ब्रज की जलवायु

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

ॠतुओं का प्रभाव[संपादित करें]

किसी भी क्षेत्र की संस्कृति वहाँ की जलवायु से वहुत कुछ प्रभावित होती है। जलवायु का आधार ॠतुएँ हैं। अतः क्षेत्रीय जल-वायु का प्रभाव भी वहाँ की गर्मी, सर्दी और वर्षा से होता है। इनका प्रभाव वहाँ के जन-जीवन पर और अन्ततः उसकी संस्कृति पर पड़ता हैं। वर्ष भर में छह ॠतुएँ होती हैं, जिनमें से प्रत्येक को दो-दो महीने की माना गया है, किन्तु साधारणतः तीन ॠतुएँ ही मानी गयीं हैं। तीनों गर्मी, वर्षा और सर्दी मानी गयीं है, जो चार-चार माह की होती हैं। ब्रज में पहिले ये ॠतुएँ नियमित रूप से होती थीं, जिनके कारण गर्मी, वर्षा और सर्दी के मौसम भी ठीक समय पर हुआ करते थे। किन्तु जव से ब्रज में बनों की कमी हुई है और राजस्थानी रिगिस्तान का विस्तार इधर की ओर बढ़ा है, तव से यहाँ वर्षा कम होने लगी है और गर्मी-सर्दी की ॠतुएँ लम्बी तथा कठिन हो गई हैं। इस समय ब्रज में गर्मियों में अधिक गर्मी और सर्दियों में अधिक सर्दी पड़ती है। इस प्राकृतिक परिवर्तन का प्रभाव ब्रज के जन-जीवन अर्थात ब्रज संस्कृति पर प्रति कूल पड़ा है।

ॠतुओं की विषमता[संपादित करें]

ब्रज में गर्म ॠतु का प्रभाव फाल्गुन से लेकर अषाड़ तक रहता है (मार्च से जून) उस समय दिन में अधिक तेज धूप पड़ती है और लू चलती हैं। दिन का तापमान १२०-१३० फ. डिग्री तक पहुँच जाता है, किन्तु रात प्रायः ठंडी रहती हैं। वर्षा सावन से क्वार (जुलाई-सितम्बर) तक होती है, किन्तु इन ती महीनों में भी उसका औसत २६ इंच से अधिक नहीं होता है। इस पर भी वह नियमित रूप से नहीं होती है कभी अधिक होती है तो कभी कम। ब्रज की जो विशेषता यहाँ पर बनों की अधिकता तथा गोचर भूमि और गायों की प्रचुरता के रूप में थी, वह अव विगत युग की बात हो गई है। यहाँ सर्दी में अधिक ठंड पड़ती है और कभी-कभी पाला भी पड़ जाता है उस समय न्यूनतम तापमान ४० फ. डिग्री तक हो जाता है। जव कभी उत्तर से शीत की लहर आ जाती है, जब तो और भी भयंकर ठंड पड़ने लगती है किन्तु उसका प्रभाव ५-१० दिन तक ही रहता है। ब्रज में कहा कहावत है - "धन के पद्रह, मकर के पच्चीस, चिल्ला जाडे दिन चालीस" संक्रान्ती के १५ दिन और मकर की संक्रांति के २५ दिन कुल ४० दिनों तक जाडे का 'चिल्ला' रहता है। इस प्रकार ३१ दिस्मबर से १० फ़रवरी तक ब्रज में खूब सर्दी पड़ती है।

सिंचाई का साधन[संपादित करें]

वर्तमान समय में ब्रज में सिंचाई के मुख्य साधन ट्यूबैल और नहरें हैं। कुछ समय पहिले तक ब्रज में कच्चे-पक्के कुओं और ढेंकुली के माध्यम से भी सिचाई की जाती थी। ब्रज की नहरें गंगा और यमुना नदियों से निकाली गई हैं। ब्रज के राजस्थानी भाग में बानगंगा और रुपारेल के बांधो से निकाली गई नहरों द्वारा सिचाई की जाती है। ब्रज की मुख्य नहरों का संक्षिप्त विवरण निम्न है-

आगरा नहर[संपादित करें]

इसे यमुना नहर भी कहते हैं। यह ब्रज की सवसे प्रसिद्ध नहर है, जो दिल्ली के ओखला बांध से यमुना जल से निकाली गई है और आगरा के निकट यमुना की शाखा उंटगन में मिल जाती है इसकी लम्बाई ओखला से उटंगन तक १४० मील है। इसका उद्धाटन स. १९३१ (५ मार्च १८७४) में सर विलियम म्यूर द्वारा किया गया था और अगले वर्ष के अन्त तक यह सिचाई के उपयोग में आने लगी थी। यह हरियाणा के गुणगाँव और फरीदाबाद जिले, उत्तर-प्रदेश के मथुरा आगरा जिलों की भूमि को सिंचित करती है। इससे सींची जाने वाली भूमि का परिणाम प्राय ढाई लाख एकड़ है, जो अब प्रतिवर्ष धटता जा रहा है।

इस नहर से सिचाई के अतिरिक्त नावों द्वारा व्यापारिक यातायात किये जाने की योजना भी थी। इसके लिये मथुरा तहसील के अड़ीग गाँव के समीप इस नहर से एक धारा निकाली गई थी, जो मथुरा नगर में भूतेश्वर के निकट लाल डिग्गी तक आती थी। उसके द्वारा आगरा, मथुरा और दिल्ली के माल नावों में लाया ले जाया जाता था। वह योजन सफल न हो सकी अत व्यापारिक याता-यात वन्द कर दिया गया तथा लाल डिग्गी को भी भर दिया।

गंगा नहर (माँट शाखा)[संपादित करें]

इसके निर्माण की योजना आगरा नहर के साथ ही साथ स. १९३१ से चल रही थीं, किन्तु अनेक कारणों से वह स्थगित होती रही। इसके निर्माण का प्रारम्भ स. १९५९ के अन्त में हुआ और तीन वर्ष के पश्चात १९६३ के प्रारम्भ में यह बन कर तैयार हुई थी। इसे गाजिआबाद के देहरा नामक स्थान पर गंगा की मुख्य नहर से निकाला गया है और हाथरस जिला सादाबाद तहसील में यमुना की सहायक नदी करबन से मिलाया गया है। इसके द्वारा अलीगढ, हाथरस और मथुरा जिलों की भूमि को सिंचित किया जाता है।

गंगा नहर (हाथरस शाखा) यह गंगा नहर की ही शाखा है। इसके द्वारा अलीगढ और हाथरस की भूमि को सिंचित किया जाता है।

ब्रज की उपजें[संपादित करें]

अच्छी खेती के लिये अच्छी वर्षा का उचित समय पर होना जरुरी है। ब्रज में वर्षा उन मौसमी हवाओं (मानसून) से होती है, जो अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से सावन-भादों के महीनों (जुलाई) में आती हैं। उनसे 'खरीफ' की फसल में मोटा अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का, मूँग, उडद आदि के साथ कपास और गन्ने की उपज तैयार होती है। पहिले शरद ॠतु में भी वर्षा होती थी, जिसे ब्रज में माहोट कहा जाता है, जिससे 'रबी' की फसल में गेंहूँ, जौ, मटर, सरसों, दूआँ आदि की अच्छी पैदावर हुआ करती थी। विगत अनेक वर्षों में महौट कम होने से रबी की फसल भी कम होती है।

यमुना की खादर के रेतीले भाग में ककड़ी, खरबूजे, तरबूजे, काशीफल आदि पैदा होते हैं और शेष भाग में झाऊ, कांस, करील, झरबेर, आदि झाड़िया उत्पन्न होती हैं। झाऊ टोकरी निर्माण, काँस छप्पर निर्माण में उपयोग होते हैं। पहिले ब्रज में नील की उपज होती थी उसे बनाने के यहाँ कई कारखाने भी थे। जब से नील की अपेक्षा अन्य पदार्थों से नकली रंग बनने लगे हैं, तब से नील की आवश्यकता कम हो गई है। फलत यहाँ के नील के कारखाने भी बंद हो गये हैं और किसानों ने भी अन्य फसलों को अपना लिया है।

ब्रज के खनिज[संपादित करें]

ब्रज में खनिज पदार्थ अधिक नहीं मिलते हैं। सातवीं शताब्दी में भारत भ्रमण के क्रम में मथुरा पहुँचे चीनी यात्री ने अपने यात्रा विवरण में प्रस्तुत किया है कि मथुरा के आस-पास की खानों से पीत स्वर्ण निकाला जाता था। आजकल यहाँ सोना तो क्या, कोई भी धातु नहीं निकलती है। यहाँ का उल्लखनीय खनिज पदार्थ लाल रंग का बलुआ प्रस्तर है, जो भरतपुर और आगरा जिलों की खानों से निकाला जाता है। यह प्रस्तर प्राचीन काल से ही यहाँ की इमारतों और मूर्तियों के निर्माण में उपयोग किया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त छाता और कामबन की पहाड़ियों से मटमैला प्रस्तर निकलता है, जिससे रोड़ी निर्माण कर सड़कों का निर्माण किया जाता है।

छाता तहसील और भरतपुर जिला की बहुत सी भूमि क्षारीय अथवा नमकीन है, जिससे पहिले नमक और शोरा निकाला जाता था। पहिले यहाँ पर नमक बनाने के कारखाने हुआ करते थे, किन्तु अब वे सरकारी नियम कानूनों के तहत बन्द कर दिये गयें हैं। शोरा अब भी निकाला जाता है। इसके यहाँ पर बड़े-बड़े कारखाने है। यमुना नदी से कंकड भी निकाले जाते थे, जिन्हें मुगल काल में आग में जलाकर कमजोर कर दिया जाता था और उसके पश्चात उन्हें चक्कस में डालकर पीस दिया जाता था अथवा कूट दिया जाता था, उसके साथ कुछ अन्य सामिग्री मिश्रित कर चूना बनाया जाता था, मुगल कालिन में जितनी इमारते ब्रज में निर्मित हैं उन सभी में इन्हीं कंकडों के चूने को लाखौरी (ककैय्या) ईंटों को जोड़ने में किया है। मकान निर्माण में आज भी कंकड़ के चूने का उपयोग किया जाता हऐ।