भोजप्रबन्ध

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भोजप्रबन्ध, संस्कृत लोकसाहित्य का एक श्रेष्ठ ग्रन्थ है। इसमें महाराज धारेश्वर भोज की राजसभा के कई सुन्दर कथानक है। यह बल्लाल सेन की कृति मानी जाती है और इसका रचनाकाल १६वीं शताब्दी। इसकी रचना गद्य-पद्यात्मक कथोपकथन के रूप में है। इस प्रकार के संकलन की प्रवृत्ति जैन साहित्य में प्राप्त मेरुतुङ्ग-रचित 'प्रबन्धचिन्तामणि' तथा राजशेखर सूरि कृत 'प्रबन्धकोश' के रूप में है।[1]

यद्यपि इन कथानकों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता पूर्ण रूप से स्वीकृत नहीं की जा सकती, तथापि यह ग्रंथ ११वीं शताब्दी ईसवी में वर्तमान जनजीवन पर प्रकाश डालने में बहुत कुछ समर्थ है। विद्याव्यासंगी स्वयं कविपंडित नरेश के होने पर किस प्रकार राजसभा में आस्थान पंडितों की मंडली तथा आगंतुक कविगण नित्य काव्यशास्त्र के विनोद द्वारा कालक्षेप करते थे, इसकी झाँकी इस ग्रंथ में प्रति पद पर मिलती है। दानवीर महाराज भोज किस प्रकार कवियों का सम्मान करते थे, इसका आदर्श इस ग्रंथ में मिलता है।

कई पाश्चात्य मनीषियों ने भारतीय ऐतिहासिक तत्वों की खोज में भोजप्रबन्ध का अध्ययन कर तत्संबंधी अपने विचारों का प्रकाशन अनेक लेखों द्वारा किया है।

परिचय

उस समय संस्कृत न केवल राजभाषा ही थी अपितु उसे जनभाषा का भी गौरव प्राप्त था। भोजनगरी में ऐसा एक भी गृहस्थ न था जो संस्कृत में कविता रचने में असमर्थ हो। उस समय का भारवाहक भी व्याकरण के अशुद्ध प्रयोग पर आपत्ति उठाने में समर्थ था, कुम्भकार तथा रजक, बाल, वृद्ध एवं स्त्रियाँ भी काव्यकला से अनभिज्ञ न थी। भोजप्रबंध में प्रबंध की अवतरणिका के अतिरिक्त 85 रोचक कथाएँ हैं और उन सबमें महाराज भोज से संबंधित किसी न किसी घटना का मनोरम वर्णन है।

भोजप्रबन्ध के पद्य प्रायः सुभाषित हैं, भाषा सरल परन्तु काव्यशैली से अनुप्राणित है। काव्यनिर्माण की रीति सर्वत्र वैदर्भी है तथा काव्यप्रबंध प्रसाद गुण से ओतप्रोत है। गद्य प्रायेण चूर्णक के रूप में हैं, छोटे वाक्य हैं, व्याकरण के दुरूह प्रयोगों का सर्वथा अभाव है। दीर्ध समास तो क्वचित् ही दृष्टिगोचर होते हैं। यह ग्रंथ अलंकार तथा काव्यगत चमत्कार से परिपूर्ण है। इसमें सुन्दर उपमाएँ, उत्प्रेक्षा, रूपक, दृष्टान्त आदि अलंकारों के मध्य कहीं कहीं अक्लिष्ट श्लेष का प्रयोग अत्यंत हृदयंगम है। उदाहरणार्थ- किसी समय हेमंतकाल में महाराज भोज अँगीठी ताप रहे थे, उनके निकट कवि कालिदास विराजमान थे। कौतुकवश राजा ने कवि से अँगीठी (जिसे संस्कृत में 'हसन्ती' कहते हैं) का वर्णन करने को कहा। कविवर तुरन्त ही एक आर्या प्रस्तुत करते हैं:

कविमतिरिव बहुलोहा सुघरितचक्रा प्रभातवेलेव।
हरमूर्त्तिरिव हसन्ती भाति विधूमानलोपेता॥
(पक्के लोहे से बनी हुई यह हसन्ती बहुल ऊहों (कल्पनाओं) से सुशोभित कवि की प्रतिभा के समान है; चक्रवाक पक्षी का प्रिया से मिलन करानेवाली प्रभात वेला की भाँति यह सुन्दर चक्राकार से मंडित हैं तथा धूम रहित अग्नि से भरी हुई यह चन्द्र, उमा और अग्नि से संयुक्त की भँति सुशोभित है।)

यह पद्य श्लिष्ट मालोपमा का रमणीय उदाहरण है तथा कविप्रतिभा का भी उज्ज्वल निदर्शन है। ऐसे अनेक प्रसंगों पर कविगण द्वारा प्रस्तुत सुन्दर सुभाशित का भोजप्रबन्ध एक सुन्दर भांडार है।

रचयिता

भोजप्रबंध, बल्लाल की कृति है। बल्लाल के संबंध में प्रामाणिक जानकारी नहीं है। इतना ही पता चलता है कि बल्लाल दैवज्ञ अथवा बल्लाल मिश्र नामक एक काशीनिवासी विद्वान् था। उसके पिता का नाम त्रिमल्ल था। भोजप्रबंध के अंत:साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि बल्लाल का समय कहीं ई॰ 16वीं शताब्दी होगा।

भोजप्रबन्ध के नाम से बल्लाल के अतिरिक्त अन्य कवियों द्वारा प्रणीत कृतियाँ भी हैं। कहा जाता है कि आचार्य मेरुतुंग ने भी एक भोजप्रबंध लिखा था जो आज उपलब्ध नहीं है। इतना अवश्य है कि मेरुतुंग के "प्रबंध चिंतामणि" में भोज कथाएँ हैं। इसी तरह कवि पद्यगुप्त, वत्सराज, शुभशील एवं राजवल्लभ द्वारा प्रणीत भोजप्रबंध का उल्लेख ऑफ्रेक्ट ने किया है। परंतु ये कृतियाँ अब तक अप्रकाशित हैं।

बल्लालकृत भोजप्रबंध के दो पाठ उपलब्ध होते हैं- गौड़ीय पाठ जो कलकत्ता से प्रकाशित है तथा अधिक प्रचलित है, दूसरा दाक्षिणात्य पाठ जिसका प्रचार दक्षिण के राज्यों में है। भोजप्रबंध पर जीवानन्द विद्यासागर कृत सुबोध टीका मिलती है। यह मूल ग्रंथ निर्णयसागर प्रेस, बंबई से भी प्रकाशित हुआ है। भोजप्रबंध का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, अंग्रेजी में इसका अनुवाद लुई ग्रे द्वारा विरचित अमेरिकन ओरिएंटल सोसाइटी (ग्रंथसंख्या 34) से प्रकाशित हुआ है।

विषयवस्तु एवं कथानक

भोजप्रबन्ध के प्रमुख विषय निम्नलिखित हैं-

१. भोजस्य राज्य प्राप्तिः (भोज द्वारा राज्य की प्राप्ति)

२. गोविन्द पण्डित भोजराजेन च विदुषां सम्मानम् (गोविन्द पण्डित और भोजराज द्वारा विद्वानों का सम्मान)

३. राजसभायां कालिदासस्य आगमनम् (राज्यसभा में कालिदास का आगमन)

४. कालिदासेन भोजः प्रशंसितः (कालिदास द्वारा भोज की प्रशंसा)

५. सभायां श्रुतिपारङ्गता विद्वांसः

६. कविर्लक्ष्मीधरः कुविन्दश्च

७. रात्रौ राज्ञो नगर भ्रमणम्

८. क्रीडाचन्द्रः

९. रामेश्वर कवेरन्यकवीनां च सत्कारः

१०. कालिदासस्य कलङ्कनिवारणम्

११. विदुषां सत्कारः कतिपय कथाः

१२. भोजस्य विक्रमादित्यसमं दानम्

१३. भोजस्य काव्यानुरागः कतिपय कथाः

१४. विष्णु कविः

१५. समाप्तेपिकोषे राज्ञा दानम्

१६. प्रभूतदानस्य कतिपयकथाः

१७. भोजस्य दर्पभङ्गः

१८. विपुलदानस्य कतिपयकथाः

१९. कालिदासभवभूत्योः स्पर्धा

२०. दानस्य कतिपय कथाः

२१. देवजय हरिशर्मयोः स्पर्धा

२२. विदुषां काशिगमनन्

२३. शोकतृप्तो राजा

२४. काव्य क्रीडा

२५. अदृष्ट परहृदय-बोद्धा कालिदासः

२६. अदृष्टबोधस्य अन्याः कथाः

२७. ब्रह्मराक्षस निवारणम्

२८. मल्लिनाथस्य दारिद्र्यनिवारणम्

२९. राज्ञः सर्वस्वदानन्

३०. तक्रविक्रेत्री युवती

३१. विलक्षण समस्या-पूर्त्तिः

३२. चौरो भुक्कुड़ः कविः

३३. कविसत्कार

३४. रोगी राजा

३५. गावासभायाः पीठिका

३६. राज्ञश्चरमगीतिः

भोज को राज्यप्राप्ति

बिल्लाल सेन द्वारा रचित भोजप्रबन्ध का आरम्भ इस प्रकार होता है-

मंगल हो ! श्री महाराजाधिराज भोजराज की कथा कह रहे हैं (स्वस्ति श्रीमहाराजाधिराजस्य भोजराजस्य प्रवन्धः कथ्यते)- प्राचीन काल में सिन्धुल नामक राजा बहुत समय तक प्रजा का परिपालन करता रहा। उसके बुढ़ापे में भोज नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वह जब पाँच वर्ष का था तब पिता ने अपना बुढ़ापा समझ मुख्य मंत्रियों को बुलाया और अपने छोटे भाई मुंज को महाबली और पुत्र को बालक देख कर विचार करने लगा।
यदि मैं राज्यलक्ष्मी का भार उठाने में समर्थ सगे भाई को छोड़कर पुत्र को राज्य दूँ तो लोकनिन्दा होगी। अथवा मेरे अबोध बालक पुत्र को राज्य लोभ से मुंज विष आदि द्वारा यदि मरवा देगा तो दिया हुआ राज्य भी व्यर्थ हो जायेगा। पुत्र की हानि होगी और वंश का विनाश भी हो जायगा। लोभ पाप का मूल है और लोभ ही पाप का जनक है। द्वेष, क्रोध आदि को उत्पन्न करनेवाला लोभ पाप का कारण होता है। लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से द्रोह का प्रवर्तन होता है। शास्त्रों का ज्ञाता विद्वान् भी द्रोह के कारण नरकगामी बनता है। लोभ से आविष्ट मनुष्य माता-पिता, पुत्र, भाई, घनिष्ठ मित्र, स्वामी और सगे भाई की भी हत्या कर डालता है।
ऐसा विचार करके उसने राज्य मुंज को दे दिया और भोज को उसकी छत्रच्छाया में छोड़ दिया। कुछ दिनों वाद (सिंधुल) राजा के दिवंगत होने पर राज्य-सम्पदा प्राप्त करके मुज ने बुद्धिसागर नामक मुख्य मंत्री को मंत्रिपद से हटा दिया और उसके स्थान पर अन्य की नियुक्त कर दी। राजकुमार ( भोज ) को गुरुजनों से शिक्षा दिलाने लगा।
कुछ दिनों पश्चात् राजसभा में ज्योतिष शास्त्र में पारंगत, समस्त विद्याओं के कौशल से सम्पन्न एक ब्राह्मण आया और राजा के प्रति कल्याण-वचन कहके बैठ गया तथा राजा से वोला- 'देव, यह संसार मुझे सर्वज्ञ कहता है, सो आप भी इच्छानुसार कुछ पूछिए। ब्राह्यण की अहंकार युक्त मुद्रा से चमत्कारमयी उस वाणी को सुनकर राजा ने भी कहा-"जन्म से लेकर इस क्षण तक जो-जो आचरण और जो-जो कार्य मेरे द्वारा हुए हैं, वे सब यदि आप बता देंगे तो मैं भी आपको सर्वज्ञ समझूँगा।" तब राजा ने जो-जो किया था, वह सब -यहाँ तक कि गुप्त रूप से किया कार्य भी ब्राह्मण ने बता दिया। राजा भी समस्त श्रेय बातों को जान कर संतुष्ट हुआ और फिर पाँच-छः डग आगे बढ़ ब्राह्मण के चरणों में प्रणिपात करके नीलम, पुखराज, पन्ना और वैदूर्य मणियों से जड़े सिंहासन पर ब्राह्मण को वैठाया और उसे दस उत्तम जाति के घोड़े दिये।
तदनन्तर सभा में बैठा मंत्री बुद्धिसागर राजा से बोला-'देव, भोज की जन्मपत्रिका ब्राह्मण से विचरवाइए।' तब मुंज ने कहा-'भोज की जन्मपत्री विचारिए।' तब ब्राह्मण बोला-'पाठशाला से भोज को बुलवाइए।' कौतुक के कारण मुंज ने भी पाठशाला में सुशोभित भोज को भटों द्वारा बुलवा लिया। साक्षात् पिता के समान राजा को प्रणाम करके विनय पूर्वकभोज बैठ गया।
भोज को देख कर ज्योतिषी ने राजा से कहा, 'राजन् भोज के भाग्य का वर्णन तो ब्रह्मा भी करने में पर्याप्त नहीं है, मैं पेटपालू ब्राह्मण किस गिनती में हूँ? तो भी अपनी बुद्धि के अनुसार कुछ कहता हूँ। आप भोज को यहाँ से विद्यालय भेज दीजिए।' तत्पश्चात् राजा की आज्ञा से भोज के विद्यालय चले जाने पर ब्राह्मण ने कहा- 'पचपन वर्ष, सात मास और तीन दिन राजा भोज बंगाल सहित दक्षिणा पथ का राज्य भोगेंगे।'
यह सुन कर चतुरतापूर्वक विरूपता से हँसता हुआ सुमुख भी राजा मलिनमुख हो गया। इसके उपरान्त ब्राह्मण को भेजकर राजा रात में शैय्या पर वैठकर अकेला विचार करने लगा-"यदि राजलक्ष्मी राजकुमार भोज को मिल जायेगी तो मैं तो जीते जी मरा। किन्तु शरीर की चिंता न करनेवाले, चतुर, अध्यवसायी और बुद्धि से कार्य करनेवाले मनुष्य के लिए कुछ भी कर डालना कठिन नहीं है। उद्यम करने पर कठिन क्या है?
फिर इसी प्रकार सोचते हुए विना कुछ खाये-पिये राजा ने अकेले ही मंत्रणा करके दिन के तीसरे पहर में बंगदेश के अधीश्वर महाबली वत्सराज को बुलाने के लिए अपने अंगरक्षक को भेजा। राजा महल को निर्जन करा के वत्सराज से बोला- "तुम भोज को रात के पहिले पहर में भुवनेश्वरी वन में मार डालो और उसका सिर अंतःपुर में ले आओ।"
वत्सराज ने खड़े होकर राजा के सम्मुख विनत होकर कहा- 'महाराज की आज्ञा शिरोधार्य है, तो भी आपके लाड़-प्यार के आधार पर कुछ निवेदन करने की इच्छा करता हूँ। सो अपराध युक्त होने पर भी मेरे निवेदन को क्षमा करें। भोज के पास न धन है, न सेना है, न बलयुक्त परिवार है। वह तो आपका विलकुल बालक जैसा है। सो हे स्वामी, उसका मारा जाना क्यों उचित है? वह तो अशक्त जैसा है और आपके चरणों में आसक्त रह कर अपना पेट पालता है । सो हे नृपश्रेष्ठ, उसके वध में कोई कारण तो नहीं दीखता।" तब राजाने प्रातःकाल सभा में घटित सर्व वृत्तान्तों को कह सुनाया। सुन कर हँसता हुआ वत्सराज कहने लगा- "राम तीनों लोकों के राजा थे और वसिष्ठ ब्रह्मपुत्र। उन्होंने राम राज्याभिषेक के अवसर पर मुहूर्त तो बताया ही था। उस मुहूर्त-शोधन के फलस्वरूप राम तो अपनी धरती से रहित हो वन पहुंचे, सीता का अपहरण हुआ और विरंचि ( ब्रह्मा ) के पुत्र का वचन व्यर्थ हुआ। हे राजश्रेष्ठ, यह कौन न कुछ जाननेवाला, पेटपालू उत्पन्न हो गया, जिसके कहने से कामदेव के समान कुमार को आप मार डालना चाहते हैं?" इसके अलावा, भोज के मारे जाने पर बूढ़े राजा सिंधुल के अत्यन्त प्रेमपात्र वे महान् वीरगण, जो इस समय आपके आज्ञापालक हैं, आपके नगर का नाश कर देंगे। वहुत समय से आपकी जड़ जम जाने पर भी नगरवासियों का अधिकांश भोज को ही राजा मानता है।
वत्सराज के इन वचनों को सुनकर क्रुद्ध होकर राजा बोला- तू राज्य का स्वामी ही है, सेवक नहीं। 'समय के अनुसार ही कार्य करना चाहिए,' यह विचार कर वत्सराज चुप हो गया। इसके उपरान्त सूर्यास्त होने के बाद अपने रथ को भुवनेश्ववरी के मंदिर की ओर करके कुमार भोज के उपाध्याय को बुलाने के निमित्त एक सेवक को वत्सराज ने भेजा। वत्सराज ने उपाध्याय से पहले राजकुमार जयन्त को पाठशाला से ले आने को कहा। आये कुमार जयन्त से उसने कुछ पढ़ा-लिखा पूछ कर उसे वापस भेज दिया। फिर उपाध्याय से भोजकुमार को लाने के लिए कहा। क्रोध से जलता हुआ, लाल-लाल आंख किये भोज आकर वोला-'अरे पापी, मुझ राज के मुख्य कुमार को अकेले राजभवन से बाहर ले जाने की तेरी क्या शक्ति है?' ऐसा कह बायें पैर से खड़ाऊं निकाल कर भोज ने वत्सराज के तालुभाग पर प्रहार किया। तब वत्सराज ने कहा- भोज ! हम तो राजाज्ञा के पालक हैं।' ऐसा कह भोज को रथ में बैठा कर तलवार म्यान से बाहर निकाले शीघ्रतापूर्वक महामाया के मंदिर की ओर चल पड़ा।
तदनन्तर भोज के पकड़ कर ले जाये जाने पर लोग कोलाहल करने लगे। हुङ्कार होने लगा। 'क्या हुआ, क्या हुआ' ऐसा कहते चिल्लाते हुए योद्धाओं ने आकर, अकस्मात् भोज को वध के निमित्त ले जाया गया जानकर, हस्तिशाला, उप्ट्रशाला, अश्वशाला, रथशाला में घुस कर सब को मार डाला। तत्पश्चात् गलियों में, राजमहल के प्राचीर की वेदियों पर, बाहरी द्वारों के चबूतरों पर, नगर के निकट स्थानों पर नगाड़ों, ढोलकियों, मृदङ्गों, डोलों और दौड़ियों के तीव्र घोप से आकाश गूंज उठा। ब्राह्मणों की स्त्रियों, राजपुत्रों, राजसेवकों, राजाओं और पुरजनों ने कुछ ने चमकती तलवार से, कुछ ने विष के द्वारा, कुछ ने भाले से, कुछ ने रस्सी में फांसी लगा, कुछ ने आग में जल, कुछ ने फरसे द्वारा, कुछ ने वरछी से, कुछ ने तोमर द्वारा, कुछ ने खाँड़े से, कुछ ने कुएँ और कुछ ने नदी में डूवकर-प्राणों का त्याग कर दिया।
तदनन्तर संसार की माता के समान स्थित सावित्री नाम की भोज की माता दासी के मुख से अपने पुत्र की दशा सुनकर हाथों से नेत्रों को ढक कर रोती हुई कहने लगी-'पुत्र, चाचा ने तुम्हें किस दशा को पहुंचा दिया?तुम्हारे निमित्त जो नियम और उपवास मैंने किये, वे सब निष्फल हो गये। दसों दिशामुख सूने हैं। पुत्र, सब जानने वाले, सर्वशक्तिमान ईश्वर ने सब संपत्ति नष्ट कर दी। बेटे 'सहसा सिर कटे हुए इस दासियों के समूह को देखो', - ऐसा कह कर वह धरती पर गिर पड़ी।
महामाया के मंदिर में पहुंच कर वत्सराज भोज से बोला-'कुमार, सेवकों के देवता, ज्योतिप विद्या में निपुण किसी ब्राह्मण के द्वारा आपकी राज्य-प्राप्ति की घोषणा की जाने पर राजा ने आपके वध की आज्ञा दी है।'
भोज ने कहा- "राम का देश से निर्वासन, बलि का बन्धन, पाण्डपुत्रों का वनवास, यादवों की मृत्यु, राजा नल का राज्य से हट जाना, बन्दीगृह में निवास और पुनः स्वयंवर में दमयन्ती की प्राप्ति,और लंकाधीश रावण की मृत्यु आदि का विचार कर निश्चय होता है कि प्रत्येक मनुष्य काल के वश होकर नाश को प्राप्त होता है, कौन बच पाता है? पत्थर पर खिची रेखा के समान अमिट विधाता की गति का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता।
यह कहने के पश्चात् भोज ने जंघा में छुरी से काट कर रक्त निकालकर एक वट के पत्ते पर एक श्लोक लिख कर वत्स से कहा- 'महाभाग, इस पत्र को राजा को दे देना। और राजाज्ञा का पालन करो।
इसके बाद प्राण त्यागने का समय उपस्थित होने पर भोज के देदीप्यमान मुख की शोभा को देखकर वत्सराज का छोटा भाई वोला, " धर्म ही एक मित्र है, जो मरजाने पर भी अनुगमन करता है; और सब तो शरीर के विनाश के साथ ही नाश को प्राप्त हो जाता है। उस समय सहायता के निमित्त न माता ठहरती है, न पत्नी, न पुत्र, न मित्र, न कोई नातेदार, केवल धर्म ही ठहरता है। जो मनुष्य धर्म से विमुख है, वह बलवान् होने पर भी शक्तिहीन है, धनी होने पर भी निर्धन है और शास्त्रज्ञ होने पर भी मूर्ख है। जो इस लोक में ही नरक के रोग (पाप) की चिकित्सा नहीं करता, औषधिहीन स्थान (परलोक ) में पहुँच कर वह रोगी-क्या करेगा? जो बुढ़ापा, मृत्यु, भय और रोग को जानता है, वह पंडित है। वह चाहे स्वस्थ रहे, चाहे पड़ा रहे, चाहे सोता रहे, चाहे किसी के साथ हँसी करता रहे। हे भाई, तुम जाति, आयु और रूप में अपने समान व्यक्तियों को मृत्यु द्वारा अपहृत होते देखते हो और तुम को डर नहीं लगता। तो तुम्हारा हृदय तो वज्र तुल्य है।
तदनन्तर वैराग्य को प्राप्त हुए वत्सराज ने 'क्षमा करो' -ऐसा भोज से कहा और उसे प्रणाम करके रथ में बैठाया और नगर से बाहर घोर अन्धकार में बने घर में लेजाकर भूमि के नीचे बने स्थान (तहखाना) में छिपाकर रखा और भोज की रक्षा की। स्वयम् ही उसने कृत्रिम वस्तु बनाने की विद्या को जानने वाले लोगों से सुंदर कुंडलों को धारण किये, कांतिपूर्ण मुख से युक्त, वंद आँखों वाले भोज कुमार के मस्तक को बनवाया और उसका छोटा भाई उसे राजमहल में लेजाकर राजा से प्रणाम करके बोला- 'श्रीमान् ने जो आज्ञा दी थी, उसका पालन हो गया।'
तब कुमार का वध हुआ जानकर राजा ने उससे कहा- 'वत्सराज, खड्ग-प्रहार के समय उस पुत्र ने कुछ कहा?' वत्स ने वह पत्र दे दिया। राजा अपनी पत्नी के हाथ से दीपक लेकर पत्र में लिखे उन अक्षरों को बाँचने लगा-
मान्धाता च महीपतिः कृतयुगालङ्कारभूतो गतः
सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वासौ दशास्यान्तकः ।
अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते
नैकेनापि समं गता वसुमती मुञ्ज त्वया यास्यति ॥५८॥
(सतयुग का अलंकारस्वरूप धरती का स्वामी मान्धाता चला गया; जिसने महान् समुद्र पर पुल बना दिया, वह दशानन रावण का अन्त करनेवाले (राम) भी कहाँ हैं? हे धरती के मालिक, अन्य जो युधिप्ठिर आदि थे, वे भी धुलोक गये; यह वसुन्धरा (धरती) किसी के साथ न गयी; हे मुंज, तेरे साथ जायगी।)
राजा उसके अर्थ को समझकर शय्या से धरती पर गिर पड़ा। महारानी के हाथ से डुलाये जा रहे साड़ी के आँचल से उत्पन्न वायु से चैतन्य पाकर राजा ने 'देवि, मुझ पुत्र के हत्यारे का स्पर्श मत करो'-इस प्रकार विलाप करते हुए द्वारपालों को बुलवा कर कहा कि ब्राह्मणों को ले आओ। तत्पश्चात् अपनी आज्ञा से आये ब्राह्मणों को प्रणाम करके बोला कि मैंने पुत्र की हत्या की है, उसका प्रायश्चित्त ब्ताओ। ऐसा कहते उससे ब्राह्मण वोले-'राजन् , तुरन्त आग में प्रवेश करो।
तब बुद्धिसागर आकर बोला- "जैसा तू नीच राजा है, वैसा ही नीच मंत्री वत्सराज है। तुझे राज्य देकर उस सिन्धुल राजा ने भोज को तेरी गोद में स्थापित किया था और तुझ चाचा ने उसका उलटा कर दिया।"
रात में ही राजा का अग्नि प्रवेश निश्चित हो जाने पर सब सरदार और नगरवासी एकत्र हो गये। 'पुत्र की हत्या करके पाप से डरा राजा अग्नि में प्रवेश कर रहा है' - यह अफवाह सब जगह फैल गयी। तव बुद्धिसागर ने द्वारपाल को बुलाकर कहा कि 'कोई राजभवन में न घुस पाये, और यह कह कर राजा को रनिवास में प्रविष्ट कराके स्वयम् अकेला सभागृह में आ वैठा।
राजा की मृत्यु से सम्बद्ध समाचार सुनकर वत्सराज सभागृह में पहुँच कर वुद्धिसागर को प्रणाम करके धीरे से वोला- "तात, मैंने भोजराज को बचा लिया है।" बुद्धिसागर ने उसके कान में कुछ कहा । वह सुनकर वत्सराज चला गया।
उसके दो घड़ी बाद हाथी दांत के दण्ड को हाथ में लिए, सामने जटाओं का जूड़ा बाँधे, सम्पूर्ण देह पर कपूर मिली भस्म रमाये साक्षात् कामदेव के समान प्रतीत होता, स्फटिक के कुंडलों से कान अलंकृत किये, रेशमी कौपीन बांधे, चूड़ा में चंद्रधारण करनेवाले साक्षात् महादेव के समान एक कापालिक योगी सभा में आया। उसे देखकर बुद्धिसागर ने पूछा- "योगिराज, कहाँ से आना हुआ है और आपका निवासस्थान कहाँ है? कपाली योगी आपके पास कोई चमत्कारी विशेष कला अथवा कोई विशेष औषध भी है?"
योगी ने कहा, "शिव के कल्याणकारीतत्त्वार्थ को जानने वाले योगी पुरुषों का प्रत्येक देश में घर है और प्रत्येक घर में ही भिक्षा का अन्न है और सरोवर और नदी में जल हैं। देव, हमारा एक देश नहीं है। समस्त भूमण्डल में भ्रमण करते हैं। गुरु के उपदेश पर विश्वास करते हैं। सम्पूर्ण भुवनमण्डल को हथेली पर धरे आँवले के समान देखते हैं। साँप के काटे, विष से छटपटाते, रोगी, शस्त्र द्वारा कटे सिर वाले, मौत से ठंडे पड़े को हे तात, हम क्षण भर में सम्पूर्ण रोगों से रहित कर देते हैं।"
ओट में खड़ा राजा भी समस्त वृत्तान्त सुन कर सभा में आ गया और कापालिक को दण्डवत् प्रणाम करके बोला, "रुद्र के समान, परोपकार में लग्न योगिराज, मुझ महापापी द्वारा मार डाले गये पुत्र की रक्षा उसे प्राण देकर कीजिए।" कापालिक ने भी कहा-'राजन्, मत डर । तेरा पुत्र नहीं मरेगा। शिव के प्रसाद से घर आयेगा। परन्तु श्मशान भूमि में बुद्धिसागर के साथ होम की सामग्री भेज।' राजा ने यह कह कर बुद्धिसागर को भेज दिया कि कापालिक ने जो कहा है, वैसा ही सब करो।

तदनन्तर रात में गुप्त रूप से भोज भी नदी तट पर ले जाया गया। "योगी ने भोज को जिन्दा कर दिया है", ऐसी प्रसिद्धि हो गयी। उसके बाद गजराज पर चढ़कर नगरवासियों और मंत्रियों से घिरा भोजराज राजमहल में पहुंचा। बन्दीजन उसका गान कर रहे थे, नगाड़े और मृदंग बज रहे थे। राजा उसका आलिंगन करके रोने लगा। भोजने भी रोते हुए मुंज को चुपाकर उसकी स्तुति की।

तत्पश्चात् सन्तुष्ट हुए राजा ने अपने उस सिंहासन पर बैठा कर और छत्रचामर आदि राज चिह्नों से सुशोभित कर भोज को राज्य दे दिया। अपने प्रत्येक पुत्र को एक-एक गाँव देकर अपने सबसे प्रिय जयन्त कुमार को राज भोज के निकट रख दिया। तदनन्तर परलोक सुधारने की इच्छा करता मुंज भी अपनी पटरानियों सहित तपोवन भूमि में जाकर परम तप करने लगा। उसके बाद राजा भोज राज्य का पालन करने लगा।

सन्दर्भ

  1. भोजप्रबन्धः (पृष्ठ ५)

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ