री प्राप्त कर चित्तौड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया।[10][11] भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवानिवत्त अधिकारी देवेंद्र सिंह शक्तावत की पुस्तक महाराणा प्रताप के प्रमुख सहयोगी के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म स्थान महाराव के गढ़ के अवशेष जूनि कचहरी पाली में विद्यमान है। यहां सोनागरों की कुलदेवी नागनाची का मंदिर आज भी सुरक्षित है। पुस्तक के अनुसार पुरानी परम्पराओं के अनुसार लड़की का पहला पुत्र अपने पीहर में होता है।[12]

इतिहासकार अर्जुन सिंह शेखावत के अनुसार महाराणा प्रताप की जन्मपत्रिका पुरानी दिनमान पद्धति से अर्धरात्रि 12/17 से 12/57 के मध्य जन्मसमय से बनी हुई है। 5/51 पलमा पर बनी सूर्योदय 0/0 पर स्पष्ट सूर्य का मालूम होना जरूरी है इससे जन्मकाली इष्ट आ जाती है। यह कुंडली चित्तौड़ या मेवाड़ के किसी स्थान में हुई होती तो प्रातः स्पष्ट सूर्य का राशि अंश कला विक्ला अलग होती। पण्डित द्वारा स्थान कालगणना पुरानी पद्धति से बनी प्रातः सूर्योदय राशि कला विकला पाली के समान है।[13]

डॉ हुकमसिंह भाटी की पुस्तक सोनगरा सांचोरा चौहानों का इतिहास 1987 एवं इतिहासकार मुहता नैणसी की पुस्तक ख्यात मारवाड़ रा परगना री विगत में भी स्पष्ट है "पाली के सुविख्यात ठाकुर अखेराज सोनगरा की कन्या जैवन्ताबाई ने वि. सं. 1597 जेष्ठ सुदी 3 रविवार को सूर्योदय से 47 घड़ी 13 पल गए एक ऐसे देदीप्यमान बालक को जन्म दिया। धन्य है पाली की यह धरा जिसने प्रताप जैसे रत्न को जन्म दिया।"[14][15]

वंश वृक्ष

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
राणा सांगा
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
उदय सिंह
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
रानी कर्णावती
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
महाराणा प्रताप
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
राज सोंगरा चौहान
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
जयवंताबाई
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
राय भा
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

जीवन

चेतक पर सवार राणा प्रताप की प्रतिमा (महाराणा प्रताप स्मारक समिति, मोती मगरी , उदयपुर)

राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे।[16]

राणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ११ शादियाँ की थी उनकी पत्नियों और उनसे प्राप्त उनके पुत्रों पुत्रियों के नाम है[17]:-

  1. महारानी अजबदे पंवार :- अमरसिंह और भगवानदास
  2. अमरबाई राठौर :- नत्था
  3. शहमति बाई हाडा :-पुरा
  4. अलमदेबाई चौहान:- जसवंत सिंह
  5. रत्नावती बाई परमार :-माल,गज,क्लिंगु
  6. लखाबाई :- रायभाना
  7. जसोबाई चौहान :-कल्याणदास
  8. चंपाबाई जंथी :- कल्ला, सनवालदास और दुर्जन सिंह
  9. सोलनखिनीपुर बाई :- साशा और गोपाल
  10. फूलबाई राठौर :-चंदा और शिखा
  11. खीचर आशाबाई :- हत्थी और राम सिंह

महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया, इसी क्रम में मानसिंह (1573 ई. में ), भगवानदास ( सितम्बर, 1573 ई. में ) तथा राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. ) प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।[18]

=== हल्दीघाटी का युद्ध/ हाथियों का युद्ध /खमनौर का युद्ध / गोगुंदा का युद्ध

हल्दीघाटी के युद्ध में लड़ते हुए महाराणा।

यह युद्ध 18 जून 1576 ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार, पानरवा के ठाकुर राणा पूंजा सोलंकी थे।[19]इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर एवम उनके 3 पुत्र कुंवर शालीवान सिंह, भवानी सिंह, प्रताप सिंह तथा उनका पौत्र बलभद्र सिंह सादड़ी के झाला बीदा ( झाला मन्ना/झाला मान सिंह) सरदार गढ़ से भीम सिंह थे । ( हरावल में )एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी[20]

चंदावल में पुरोहित गोपीनाथ,चरण जैसा, जयमल मेहता  लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घण्टे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकि उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी।[21] मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इस युद्ध में मेवाड़ के महाराणा प्रताप विजय हुए थे, जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया।[22]

इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया।[23]

शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया और महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला।[24] तथा हल्दीघाटी युद्ध में युद्ध करते समय मानसिंह के हाथी मरदाना के सूंड में लगी कटार के कारण चेतक घायल हो गया एवम महाराणा प्रताप को लेकर युद्ध से बाहर निकल गया कहा घायल अवस्था में 20 फीट के नाले को पार कर बालिचा गांव में चेतक की मृत्यु हुई जहा आज भी चेतक का स्मारक बना हुआ है। ।[25] हल्दीघाटी के युद्ध में और देवर और चप्पली की लड़ाई में महाराणा प्रताप को सर्वश्रेष्ठ राजपूत राजा और उनकी बहादुरी,पराक्रम,चारित्र्य, धर्मनिष्ठा,त्याग, के लिए जाना जाता था। मुगलों के सफल प्रतिरोध के बाद, उन्हें "हिंदुशिरोमणी" माना गया।[26]

यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17,000 लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिन्ताजनक होती चली गई। 24,000 सैनिकों के 12 साल तक गुजारे लायक अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हुआ।[27]

इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए। अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी।[28]

समर्पण विचार

वह जंगल में लौट आया और अपनी लड़ाई जारी रखी। टकराव के उनके एक प्रयास की विफलता के बाद, प्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। एक आधार के रूप में अपनी पहाड़ियों का उपयोग करते हुए, प्रताप ने बड़े पैमाने पर मुगल सैनिकों को वहाँ से हटाना शुरू कर दिया। वह इस बात पर अड़े थे कि मेवाड़ की मुगल सेना को कभी शान्ति नहीं मिलनी चाहिए: अकबर ने तीन विद्रोह किए और प्रताप को पहाड़ों में छुपाने की असफल कोशिश की।[29] इस दौरान, उन्हें प्रताप भामाशाह से सहानुभूति के रूप में वित्तीय सहायता मिली। अरावली पहाड़ियों से बिल, युद्ध के दौरान प्रताप को अपने समर्थन के साथ और मोर के दिनों में जंगल में रहने के साधन के साथ। इस तरह कई साल बीत गए।[30] जेम्स टॉड लिखते हैं: "अरावली शृंखला में एक अच्छी सेना के बिना भी, महाराणा प्रताप सिंह जैसे महान स्वतन्त्रता सेनानी के लिए वीर होने का कोई रास्ता नहीं है: कुछ भी एक शानदार जीत हासिल कर सकता है या अक्सर भारी हार। एक घटना में, गोलियाँ सही समय पर बच निकलीं और उदयपुर के पास सावर की गहरी जस्ता खानों में राजपूत महिलाओं और बच्चों को अगवा कर लिया। बाद में, प्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ा के दक्षिणपूर्वी हिस्से में सावन में स्थानान्तरित कर दिया।[31] मुगल [32] किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय था। सभी निर्वासित लोग कई सालों तक तलहटी में रहते थे, जंगली जामुन खाते थे, शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप कठिन समय बिता रहे थे। सभी निर्वासित लोग कई वर्षों तक जंगली जामुन के साथ तोपों में रहते थे और शिकार करते थे और मछली पकड़ते थे। किंवदन्ती के अनुसार, प्रताप को घास के बीज से बनी चपाती खाने का कठिन समय था।[33]

पृथ्वीराज राठौर का पत्र

जब निर्वासन वास्तव में भूख से मर रहे थे, तो उन्होंने प्रताप अकबर को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि वह शांति समझौते के लिए तैयार हैं। प्रताप के प्रमुख (उनकी मां की बहन का बच्चा) पृथ्वीराज राठौर, जो अकबर की मंडली के सदस्यों में से एक थे, ने यह कहा:[34]

हिंदुओं की मान्यताएं हिंदू सूर्य के उदय पर आधारित हैं लेकिन राणा ने उन्हें छोड़ दिया है। लेकिन वह प्रताप के लिए है, सब कुछ उसी स्तर पर अकबर द्वारा माना जाएगा; क्योंकि हमारे प्रमुखों ने अपना साहस खो दिया है और हमारी महिलाओं ने अपना मूल्य खो दिया है। हमारी दौड़ में अकबर अभी भी एक बाजार दलाल है; उन्होंने थोक में सब कुछ खरीदा है लेकिन केवल उदय के बेटे (सिंह द्वितीय मेवाड़); वह अपनी कीमत के लिए बहुत दूर था। राजपूत ने नौरोकॉफ़ का कितना सम्मान किया [फारसी नव वर्ष के दौरान, अकबर महिलाओं को अपनी खुशी के लिए चुनता है]; फिर भी कितने लोग इसे वस्तु विनिमय मानते हैं? क्या चित्तूर आएगा इस बाजार में ...? प्रताप सिंह (प्यार से पट्टा के रूप में जाना जाता है) ने अपना धन (युद्ध की रणनीति के लिए) और बटालियनों में खर्च किया, हालांकि उन्होंने इस खजाने को संरक्षित किया। दुख ने मनुष्य को इस बाजार में धकेल दिया, और उन्होंने अपने आत्मसम्मान को पीड़ित होते देखा: केवल हम्मीर (महा राणा हम्मीर) के वंशज ही ऐसे अपराध से सुरक्षित थे। दुनिया पूछ सकती है कि प्रताप के लिए अप्रत्यक्ष मदद कहां से आई? कहीं से भी नहीं बल्कि उनकी मर्दानगी और तलवार से .. मानव बाजार का दलाल (अकबर) एक दिन जरूर इस दुनिया को छोड़ने जा रहा है; वह हमेशा के लिए नहीं रहने वाला है। फिर क्या हमारी दौड़ प्रताप तक आने वाली है, जो अमानवीय भूमि में राजपूत बीज बोने जा रहे हैं? उनके अनुसार, हर कोई इसे संरक्षित करना चाहता है, और इसकी पवित्रता को पुनर्जीवित और रोशन करना है। यह विश्वसनीय नहीं होगा यदि प्रताप अकबर को सम्राट कहा जाता था, जैसा कि सूरज किसी तरह से तेज दिशा में उगता है। मुझे कहां खड़ा होना चाहिए? मेरी गर्दन के चारों ओर अपनी तलवार रख दिया? या गर्व से ले जाने के लिए? कहते हैं कि? कहा च। यह विश्वसनीय नहीं होगा यदि प्रताप अकबर को सम्राट कहा जाता था, जैसा कि सूरज किसी तरह से तेज दिशा में उगता है। मुझे कहां खड़ा होना चाहिए? मेरी गर्दन के चारों ओर अपनी तलवार रख दिया? या गर्व से ले जाने के लिए? कहते हैं कि? कहा च। यह विश्वसनीय नहीं होगा यदि प्रताप अकबर को सम्राट कहा जाता था, जैसा कि सूरज किसी तरह से तेज दिशा में उगता है। मुझे कहां खड़ा होना चाहिए? मेरी गर्दन के चारों ओर अपनी तलवार रख दिया? या गर्व से ले जाना? कहते हैं कि?

इस प्रकार प्रताप ने उसे उत्तर दिया[35]

मेरे भगवान एकलिंग, प्रताप को केवल तुर्की सम्राट कहा जाता है, 'तुर्की' शब्द कई भारतीय भाषाओं में एक अपमानजनक शब्द है और सूर्य निश्चित रूप से पूर्व में दिखाई देगा। "जब तक प्रताप की तलवार मुगलों के सिर पर घूमती है तब तक आप अपना गौरव सहन कर सकते हैं।" जहां तक सांगा के खून का सवाल है, अगर आप अकबर के बारे में धैर्य रखना चाहते हैं! आपने इस शब्द युद्ध में सुधार किया होगा। "

इस प्रकार संधि अहस्ताक्षरित रही।

दिवेर-छापली का युुद्ध

युद्ध विजय स्मारक, दिवेर
बिरला मंदिर, दिल्ली में महाराणा प्रताप का शैल चित्र

राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को "मेवाड़ का मैराथन" कहा है।

मेवाड़ के उत्तरी छोर का दिवेर का नाका अन्य नाकों से विलक्षण है। इसकी स्थिति मदारिया और कुंभलगढ़ की पर्वत श्रेणी के बीच है। प्राचीन काल में इस पहाड़ी क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का आधिपत्य था, जिन्हें इस क्षेत्र में बसने के कारण मेर कहा जाता था।[36] यहां की उत्पत्यकाताओं में इस जाति के निवास स्थलों के कई अवशेष हैं। मध्यकालीन युग में देवड़ा जाति के राजपूत यहां प्रभावशील हो गये, जिनकी बस्तियां आसपास के उपजाऊ भागों में बस गई और वे उदयपुर के निकट भीतरी गिर्वा तक प्रसारित हो गई। चीकली के पहाड़ी भागों में आज भी देवड़ा राजपूत बड़ी संख्या में बसे हुए हैं। देवड़ाओं के पश्चात यहां रावत शाखा के राजपूत बस गये।[37]

इन विभिन्न समुदायों के दिवेर में बसने के कई कारण थे। प्रथम तो दिवेर का एक सामरिक महत्व रहा है, जो समुदाय शौर्य के लिए प्रसिद्ध रहे हैं, वे उत्तरोत्तर अपने पराक्रम के कारण यहां बसते रहे और एक-दूसरे पर प्रभाव स्थापित करते रहे। दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि इसकी स्थिति ऐसे मार्गों पर है, जहां से मारवाड़, मालवा, गुजरात, अजमेर के आदान-प्रदान की सुविधा रही है। ये मार्ग तंग घाटियों वाले उबड़-खाबड़ मार्ग के रूप में आज भी देखे जा सकते हैं। इनके साथ सदियों से आवागमन होने से घोड़ों की टापों के चिन्ह पत्थरों पर अद्यावधि विद्यमान है। मार्गों में पानी की भी कमी नहीं है, जिसके लिये जगह-जगह झरनों के बांध के अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से स्थान-स्थान पर चौकियों के ध्वंसाशेष भी दिखाई देते हैं। जब अकबर ने कुंभलगढ़, देवगढ़, मदारिया आदि स्थानों पर कब्जा कर लिया तो वहां की चौकियों से संबंध बनाए रखने के लिए दिवेर का चयन एक रक्षा स्थल के रूप में किया गया। यहां बड़ी संख्या में घुड़सवारों और हाथियों का दल रखा गया। इंतर चौकियों के लिए रसद भिजवाने का भी यह सुगम स्थान था।[38]

ज्यों महाराणा प्रताप छप्पन के पहाड़ी स्थानों में बस्तियां बसाने और मेवाड़ के समतल भागों में खेतों को उजाड़ने में व्यस्त थे त्यों अकबर दिवेर के मार्ग से उत्तरी सैनिक चौकियों का पोषण भेजने की व्यवस्था में संलग्न रहा। प्रताप की नीतियों छप्पन की चौकियों को हटाने में तथा मध्यभागीय मेवाड़ की चौकियों को निर्बल बनाने में अवश्य सफल हो गये, परंतु दिवेर का केंद्र अब भी मुगलों के लिए सुदृढ़ था।[39]

इस पृष्ठभूमि में दिवेर का महाराणा प्रताप का व मुगलों का संघर्ष जुड़ा हुआ था। इस युद्ध की तैयारी के लिए प्रताप ने अपनी शक्ति सुदृढ़ करने की नई योजना तैयार की। वैसे छप्पन का क्षेत्र मुगल से युक्त हो चला था और मध्य मेवाड़ में रसद के अभाव में मुगल चौकियां निष्प्राण हो गई थी अब केवल उत्तरी मेवाड़ में मुगल चौकियां व दिवेर के संबंध में कदम उठाने की आवश्यकता थी।

इस संबंध में महाराणा ने गुजरात और मालवा की ओर अपने अभियान भेजना आरंभ किया और साथ ही आसपास के मुगल अधिकार क्षेत्र में छापे मारना शुरू कर दिया। इसी क्रम में भामाशाह ने, वहां से 25 लाख रुपए और 20 हजार अशर्फियां दंड में लेकर एक बड़ी धनराशि इकट्ठी की। इस रकम को लाकर उन्होंने महाराणा को चूलिया ग्राम में समर्पित कर दी। इसी दौरान जब शाहबाज खां निराश होकर लौट गया था, तो महाराणा ने कुंभलगढ़ और मदारिया के मुगली थानों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इन दोनों स्थानों पर महाराणा का अधिकार होना दिवेर पर कब्जा करने की योजना का संकेत था।[40]

अतएव इस दिशा में सफलता प्राप्त करने के लिए नई सेना का संगठन किया गया। जगह-जगह रसद और हथियार इकट्ठे किए गए। सैनिकों को धन और सुविधाएं उपलब्ध कराई गई। सिरोही, ईडर, जालोर के सहयोगियों का उत्साह परिवर्धित कराया गया। ये सभी प्रबंध गुप्त रीति से होते रहे। मुगलों को यह भ्रम हो गया कि प्रताप मेवाड़ छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं। ऐसे भ्रम के वातावरण से बची हुई मुगल चौकियों के सैनिक बेखटके रहने लगे।[41] जब सब प्रकार की तैयारी हो गई तो महाराणा प्रताप, कु. अमरसिंह, भामाशाह, चुंडावत, शक्तावत, सोलंकी, पडिहार, रावत शाखा के राजपूत और अन्य राजपूत सरदार दिवेर की ओर दल बल के साथ चल पड़े।[42] दिवेर जाने के अन्य मार्गों व घाटियों में भीलों की टोलियां बिठा दी गई, जिससे मेवाड़ में अन्यत्र बची हुई सैनिक चौकियों का दिवेर से कोई संबंध स्थापित न हो सके।[43]

महाराणा प्रताप चित्र।

अचानक महाराणा की फौज दिवेर पहुंची तो मुगल दल में भगदड़ मच गई। मुगल सैनिक घाटी छोड़कर मैदानी भाग की तलाश में उत्तर के दर्रे से भागने लगे। महाराणा ने अपने दल के साथ भागती सेना का पीछा किया। घाटी का मार्ग इतना कंटीला तथा ऊबड़-खाबड़ था कि मैदानी युद्ध में अभ्यस्त मुगल सैनिक विथकित हो गए। अन्ततोगत्वा घाटी के दूसरे छोर पर जहां कुछ चौड़ाई थी और नदी का स्त्रोत भी था, वहां महाराणा ने उन्हें जा दबोचा।[44] दिवेर थाने के मुगल अधिकारी सुल्तानखां को कुं. अमरसिंह ने जा घेरा और उस पर भाले का ऐसा वार किया कि वह सुल्तानखां को चीरता हुआ घोड़े के शरीर को पार कर गया। घोड़े और सवार के प्राण पखेरू उड़ गए। महाराणा ने भी इसी तरह बहलोलखां और उसके घोड़े का काम तमाम कर दिया। एक राजपूत सरदार ने अपनी तलवार से हाथी का पिछला पांव काट दिया। इस युद्ध में विजयश्री महाराणा के हाथ लगी।[45]

यह महाराणा की विजय इतनी कारगर सिद्ध हुई कि इससे मुगल थाने जो सक्रिय या निष्क्रिय अवस्था में मेवाड़ में थे जिनकी संख्या 36 बतलाई जाती है, यहां से उठ गए। शाही सेना जो यत्र-तत्र कैदियों की तरह पडी हुई थी, लड़ती, भिड़ती, भूखे मरते उलटे पांव मुगल इलाकों की तरफ भाग खड़ी हुई।[46] यहां तक कि 1585 ई. के आगे अकबर भी उत्तर - पश्चिम की समस्या के कारण मेवाड़ के प्रति उदासीन हो गया, जिससे महाराणा को अब चावंड में नवीन राजधानी बनाकर लोकहित में जुटने का अच्छा अवसर मिला। दिवेर की विजय महाराणा के जीवन का एक उज्ज्वल कीर्तिमान है। जहां हल्दीघाटी का युद्ध नैतिक विजय और परीक्षण का युद्ध था, वहां दिवेर-छापली का युद्ध एक निर्णायक युद्ध बना। इसी विजय के फलस्वरूप संपूर्ण मेवाड़ पर महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। एक अर्थ में हल्दीघाटी का युद्ध में राजपूतो ने रक्त का बदला दिवेर में चुकाया। दिवेर की विजय ने यह प्रमाणित कर दिया कि महाराणा का शौर्य, संकल्प और वंश गौरव अकाट्य और अमिट है, इस युद्ध ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि महाराणा के त्याग और बलिदान की भावना के नैतिक बल ने सत्तावादी नीति को परास्त किया। कर्नल टाॅड ने जहां हल्दीघाटी को 'थर्मोपाली' कहा है वहां के युद्ध को 'मेरोथान' की संज्ञा दी है।[47][48] जिस प्रकार एथेन्स जैसी छोटी इकाई ने फारस की बलवती शक्ति को 'मेरोथन' में पराजित किया था, उसी प्रकार मेवाड़ जैसे छोटे राज्य ने मुगल राज्य के वृहत सैन्यबल को दिवेर में परास्त किया। महाराणा की दिवेर विजय की दास्तान सर्वदा हमारे देश की प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।[49]

सफलता और अवसान

पू. 1579 से 1585 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में विद्रोह होने लगे थे और महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे अतः परिणामस्वरूप अकबर उस विद्रोह को दबाने में उल्झा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने 1585ई. में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को और भी तेज कर दिया। महाराणा जी की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरन्त ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया।[50]

महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया, उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लम्बी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अन्त 1585 ई. में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए, परन्तु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो गई।[51]

महाराणा प्रताप सिंह के डर से अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर चला गया और महाराणा के स्वर्ग सिधारने के बाद आगरा ले आया।[52]

'एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए।

मृत्यु पर अकबर की प्रतिक्रिया

अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था, पर उनकी यह लड़ाई कोई व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं थी, बल्कि अपने सिद्धान्तों और मूल्यों की लड़ाई थी। एक वह था जो अपने क्रूर साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था, जब की एक तरफ महाराणा प्रताप जी थे जो अपनी भारत मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे थे। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर को बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि ह्रदय से वो महाराणा प्रताप के गुणों का प्रशंसक था और अकबर जनता था की महाराणा प्रतात जैसा वीर कोई नहीं है इस धरती पर। यह समाचार सुन अकबर रहस्यमय तरीके से मौन हो गया और उसकी आँख में आँसू आ गए।[53]

महाराणा प्रताप के स्वर्गावसान के समय अकबर लाहौर में था और वहीं उसे सूचना मिली कि महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई है। अकबर की उस समय की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छन्द में जो विवरण लिखा वो कुछ इस तरह है:-

महाराणा प्रताप की प्रतिमा उनकी बहादुरी और वीरता को दर्शाती है।
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी

गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी

हिंदी में अनुवाद

हे गेहलोत राणा प्रतापसिंह तेरी मृत्यु पर शाह यानि सम्राट ने दाँतों के बीच जीभ दबाई और निश्वास के साथ आँसू टपकाए। क्योंकि तूने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलिया दाग नहीं लगने दिया। तूने अपनी पगड़ी को किसी के आगे झुकाया नहीं, हालाँकि तू अपना आडा यानि यश या राज्य तो गवाँ गया लेकिन फिर भी तू अपने राज्य के धुरे को बाएँ कन्धे से ही चलाता रहा। तेरी रानियाँ कभी नवरोजों में नहीं गईं और ना ही तू खुद आसतों यानि बादशाही डेरों में गया। तू कभी शाही झरोखे के नीचे नहीं खड़ा रहा और तेरा रौब दुनिया पर निरन्तर बना रहा। इसलिए मैं कहता हूँ कि तू सब तरह से जीत गया और बादशाह हार गया।

अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना पूरा जीवन का बलिदान कर देने वाले ऐसे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और उनके स्वामिभक्त अश्व चेतक को शत-शत कोटि-कोटि प्रणाम।

फिल्म एवं साहित्य में

मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के शासक
(1326–1948 ईस्वी)
राणा हम्मीर सिंह (1326–1364)
राणा क्षेत्र सिंह (1364–1382)
राणा लखा (1382–1421)
राणा मोकल (1421–1433)
राणा कुम्भ (1433–1468)
उदयसिंह प्रथम (1468–1473)
राणा रायमल (1473–1508)
राणा सांगा (1508–1527)
रतन सिंह द्वितीय (1528–1531)
राणा विक्रमादित्य सिंह (1531–1536)
बनवीर सिंह (1536–1540)
उदयसिंह द्वितीय (1540–1572)
महाराणा प्रताप (1572–1597)
अमर सिंह प्रथम (1597–1620)
करण सिंह द्वितीय (1620–1628)
जगत सिंह प्रथम (1628–1652)
राज सिंह प्रथम (1652–1680)
जय सिंह (1680–1698)
अमर सिंह द्वितीय (1698–1710)
संग्राम सिंह द्वितीय (1710–1734)
जगत सिंह द्वितीय (1734–1751)
प्रताप सिंह द्वितीय (1751–1754)
राज सिंह द्वितीय (1754–1762)
अरी सिंह द्वितीय (1762–1772)
हम्मीर सिंह द्वितीय (1772–1778)
भीम सिंह (1778–1828)
जवान सिंह (1828–1838)
सरदार सिंह (1838–1842)
स्वरूप सिंह (1842–1861)
शम्भू सिंह (1861–1874)
उदयपुर के सज्जन सिंह (1874–1884)
फतेह सिंह (1884–1930)
भूपाल सिंह (1930–1948)
नाममात्र के शासक (महाराणा)
भूपाल सिंह (1948–1955)
भागवत सिंह (1955–1984)
महेन्द्र सिंह (1984–वर्तमान)

.

कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

इतिहासकार विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार कुछ तथ्य उजागर हुए।[54]

1 .महाराणा उदय सिंह ने युद्ध की नयी पद्धति - छापामार युद्धप्रणाली इजाद की। वे स्वयं तो इसका प्रयोग नहीं कर सके परन्तु महाराणा प्रताप, महाराणा राज सिंह एवं छत्रपति शिवाजी महाराज ने इसका सफल प्रयोग करते हुए मुगलों पर सफलता प्राप्त की ।[55]

2. महाराणा प्रताप मुग़ल सम्राट अकबर से नहीं हारे। उसे एवं उसके सेनापतियो को धुल चटाई । हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप जीते। महाराणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी में पराजित होने के बाद स्वयं अकबर ने जून से दिसम्बर 1576 तक तीन बार विशाल सेना के साथ महाराणा पर आक्रमण किए, परंतु महाराणा को खोज नहीं पाए, बल्कि महाराणा के जाल में फँसकर पानी भोजन के अभाव में सेना का विनाश करवा बैठे। थक हारकर अकबर बांसवाड़ा होकर मालवा चला गया। पूरे सात माह मेवाड़ में रहने के बाद भी हाथ मलता अरब चला गया। शाहबाज खान के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध तीन बार सेना भेजी गई परन्तु असफल रहा। उसके बाद अब्दुल रहीम खान-खाना के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध सेना भिजवाई गई और पीट-पीटाकर लौट गया। 9 वर्ष तक निरन्तर अकबर पूरी शक्ति से महाराणा के विरुद्ध आक्रमण करता रहा। नुकसान उठाता रहा अन्त में थक हार कर उसने मेवाड़ की और देखना ही छोड़ दिया।[56]

3. ऐसा कुअवसर प्रताप के जीवन में कभी नहीं आया कि उन्हें घास की रोटी खानी पड़ी अकबर को सन्धि के लिए पत्र लिखना पड़ा हो। इन्हीं दिनों महाराणा प्रताप ने सुंगा पहाड़ पर एक बावड़ी का निर्माण करवाया और सुन्दर बगीचा लगवाया| महाराणा की सेना में एक राजा, तीन राव, सात रावत, 15000 अश्वरोही, 100 हाथी, 20000 पैदल और 100 वाजित्र थे। इतनी बड़ी सेना को खाद्य सहित सभी व्यवस्थाएँ महाराणा प्रताप करते थे। फिर ऐसी घटना कैसे हो सकती है कि महाराणा के परिवार को घास की रोटी खानी पड़ी। अपने उतरार्ध के बारह वर्ष सम्पूर्ण मेवाड़ पर शुशाशन स्थापित करते हुए उन्नत जीवन दिया ।[57]

4. पृथ्वीराज राठौड़, अकबर के दरबारी कवि होते हुए भी महाराणा प्रताप के महान प्रशंसक थे।

इसे भी देखें

सन्दर्भ

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