प्रौद्योगिकी शिक्षा

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प्रौद्योगिकी के अध्ययन को प्रौद्योगिकी शिक्षा (Technology education) कहते हैं। इसमें विद्यार्थी प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित प्रक्रमों का अध्यन करते हैं तथा प्रौद्योगिकी का ज्ञान प्राप्त करते है।

भारत में प्रौद्योगिकी शिक्षा[संपादित करें]

तकनीकी शिक्षा को लेकर भारत में हमेशा एक असमंजस का माहौल रहा है। देश में तकनीकी शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत अभियांत्रिक ( इंजीनियरिंग ), प्रौद्योगिक, प्रबंधन, वास्तुकला (आर्किटेक्चर ), फार्मेसी, नगर नियोजन, हॉटल मैनेजमेन्ट, शिल्प, अनुप्रयुक्त कला एवं शिल्प इत्यादि आते हैं। भारत में तकनीकी शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा तन्त्र को एक महत्वपूर्ण भाग प्रदान करती है। हमारे देश में आर्थिक एवं सामाजिक विकास में सक्रिय भूमिका का निर्वहन करती है। भारत में तकनीकी शिक्षा कई भागों में-डिप्लोमा, डिग्री, मास्टर डिग्री एवं क्षेत्र विशेष में शोध, आर्थिक वृद्धि व तकनीकी विकास के विभिन्न पहलुओं का प्र बन्धन आदि में विभक्त है।

भारत में तकनीकी शिक्षा का विकास हाल के वर्षों में भारत में तकनीकी शिक्षा बहुत तेजी से बढ़ी है। इसके बावजूद देश के प्रौद्योगिकी संस्थान अपने क्षेत्र में सबसे अच्छे बने हुए हैं। लेकिन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान विश्वस्तरीय संस्थान बनने से अब भी काफी दूर है। भारत में तकनीकी विकास को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है-

स्वतन्त्रता पूर्व का परिदृश्य[संपादित करें]

भारत में ब्रिटिश शासकों द्वारा तकनीकी शिक्षा की शुरूआत भवन निर्माण, नहर, सड़क, बन्दरगाह आदि के निर्माण व मरम्मत के लिए तकनीकी अभियन्ताओं की आवश्यकता थी। उन्हें शिल्पकार, चित्रकार, ड्राफ्ɪस मैन आदि के प्रशिक्षण की आवश्यकता थी। जिससे वे यन्त्रों व उपकरणों का प्रयोग कर सकें। स्थल व नौसेना त था सर्वेक्षण विभाग में अधीक्षण अभियन्ता ब्रिटेन के कूपरस हिलन महाविद्यालय से नियुक्त किये जाते थे। इसी प्रकार फोरमैन, क्राफ्ट्समैन, कलाकार एवं तकनीकी अभियन्ताओं की नियुक्ति भी ब्रिटेन से होती थी। अन्य सभी नीचे के तकनीकी कर्मियो की नियुक्ति स्थानीय स्तर पर होती थी। चूंकि ये लोग अनपढ़ थे, इनकी कार्यक्षमता बहुत कम थी। इसलिए उन्हे इस क्षेत्र में लिखने-पढ़ने, भूगोल, यान्त्रिकी का ज्ञान करवाने के लिए आयुध फैक्टरी के समीप औद्योगिक प्रशिक्षण स्कूल खोले गये। सन् 1825 से पहले कलकत्तामुम्बई में इस प्रकार के स्कूल थे। लेकिन इस हेतु जो प्रमाण उपलब्ध है वह गुण्ड्डी, मद्रास में औद्योगिक प्रशिक्षण विद्यालय खोला गया। जो आयुध ( गन व कारतूस ) फैक्ट्ररी के समीप था। इसी प्रकार सन् 1854 में पूना में अभियन्ताओं के प्रशिक्षण के लिए एक विद्यालय खोला गया।

अमेरिका व यूरोप में तकनीकी महाविद्यालयों का विकास हो रहा था, जो गणित में विशेष प्रशिक्षण दे रहे थे। भारत में भी यह मांग उठने लगी कि औपनिवेशिक भारत में भी इस प्रकार के तकनी की विद्यालय खोले जांए। सर्वप्रथम तकनीकी महाविद्यालय उत्तर प्रदेश में सन् 1847 में रूड़की में 'थामसन सिविल इंजीनियरिंग महाविद्यालय' शुरूआत की गई। ऊपरी गंगा नहर के रखरखाव के लिए एक बड़ा वर्कशॉप खोला गया। जो उस समय किसी भी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध नहीं था। लेकिन थामसन सिविल इंजीनियरिंग महाविद्यालय डिप्लोमा की उपाधि दे रहा था। जो इंजीनियरिग के समकक्ष थी। सन् 1856 में कलकत्ता, मुम्बई व मद्रास में तीन इंजीनियरिंग महाविद्यालय खोले गये। नवम्बर 1856 में कलकत्ता में बंगाल इंजीनियरिंग महाविद्यालय खोला गया। जिसे सन् 1880 में सिबपुर बिशॉप महाविद्यालय में स्थानान्तरित कर दिया। मुम्बई में इंजीनियरिंग महाविद्यालय स्थापित न होने के कुछ कारण थे। लेकिन पूना तकनीकी विद्यालय को क्रमोन्नत कर महाविद्यालय का दर्जा दे दिया। मद्रास प्रेसिडेंसी में आयुध फैक्ट्री, गुण्ड्डी में तकनीकी महाविद्यालय की शुरूआत की गई। शिबपुर, पूना व गुण्ड्डी इंजीनियरिग महाविद्यालय सिविल में डिग्री देते थे। सन् 1887 में बोम्बे विक्टोरिया जुबली तकनीकी संस्थान, बॉम्बे में इलेक्ट्रॉनिक्स, मैकेनिकल व टेक्सटाइल में डिग्री देते थे। सन् 1907 में स्वदेशी आन्दोलन के द्वारा भारतीय शिक्षा परिषद् के सहयोग से भारत में एक राष्ट्रीय तकनीकी विश्वविद्यालय खोले जाने की मांग उठी। इस प्रकार भारतीय शिक्षा परिषद ने कई तकनीकी विद्यालयों की स्थापना की गई। लेकिन जादवपुर में ही तकनीकी विद्यालय बना रहा। यह सन् 1908 में में केमिकल व इंजीनियरिग में डिप्लोमा तथा 1921 में डिग्री देने लगा। कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग (1917 ) में में केमिकल व इलेक्ट्रोनिक डिग्री महाविद्यालय की स्थापना हेतु बहस प्रस्तुत की। भारतीय औद्योगिक आयोग (1915 ) के अध्यक्ष सर थोमस होलैण्ड ने भी औद्योगिक शिक्षा के शुरूवात करने के लिए कई सुझाव दिये। पण्डित मदन मोहन मालवीय के प्रयास से बनारस विश्वविद्यालय में सन् 1917 में मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल तथा धातुकर्म में इंजीनियरिंग की उपाधि प्रारम्भ की गई। सिबपुर, गुण्ड्डी तथा पूना में 15 वर्ष पश्चात् मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल एवं धातुकर्म इंजीनियरिंग में पाठ्यक्रमों को प्रारम्भ किया गया।

स्वतन्त्रता पश्चात तकनीकी शिक्षा का विकास[संपादित करें]

राष्ट्र के सामाजिक व आर्थिक विकास में तकनीकी शिक्षा एक महत्वपूर्ण एवं सशक्त भूमिका निर्वहन करती है। भारत में तकनीकी शिक्षा विभिन्न स्त रों पर प्रदान की जाती है जैसे-शिल्पकला, डिप्लोमा, डिग्री, अधिस्नातक और शोध जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में तकनीकी विकास एवं आर्थिक उन्नति के विभिन्न पहलुओं को दृष्टिगत रखा जाता है। भारत में औपचारिक तकनीकी शिक्षा का प्रारम्भ 19वीं शताब्दी के मध्य में हुआ। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद का गठन नवम्बर 1945 में हुआ। यह राष्ट्रीय स्तर की शीर्ष सलाहकार संस्था जो देश में तकनीकी शिक्षा के समन्वित विकास हेतु सुविधाओं पर सर्वे का संचालन करे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986 ) के तहत अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद को देश में तकनीकी शिक्षा के समन्वित विकास सुनिश्चित करने के लिए नियोजन, नीति निर्धारण, मानक, गुणात्मक शिक्षा का रखरखाव, प्राथमिक क्षेत्रों में कोष का निर्धारण, मूल्यांकन व मॉनीटरिंग, प्रमाणीकरण एवं पुरस्कार आदि का वैधानिक अधिकार सौंपा गया। भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय में भी एक राष्ट्रीय कार्यकारी समूह का निर्माण किया, जो अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के योगदान-तकनीकी शिक्षा के 195 निरूपण और मानकों के रखर खाव के सन्दर्भ में जांच करेगा। कार्यकारी समूह के सुझावों में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद को अति आवश्यक वैधानिक अधिकार देते हुए इसे और अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु विद्यमान तथा प्रचलित प्रविधि यों को पुनसं रचित कर आवश्यक आधारभूत ढांचें को सुदृढ़ बनाया जावें। उपर्यु क्त कार्यकारी समूह के सुझावों को दृष्टिगत करते हुए अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद अधिनियम 52 सन् 1987 संसद के दोनों सदनों में पारित किया गया। यह अधिनियम 28 मार्च 1988 से लागू किया गया। तकनीकी शिक्षा के लिए अखिल भारतीय वैधानिक परिषद् की स्थापना 12 मई 1988 में इस दृष्टिकोण के साथ की गई। यह परिषद देश भर तकनीकी शिक्षा के समन्वित विकास एवं उचित नियोजन, गुणात्मक एवं मात्रात्मक तकनीकी शिक्षा के उत्थान एवं नियमन व मानकों का उचित पालन सुनिश्चित करवाये। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् के अंग निम्नलिखित ब्यूरो हैं-

1 . प्रशासनिक ब्यूरो

2 . शैक्षिक ब्यूरो

3 . अभियान्त्रिक व प्रौद्योगिक ब्यूरो

4 . वित्त ब्यूरो

5 . प्रबन्ध व प्रौद्योगिक ब्यूरो

6 . योजना व विश्वसनीयता ब्यूरो

7 . शोध व संस्थानिक विकास ब्यूरो

भारत में तकनीकी शिक्षा को तीन स्पष्ट भागों में विभाजित किया गया है -

  • पॉलीटेक्निक महाविद्यालय :- जहाँ मध्यम स्तर के तकनीकी कुशलों के लिए डिप्लोमा कार्यक्रम चलाये जाते है।
  • 'इंजीनियरिंग महाविद्यालय :- जहाँ इंजीनियरिंग व प्रौद्योगिकी में स्नातक व अधिस्नातक डिग्री पाठ्यक्रम कार्यक्रम चलाये जाते है।

ग्यारहवीं योजना के प्रारंभ के समय 19 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 7 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, 20 राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, 4 भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, 2 भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान, 6 भारतीय प्रबंधन संस्थान और 1 योजना और वास्तुकला विद्यालय के अलावा केंद्र द्वारा वित्तपोशित कुछ अन्य शिक्षण संस्थाएं थी। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान तकनीकी और उच्च शिक्षा के अनेक संस्थान खोले गये हैं। 13 नये केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना के अलावा 3 प्रांतीय विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालयों में परिवर्तित किया गया है। 8 नये आईआईटी, 7 नये आईआईएम, 3 नये आईआईएसईआर, 2 नये एसपीए और अनेक नयी पॉलिटेक्निक संस्थाएं भी स्थापित की गई है। इनके अतिरिक्त 10 नयी राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थाओं को मंजूरी दी गई है। राष्ट्रीय औसत की तुलना में कम सकल नामांकन अनुपात वाले शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए जिलों में 374 महाविद्यालयों की स्थापना पर विचार किया जा रहा है। विश्वस्तरीय 14 विश्वविद्यालयों ( अथवा नवोन्मेशी विश्वविद्यालय ) और 20 नये आईआईटी संस्थानों की स्थापना का विचार अभी प्रारंभिक अवस्था में है। वर्ष 2 007-08 में विश्वविद्यालय एवं उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा पर व्यय कुल शिक्षा परिव्यय का क्रमशः 11.8 3 प्रतिशत और 5.33 प्रतिशत भाग रहा। तकनीकी शिक्षा पर व्यय का अंश वर्ष 2006-07 के 3.8 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2007-08 में 5.33 प्रतिशत हो गया। ग्यारहवीं योजना के पहले तीन वर्षों के दौरान मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा शिक्षा पर किए गए बजटीय व्यय के विश्लेषण के अनुसार केंद्रीय योजना और गैर-योजना व्यय दसवीं योजना के केंद्रीय योजना और गैर-योजना व्यय में हुई, वार्षिक वृद्धि के विपरीत क्रमशः 521 प्रतिशत और 44 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। उच्च शिक्षा में केंद्रीय योजना और गैर-योजना तथा सार्वजनिक व्यय में केंद्रीय योजना और गैर-योजना तथा सार्वजनिक व्यय में राज्य योजना और गैर-योजना का हिस्सा क्रमशः 8 प्रतिशत, 13 प्रतिशत, 6 प्रतिशत और 73 प्रतिशत रहा है। नौवीं से दसवीं योजना में केंद्रीय योजना व्यय बढ़कर 86 प्रतिशत हो गया। इसी अवधि में राज्य योजना व्यय बढ़कर 76 प्रतिशत हो गया। केंद्रीय योजना व्यय 10 वीं योजना की तुलना में 11वीं योजना में 10 गुने से भी अधिक बढ़ गया। तकनीकी शिक्षा के विस्तार के लिए धन जुटाने हेतु किसी प्रकार की संस्थागत व्यवस्था कायम करने पर भी विचार की जाने की आवश्यकता है।

शिक्षा तकनीकी का इतिहास[संपादित करें]

भारत में आर्थिक कठिनाइयों के होते हुए भी यह स्पष्ट है कि आर्थिक एवं उत्पादन क्षेत्रों में धीरे-धीरे तकनीकी का प्रवेश हो चुका है व इसका प्रयोग निरन्तर बढ़ता जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में भी इस का वांछित है तथा शिक्षा में तकनीकी का प्रयोग होने लगा है व इस दिशा में अनुसंधान भी होने लगे हैं। शिक्षा के दो-प्रमुख क्षेत्र अधिगम एवं शिक्षण है। इन दोनों प्रक्रियाओं के माध्यम से अधिगमकर्ता अपने उद्देश्यों को निरन्तर पुनर्बलन नहीं दे सकता है जो एक आदर्श अधिगम स्तर के लिए आवश्यक है और इसलिए शिक्षण को मशीन एवं अन्य शिक्षण सहायक सामग्री की आवश्यकता पड़ती है। सन् 1960 से पूर्व ‘ शैक्षिक तकनीकी ’ को दृश्य-श्रव्य सामग्री तथा कक्षा-शिक्षण से सम्बन्धित अधिकतर शिक्षण सामग्री से सम्बन्धित किया जाता था। अधिकतर शिक्षकों एवं शिक्षक-प्रशिक्षकों के लिए शैक्षिक तकनीकी का अर्थ शिक्षण में प्रयुक्त सहायक सामग्री से ही होता था। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भी शैक्षिक खिलौने आदि का प्रयोग प्राथमिक कक्षाओं में होता था। सन् 1950 के दशक में स्टैनले एडवर्ड, बी . एफ, स्किनर आदि अभिक्रमित अध्ययन पद्धति का विकास किया तथा उसी के आधार पर कुछ उत्कृष्ट पुस्तको का निर्माण भी हुआ। कार्डों तथा बोर्डों को प्रस्तुत कर शिक्षण के यंत्रीकरण करने का प्रयास किया गया। सन् 1970 में सर्वप्रथम इंग्लैंण्ड के शिक्षाविद् का प्रयोग किया और धीरे-धीरे अन्य देशों व भारत में महत्व का बिन्दु बन गया। यह शिक्षा के ‘ एक विषय ’ के रूप में निहित किया गया व इस क्षेत्र में अध्ययन व विकास के लिए प्रयास प्रारम्भ हो गया। शैक्षिक तकनीकी अब शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का ‘ कार्यात्मक विश्लेषण ’ प्रस्तुत कर शिक्षा प्रणाली के अन्य तत्वों का अध्ययन करती है जो शिक्षण में अदा से प्रदा तक की प्रक्रिया में निहित होते हैं। इस दिशा में कार्य करते हुए शैक्षिक अनुसंधान एव समझा एव शैक्षिक तकनीकी केन्द्र के नाम से पृथक विभाग खोला, जो शैक्षिक तकनीकी का विकास एव उनके द्वारा विभिन्न शैक्षिक सम स्याओं का निदान करने की सम्भावना एवं शोध की दिशा में कार्य करने का प्रयास करता है। शैक्षिक तकनीकी के विकास के परिणामस्वरूप ही अन्य क्षेत्रों की भांति अब विज्ञान एवं मशीनों का प्रयोग शिक्षा में होने लगा है। शिक्षण मशीन, रेडियो, टेलीविजन, टेपरिकॉर्डर, कम्प्यूटर एवं भाषा प्रयोगशालाओं का प्रयोग अब शिक्षण प्रक्रिया में अधिकाधिक किया जाने लगा है। मानव ज्ञान के सभी पक्षों-संचय संचर ण आज आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के माध्यम से विश्व में कहीं भी दूर बैठा विद्यार्थी, प्रभावी शिक्षक को सुनकर लाभ उठा सकता है एवं ज्ञान में वृद्धि कर सकता है। इसके माध्यम से वह अपने ज्ञान को आधुनिकतम सीमा तक वृद्धि कर सकता है। शिक्षण तकनीकी एवं व्यवहार तकनीकी में अनेक शिक्षण मशीनों-हार्डवेयर एवं सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया जाने लगा है।

शैक्षिक तकनीकी की आवश्यकता[संपादित करें]

वर्तमान युग को तकनीकी युग कहा जाता है। जैसे-जैसे शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति होती गई, शिक्षा को अधिकाधिक वै ज्ञानिक आधार देने की आवश्यकता अनुभव होने लगी क्योंकि प्रत्येक तकनीकी विकास के आधार शिक्षा ही है। शिक्षा की अवधारणा प्रमुखतया आधुनिकतम संकल्पना के रूप में बालक का सर्वांगीण विकास है। यह शिक्षण की अपेक्षा अधिगम पर बल देती है तथा बालक के व्यवहार में अपेक्षित अनुकूलतम व्यवहा रगत परिवर्तन इस प्रकार से करती है कि बालक की अन्तनिर्हित क्षमताओं को बहुमुखी कर सामाजिक वातावरण में विकसित कर सके। बालकों के सर्वां गी ण विकास के लिए प्रमुख आधार बनता है – ‘ ज्ञान ’ जिसके माध्यम से अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन उद्देश्यानुसार लाने का प्रयास कि या जाता है। अत : ज्ञान के संचय, प्रसार एवं विकास हेतु आधुनिकतम तकनीकियों की आवश्यकता अनुभव हो जाने लगी। इसमें भी आधुनिकतम यंत्रीकरण कर विकास किया जाने लगा और यह विकास के पथ पर है-

ज्ञान का संचय : रेडियो, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, सी . सी . टीवी ., सैटेलाइट आदि

ज्ञान का प्रसार : प्रिण्टिग मशीन, ऑफसैट, प्रिटिंग, पुस्तकें, टेप-रिकॉर्डर, फिल्म

ज्ञान का विकास : शिक्षण विधि, प्रविधि व्यूह रचना, शिक्षण सिद्धान्त प्रतिमान के विकास हेतु वैज्ञानिक शोधकार्य आदि

शिक्षा तकनीकी का सम्बन्ध केवल हार्डवेयर ( मशीन ) अभियांत्रि की से नहीं है, वरन् शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु शिक्षण को प्रभावी बनाने हेतु, अनुदेशन को संकलित करने हे तु एवं शिक्षण के प्रभाव का मूल्यांकन करने हेतु आधुनिकतम तकनीकी के प्रयोग करने से है। यह हार्डवेयर के प्रयोग के माध्यम से हो सकती है अथवा सॉफ्टवेयर के विकास के रूप में हो सकती है, यथा-शिक्षण प्रतिमान, शिक्षण सिद्धान्त।

अभिक्रमित अनुदेशन, शिक्षण पद्धति, प्रविधि अथवा व्यूह रचना ओं का विकास। दूरगामी शिक्षा आधुनिक शिक्षा तकनीकी का एक उदाहरण है। शिक्षा तकनीकी में व्यावहारिक पक्ष अधिक सक्रिय रहता है इसलिए इस को शिक्षा अभियंत्रण भी कहा जाता है। यह शिक्षा के क्षेत्र में वै ज्ञा निक ज्ञान का व्यावहारिक कार्यों में क्रमबद्ध प्रयोग करती है। यह अन्य विषय क्षेत्रों, यथा-मनोविज्ञान, भौतिकी, समाजशास्त्र, प्रशासन, प्रबन्ध आदि के सिद्धान्तों को ग्रहण कर शिक्षा में विधि, प्रविधि, व्यूह रचना, शिक्षक-शिक्षार्थी अन्तःक्रिया, मूल्यांकन प्रक्रिया आदि की रूपरेखा बनाने एवं विद्यालय संगठन तथा प्रशासन में सुधार लाने हेतु उनका व्यावहारिक क्रम में वैज्ञानिक प्रयोग है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]