रत्न

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रत्न प्रकृति प्रदत्त एक मूल्यवान निधि है। मनुष्य अनादिकाल से ही रत्नों की तरफ आकर्षित रहा है, वर्तमान में भी है तथा भविष्य में भी रहेगा। रत्न सुवासित, चित्ताकर्षक, चिरस्थायीव दुर्लभ होने तथा अपने अद्भुत प्रभाव के कारण भी मनुष्य को अपने मोहपाश में बाँधे हुए हैं। रत्न आभूषणों के रूप में शरीर की शोभा तो बढ़ाते ही हैं, साथ ही अपनी दैवीय शक्ति के प्रभाव के कारण रोगों का निवारण भी करते हैं। रत्नों में चिरस्थायित्व का ऐसा गुण है कि ये ऋतुओं के परिवर्तन के कारण तथा समय-समय पर प्रकृति के भीषण उथल-पुथल से तहस-नहस होने के कारण भी प्रभावित नहीं होते।

विभाजन[संपादित करें]

रत्नों को हम मुख्यतः तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं- प्राणिज रत्न- प्राणिज रत्न वे हैं, जो कि जीव-जन्तुओं के शरीर से प्राप्त किए जाते हैं। जैसे- गजमुक्ता, मूँगा आदि।

वानस्पतिक रत्न[संपादित करें]

वानस्पतिक रत्न वे हैं, जो कि वनस्पतियों की विशेष प्रकार की क्रियाशीलता के कारण उत्पन्न होते हैं। जैसे- वंशलोचन, तृणमणि, जेट आदि। कुछ वानस्पतिक दुर्लभ रत्न लुप्त होने के कारण चलन से दूर हो गए हैं।

खनिज रत्न[संपादित करें]

वे रत्न जो प्राकृतिक रचनाओं अर्थात चट्टान, भूगर्भ, समुद्र आदि से प्राप्त किए जाते हैं।

'रत्न' शब्द आधुनिक युग या मध्यकालीन युग की देन नहीं अपितु अति प्राचीन युग की देन हैं, क्योंकि ऋग्वेद विश्व का अति प्राचीन ग्रंथ है। ऋग्वेद के अनेकों मन्त्रों में रत्न शब्द का प्रयोग हुआ है। उदाहरणार्थ-

अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्‌। होत्तारं रत्न धात्तमम्‌॥ ऋ.1-1-1॥

उपरोक्त उदाहरण से प्रमाणित है कि ऋग्वेद के सर्वप्रथम मन्त्र में ही अग्नि को रत्न धात्तम्‌ कहा गया है। ऐसे ही आगे भी अनेक मन्त्रों में प्रयोग हुआ है तथा अन्य प्राचीन ग्रंथ रामायण, महाभारत आदि अनेक ग्रन्थों में भी रत्न शब्द का वर्णन देखने को मिला है। वृहद् संहिता, भावप्रकाश, रस रत्न समुच्चय, आयुर्वेद प्रकाश में तो रत्नों के गुण-दोष तथा प्रयोग का स्पष्ट वर्णन किया गया है।

रत्नों की उत्पत्ति[संपादित करें]

पौराणिक संदर्भ[संपादित करें]

ऋग्वेद के प्रथम श्लोक में ही जो रत्न धात्तमम्‌ शब्द आया है। उसका अर्थ आधिभौतिक के अनुसार अग्नि रत्नों या पदार्थों के धारक अथवा उत्पादक से है। अतः यह सुस्पष्ट है कि रत्नों की उत्पत्ति में अग्नि सहायक है तथा आधुनिक वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अधिकांशतः रत्न किसी न किसी रूप में ताप प्रक्रिया अर्थात अग्नि के प्रभाव के कारण ही बने हैं।

जब विभिन्न तत्व रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा आपस में मिलते हैं तब रत्न बनते हैं। जैसे स्फटिक, मणिभ, क्रिस्टल आदि। इसी रासायनिक प्रक्रिया के बाद तत्व आपस में एकजुट होकर विशिष्ट प्रकार के चमकदार आभायुक्त बन जाते हैं तथा कई अद्भुत गुणों का प्रभाव भी समायोजित हो जाता है। यह निर्मित तत्व ही रत्न कहलाता है, जो कि अपने रंग, रूप व गुणों के कारण मनुष्यों को अपनी तरफ आकर्षित करता है। यथा- रमन्ते अस्मिन्‌ अतीव अतः रत्नम्‌ इति प्रोक्तं शब्द शास्त्र विशारदैः॥ (आयुर्वेद प्रकाश 5-2)

आधुनिक इतिहास[संपादित करें]

जैसा कि हमने पहले ही यह बात स्पष्ट कर दी है कि पृथ्वी के अंदर अग्नि के प्रभाव के कारण विभिन्न तत्व रासायनिक प्रक्रिया द्वारा रत्न बनते हैं। अतः यह सुविदित है कि रत्न विभिन्न मात्रा में विभिन्न रासायनिक यौगिक मेल से बनता है। मात्र किसी एक रासायनिक तत्व से नहीं बनता। स्थान-भेद से विविध रासायनिक तत्वों के संयोग के कारण ही रत्नों में रंग, रूप, कठोरता व आभा का अंतर होता है। खनिज रत्नों में मुख्यतः निम्न तत्वों का संयोग होता है-

कार्बन, अल्यूमीनियम, बेरियम, बेरिलियम, कैल्शियम, तांबा, हाइड्रोजन, लोहा, फासफोरस, मैंगनीज, पोटेशियम, गंधक, सोडियम, टिन, जस्ता, जिर्केनियम आदि।

रत्नों के भेद[संपादित करें]

वैसे तो प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार उच्च कोटि में आने वाले रत्न 84 प्रकार के हैं। इनमें से बहुत से रत्न अब अप्राप्य हैं तथा बहुत से नए-नए रत्नों का आविष्कार भी हुआ है। अतः आधुनिक युग में प्राचीन ग्रंथों में वर्णित रत्नों की सूचियाँ प्रामाणिक नहीं रह गई हैं। रत्नों के नामों की सूची निम्न प्रकार है -

अजूबा-

यह सफेद तथा खाकी रंग का व मृदु होता है तथा संगमरमर की ही एक जाति है।

अहवा-

यह गुलाबी रंग का धब्बेदार तथा मृदु पत्थर होता है। इसे फर्श तथा खरल बनाने के काम में लिया जाता है।

अबरी-

यह कृष्ण तथा पीत वर्ण का संगमरमर के सदृश पत्थर होता है।

अमलिया-

यह कृष्ण रंग का होता है तथा इसमें गुलाबी रंग की आभा होती है।

अलेमानी-

यह भूरे रंग का पत्थर होता है तथा इसके ऊपर कृष्ण वर्ण की पतली रेखा होती है।

उपल-

यह कृष्ण, पीत, सफेद आदि अनेक रंगों का चमकदार व मृदु पत्थर होता है। इसमें लाल रंग के चमकते हुए सितारे भी दिखाई देते हैं, जिन्हें रत्न पोल कहते हैं।

उदाऊ -

यह वैक्रान्त की जाति का पत्थर होता है।

कर्पिशमणि-

यह भूरे तथा बादामी रंग का पत्थर होता है।

कसौटी-

यह कृष्ण वर्ण का मुलायम पत्थर होता है तथा यह विशेष रूप से सोना परखने के काम आता है।

कटैला-

यह बैंगनी रंग का पारदर्शी पत्थर होता है।

कांसला-

यह मैलापन लिए सफेद रंग का तुरमसी जाति का पत्थर होता है।

कुरण्ड-

यह पत्थर मैलापन लिए गुलाबी रंग का होता है। इसका औचारों की धार तेज करने वाला सान भी बनाया जाता है तथा यह रत्न भी घिसने के काम में आता है।

झरना- यह मिट्टी के वर्ण का गुम पत्थर होता है।

टेढ़ी-

यह पत्थर कठोर तथा अपारदर्शी होता है।

डूर-

यह गहरे कत्थई रंग का अपारदर्शी होता है।

तिलियर-

यह पत्थर तिल के समान कृष्ण वर्ण का होता है।

तुरसावा-

यह पत्थर नीले वर्ण का आभा लिए श्वेत हरे रंग का एवं लाल रंग का मुलायम हल्का और कांतियुक्त होता है।

तृणमणि-

यह लाल तथा पीले रंग का मृदु व पारदर्शक होता है। यह एक विशेष प्रकार के वृक्ष का गोंद होता है। इसे कुछ लोग कहरुआ भी कहते हैं।

दाने फिरग-

यह मैलापन लिए गहरे भूरे रंग का लहरदार व पारदर्शक पत्थर होता है।

दाँतला-

यह चिकना पानीदार पारदर्शक श्वेत वर्ण का तथा तुरमली की तरह हरे रंग का होता है, इसका उपयोग दन्त रोगों में किया जाता है।

दारचना-

यह कत्थई रंग का पीले तथा धूमिल रंग के छोटे-छोटे बिन्दुओं से युक्त होता है। इसका उपयोग खरल बनाने में होता है।

दूरनजफ-

यह गुम तथा धानी रंग का पत्थर होता है, इसका उपयोग फर्श बनाने में होता है।

धुनला-

यह धूम्रवर्ण का चमकदार व पारदर्शी पत्थर होता है। इस पत्थर को धूप के कीमती चश्मे व अनेकों प्रकार के नगीने बनाने के काम आता है।

नरम-

यह लाल रंग का हल्के गुलाब की पत्ती के रंग की आभा से युक्त होता है। इसे 'लालड़ी' भी कहते हैं।

नीलोपल-

यह गहरे नीले रंग का अपारदर्शी पत्थर होता है। इसमें कुछ सोने का भी अंश होता है। इसे राजावर्त, लाजवर्त, लाजवर्द भी कहते हैं।

नीलम-

यह गहरे नीले रंग का, हल्के नीले रंग का पारदर्शी, चमकदार व लोचदार रत्न है। इसे पुराणों में लाभकारी बताया गया है।

पन्ना-

यह रत्न हरे रंग का, हरा रंग लिए सफेद रंग का, नीम के पत्ती के रंग का, बिना तली का, लोचदार व पारदर्शी होता है, हरे रंग का पन्ना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

पनघन-

यह हकीक जाति का पत्थर है तथा यह अनेक रंगों में प्राप्त होता है। इसका मध्य भाग खोखलापन लिए होता है, जिसमें सफेद रंग होता है। इसे खिलौने तथा मूर्तियों के निर्माण में उपयोग किया जाता है।

पारस-

यह काले रंग का पत्थर है तथा यह दुर्लभ व बहुमूल्य होता है। आजकल प्रायः यह प्राप्त नहीं होता है। लोगों की ऐसी मान्यता है कि पारस पत्थर से यदि लोहे को स्पर्श कराया जाए तो लोहा सोने में बदल जाता है।

पुखराज-

यह रत्न पीले रंग, सफेद रंग तथा नीले रंगों में पाया जाता है।

फाते जहर-

यह बर्फ के समान श्वेत रंग का पत्थर होता है। इसे जहरीले व्रण को ठीक करने में प्रयोग किया जाता है।

फीरोजा-

यह आसमानी रंग का मृदु व चमकदार होता है।

बसरो-

यह मटमैले रंग का गुम पत्थर होता है।

बांसी-

यह काई के रंग के समान, मोटा पानीदार तथा मृदु होता है।

बेरुंज-

यह पीत वर्ण का समुद्री पानी के समान कांति वाला या हरिताभ पत्थर होता है।

मरगज-

यह हरे रंग का मृदु पत्थर होता है।

मकड़ी-

यह हरे-काले रंग का पत्थर होता है। इसके अंदर मकड़ी के जाले के समान दिखाई देता है।

- यह पत्थर सफेद रंग का संगमरमर के समान होता है।

रत्नों के प्रकार[संपादित करें]

  • मासर मणि-

यह अकीक पत्थर के समान होता है।

  • माक्षिक-

यह सोना मक्खी के रंग का पत्थर है।

  • माणिक्य-

यह गुलाबी तथा सुर्ख लाल रंग का होता है तथा काले रंग का भी पाया जाता है। गुलाबी रंग का माणिक्य श्रेष्ठ माना गया है।

  • मूवेनजफ-

यह सफेद रंग का काली धारी से युक्त पत्थर होता है। यह फर्श बनाने के काम आता है।

  • मूँगा-

यह लाल, सिंदूर वर्ण तथा गुलाबी रंग का होता है। यह सफेद व कृष्ण वर्ण में भी प्राप्य है। इसका प्राप्ति स्थान समुद्र है। इसका दूसरा नाम प्रवाल भी है।

  • मोती-

यह सफेद, काला, पीला, लाल तथा आसमानी व अनेक रंगों में पाया जाता है। यह समुद्र से सीपों से प्राप्त किया जाता है।

  • रक्तमणि-

यह पत्थर लाल, जामुनी रंग का सुर्ख में कत्थे तथा गोमेद के रंग का पाया जाता है, इसे 'तामड़ा' भी कहा जाता है।

  • रक्ताश्म-

यह पत्थर गुम, कठोर, मलिन, पीला तथा नीले रंग लिए, हरे रंग का तथा ऊपर लाल रंग का छींटा भी होता है।

  • रातरतुआ-

यह स्वच्छ लाल तथा गेरुआ रंग का होता है। यह रात्रि ज्वर को दूर करता है। हीरा यह सफेद, नीला, पीला, गुलाबी, काला, लाल आदि अनेक रंगों में होता है। सफेद हीरा सर्वोत्तम है तथा हीरा सभी प्रकार के रत्नों में श्रेष्ठ है।


  • लहसुनिया-

यह बिल्ली के आँख के समान चमकदार होता है। इसमें पीले, काले तथा सफेद रंग की झाईं भी होती है। इसका दूसरा नाम वैदूर्य है।

  • लालड़ी-

यह रत्न रक्त रंग का, पारदर्शक कांतिपूर्ण, लाल रंग तथा कृष्णाभायुक्त होता है, इसे सूर्यमणि भी कहते हैं।

  • लास-

यह मकराने की जाति का पत्थर है।

  • लूधिया-

यह गुम तथा हरे रंग का होता है। इसका उपयोग खरल बनाने में किया जाता है।

  • शेष मणि-

यह काले डोरे से युक्त सफेद रंग का होता है। सफेद रंग के डोरे से युक्त काले रंग के पत्थर को सुलेमानी कहा जाता है।

  • शैलमणि-

यह पत्थर मृदु, स्वच्छ, सफेद तथा पारदर्शक होता है, इसे स्फटिक तथा बिल्लौर भी कहते हैं।

  • शोभामणि-

यह पत्थर स्वच्छ पारदर्शक तथा अनेक रंगों में पाया जाता है। इसे वैक्रान्त भी कहते हैं।

  • संगिया-

यह चाक से मिलता-जुलता मुलायम पत्थर होता है।

  • संगेहदीद-

यह भारी भूरापन लिए स्याही के रंग का होता है। इसका औषधि में प्रयोग होता है।

  • संगेसिमाक-

यह गुम सख्त तथा मलिनता लिए लाल रंग का होता है, जिस पर सफेद रंग के छींटे होते हैं। इसका उपयोग खरल बनाने तथा नीलम व माणिक्य को पीसने के काम आता है।

  • संगमूसा-

यह काले रंग का पत्थर होता है। इसका उपयोग प्याले व तश्तरी बनाने में होता है।

  • संगमरमर-

यह पत्थर सफेद, काले तथा अन्य कई रंगों में होता है। इसका उपयोग मूर्तियों तथा मकान बनाने के काम में किया जाता है।

  • संगसितारा-

यह कषाय रंग का पत्थर है। इसमें सोने के समान छींटे चमकते दिखाई देते हैं।

  • सिफरी-

यह अपारदर्शी, हरापन लिए आसमानी रंग का होता है। यह औषधि के काम में आता है।

  • सिन्दूरिया-

यह गुलाबी रंग का पानीदार चमकदार व मृदु पत्थर होता है।

  • सींगली-

यह गुम स्याही तथा रक्त मिश्रित माणिक्य जाति का पत्थर होता है। इसके अंदर छह कलाओं से युक्त सितारे होते हैं।

  • सीजरी-

यह अकीक के समान विविध रंगों में फूल-पत्तीदार व दाग डालने वाला पत्थर होता है।

  • सुनहला-

यह पीले रंग का नरम तथा पूर्ण पारदर्शक होता है।

  • हकीक-

यह पत्थर पीले, काले, सफेद, लाल तथा अनके रंगों में पाया जाता है। यह अपारदर्शी होता है।


  • सूर्यकान्त-

इसका रंग चमकदार श्वेत रंग का होता है।

  • सुरमा-

यह काले रंग का पत्थर होता है तथा इसका उपयोग नेत्रांजन बनाने में होता है।

  • सेलखड़ी-

यह सफेद रंग का मृदु पत्थर होता है, इसका उपयोग क्रीम, पावडर आदि बनाने के काम में किया जाता है।

  • स्फटिक-

यह मृदु सफेद रंग का पारदर्शी व चमकदार होता है। इसे फिटकरी भी कहा जाता है।

  • सोनामक्खी-

इसे स्वर्ण माक्षिक भी कहते हैं। यह कंकड़ के समान पीत वर्ण का होता है। इसका उपयोग औषधि में करते हैं।

  • हजरते बेर-

यह औषधि में उपयोग होने वाला मटमैला बेर के समान होता है।

  • हजरते ऊद- यह पत्थर गुलाबी रंग का लचकदार तथा खुरदरा होता है।
  • हरितोपल- यह हरे रंग का चमकदार पत्थर होता है।
  • हकीक- यह पत्थर पीले, काले, सफेद, लाल तथा अनेक रंगों में पाया जाता है। यह अपारदर्शी होता है।
  • हरितमणि- यह चिकना, कठोर, अपारदर्शी तथा सफेद काले अंगूरी व गुलाबी रंग का होता है।
  • हीरा- यह सफेद, नीला, पीला, गुलाबी, काला, लाल आदि अनेक रंगों में होता है। सफेद हीरा सर्वोत्तम है तथा हीरा सभी प्रकार के रत्नों में श्रेष्ठ है।

रत्नों के प्राप्ति स्थान[संपादित करें]

रत्न भी पत्थर ही होते हैं। अतः रत्न पुरानी व कठोर पत्थरों की चट्टानों में प्राप्त होते हैं। इसी कारण ये विशेषकर पर्वतीय प्रदेशों में पाए जाते हैं। कभी-कभी वर्षा ऋतु में पानी की तेज धारा से पत्थर टूट-टूट कर नदी नालों में लुढ़कते चले जाते हैं।

जलधारा की गति कम होने पर बड़े-बड़े पत्थर तो रुक जाते हैं, परन्तु हल्के पत्थर बहते जाते हैं। इन्हीं पत्थरों में चिपके रत्नों वाले पत्थर कंकड़ों व रेत में बिखर जाते हैं। इस तरह प्राप्त रत्न उच्च कोटि का होता है, कारण कि इन्हें टूटने-फूटने का भय नहीं होता है तथा इस पर चिपके अन्य पदार्थ पानी के प्रवाह में अलग हो जाते हैं।

इस प्रकार के रत्न अफ्रीका महाद्वीप में बेलजियम, कांगो, घाना, दक्षिण अफ्रीका, सिएरा लियोन में पाए जाते हैं तथा अफ्रीका के अतिरिक्त ब्राजील (दक्षिण अमेरिका) स्याम, बर्मा, भारत, श्रीलंका, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, रूस आदि में पाए जाते हैं।

रत्नों की श्रेष्ठता[संपादित करें]

रत्नों की श्रेष्ठता प्रमाणित करने में उसके मुख्यतया तीन गुण हैं- रत्नों की अद्भुत सौंदर्यता, रत्नों की दुर्लभता, रत्नों का स्थायित्व।

मनुष्य विकसित होने के साथ-साथ रत्नों की तरफ भी अधिक आकर्षित हो गया है। अतः रत्नों को विभाजित करते समय विशेष रूप से तीन बातों का ध्यान देते हैं कि प्राप्त रत्न निम्न तीन में से किस प्रकार का है? पारदर्शक है, अल्प पारदर्शक है अथवा अपारदर्शक है।

पारदर्शक रत्न सर्वोत्तम श्रेणी में आता है। यह भी दो प्रकार का होता है-

रंगविहीन-

जिस रत्न में रंग बिल्कुल ही न हो।

रंगहीन-

जिसमें रंग तो हो, परन्तु हीन दशा में हो अर्थात्‌ रंग न अधिक गहरा हो और न अधिक हल्का तथा पारदर्शक हो, वह श्रेष्ठ होता है।

अधिक गहरा रंग होने के कारण रत्न अपारदर्शक हो जाता है। अपारदर्शक रत्नों में फीरोजा का उच्च स्थान है, तो वैसे नीलम, पुखराज तथा पन्ना भी अपने विशिष्ट रंगों के कारण मनुष्य को अपनी तरफ मोहित करते हैं।

रत्नों की दुर्लभता भी मनुष्य को उसकी तरफ आकर्षित होने का एक प्रमुख कारण है। ठीक उसी तरह जैसे कि आपके सामने से कोई सुंदर आकर्षक नवयौवना आ रही हो उसे एक बार देखने के पश्चात आपके हृदय में बार-बार उसे देखने की लालसा नहीं उठती, क्योंकि उसके चेहरे पर उसके तन पर किसी प्रकार का परदा नहीं है।

आपको देखने में कोई रोक टोक नहीं है तथा ठीक इसके विपरीत कोई महिला काली कलूटी व बदसूरत हो, परन्तु वह एक लम्बा घूँघट निकाले हुए तथा अपने शरीर को लम्बी चादर से ढँके हुए आ रही हो तो आप बार-बार उसके मुख मंडल के सौंदर्य का रसपान करना चाहते हैं। यहाँ तक कि दूर चले जाने पर भी आप बार-बार मुड़कर देखते हैं कि जरा सी भी उसकी झलक दिखाई दे जाए। ऐसा क्यों? इसलिए कि उसका मुख मंडल, शरीर सौष्ठव आपको देख पाना कठिन है, इसलिए उसकी तरफ लालायित हैं।

जिन रत्नों में स्थायित्व है तथा उनकी चमक व गुणों पर ऋतुओं व अम्ल आदि के द्वारा कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता वह रत्न अधिक मूल्यवान होता है। हर व्यक्ति के पास इसे खरीदने की क्षमता नहीं होती या अधिक मूल्यवान होने के कारण हर तीसरे-चौथे वर्ष उसे खरीद सकना सम्भव नहीं है। अतः रत्नों की कठोरता होना जिससे कि उसे किसी प्रकार का खरोंच या रगड़ने का दाग न पड़े श्रेष्ठ होता है। जैसे-हीरा, पन्ना, पुखराज आदि। रत्नों के विषय में अग्नि पुराण, गरुड़ पुराण, देवी भागवत, महाभारत, विष्णु धर्मोत्तर आदि अनेकों प्राचीन ग्रंथों में वर्णन मिलता है।

बाहरी कड़ियां[संपादित करें]