रघुनाथ मुर्मू

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पंडित
रघुनाथ मुर्मू
ओडिशा ट्राइबल डेवलपमेंट सोसाइटी (ओटीडीएस), भुवनेश्वर कार्यालय में मुर्मू की पत्थर की मूर्ति
जन्मचुनु मुर्मू
05 मई 1905
मयूरभंज, उड़ीसा, भारत
मौत1 फ़रवरी 1982(1982-02-01) (उम्र 76)
पेशाविचारक, नाटककार और लेखक
राष्ट्रीयताभारतीय
विषयओलचिकी लिपि

पंडित रघुनाथ मुर्मू ओल चिकी लिपि के विकासक उड़ीसा के मयूरभंज जिले में पूर्णिमा के दिन (दहार्दिह) डांडबुस नामक एक गांव में उनका जन्म हुआ था।[1][2]

उन्नीसवीं शताब्दी तक, संथाल लोगों के पास कोई लिखित भाषा नहीं थी और ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से प्रसारित होता था। बाद में यूरोपीय शोधकर्ताओं और ईसाई मिशनरियों ने संथाली भाषा का दस्तावेजीकरण करने के लिए बंगाली, ओडिया और रोमन लिपियों का उपयोग करना शुरू कर दिया।[3] हालाँकि, संथालियों के पास अपनी लिपि नहीं थी। ओलचिकी लिपि के उनके विकास ने संथाली समाज की सांस्कृतिक पहचान को समृद्ध किया। उन्होंने ओल चिकी लिपि में कई गीत, नाटक और पाठ्य पुस्तकें लिखीं।[4]

जीवनी[संपादित करें]

रघुनाथ मुर्मू का जन्म 1905 को बैसाखी पूर्णिमा (बुद्ध पूर्णिमा) के दिन भारत के ओडिशा राज्य के मयूरभंज राज्य (अब रायरंगपुर शहर के पास) के दंडबोस (दहरडीह) गाँव में हुआ था। वह नंदलाल मुर्मू और सलमा मुर्मू के पुत्र हैं। उनके पिता, नंदलाल मुर्मू, एक ग्राम प्रधान थे और उनके मामा मयूरभंज राज्य के राजा प्रताप चंद्र भंजदेव के दरबार में मुंशी थे। संथाल लोगों के पारंपरिक सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार, जन्म के बाद उनका नाम चुनु मुर्मू रखा गया था। हालांकि, बाद में उनका नाम चुनु मुर्मू से बदलकर रघुनाथ मुर्मू कर दिया।

1924 में उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की । इसी साल उसने जमजोड़ा गांव की रहने वाली नेहा बस्के से शादी कर ली।

उल्लेखनीय कार्य[संपादित करें]

तकनीकी पेशे में एक संक्षिप्त कार्यकाल के बाद, उन्होंने बोडोतोलिया हाई स्कूल में अध्यापन का काम संभाला। इस दौरान, उनकी रुचि संथाली साहित्य में हुई। संताली एक विशेष भाषा है, और एक साहित्य है जिसकी शुरुआत  15 वीं शताब्दी  प्रारंभ में हुई। उन्होंने महसूस किया कि उनके समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और परंपरा के साथ ही उनकी भाषा को बनाए रखने और बढ़ावा देने के लिए एक अलग लिपि की जरूरत है, और इसलिए उन्होंने संताली लिखने के लिए ओल चिकी लिपि की विकास के काम को उठाया और 1925 में उन्होंने ओल चिकी लिपि का विकास किया। तदोपरांत संताली भाषा का उपयोग करते हुए उन्होंने 150 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जैसे कि व्याकरण, उपन्यास, नाटक, कविता और संताली में विषयों की एक विस्तृत श्रेणी को कवर किया, जिसमें संताली समाज को सांस्कृतिक रूप से उन्नयन के लिए अपने व्यापक कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में ओल चिकी का उपयोग किया गया। "दाड़े गे धोन", "सिद्धु-कान्हू", "बिदु चंदन" और "खेरवाड़ बीर" उनके कामों में से सबसे प्रशंसित हैं। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा सरकार के अलावा, उड़ीसा साहित्य अकादमी सहित कई अन्य संगठनों / संगठनों ने उन्हें विभिन्न तरीकों से सम्मानित किया है और रांची विश्वविद्यालय द्वारा माननीय डी लिट से उन्हें सम्मानित किया है। महान विचारक, दार्शनिक, लेखक, और नाटककार ने 1 फरवरी 1982 को अपनी अंतिम सांस ली।

जब रघुनाथ मुर्मू ने 'ओलचिकी लिपि' का विकास किया और उसी में अपने नाटकों की रचना की, तब से आज तक वे एक बड़े सांस्कृतिक नेता और संताली के सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के प्रतीक रहे हैं। उन्होंने 1977 में झाड़ग्राम के बेताकुन्दरीडाही ग्राम में एक संताली विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया था। मयूरभंज आदिवासी महासभा ने उन्हें गुरु गोमके (महान शिक्षक) की उपाधि प्रदान की। रांची के धुमकुरिया ने आदिवासी साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें डी. लिट्. प्रदान किया, जुलियस तिग्गा ने उन्हें महान अविष्कारक एवं नाटककार कहा और जयपाल सिंह मुण्डा ने उन्हें भाषा वैज्ञानिक कहा। चारूलाल मुखर्जी ने उन्हें संतालियों के धर्मिक नेता कह कर संबोधित किया तथा प्रो. मार्टिन उराँव ने अपनी पुस्तक ‘दी संताल - ए ट्राईब इन सर्च ऑफ दी ग्रेट ट्रेडिशन’ में ऑलचिकी की प्रशंसा करते हुए उन्हें संतालियों का महान गुरु कह कर संबोधित किया। गुरु गोमके ने भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक एकता के लिए लिपि के द्वारा जो आंदोलन चलाया वह ऐतिहासिक है। उन्होंने कहा - "अगर आप अपनी भाषा - संस्कृती , लिपि और धर्म भूल जायेंगे तो आपका अस्तित्व भी ख़त्म हो जाएगा ! "

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Nayak, Dr. Rajkishore (10 May 2017). "ପ୍ରଣମ୍ୟ ପୁରୁଷ: ପଣ୍ଡିତ ରଘୁନାଥ ମୁର୍ମୁ". Suryaprava. मूल से 2017-06-27 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 May 2017.
  2. "Pandit Raghunath Murmu". मूल से 2016-01-15 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 November 2015.
  3. Hembram, Phatik Chandra (2002). Santhali, a Natural Language (अंग्रेज़ी में). U. Hembram.
  4. Pathy, Jaganath (1988). Ethnic Minorities in the Process of Development (अंग्रेज़ी में). Rawat Publications. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7033-055-4.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]