भारतीय वायुसेना का इतिहास

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भारतीय वायुसेना का इतिहास[1] इतिहास


’ सोवियत परिवहन विमान तथा हेलीकाॅप्टर ’ उप-महाद्वीप में युद्ध ’ दृढ़ीकरण तथा आधुनिकीकरण ’ दिसम्बर 1971 का युद्ध ’ एक विकसित तथा आधुनिक सेना

परिचय[संपादित करें]

भारतीय वायुसेना की स्थापना आधिकारिक रूप से 8 अक्टूबर 1932 को हुई। इसकी प्रथम एयरक्राफ्ट फ्लाइट 01 अप्रैल 1933 को हुई। इसकी नफरी में राॅयल एयरफोर्स द्वारा प्रशिक्षित छः अफसर और 19 हवाई सिपाही (अर्थात् वायुसैनिक) थे। इसकी वायुयान (एयरक्राफ्ट) इन्वेंटरी में चार वेस्टलैंड वैपिती प्प् ए सेना की सहायता के लिए (आर्मी को-आॅपरेशन) बाइप्लेन थे जो नं0-1 (आर्मी को-आॅपरेशन) स्क्वाॅड्रन के “ए” फ्लाइट के हिस्से के तौर पर ड्रिग रोड में स्थित थे। प्रारंभ साढ़े चार वर्ष के बाद “ए” फ्लाइट ने बागी भिट्टानी जनजातियों के विरूद्ध भारतीय सेना के आॅपरेषन में सहायता करने के लिए उत्तरी वजीरिस्तान में मीरनशाह से पहली बार कार्रवाई में भाग लिया। इस दौरान, अप्रैल 1936 में, पुराने वैपिति की एक “बी” फ्लाइट भी गठित की गई, लेकिन इसके संख्याबल में कोई वृद्धि नहीं हुई। जून 1938 में नं0 1 स्क्वाड्रन की पूरी नफरी बढ़ाने के लिए “सी” फ्लाइट गठित की गई और जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ तब यह एकमात्र भारतीय वायुसेना विरचना थी, यद्यपि इसके कार्मिकों की संख्या ढ़ गई जिसमें 16 अफसर और 662 सैनिक थे। 1939 में चैटफील्ड समिति ने भारत की सुरक्षा संबंधी समस्याओं का पुनर्मूल्यांकन किया। समिति ने भारत में राॅयल एयरफोर्स स्क्वाड्रनों को पुनः सज्जित करने का प्रस्ताव रखा किन्तु भारतीय वायुसेना की तत्कालीन अत्यंत धीमी प्रगति में गति लाने का कोई सुझाव नहीं दिया, सिवाय स्वैच्छिक आधार पर पांच फ्लाइटें शुरू करने की योजना के जिसका उद्ेश्य प्रमुख बंदरगाहों की सुरक्षा में सहायोग देना था। इस प्रकार एक भारतीय वायुसेना वाॅलंटरी रिर्ज़व को प्राधिकृत किया गया, यद्यपि वायुयान उपलब्ध न होने से प्रस्तावित तटीय रक्षा फ्लाइटों को सुसज्जित करने में रूकावट हो रही थी। फिर भी इस प्रकार की पांच फ्लाइटें स्थापित की र्गइं। नं0 1 मद्रास में, नं0 2 बम्बई में, नं0 3 कलकत्ता में, नं0 4 कराची में और नं0 5 कोचीन में स्थापित की गई। बाद में नं0 6 विशाखापट्टनम में स्थापित की गई। भारतीय वायुसेना तथा राॅयल एयरफोर्स के अभिन्न अंग के रूप में इन फ्लाइटों को, राॅयल एयरफोर्स के वैपिति और नं0 1 स्क्वाड्रन भारतीय वायुसेना के हाॅकर हाॅर्ट में परिवर्तित किए जाने के बाद इसके द्वारा विमान हटाए गए। इसी घटनाक्रम में एक वर्ष के अंदर ही अतिरिक्त हिस्से-पुर्जों की कमी के कारण स्क्वाड्रन को फिर से वैपिति हवाई जहाजों को लेना पड़ा और पुराने वेस्टलैंड बाइप्लेन की जगह आॅडेक्स की फ्लाइट से पूर्ति की गई। मार्च 1941 के अंत में, नं0 1 और 3 तटीय रक्षा फ्लाइटों (सी डी एफ) ने अपने वैपिति को छोड़ दिया, जिन्हें अगले महीने पेशावर मंे गठित की गई नं0 2 स्क्वाड्रन के लिए मांग लिया गया था। इनकी जगह आर्मस्ट्रांग हिटवर्थ अटलांटा ट्रांसपोर्ट दिए गए जो कलकत्ता के दक्षिण में संुदरबन डेल्टा पर गश्त करते थे। इसी दौरान नं0 2 स्क्वाड्रन को तटीय गश्त के लिए मंगाए गए डी.एच. 89 डैªगन रैपिड्स दिए गए, नं0 5 तटीय रक्षा फ्लाइट को सिंगल डी.एच. 86 दिया गया, जो केप कैमोरिन के पश्चिम तथा मालाबार तट पर गश्त करता था। इसी दौरान, भारत में प्रशिक्षण ढांचा तैयार करना अनिवार्य हो गया। राॅयल एयरफोर्स के उड़ान अनुदेशकों को फ्लाइंग क्लबों से संबंद्ध कर दिया गया ताकि वे टाइगर माॅथ्स पर भारतीय वायुसेना के वालंटियर रिजर्व कैडेटों को प्रशिक्षण सके। ब्रिटिश इंडिया के सात और विभिन्न रजवाड़ों के दो क्लबों में 364 प्रशिक्षणार्थियों को 1941 के अंत तक प्रारंभिक उड़ान प्रशिक्षण प्राप्त करना था। अगस्त 1941 में आधुनिक सुविधाएं प्रदान करने की शुरूआत हुई जब नं0 1 स्क्वाड्रन ने ड्रिग रोड स्थित वेस्टलैंड लिसेन्डर में परिवर्तन शुरू किया। इस यूनिट को आगामी नवंबर में बम्बई वाॅर गिफ्ट फंड द्वारा पेशावर में 12 लिसेन्डरों का पूरा एस्टैब्लिश्मेंट उपलब्ध कराया गया। नं0 2 स्क्वाड्रन को सितंबर 1941 में वैपिती से आॅडेक्स में परिवर्तित किया गया। इसी प्रकार 01 अक्टूबर को नं0 3 स्क्वाड्रन को आॅडैक्स से लैस कर पेशावर में खड़ा किया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध में शुरू में भारतीय वायुसेना के पंक्तिबद्ध एयर क्राफ्ट भारतीय वायुसेना वाॅलंटियर रिर्ज़व (वी आर) को अब नियमित भारतीय वायुसेना में शामिल कर लिया, वैयक्तिक फ्लाइटों को शुरू में उनके तटीय रक्षा स्तर तक ही सीमित रखा गया, लेकिन दिसम्बर में युद्ध में जापान के शमिल होने से, नं0 4 फ्लाइट को चार वैपिति और दो आॅडेक्स के साथ माउलमेन से आॅपरेषन के लिए बर्मा भेज दिया गया। दुर्भाग्यवश, फ्लाइट के छः वायुयानों में से चार जापानियों की बमबारी से नष्ट हो गए और बाद में जनवरी 1942 में माउलमेन में न0 4 फ्लाइट की जगह 3 फ्लाइट को तैनात कर दिया गया और इसे राॅयल एयरफोर्स के चार ब्लेनहेम से लैस किया गया। एक महीने के लिए इन ब्लेनहेम को रंगून बंदरगाह पर पहुंचने वाले पोतों के लिए हवाई सुरक्षा प्रदान करनी थी।

बर्मा का युद्ध[संपादित करें]

01 फ़रवरी को नम्बर 1 स्क्वाड्रन लाशियो में तैनात फ्लाइट के साथ मिन्गलादों में स्थानांतरित होने से पहले टाउंगू से अपने लिसेन्डर विमानों में लिसेन्डर सामरिक टोह मिशन उड़ान भरते हुए बर्मा पहुंची। भारतीय वायुसेना कार्मिक अपने प्रत्येक लिसेन्डर पर 250 पांउड के दो-दो बम से लैस होकर थाईलैंड में-हांगसां, चे ंगमेई तथा चियांगग्रे स्थित प्रमुख जापानी हवाई बेसों के विरूद्ध मार्गरक्षी के बिना ही कम उंचाई पर उड़ान मिषन पर उड़ान भरने लगे। तथापि जापानी अनवरत आगे बढ़ रहे थे और बर्मा को अंतिम रूप से छोड़ने पर नं0 1 स्क्वाड्रन को कार्मिकों को भारत भेज दिया गया, जहां रिसालपुर में जून 1942 में यूनिट को हरीकेन 11 बी फाइटर से लैस करने की कार्रवाई शुरू हो गई। नम्बर 2 स्क्वाड्रन को भी सन् 1941 के अंत तक लिसेन्डर के साथ सुसज्जित कर दिया गया और इसे आक्रमणरोधी अभ्यासों तक सीमित रखा गया, लेकिन जब सितंबर 1942 में इसे हरीकेन से लैस करना शुरू किया गया तब यह भारतीय वायुसेना की प्रमुख यूनिट बन गई। लिसेन्डर को उड़ाने वाली भारतीय वायुसेना की तीसरी यूनिट नं0 4 स्क्वाड्रन थी जिसका गठन 16 फ़रवरी 1942 को चार वायुयानों के साथ किया गया था। इस स्क्वाड्रन को वेस्टलैण्ड एयरक्राफ्ट का प्रचालन जून 1943 में इसे हरीकेन से लैस करने तक जारी रखना था। छः माह पूर्व, नं0 1 तथा 2 फ्लाइटों से कार्मिक लेकर, जो प्रारंभ से ही हरीकेन से लैस थे नम्बर 6 स्क्वाड्रन का गठन किया गया। मार्च तथा दिसम्बर 1942 के बीच भारत में 10 वायुयानकर्मी (एयर क्रू) स्कूल खोले गए और अंबाला स्थित नं0 1 उड़ान प्रशिक्षण स्कूल को प्रथम हार्वर्ड 1 और 2 दिए गए, इस स्कूल को साढ़े चार महीने के अंदर भारतीय वायुसेना के पायलटों को बुनियादी तथा उच्च प्रशिक्षण प्रदान करना था। तथापि उस वर्ष के अंत तक, अथवा भारतीय वायुसेना की स्थापना के एक दषक बाद और द्वितीय विश्वयुद्ध के तीन वर्षों में भारतीय वायुसेना केवल 5 स्क्वाड्रन ही गठित कर पाई। तटीय रक्षा फ्लाइटों को अब भंग कर दिया गया था और नं0 3 तथा 6 फ्लाइटों के अधिकांश कार्मिक नियमित भारतीय वायुसेना कार्मिकों के साथ सम्मिलित कर लिए गए थे ताकि नं0 7 स्क्वाड्रन बनाई जा सके जिसे फरवरी 1943 में अमेरिका निर्मित वेन्जेन्स 1 डिव बमवर्षक से लैस किया गया। इस दौरान 01 दिसम्बर 1942 को नं0 8 स्क्वाड्रन गठित की गई जिसमें शेष बचे तटीय रक्षा फ्लाइट कार्मिकों को शामिल किया गया और 25 जून 1943 को इसे वेन्जेन्स भी जारी किया गया ताकि यह संक्रिया स्तर प्राप्त कर सके। वेन्जेन्स में अनेक कमियां थीं जिसकी वजह से आए दिन समस्याएं खड़ी होती थीं जिसके कारण भारतीय वायुसेना की दो स्क्वाड्रनों से इसे अस्थायी तौर पर हटा लिया गया, इससे समस्याएं समाप्त तो नहीं हुईं, कुछ कम जरूर हो गईं। नं0 8 स्क्वाड्रन ने 15 दिसम्बर 1943 को डबल मूरिंग, चटगांव से जापानी ठिकानों के विरूद्ध अपनी पहली संक्रियात्मक वेन्जेन्स उड़ान (साॅर्टी) भरी। नं0 7 स्क्वाड्रन, जिसने वेन्जेन्स से उत्तरी वजीरिस्तान में विरोधी जनजातियों के विरूद्ध कुछ मिशन उड़ानें भरी थीं, कुंबीग्राम के निकट अदरबंद की हवाई पट्टी से अराकन मंे संक्रिया आरंभ कर दी, जहां यह 12 मार्च 1944 को पहुंची थी। संक्रिया के दौरान दोनों स्क्वाड्रनों को वेन्जेन्स।।। में परिवर्तित किया गया तथा दोनों ने शानदार उड़ान भरीं। नवंबर 1944 में नं0 7 स्क्वाड्रन ने सामरिक टोह भूमिका के लिए गोतामार बमवर्षक हटाकर हरीकेन।। प्राप्त कर लिए। नं0 8 स्क्वाड्रन को पिछले महीने स्पिटफायर टप्प्प् से लैस किया गया और इसने 3 जनवरी 1945 को कांगा क्षेत्र में संक्रिया शुरू कर दी 1944 के शुरू के महीनों में नं0 9 और 10, दोनों स्क्वाड्रनों को हरीकेन से लैस किया गया और वर्ष के अंत तक भारतीय वायुसेना के संक्रियात्मक घटकों की संख्या बढ़कर नौ स्क्वाड्रन हो गई। इनमें नं0 1,2,3,4,6,7,9 और 10 के पास हरीकेन थे तथा नं0 8 को स्पिटफायर दिए गए। हरीकेन से लैस पांच स्क्वाड्रनों ने दिसम्बर 1944 में शुरू हुए अराकान आक्रमण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इन्होंने दुश्मन की संचार प्रणाली को भंग कर दिया और 3 मई 1945 को रंगून पर कब्जा किए जाने तक जापानी सेनाओं को लगातार परेशानी में डालते रहे। उस महीने नं0 4 स्क्वाड्रन भारतीय वायुसेना की दूसरी स्पिटफायर यूनिट बन गई जब इसे इस लड़ाकू वायुयान के माक्र टप्प्प् से लैस कर दिया गया। नं0 9 का जुलाई तक परिवर्तन पूरा कर लिया गया और उसी दौरान नं0 10 का परिवर्तन शुरू हो चुका था और हरीकेन को, जो अधिकांश युद्ध में भारतीय वायुसेना के समाघात घटक का मुख्य आधार था, तेजी से उपयोग से बाहर कर दिया गया। युद्ध वर्षों के दौरान, भारतीय वायुसेना के निरंतर विस्तार का सारा जोर सेना से सहयोग करने तथा सामरिक टोह पर केंद्रित था, यह हरीकन जैसे पुराने वायुयानांे को ही उड़ा रही थी, जब अन्य मित्र राष्ट्र सेनाएं बड़ी संख्या में ं थंडरबोल्ट तथा माॅसक्विटो जैसे वायुयानों को युद्ध-क्षेत्र में शामिल कर रही थीं, परिणामस्वरूप इसमें उपस्कर को लेकर हीनता की भावना पैदा हो गई थी। फिर भी नीरस कार्य सौंपे जाने और पुराने उपस्करों को उड़ाने के बावजूद, इसने उच्चकोटि के साहस तथा कार्यकुशलता की परंपरा कायम की, इसके कार्मिकांे को 22 विशिष्ट फ्लाइंग क्राॅस तथा अनेक अलंकरणों से सम्मानित किया गया और इसकी उपलब्धियों को मान्यता देते हुए सर्विस को मार्च 1945 में अपने टाइटल से पहले ‘राॅयल’ लिखने को गौरव प्राप्त हुआ।

स्वतंत्रता तथा विभाजन[संपादित करें]

द्वितीय विश्वयुद्ध से प्राप्त प्रेरणा से राॅयल इंडियन एयरफोर्स की कार्मिक नफरी युद्ध स्थिति समाप्त होने तक बढ़कर 28,500 हो गई जिसमें लगभग 1,600 अफसर शामिल थे। अगस्त 1945 में नं0 4 स्क्वाड्रन को जापान में ब्रिटिश काॅमनवेल्थ कब्जा करने वाली सेना (आॅक्युपेशन फोर्सेज) की यूनिट बनाया गया। इसने अक्टूबर में अपने स्पिटफायर टप्प्प् की जगह माक्र ग्प्ट को लिया और 1945 में जापान पहुंची। शेष हरीकेन से लेैस राॅयल इंडियन एयरफोर्स फाइटर स्क्वाड्रनों ने इनकी जगह कोहट, सामुंगली तथा रिसालपुर में स्पिटफायर प्राप्त किए और 1946 में मध्य तक संपूर्ण राॅयल इंडियन एयरफोर्स फाइटर फोर्स स्पिटफायर से लैस हो चुकी थी। 1946 में पहली बार राॅयल इंडियन एयरफोर्स की ट्रांसपोर्ट यूनिट गठित की गई। नं0 12 स्क्वाड्रन को पहले दिसम्बर 1945 में कोहट में स्पिटफायर से लैस कर गठित कर लिया गया था। बाद में इसे 1946 के अंत में पानागढ़ में सी-47 डकोटा दिए गए। टेम्पेस्ट-प् प् देने का निर्णय भी लिया गया और 1946 की शरद ऋतु के दौरान, इस निर्णय को कार्यान्वित करना शुरू कर दिया गया। कोलार स्थित नं0 3 स्क्वाड्रन पुनःसज्जित की जाने वाली प्रथम स्क्वाड्रन बन गई और 10 स्क्वाड्रन को पुनः सज्जित किया गया। इस दौरान युद्ध के बाद कार्मिकों की नफरी आधी घटकर 14,000 अफसर तथा कार्मिक रह गई। युद्ध के बाद की भारत की रक्षा जरूरतों का मूल्यांकन ब्रिटिश अधिकारियों ने अपने ढंग से किया। अक्टूबर 1946 को आधार बनाकर, मौजूदा दस राॅयल इंडियन एयरफोर्स स्क्वाड्रनों को बढ़ाकर बीस फाइटर बमवर्षक और परिवहन स्क्वाड्रनों की संतुलित सेना बनाने की योजना बनाई। तथापि, तेजी से बदलती राजनैतिक परिस्थितियों के कारण, भारतीय रक्षा के संबंध में निर्णय लेने की बात स्वतंत्र भारत की संभावित सरकार के ऊपर छोड़ दिया गया। नं0 4 स्क्वाड्रन को जापान से भारत लौटने पर टेम्पेस्ट-प्प् में परिवर्तित कर दिया गया। नं0 7 तथा नं0 8 स्क्वाड्रनों ने भी 1947 के ग्रीष्म काल के दौरान अधिक प्रभावी टेम्पेस्ट फाइटर लेने के लिए अपने स्पिटफायर हटा दिए। इसी समय नं0 1 तथा 9 स्क्वाड्रनों ने भी टेम्पेस्ट-प्प् प्राप्त किए, लेकिन 15 अगस्त 1947 को अगस्त 1945 में, द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम वर्ष के दौरान के स्क्वाड्रन कमांडरभारत की सशस्त्र सेनाओें के विभाजन के साथ ये यूनिटें हट गईं और इनके उपस्कर नवनिर्मित राॅयल पाकिस्तान एयरफोर्स को हस्तान्तरित कर दिए गए। इस प्रकार विभाजन के समय राॅयल इंडियन एयर फोर्स के पास नं0 3,4,7,8 और 10 स्क्वाड्रनों के साथ टेम्पेस्ट-यू, नं0 2 स्क्वाड्रन के साथ स्पिटफायर और नं0 12 स्क्वाड्रन के साथ सी 47 रह गई तथा आजादी के समय एयर आब्जर्वेशन फ्लाइट, ए ओ पी आॅस्टर 4,5 तथा 6 गठित की गई। नं0 6 स्क्वाड्रन, जिसकी ड्रिग रोड पर स्पिटफायर से सी 47 में परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही थी, हटा दी गई और इसके ट्रांस्पोर्ट पाकिस्तान को दे दिए गए।

 देश के विभाजन के परिणामस्वरूप, राॅयल इंडियन एयरफोर्स के अनेक स्थायी बेस तथा अन्य स्थापनाएं समाप्त हो गई थीं। विभाजन के समय साजो-सामान और सेना के बंटवारे की समस्या से उबर भी पाई थी कि फोर्स को युद्ध में उलझना पड़ा। बड़ी संख्या में घुसपैठी विद्रोही सेनाएं जम्मू और कश्मीर में सीमा के अंदर घुसने लगीं तब प्रतिक्रियास्वरूप 27 अक्तबरू 1947 को नं0 12 स्क्वाड्रन को पालम से पहली सिख रेजिमेंट को श्रीनगर के अविकसित हवाई पट्टी पर हवाई जहाज से पहुंचाने की असाधारण कार्रवाई बिना प्रारंभिक तैयारी और टोह के करनी पड़ी। 30 अक्टूबर को अम्बाला स्थित एडवांस्ड फ्लाइंग स्कूल से स्पिटफायर श्रीनगर पहुंच गए और पाटण से आगे छापामारों पर बमबारी करने लगे। एक सप्ताह के अंदर ही नं0 7 स्क्वाड्रन के टेम्पेस्ट शेलटांग के युद्ध में निर्णायक भूमिका अदा कर रहे थे जिसके कारण विद्रोही घुसपैठियों का आगे बढ़ना रूक गया।

युद्ध 15 महीने तक जारी रहा, राॅयल इंडियन एयरफोर्स पूरी तरह सक्रिय बनी रही और आखिरकार 01 जनवरी 1949 को युद्ध विराम लागू हो गया। इस लड़ाई के दौरान आॅपरेषन की कार्रवाई में लगे रहने के बावजूद सर्विस का पुनर्गठन तथा आधुनिकीकरण बिना बाधा जारी रहा। इसी बीच काम के उदेश्य से संयुक्त सेना मुख्यालय को अलग कर दिया गया और नई दिल्ली में वायुसेना मुख्यालय स्थापित किया गया (तस्वीर के लिए यहां पर क्लिक करें)। इसमें संक्रियात्मक तथा प्रशिक्षण कमानें शामिल की गईं और जम्मू-कष्मीर में चल रहे अभियान में संलग्न राॅयल इंडियन एयरफोर्स की सभी यूनिटों तथा इसके सहयोगी घटकों (स्पोर्ट एलिमेंट्स) का संचालन करने के लिए नं0 1 संक्रियात्मक ग्रुप गठित किया गया।

भारी बमवर्षक तथा जेट फाइटर[संपादित करें]

इसी बीच नं0 2 स्क्वाड्रन को स्पिटफायर ग्टप्प्प्े से लैस किया गया। नं0 9 स्क्वाड्रन को इस टाइप पर फिर से गठित किया गया। नं0 101 फोटो टोह फ्लाइट का स्पिटफायर पी आर माक्र ग्प्ग् के साथ जनवरी में गठन किया गया। इस यूनिट को अप्रैल 1950 में पूर्ण स्क्वाड्रन स्तर प्राप्त करना था। कश्मीर में संक्रिया में हुई क्षति को पूरा करने के लिए टेम्पेस्ट प्प् का अगला बैच दिसम्बर 1948 में ब्रिटेन से प्राप्त किया गया। उसी वर्ष उपस्करों में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए, जिसका राॅयल इंडियन एयरफोर्स की संरचना पर गहरा प्रभाव पड़ा। सर्विस ने भारी बमवर्षक घटक (एलिमेंट) स्थापित करने के लिए हिन्दुस्तान एरानाॅटिक्स लि0 (एच ए एल) से संपक्र किया कि वह कानपुर स्थित देखभाल और अनुरक्षण यूनिट (केयर एंड में ंटिनेंस यूनिट) में सुराक्षित यू एस ए एफ के इस टाइप के लगभग सौ पुराने बमवर्षकों में सुधार कर बी-24 लिबरेटर की फोर्स ’फिर से तैयार‘ करें। योजना की व्यवहार्यता के संबंध में यू एस तथा ब्रिटिश परामर्शदाताओं की शंकाओं के बावजूद एच ए एल ने नवंबर 1948 में छह बी-24 में सुधार कर उन्हें तैयार कर दिया था और उसी महीने की 17 तारीख को, नम्बर 5 स्क्वाड्रन को इन भारी बमवर्षकों से लैस कर दिया गया। बाद में, 1950 के शुरू में नम्बर 6 स्क्वाड्रन को बी-24 से लैस कर पूना में पुनः गठित किया जाना था और इस टाइप के विमानों पर ‘बैक-अप’ प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए नम्बर 16 स्क्वाड्रन की स्थापना की जानी थी। टाइगर माॅथ्स की कमी को पूरा करने के लिए, 1948 के दौरान प्रेन्टिस बेसिक ट्रेनर राॅयल इंडियन एयरफोर्स को सौंप दिए गए, जिन्हें बाद में जोधपुर, ताम्बरम तथा अम्बाला से कार्रवाई करनी थी, लेकिन 4 नवम्बर 1948 को भारत में सर्विस की सी-47 डकोटादृष्टि से एक महत्वपूर्ण घटना घटी। तीन वैंपायर एफ, माक्र 3 जेट फाइटर पहुंच गए। ये विभिन्न प्रकार के 400 से अधिक वैंपायर के पहुंचने के क्रम में से थे जिन्हें सर्विस ने आगामी वर्षों में प्राप्त किया। (तस्वीर के लिए यहां पर क्लिक करें)। आगामी वर्षों में वैंपायर एफ बी माक्र-52 से लैस नं0 7 स्क्वाड्रन द्वारा संक्रियात्मक स्तर प्राप्त करने से राॅयल इंडियन एयरफोर्स को जेट वायुयान प्रचालित करने वाली एशिया की पहली एयरआर्म बनने का गौरव प्राप्त हुआ।

गणतांत्रिक हैसियत प्राप्त करने के समय की स्थिति[संपादित करें]

जनवरी 1950 में भारत ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतगर्त गणतंत्र बना और भारतीय वायुसेना ने अपने नाम से पहले जुडा ”राॅयल“ शब्द हटा दिया। इस समय भारतीय वायुसेना ने स्पिटफायर, वैंपायर तथा टेम्पेस्ट से लैस छह फाइटर स्क्वाड्रनें गठित कीं जो कानपुर, पूना, अंबाला और पालम से कार्रवाई करती थी। इसके अतिरिक्त एक बी-24 बमवर्षक स्क्वाड्रन, एक सी-47 डकोटा परिवहन स्क्वाड्रन, एक ए ओ पी फ्लाइट, पालम स्थित एक संचार स्क्वाड्रन और एक विकसित होता प्रशिक्षण संगठन अस्तित्व में आया। प्रशिक्षण पूरी तरह राॅयल एयरफोर्स द्वारा स्थापित पद्धति पर आधारित था, अधिकांश अनुदेशक यू॰के॰ में सी एफ एस से प्रशिक्षित थे। इसके अतिरिक्त टाइगर माॅथ्स तथा हार्वर्ड से लैस हैदराबाद में नं0 1 उड़ान प्रशिक्षण स्कूल, जोधपुर में प्रेंटिसेज तथा हार्वर्ड से लैस स्क्वाड्रन नं0 2 उड़ान प्रशिक्षण स्कूल और बेगमपेट, कोयम्बतूर तथा जोधपुर में भारतीय वायुसेना काॅलेज स्थापित किए गए। एच ए एल ने डि हेवीलैंड वैंपायर के लाइसेंस निर्माण के अतर्गत प्रमुख हिस्से-पुर्जों से एक बैच का निर्माण किया और बाद में 250 और बैच का निर्माण किया। इसके अतिरिक्त, 60 वैंपायर टी माक्र 55 बनाए जाने थे जिनमें से 10 आयातित किट को जोड़कर तैयार किए गए थे। नं0 7 स्क्वाड्रन की तरह नं0 2, 3 और 8 स्क्वाड्रनों को वैम्पायर से लैस कर गठन किया गया। इसके अतिरिक्त 1951 में पिस्टन-इंजिन लगी फाइटर काम्बैट की अंतिम यूनिट का गठन भी किया गया। नं0 14 स्क्वाड्रन को स्पिटफायर माक्र ग्टप्प्प् से लैस किया गया। वैम्पायर एन एफ माक्र, 54 दो सीट वाले नाइट फाइटरों को मई 1953 में हासिल कर इनसे पालम स्थित नं0 10 स्क्वाड्रन को लैस कर पुनर्गठित किया गया। इस प्रकार पहली बार भारतीय वायुसेना ने ’नाइट इंटरसेप्ट‘ क्षमता हासिल की। इसी समय, भारत तथा पाकिस्तान के आपसी संबंध पुनः तेजी से बिगड़ते जा रहे थे और 1947 में विभाजन के समय भारतीय वायुसेना की जो समाघात (काॅम्बैट) नफरी थी उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ था और वह पूरा युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं थी। तदनुसार सन् 1953-57 के दौरान व्यापक विस्तार की योजना बनाई गई और सरकार ने लड़ाकू विमान प्राप्त करने के गैर-पारंपरिक तथा वैल्पिक स्रोतों को ढूंढ़ना शुरू कर दिया। इस समय फ्रांस के डेसाॅल्ट आॅरेगन फाइटर विमान लेने के निर्णय से विमानों के विभिन्न आपूर्ति स्रोतों की शुरूआत हुई। 24 अक्टूबर 1953 को 100 आॅरेगन अथवा तूफानी जिन्हें भारतीय वायुसेना में यह नाम दिया जाना था, में से पहले चार विमान फ्रांस से पालम पहुंचे और उसी क्रम में नं0 8, 3 तथा 4 स्क्वाड्रनों को इस प्रकार के विमानों से लैस किया गया। तूफानी विमानों को नई गठित यूनिटों नं0 29 तथा 47 स्क्वाड्रनों में भेजा जाना था और 1957 में नं0 3 तथा 8 स्क्वाड्रनों को गैलिक स्टेबल से मिस्टियर प्ट ए विमानों से लैस किया जाना था। भारत की अखंडता पर बढ़ते संकट को देखते हुए विकास की दृष्टि से समाघात यूनिटों को पुनः सज्जित करने के काम को विशेष प्राथमिकता देना अनिवार्य था, लेकिन एयरलिफ्ट क्षमता का विस्तार भी उतना ही महत्वपूर्ण था। सितंबर 1951 में दूसरी ट्रांस्पोर्ट स्क्वाड्रन नं0 11 को सी-47 डकोटा से लैस कर गठित किया गया और 1954 के अंत में, संयुक्त राज्य अमेरिका से 26 फेयरचाइल्ड सी-119 जी पैकेट्स विमान भारत पहुंचे, इससे सर्विसेज की संभारिकी सहायता क्षमता (लाॅजिस्टिक सपोर्ट कपैसिटी) में पर्याप्त वृद्धि हुई। तेज़ी से एयरलिफ्ट आधार का स्थान पाने के लिए सी-119 जी नं0 12 स्क्वाड्रन को जारी किए गए जिन्हें कुछ वर्षों के लिए सी-47 के साथ इस्तेमाल किया गया, क्योंकि पुराने ट्रांस्पोर्ट नई खड़ी की गई यूनिट नम्बर 43 स्क्वाड्रन को स्थानांतरित होने थे। जुलाई 1960 में 29-सी 119 जी का दूसरा बैच प्राप्त किया गया और यू. एस. आपातकालीन सैन्य सहायता के तहत मई 1963 में ट्रांस्पोर्ट फ्लीट में 24 सी-119 जी विमानों को शामिल कर दूसरी नफरी में वृद्धि की गई। 1955 में अनुरक्षण कमान का गठन किया गया तथा आक्जिलरी एयरफोर्स को फिर से चालू किया गया। बाद में इसकी दो यूनिटें नं. 51 और 52 स्क्वाड्रनें नई दिल्ली और बम्बई में गठित की गईं। अगले वर्ष ए ए एफ की यूनिट नं0 53 स्क्वाड्रन मद्रास में खड़ी की गई और आगामी दो वर्षों के दौरान चार और यूनिटें इसमें जोड़ी गई, नं0 54 (इलाहाबाद), 55 (कलकत्ता), 56 (भुवनेश्वर) और 57 (चंडीगढ़) स्क्वाड्रनें। ए ए एफ स्क्वाड्रनों को एच ए एल द्वारा डिज़ाइन किए गए एच टी-2 ट्रेनर से लैस किया गया जिन्हें आधिकारिक तौर पर 10 जनवरी 1955 को सर्विस में शामिल किया गया और हार्वर्ड-यद्यपि वे वैम्पायर एफ बी माक्र 52 थे- को 1959 में शामिल किया गया। विस्तार तथा आधुनिकीकरण की दृष्टि से भारतीय वायुसेना के लिए वर्ष 1957 विशेष महत्व का था। इसमें बड़े पैमाने पर उपस्करों से लैस करने का कार्यक्रम बनाया गया जिससे सर्विस विश्व स्तर की बन सके। 110 डेसाॅल्ट मिस्टियर प्ट विमानों की सुपुर्दगी शुरू हुई, जिससे पहली बार सेना में पराध्वनिक उड़ान (ट्रैन्सोनिक फ्लाइट) युग की शुरूआत हुई और हाॅकर हन्टर तथा इंग्लिश इलेक्ट्रिक कैनबरा विमान भारतीय वायुसेना की सूची में शामिल होने शुरू हुए। मिस्टियर विमानों से लैस एक नया नं0 1 स्क्वाड्रन खड़ा किया गया, मौजूदा वैम्पायर से लैस नं0 1 स्क्वाड्रन को नं0 27 स्क्वाड्रन का नाम दिया गया; नं0 5 स्क्वाड्रन को कैनबरा बी (1) माक्र 58 से पुनः सज्जित किया गया तथा वर्ष के अंत में नं0 7 स्क्वाड्रन को हंटर एफ माक्र 56 में परिवर्तित करना शुरू किया गया। शायद यह उचित ही था कि जिस वर्ष आधुनिक हार्डवेयर बड़े पैमाने पर शामिल होना शुरू हुुआ उसी वर्ष भारतीय वायुसेना के पिस्टन-इंजिन फाइटर युग का अंत भी हुआ। नं0 14 स्क्वाड्रन ने जो कि अंतिम फस्र्ट लाइन पिस्टन-इंजिन फाइटर यूनिट थी वैम्पायर के साथ पुनः सज्जित होने की तैेयारी में अपने स्पिटफायर मार्क ग्टप्प्प् विमान के साथ हलवारा गई। बहुत कम वर्षों की अवधि में सर्विस को 15 स्क्वाड्रनों के फोर्स से 33 स्कवाड्रनों की फोर्स बनाने के उद्देश्य से शुरू किए जाने वाले विस्तार कार्यक्रमों को लागू करने में उस समय भारतीय वायुसेना की अत्यधिक शक्ति लगी थी, जबकि व्यापक स्तर पर उपस्कर परिवर्तन का भगीरथी प्रयास पूरा हुआ। अनेक नए स्क्वाड्रन जैसे नं0 15,17,20,24,27 तथा 45 को अंतरिम उपस्कर के रूप में वैम्पायर एफ बी मार्क 52 से लैस कर खड़ा किया गया। 1959 तक कैनबरा बी (।) मार्क 58 से लैस दो अतिरिक्त स्क्वाड्रनें नं0 16 तथा 35 गठित हो चुकी थीं। नं0 106 स्क्वाड्रन को कैनबरा पी आर मार्क 57 से लैस किया गया और 1961 के अंत तक छः स्क्वाड्रनें (7,14,17,20,27 और 37) हंटर से लैस हो चुकी थीं। काम्बैट एलीमेंट के लिए ही विकास प्रतिबंधित नहीं किया गया अपितु, भारतीय वायुसेना के ट्रांस्पोर्ट फोर्स को छः स्क्वाड्रनों तक बढ़़ा दिया गया। तीन को सी-47 (नं0 11,43 और 49), दो को सी-119 जी (नं0 12 और 19) और एक को डी एच सी-3 आॅटर्स (नं0 41) से लैस किया गया। साठ के शुरू में भारतीय वायुसेना में नए किस्म के और विमानों को शामिल किया। इनमें से सर्वाधिक या चर्चित था। फाॅलण्ै ड नेट लाइटवेट फाइटर। दूसरी आश्चर्यजनक तेजी के कारण, जीनैट ने कम लागत के विमान देने का प्रस्ताव किया और पचास के मध्य में एच ए एल द्वारा इसके निर्माण के लिए लाइसेंस करार को अंतिम रूप दिया गया और निर्माता कंपनी ने 23 तैयार एयरक्राफ्ट तथा 20 सेट हिस्से-पुर्जों (कम्पोनेंट्स) की आपूर्ति की। मार्च 1960 में भारतीय वायुसेना की पहली यूनिट, नं0 23 स्क्वाड्रन ने े वैम्पायर एफ बी मार्क, 52 से जीनैट पर परिवर्तन प्राप्त किया। 1962 के शुरू में अम्बाला में नं0 2 स्क्वाड्रन को जीनैट से लैस किया गया, साथ ही नं0 9 स्क्वाड्रन भी इनसे लैस की गयी।

कांगो में कैनबरा[संपादित करें]

1961-62 में कांगो (अब जैरे) में संयुक्त राष्ट्र आॅपरेषनों में सहयोग देना भारतीय वायुसेना की एक असाधारण बचनबद्धता थी। संयुक्त राष्ट्र द्वारा कानून और व्यवस्था को पुनः बहाल करने और शांति बनाए रखने के लिए सैन्य दलों तथा लड़ाकू वायुयानों को भेजे जाने की अपील करने के बाद नं0 5 स्क्वाड्रन के छः कैनबरा ‘बी’(प्) 58 विमानों का आगरा से सेन्ट्रल अफ्रीका के लिए भेजा गया। लियोपोल्डविले तथा कैमिना से कार्रवाई (आॅपरेट) करते हुए, कैनबरा विमानों ने कैटनगेन लक्ष्यों पर धावा बोलकर विद्रोही वायुसेना को नष्ट कर दिया और लम्बी दूरी की अपनी एकमात्र हवाई सहायता फोर्स से संयुक्त राष्ट्र की जमीनी सेनाओं को सहायता प्रदान की

सोवियत ट्रांस्पोर्ट तथा हेलीकाॅप्टर[संपादित करें]

1960 के अंत में विमानों को विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करना अधिक महत्वपूर्ण हो गया जब हिमालय बाॅर्डर पर भारत-चीन की सेनाओं के बीच झड़पों की संख्या में निरंतर वृद्धि होने लगी और मौजूदा एयरलिफ्ट क्षमता को बढ़ाने और ऊंचाई पर की जाने वाली संक्रियाओं (आॅपरेशन के लिए) उपयुक्त, मध्यम (मिडियम) हेलीकाॅप्टरों की जरूरत भी महसूस की गई जिसके परिणामस्वरूप आठ एंतोनोव एन-12 बी परिवहन विमानों तथा 24 आई ए एल- यूषिन 1-14 परिवहन वायुयान और 10 एम आई-4 हेलीकाॅप्टरों का आर्डर सावियत ेसंघ को दिया गया। 01 मार्च 1961 को पहला ए एन-12 बी भारत पहंुचा (तस्वीर के लिए यहां पर क्लिक करें), नं0 44 स्क्वाड्रन को इन विमानों से लैस कर गठित किया गया और एक अन्य नई गठित की गई। नं042 स्क्वाड्रन को 11-14 विमानों से लैस किया गया। इसके बाद 1962 के शुरू में आठ ए एन 12 बी प्राप्त करने के लिए आर्डर दिए गये। इनसे लैस भारतीय वायुसेना की भारी लिफ्ट क्षमता बढ़़ने लगी और जब जुलाई 1963 में लोन एग्रीमेंट के अंतगर्त 25 ए एन-12 बी विमान प्राप्त हो गए तब इसकी क्षमता में काफी वृद्धि हो गई। इस टाइप पर एक नई स्क्वाड्रन नं0 25 गठित की गई। एम आई-4 हेलीकाॅप्टर से भारतीय वायुसेना की क्षमता पर वैसा ही गहन प्रभाव पड़ा जैसा कि ए एन-12 बी से पड़ा था। इन सोवियत टाइप विमानों के आने के पहले सर्विस के पास केवल थोडे़ से पुराने सिकोस्की एसर्- 55 विमान तथा छोटे बल 47 े जी थे और एम आई-4 की प्राप्ति के साथ ही भारतीय वायुसेना की रोटरक्राफ्ट इनवेन्टरी का व्यापक विस्तार शुरू हो गया। प्रथम एम आई-4 से लैस नं0 109 हेलीकाॅप्टर यूनिट गठित की गई और 1962 के शुरू में 16 अतिरिक्त एम आई-4 विमान मंगवाने का आर्डर दिए जाने के बाद उत्तर-पूर्व भारत में अन्य हेलीकाॅप्टर यूनिटें गठित की गई ं, इसके बाद 1963-64 में और अन्ततः 1966 में आर्डॅ र भेजने के बाद वस्तुतः एम आई-4 विमानों की कुल उपलब्ध संख्या 120 हो गई थी।

चीन के साथ युद्ध[संपादित करें]

भारतीय वायुसेना की वायुवहन (एयरलिफ्ट) क्षमता की वास्तविक परीक्षा तब हुई जब अक्टूबर 1962 में भारत-चीन सीमा पर युद्ध शरू हुआ। 20 अक्टूबर से 20 ुनवम्बर की अवधि के दौरान वायुसेना की ट्रांस्पोर्ट तथा हेलीकाॅप्टर यूनिटों पर भारी दबाव पड़ा था, क्योंकि बहुत ऊंचाई वाले स्थानों पर स्थित सीमा चैकियों को मदद पहुंचाने के लिए सैनिक टुकड़ियों को पहुंचाने तथा आपूर्तियों के लिए दिन-रात लगातार उड़ाने भरनी पड़ी। पर्वतों पर बने खतरनाक हेलीपैड पर संक्रिया करते समय हेलीकाॅप्टरांे को लगातर चीन के विमान भेदी (एण्टी एयरक्राफ्ट) फायर और छोटे हथियारो ं के फायर का सामना करना पड़ा। युद्ध के दौरान भारतीय वायुसेना ने अनेक साहसिक कार्य किए जिनमें काराकोरम हिमालय में समुद्र सतह से 17,000 फुट (5180 मीटर) की उंचाई पर बनी सी-119 जी विमानों की संक्रिया और लद्दाख में 15,000 फुट (4570 मीटर) की छोटी हवाई पट्टियों पर ए एन-12 बी विमानों द्वारा चुषुल के लिए ए एम एक्स-13 लाइट टैंकों की दो टुकड़ियों की एयर लिफ्ंिटग कार्रवाई शामिल है। भारत-चीन युद्ध के कारण आपातकाल की घोषणा की गई जिसके परिणामस्वरूप सहायक वायुसेना (आॅक्जिलरी एयरफोर्स) को भंग करके इसके कार्मिकों तथा उपस्करों को नियमित भारतीय वायुसेना में शामिल किया गया। एक आपातकालीन प्रशिक्षण योजना षुरू की गई जिसमें मद्रास, कानपुर, नई दिल्ली, नागपुर और पटियाला के पांच उड़ान क्लबों की सेवाएं प्राप्त की गईं, 1964 के अंत तक इन क्लबों में 1,000 से अधिक कैडेटों ने उड़ान संबंधी अनुदेश प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त, वैम्पायर एफ बी मार्क 52 जो 1961 से एक तरह से इस्तेमाल में नहीं थे नए गठित स्क्वाड्रनों को दिए गए। भारतीय वायुसेना का विस्तार तेजी से हो रहा थो, भारत-चीन युद्ध के समय की 28,000 अफसरों तथा कार्मिकों की नफरी 1964 के अंत तक दो तिहाई बढ़ गई लेकिन 33-स्क्वाड्रनों की फोर्स की जनशक्ति की मांग को अभी पूरी तरह कार्याविन्त किया जाना था, तभी 45-स्क्वाड्रनों की फोर्स के लिए विस्तार की महत्वकांक्षी योजना को हाथ में लिया गया (तस्वीर के लिए यहां पर क्लिक करें)। सरकार द्वारा इसकी स्वीकृति अक्टूबर 1962 में दी गई, इससे 1970 के दशक के प्रारंभ तक भारतीय वायुसेना के कार्मिकों की नफरी में 100000 तक वृद्धि की जानी थी। सोवियत संघ से लगातार ए एन-12 बी विमान आने और संयुक्त राज्य अमेरिका से सी-119 जी की तीसरी खेप के आगमन के साथ ही भारतीय वायुसेना को कनेडियन डी एच सी-4 कैरीब विमान मिलने शुरू हो गए थे जिनमंे से दो विमान भारत-चीन युद्ध के दौरान सहायता के रूप में कनेडियन सरकार ने वायुसेना को भेट कि ं ए थे। 16 अन्य विमानों की पूर्ति के लिए आर्डर दिए जा रहे थे जिनकी ॅ सुपुर्दगी सितंबर 1963 में शुरू हुई थी, जिससे नं0 33 स्क्वाड्रन की स्थापना हुई। अगस्त 1962 में एक युगान्तरकारी निर्णय लिया गया जिसके फलस्वरूप आगामी दषकों में भारतीय वायुसेना की नफरी तथा स्वरूप में व्यापक परिवर्तन होना था। भारत सरकार ने भारतीय वायुसेना के लिए मिसाइलों तथा लड़ाकू वायुयानों की आपूर्ति के लिए सोवियत संघ के साथ पहली बार एक दस्तावेज (प्रोटोकाॅल) पर हस्ताक्षर किए। सोवियत संघ से 12 मिग-21 फाइटरों की खरीद (तस्वीर के लिए यहां पर क्लिक करें), गैर-पश्चिमी मूल का भारतीय वायुसेना का प्रथम लड़ाकू विमान और भारत में लड़ाकू विमान और भारत में लड़ाकू विमानों के उत्पादन के लिए सुविधाओं की स्थापना के बाद सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलों एस ए-2 (ट्विना) को प्राप्त करना था तथा संक्रियात्मक आधारभूत ढांचे में व्यापक परिवर्तनों के साथ भारतीय वायुसेना को पुनः सज्जित करने आर इसके विस्तार का काम साथ-साथ आगे बढ़ ै रहा था। भारत-चीन युद्ध से पहले भारतीय वायसेना का लक्ष्य केवल पश्चिमी आक्रमण से रक्षा करना था, लेकिन संपूर्ण उत्तरी तथा पूर्वी सीमा की असुरक्षा संबंधी खतरे को देखते हुए संक्रियात्मक आधारभूत ढांचे पर गंभीरता से पनर्विचार आवश्यक हो गया था। अब ु यह स्पष्ट हो गया था कि भारत जैसे विशाल देश के लिए पूर्णतया कार्यात्मक (फंक्श्नल) कमान प्रणाली अव्यावहारिक है और सभी संभावित खतरों का सामना करने के लिए भविष्य में क्षेत्रीय आधार पर संक्रियात्मक कमान स्थापित करना होगा। इस प्रकार संक्रियात्मक नियंत्रण के उद्देश्य से भारतीय भू-भाग को तीन भागों में बांट दिया गया-पश्चिमी, मध्य तथा पूर्वी वायु कमान। तथापि प्रशिक्षण तथा अनुरक्षण (मेंटिनेंस) के लिए समान स्तर बनाए रखने के लिए प्रशिक्षण तथा अनुरक्षण कमान पहले की तरह ही कार्य करता रहा।

उपमहाद्वीप में युद्ध[संपादित करें]

भारत और पाकिस्तान के बीच वर्षों से तनाव निरंतर बढ़ता जा रहा था, जिसकी परिणति पाकिस्तान सेना द्वारा 01 सितंबर 1965 को छम्ब क्षेत्र में बड़े पैमाने पर आक्रमण के रूप में हुई। आक्रमण के लिए समय तथा स्थान के चयन में पाकिस्तान ने पहल की और उस सेक्टर में भारी संख्या में बख्तरबंद सैनिक टुकड़ियों को जमा करके मैदानी लड़ाई में भारतीय सेनाओं के लिए बहुत बड़ा खतरा उत्पन्न कर दिया था। अतः छम्ब-जोरियां सेक्टर में आगे बढ़ती हुई पाकिस्तानी बख्तरबंद सेना (आर्मर) के विरूद्ध हवाई आक्रमण की तत्काल मांग पर नं0 45 स्क्वाड्रन के वैम्पायर एफ बी मार्क 52 विमानों ने, जो उस समय फार्वड बेस पर्र संक्रियात्मक प्रशिक्षण में व्यस्त थे, लड़ाई के पहले दिन 17ः45 बजे पहली उड़ान भरी और उनके पीछे-पीछे नं 3 और 31 स्क्वाड्रन के मिस्टियर विमानों ने उड़ान भरी। पाकिस्तानी बख्तरबंद (आर्मर) टेढ़ा-मेढ़ा आगे बढ़ रहा था। इस सेक्टर में भारतीय वायुसेना के जीनैट विमानों ने पाकिस्तानी वायुसेना के सेबर विमानों को मार गिराने में अभूतपूर्व क्षमता का परिचय दिया। पहली हवाई जीत का श्रेय नं0 23 और 9 स्क्वाड्रनों को हासिल हुआ। पश्चिमी पाकिस्तान और भारत के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा पर 6 सितंबर को पूर्ण युद्ध शुरू हो गया था। बाद के दिनों में भारतीय वायुसेना के कैनबरा विमानों ने रात के समय सरगोधा तथा चकलाला स्थित प्रमुख पाकिस्तानी बेसों तथा अकवाल, पेशावर, कोहट, चकझूमरा और रिसालवाला स्थित अन्य बेसों पर जवाबी हवाई और निरोधक हमले किए। हंटर की खूबियां पूरी तरह सामने आईं। नं0-7, 20 और 27 स्क्वाड्रनों को पश्चिम में जवाबी हवाई हमले और निरोधक हमले और निकट हवाई सहायता मिशन पर लगाया गया जबकि नं0-14 स्क्वाड्रन के हंटर विमानों ने पूर्व में कलाइकुण्डा स्थित भारतीय वायुसेना के ठिकानों पर आक्रमण कर रहे पाकिस्तानी वायुसेना के सेबर जेट विमानों के विरूद्ध कार्रवाई की। मिस्टियर विमानों को शुरू में जमीनी आक्रमण के लिए प्रयुक्त किया गया जिसमें ये बहुत प्रभावी सिद्ध हुए और बख्तरबंद वाहनों के विरूद्ध इनके 55 एम एम राॅकेट कारगर साबित हुए। जीनैट से शानदार संक्रियात्मक सफलता मिली। भारतीय वायुसेना के संक्रियात्मक ठिकानों के ऊपर कैप्स उड़ानें भरकर हवाई सुरक्षा को मुख्य आधार प्रदान करने के साथ-साथ एस्काॅर्ट मिशन उड़ानें भी भरीं। एफ-86 के विरूद्ध इसकी सफलता विशेष उल्लेखनीय थी जिसके लिए ये “सेबर कातिल” कहलाए। सितंबर का युद्ध ऐसा प्रथम युद्ध था जिसमें स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गठित भारतीय वायुसेना शामिल हुई और परिणामस्वरूप इस युद्ध से सर्विस ने अनेक सबक सीखे। युद्धोपरांत विश्लेषण से कुछ अपेक्षाएं उभर कर सामने आईं, यह अनुभव किया गया कि भारत-चीन युद्ध के बाद भारतीय वायुसेना के विस्तार की अत्यंत तेज गति की मांग को पूरा करने के लिए गुणवत्ता के स्थान पर विस्तार की मात्रा पर अधिक जोर दिया गया। अधिक संख्या के कार्मिकों को तैयार करने के लिए प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की अवधि को कम करना पड़ा जिसका संक्रियात्मक कुशलता पर विपरीत असर पड़ा। परिणामस्वरूप अब संख्या की जगह गुणवत्ता पर अधिक जोर दिया गया और प्रशिक्षण का बड़े पैमाने पर पुनर्गठन किया गया।

दृढ़ीकरण तथा आधुनिकीकरण[संपादित करें]

उपस्कर आधुनिकीकरण में किसी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकती थी। भारत-पाक युद्ध में विमानों को उड़ाने वाले एवं विमानों की सर्विसिंग करने वाले वायुकर्मियों की तैयारी, उनके प्रशिक्षण तथा प्रेरणा के महत्व को रेखांकित किया तथा उनके उपस्करांें की क्षमता को भी समान महत्व दिया गया। जब सितंबर 1965 का युद्ध शुरू हुआ, उस समय मिग-21 को अभी संक्रियात्मक स्तर हासिल करना था। साफ मौसम में दिन में इंटरसेप्ट माॅडल के आधार पर मिग-21 से लैस नं0 28 स्क्वाड्रन का गठन किया गया था लेकिन अभी यह स्थानीय कैप्स उड़ान की जगह ट्रायल यूनिट ही थी। जो स्क्वाड्रनें अभी भी पूरी तरह से अप्रचलित एफ बी मार्क 52 विमान उड़ा रही थी, उन्हें पुनः सज्जित करने के लिए अधिक सक्षम संशोधित मिग-21 विमानों को शीघ्र प्राप्त करना अनिवार्य समझा गया। इस प्रकार प्रोग्राम शुरू करने के लिए पर्याप्त संख्या में उन्नत मिग-21 एफ एल (भारतीय वायुसेना की भाषा में टाइप 77) उड़ान भरने योग्य हालत में विदेश से मंगाए गए, इनके साथ ही कुछ अन्य विमानों को काॅम्पैक्ट किट के रूप में आयात किया गया, जिन्हें एच ए एल द्वारा संयोजित किया जाना था, जो कि 1966-69 की अवधि के दौरान 9 स्क्वाड्रनों को पुनः सज्जित करने के लिए पर्याप्त थे। युद्ध के दौरान जीनैट को मिली सफलता के कारण एच ए एल द्वारा 1966 के प्रारंभ में चरणबद्ध रूप में इसकी असेम्बली को बंद करने की योजना को रोक दिया गया और उत्पादन को पूर्णतः बहाल किया गया जिसके परिणामस्वरूप 1966-68 के दौरान इनके आधार पर आगे चार और जीनैट स्क्वाड्रन (नं0 15,21,22 और 24) गठित किए गए। भू-आक्रमण फाइटर मिशन के लिए एच ए एल द्वारा डिजाइन किए गए एच एफ-24 मारूत की उपलब्धता में विलंब होने के कारण 1966 में भारतीय वायुसेना ने स्थिति का जायजा लिया और सरकार ने सुखोई एस यू-7 बी एम विमान खरीदने का निर्णय लिया (चित्र के लिए यहां पर क्लिक करें)। सोवियत संघ से मार्च 1968 में इनकी डिलिवरी शुरू होनी थी और इनसे छः स्क्वाड्रनें गठित की जानी थी उनमें से नं0 26 पहली स्क्वाड्रन थी जिसे इस टाइप को उड़ाना था। भारत-पाक युद्ध के तीन वर्षों के अंदर भारतीय वायुसेना, जिसे 15 जनवरी 1966 को सेना के साथ समान स्तर हासिल हो चुका था, के पास 70,000 से अधिक कार्मिक थे और यह अपने 45 स्क्वाड्रनों को गठित करने के लक्ष्य को लगभग पूरा कर चुकीं थी। 1968 के शरत्काल तक इसके संघटन में 23 लडा़कू श्रेणी के स्क्वाड्रन, तीन सामरिक बमवर्षक स्क्वाड्रन, एक समुद्री गश्ती स्क्वाड्रन (एक्स-एयर इण्डिया एल. 1049 जी सुपर कांस्टिलेशंस), 11 ट्रांस्पोर्ट स्क्वाड्रन, चार ए ओ पी स्क्वाड्रन, कुछ हेलीकाॅप्टर यूनिटें तथा कुछेक सैम स्क्वाड्रनें शामिल हो चुकी थीं। फाइटर इन्वेन्टरी में जीनैट की संख्या अधिक थी। आठ स्क्वाड्रनंे इनसे लैस थीं, छः स्क्वाड्रनें हंटर विमानों से और चार स्क्वाड्रनें मिग-21 एफ एल से लैस थीं और दो मिस्टियर प्ट ए से। रूपान्तरित वैम्पायर टी मार्क 55 से लैस दो स्क्वाड्रनों ने फोटो रैकी फाइटर रोल निभाया और एक स्क्वाड्रन एच एफ-24 मारूत आॅपरेट कर रही थी। बमबारी करने वाले विमानों की तीन स्क्वाड्रनों थीं जो कि कैनबरा से लैस थीं। समुद्री टोह यूनिट, नं0 6 स्क्वाड्रन ने अन्ततः सन् 1967 के अंत में अपने लिबरेटर विमानों को त्याग दिया था और रूपांतरित एल -1049 जी सुपर कांस्टिलेशंस को अपना लिया। एयरलिफ्ट घटक (काॅम्पोनेंट) में दो स्क्वाड्रनें ए एन-12 बी विमान से लैस, तीन स्क्वाड्रनें सी-119 जी से लैस, तीन सी-47 से लैस, दो आॅटर्स से लैस और एक-एक क्रमशः 11-14 और कैरीबू से लैस थीं। एक स्क्वाड्रन सी-47 से एच एस. 748 में रूपांतरित होने की प्रक्रिया में थी। ए ओ पी स्क्वाड्रनों ने आॅस्टर ए ओ पी-9 और एच ए एल द्वारा डिजाइन किए गए एच ए ओ पी-27 कृषक थे और हेलीकाॅप्टर यूनिटें जो अलग स्क्वाड्रनों के रूप में नहीं बनाई गई थीं उनमें एम आई-4 और अल्यूट।।। (चेतक) थे। जैसे ही साठ का दशक समाप्त हुआ और सत्तर का दशक शुरू हुआ भारतीय वायुसेना ने विस्तार कर 45- स्क्वाड्रनों के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया था। पुरानें उपस्करों को धीरे-धीरे हटाकर उनकी जगह एच एफ-24, मिग-21 एफ एल और एस यू- 7 बी एम विमान दिए गए और मार्च 1971 में एक व्यापक एयर डिफेंस ग्राउण्ड इन्वायर्मेंट सिस्टम (। क्ळम्ैद्ध तैयार करने की योजना षुरू हुई और शुरू में भारत-चीन सीमा की निगरानी को पुख्ता करने पर ज़ोर दिया गया। उड़ान प्रशिक्षण को युक्तिसंगत और विस्तृत बनाया गया और जनवरी 1971 में डुन्डीगल (हैदराबाद के नजदीक) में वायुसेना अकादमी का शुभारंभ किया गया।

दिसम्बर 1971 का युद्ध[संपादित करें]

अत्यधिक विस्तारित सर्विस के व्यावसायिक स्तर, क्षमता तथा लचीलेपन की शीघ्र ही कड़ी परीक्षा की घड़ी आ गई। 1971 के शुरू से ही उपमहाद्वीप की राजनैतिक स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थी, एक और सशस्त्र युद्ध की सम्भावनाओं के मद्देनजर भारतीय वायुसेना को सतर्क कर दिया गया था। नवंबर के कुछ सप्ताह तक भारतीय तथा पाकिस्तानी दोनों सरकारों ने पश्चिमी सीमा पर राष्ट्रीय हवाई क्षेत्र (एयर स्पेस) के उल्लंघन का विरोध किया, लेकिन दोनों की वायुसेनाओं के बीच गंभीर हवाई युद्ध 22 नवम्बर को शुरू हुआ, इससे पूर्व 12 दिनों तक भारत और पाकिस्तान के बीच पूर्ण युद्ध जारी था। 1449 बजे, चार पाकिस्तानी सेबर विमानों ने चैगाछा मोड़ क्षेत्र में भारतीय तथा मुक्ति वाहिनी ठिकानों पर बमबारी की और 10 मिनट बाद जब तीसरी बार बमबारी की जा रही थी तभी 22 नं0 स्क्वाड्रन के चार जीनैट ने सेबर विमानों को रोका (इंटरसेप्ट), जीनैट की एक टुकड़ी दमदम एयरपोर्ट कलकत्ता से कार्रवाई (आॅपरेट) कर रही थी। मुठभेड़ के दौरान, तीन सेबर विमानों को मार गिराया गया और सभी जीनैट बिना क्षतिग्रस्त हुए बेस पर लौट आए। भारत-पाक हवाई युद्ध की लड़ाई का खूनी खाका बन गया था। 3 दिसम्बर को पूरा युद्ध छिड़ने से पहले अन्य मुठभेड़ें आगामी 10 दिनों के अंदर भारत तथा पाकिस्तानी हवाई क्षेत्र में हुईं। 03 दिसम्बर को पूर्ण युद्ध से पहले पाकिस्तानी वायुसेना ने भारतीय वायुसेना के श्रीनगर, अमृतसर और पठानकोट स्थित बेसों पर हमला कर दिया और फिर अंबाला, आगरा, जोधपुर, उत्तरलाई, अवन्तिपुर, फरीदकोट, हलवारा और सिरसा बेसों पर हमला कर दिया। भारतीय वायुसेना बेसों के अतिरिक्त, पाकिस्तानी वायुसेना ने रेलवे स्टेशनों, भारतीय आर्मर ज़माव (कंसन्ट्रेशंस) और अन्य लक्ष्यों पर हमला किया। इसके जवाब में और आगामी दो सप्ताहों के दौरान, भारतीय वायुसेना ने जम्मू-कश्मीर, पंजाब तथा राजस्थान के प्रमुख और अग्रिम बेसों से पष्चिम में लगभग 4,000 और पूर्व में 1978 साॅर्टियां भरी गईं। संपूर्ण युद्ध के दौरान भारतीय युद्धनीति का जोर पश्चिमी तथा उत्तरी मोर्चों पर रक्षात्मक स्थिति में रहना और पूर्व में बिजली की तरह हमला करने पर था। भारतीय वायुसेना ने अत्यधिक विश्वसनीय सेवायोग्यता स्थापित की जो 80 प्रतिशत से भी अधिक थी। पूरे मिशन के दौरान निरोधक कार्रवाई (इंटरडिक्शन) पर जोर था। पश्चिम में भारतीय वायुसेना का मुख्य कार्य था शत्रु की संचार प्रणाली को भंग करना, ईंधन तथा गोला-बारूदों के आरक्षित भण्डार को नष्ट करना और किसी भी जमीनी फौज को इकठ्ठा होने से रोकना, ताकि वह भारत के विरूद्ध बड़ा आक्रमण न कर सके। जब भारतीय सेनाएं मुख्य रूप से पूर्व में व्यस्त थीं, पूर्वी मोर्चे पर भारतीय सेनाओं ने तीन दिशाओं से इंफैंट्री और आर्मर को आगे भेज कर हवाई तथा हेलिकाॅप्टरों से आक्रमण, पोतों पर लगे मिसाइलों से हमला और जमीन और पानी के रास्ते (एम्फिबियस) फौज उतार कर एक व्यवस्थित अभियान शुरू किया। भारतीय वायुसेना का मुख्य काम जमीनी सेनाओं को सीधा सहयोग प्रदान करना था। पश्चिमी रेगिस्तान में एक उत्कृष्ट हवाई कार्रवाई में जैसलमेर स्थित ओ सी यू के चार हंटर विमानों ने लोंगेवाला स्थित संपूर्ण कवचित (आर्मर्ड) रेजीमेंट को पूरी तरह नष्ट कर दिया और एक तरह से शत्रु आगे बढ़ने से रोक दिया। भारतीय वायुसेना दिसम्बर 1971 के युद्ध में अपने प्रदर्शन से काफी संतुष्ट थी। यद्यपि पाकिस्तान ने प्रमुख अग्रिम एयर बेसों पर पहले हवाई आक्रमण करके युद्ध की शुरूआत की थी, लेकिन भारतीय वायुसेना ने भी तुरंत कार्रवाइ्र्र करके पहल अपने हाथ में ले ली और उसके बाद दोनों मोर्चों पर आकाष में अपना प्रभुत्व जमा लिया। बेशक युद्ध से होने वाला नुकसान स्वाभाविक था, लेकिन भारतीय वायुसेना ने शत्रु की तुलना में मुख्य रूप से निरोधात्मक मिशनों पर अधिक उड़ानंे भरीं और विमानरोधी (एंटी एयरक्राफ्ट) फायर के कारण सर्विस की अधिकांश निरोधात्मक कार्रवाई संभव हुई। हवाई युद्ध में भारतीय वायुसेना ने हर स्थिति में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की। पहले दौर में जीनैट विमानों ने ही कार्रवाई की थी, लेकिन इसके बाद स्वदेशी सुपरसोनिक फाइटर मिग-21 विमानों को अपनी श्रेष्ठता साबित करनी थी जिन्हें पेशेवर पायलटों द्वारा उड़ाया जाना था। मिग-21 एफ एल विमानों की छह स्क्वाड्रनें भारतीय वायुसेना के रणविन्यास (आर्डर आॅफ बैटल)) का हिस्सा थे, जो कि पूर्वी तथा उत्तरी दोनों सेक्टरों की संक्रिया में भाग ले रहे थे। गुवाहाटी तथा तेजपुर से उड़ने वाले तीन मिग-21 स्क्वाड्रनों ने बंग्लादेश में ब्लिट्जक्रिंग कार्रवाई के दौरान वायुरोधी (कांउटर एयर) मार्गरक्षण (एस्काॅर्ट) और निकट हवाई सहायता कार्यों में भाग लिया। मिग-21 विमान कम दूरी (शार्ट रेंज) पर कार्रवाई के लिए अत्यधिक प्रभावी था, इसलिए पाकिस्तान वायुसेना के तेजगांव तथा कुर्मीटोला स्थिति हवाई ठिकानों पर 500 किलोग्राम बमों के साथ अचूक आक्रमण किया और राजधानी ढाका के मुख्य कमान केन्द्रों के निश्चित ठिकानों पर 57 एम एम राॅकेटों से आक्रमण किया। पश्चिमी क्षेत्र में मिग-21 को इसके प्रमुख काम हवाई रक्षा, मार्गरक्षण (एस्काॅर्ट) और बीच में रोकने (इंटरसेप्शन) के लिए उत्तर में पठानकोट और दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में जामनगर के प्रमुख एयर बेसों पर तैनात किया गया। मिग-21 एफ एल विमानों ने महत्वपूर्ण स्थलों (वी पी) तथा महत्वपूर्ण क्षेत्रों (वी ए) में सैकड़ों समाघात (काॅम्बैट) हवाई गश्ती उड़ानंे भरीं, बमवर्षकों तथा स्ट्राइक फाइटरों के लिए मार्गरक्षण मिशनों पर उड़ानें भरी और दुश्मन के घुसपैठिए विमानों को रोकने के लिए लगातार उड़ान भरते रहे। आखिरकार मिग-21 को दिसम्बर 1971 के युद्ध के दौरान उपमहाद्वीप के ऊपर हवाई यद्ध में अपने मूल शत्रु एफ-104 स्टार फाइटर के साथ भिड़ना पड़ा और चारों संकुल युद्धों (डाॅगफाइट््स) में मिग-21 विमानों ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और एफ-104 विमानों को लड़ाई में बुरी तरह मात दी। प्रथम हवाई विजय 12 दिसम्बर 1971 को तब प्राप्त हुई जब नं0 47 स्क्वाड्रन के मिग-21 उड़ानों ने कच्छ की खाड़ी के ऊपर पाकिस्तानी वायुसेना के एफ-104 को मार गिराया और इस विजय के बाद 17 दिसम्बर को एक के बाद एक लगातार तीन और सफलताएं हासिल कीं जब नं0 29 ड्रन की मिग-21 उड़ानों ने एच एफ 24 मारूत विमानों को हवाई सुरक्षा देने के दौरान राजस्थान के रेगिस्तान में उत्तरलाई के निकट एफ-104 विमानों को रास्ते में रोककर गन मिसाइल मुठभेड़ में मार गिराया और तीसरे घुसपैठिये एफ-104 को, नं0 29 स्क्वाड्रन की मिग-21 विमानों ने मार गिराया।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "संग्रहीत प्रति" (PDF). मूल (PDF) से 12 सितंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 अप्रैल 2014.