बाजीप्रभु देशपाण्डे

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पन्हाला दुर्ग में बाजीप्रभु की प्रतिमा

बाजीप्रभु देशपाण्डे (1615-1660) एक नामी वीर थे। मराठों के इतिहास में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म मराठी कायस्थ परिवार मे हुआ था तथा ये एक वीर मराठा' योद्धा थे। इनकी वीरता से प्रभावित होकर शिवाजी महाराज ने इन्हे अपनी सेना में अहम स्थान दिया था। इन्होने मुगल सेना से युद्ध करते वक्त अपनी विरता का परिचय देते हुए मुगल सेना के एक सौ से भी अधिक खूँखार सैनिको से अकेले युद्ध किया तथा सभी को मौत के घाट सुला दिया तथा जीत हासिल की। इनकी वीरता और कौशल का अन्दाजा सिर्फ इस बात से लगया जा सकता है की कोई भी अकेला सैनिक इनसे युद्ध करने का साहस नही करता था।

परिचय[संपादित करें]

बाजी के पिताजी, हिरडस, मावल के देश कुलकर्णी थे। बाजी की वीरता को देखकर ही छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनको अपनी युद्धसेना में उच्चपद पर रखा। ई.स. १६४८ से १६४९ तक उन्होंने शिवाजी महाराज के साथ रहकर पुरन्दर, कोण्ढाणा और राजापुर के किले जीतने में भरसक मदद की। बाजी प्रभु ने रोहिडा किले को मजबूत किया और आसपास के किलों को भी सुदृढ़ किया। इससे वीर बाजी को मावलों का जबरदस्त कार्यकर्ता समझा जाने लगा। इस प्रान्त में उसका प्रभुत्व हो गया और लोग उसका सम्मान करने लगे। ई. सन् १६५५ में जावली के मोर्चे में और इसके बाद डेढ़ दो वर्षों में मावला के किले को जीतने में तथा किलों की मरम्मत करने में बाजी ने खूब परिश्रम किया। ई. सन् १६५९ के नवम्बर की दस तारीख को अफ़जल खाँ की मृत्यु होने के बाद पार नामक वन में आदिलशाही छावनी का नाश भी बाजी ने बड़े कौशल से किया और स्वराज्य का विस्तार करने में शिवाजी महाराज की सहायता की। ई. सन् १६६० में मोगल, आदिलशाह और सिद्दीकी इत्यादि ने शिवाजी महाराज को चारों तरफ से घेरने का प्रयत्न किया। पन्हाला किला से निकलना शिवाजी महाराज के लिए अत्यन्त कठिन हो गया। इस समय बाजीप्रभु ने उनकी सहायता की। शिवाजी महाराज को आधी सेना देकर स्वयं बाजी घोड की घाटी के दरवाजे में डँटे रहे। तीन चार घण्टों तक घनघोर युद्ध हुआ। बाजी प्रभु ने बड़ी वीरता दिखाई। उसका बड़ा भाई फुलाजी इस युद्ध में मारा गया। बहुत सी सेना भी मारी गई। घायल होकर भी बाजी अपनी सेना को प्रोत्साहित करता रहा। जब शिवाजी महाराज विशाळगढ पहुँचे तो उन्होंने तोप की आवाज से बाजी प्रभु को गढ़ में अपने सकुशल प्रवेश की सूचना दी। तोप की आवाज सुनकर स्वामी के कर्तव्य को पूरा करने के साथ १३ जुलाई १६६० ई. को इस महान वीर ने मृत्यु की गोद में सदा के लिए शरण ली।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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