पाञ्चजन्य (पत्र)

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पाञ्चजन्य भारतीय राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रणयन करने वाला हिन्दी का साप्ताहित समाचार पत्र है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी कल्पना में दीनदयाल उपाध्याय ने की थी। इसके प्रथम सम्पादक महाव कवि और चिन्तक अटल बिहारी वाजपेयी थे जो बाद में भारत के प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। आरम्भ में यह लखनऊ से प्रकाशित होता था।

इतिहास[संपादित करें]

भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद १४ जनवरी १९४८ को मकर संक्राति के पावन पर्व पर अपने आवरण पृष्ठ पर भगवान श्रीकृष्ण के मुख से शंखनाद के साथ श्री अटल बिहारी वाजपेयी के संपादकत्व में ‘पाञ्चजन्य‘ साप्ताहिक का अवतरण स्वाधीन भारत में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रेरक आदर्शों एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों का स्मरण दिलाते रहने के संकल्प का उद्घोष ही था।

पाञ्चजन्य की कल्पना दीनदयाल उपाध्याय ने की थी। वस्तुतः जिस राष्ट्रधर्म प्रकाशन के तत्वावधान में लखनऊ से ‘पाञ्चजन्य‘ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ उसका बीजारोपण पं० दीनदयाल उपाध्याय की पहल पर हो चुका था, जिन्होंने ‘पाञ्चजन्य‘ के शैशव काल में सम्पादक से लेकर प्रूफ रीडर, कम्पोजिटर, मुद्रक और कभी-कभी बंडल बांधने, उन्हें ले जाने के सब दायित्वों का निर्वाह करते हुए ‘पाञ्चजन्य‘ का पालन पोषण किया। उन्होंने ‘पाञ्चजन्य‘ के सम्पादक पद पर अपना नाम नहीं दिया पर वे सही अर्थों में ‘पाञ्चजन्य‘ के जन्मदाता और पालकर्ता थे। वे महान मौलिक चिन्तक और कलम के धनी थे। पर वे स्वयं सम्पादक नहीं बने बल्कि उन्होंने सम्पादकों की निर्मिति की। १९६८ में अपनी असामयिक मृत्यु तक वे ‘पाञ्चजन्य‘ के वास्तविक मार्गदर्शक थे। वे सम्पादक नहीं, सम्पादकों के गुरु थे। १९६८ तक ‘पाञ्चजन्य‘ के वास्तविक मार्गदर्शक थे। वे सम्पादक नहीं, सम्पादकों के गुरु थे। १९६८ तक ‘पाञ्चजन्य‘ में उन्होंने बहुत लिखा। अनेक नाम से लिखा। उन्होंने स्वातंत्रयोतर पत्रकारिता में प्रसिद्धि परांमुख, ध्येय समर्पित पत्रकारिता का एक दुलर्भ उदाहरण प्रस्तुत किया। उनकी पावन स्मृति ही ‘पाञ्चजन्य‘ की कठिन ध्येय यात्रा का पाथेय है। एक प्रकार से ‘पाञ्चजन्य‘ उनके चिन्तन तंत्र का अखंड प्रवाह है, उनकी पावन स्मृति का अक्षय केन्द्र है। पं० दीनदयाल जी जैसे प्रसिद्धि परांमुख ध्येयनिष्ठ व्यक्तित्व की भावभूमि पर टिका होने के कारण ही ‘पाञ्चजन्य‘ साधनविहीन होने पर भी सत्ता की ओर से आने वाले अनेक विपरीत प्रवाहों को झेलकर भी अपने ध्येय पथ पर बढ़ता रहा।

सम्पादक

‘पाञ्चजन्य‘ का गला घोंटने की कोशिश[संपादित करें]

पाञ्चजन्य के जन्म का एक माह भी पूरा नहीं हुआ था कि गांधी हत्या सेप्रक्षाभित वातावरण का लाभ उठाकर सरकार ने फरवरी, १९४८ में ‘पाञ्चजन्य‘ का गला घोंटने की कोशिश की। उसके सम्पादक, प्रकाशक और मुद्रक को जेल में बंद कर दिया, उसके कार्यालय पर ताला ठोक दिया। साढ़े चार माह बाद न्यायालय की कृपा से ‘पाञ्चजन्य‘ का पुन: प्रकाशन संभव हो पाया। छ: महीने निकलने के बाद दिसम्बर, १९४८ में ‘पाञ्चजन्य‘ पर फिर हमला करके सात माह के लिए उसके मुंह पर ताला ठोंक दिया गया। जुलाई, १९४९ में यह ताला हटते ही ‘पाञ्चजन्य‘ का शंखनाद पूर्ववत्‌ गूंज उठा। राष्ट्र हित में ‘पाञ्चजन्य‘ का निर्भीक स्वर सरकारों के लिए हमेशा सरदर्द बना रहा। १९५९ में कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत की स्वाधीनता के अपहरण और दलाई लामा के निष्कासन के समय ‘पाञ्चजन्य‘ ने नेहरु जी की अदूरदर्शिता और चीन की नीति की निर्भय होकर आलोचना की। १९६२ में भारत पर चीन के हमले के लिए ‘पाञ्चजन्य‘ ने नेहरु जी की असफल विदेश नीति एवं रक्षा नीति को दोषी ठहराया, जिससे तिल मिलाकर नेहरु सरकार ने ‘पाञ्चजन्य‘ को धमकी भरा नोटिस दिया। १९७२ में भारतीय सेनाओं की विजय को शिमला समझौते की मेज पर गंवा देने के विरूद्ध ‘पाञ्चजन्य‘ के आक्रोश से तिलमिलाकर इंदिरा सरकार ने ‘पाञ्चजन्य‘ के सम्पादकों एवं प्रकाशकों को लम्बे समय तक कानूनी कार्यवाही में फंसाए रखा। जून, १९७५ में इंदिरा गांधी ने आपात स्थिति की घोषणा करके भारतीय लोकतंत्र का गला घोंटने की कोशिश की गई और मार्च, १९७७ में आपातकाल की समाप्ति पर ही ‘पाञ्चजन्य‘ पुन: अपनी ध्येययात्रा आरंभ कर सका। ‘पाञ्चजन्य‘ के निर्भीक स्वर से तिलमिलाकर लोगों एवं सरकार द्वारा दायर किए गए मुकदमों की सूची बहुत लम्बी है। ‘पाञ्चजन्य‘ के सम्पादकों एवं प्रकाशकों का एक पैर हमेशा न्यायालय में रहा है।

प्रेरणादायी गाथा[संपादित करें]

‘पाञ्चजन्य‘ की यात्रा साधनों के अभाव एवं सरकारी प्रकोपों के विरूद्ध राष्ट्रीय चेतना की जिजीविषा और संघर्ष की प्रेरणादायी गाथा है। ‘पाचजन्य‘ द्वारा समय-समय पर घोषित ध्येय वाक्यों जैसे ‘राष्ट्रीयता का प्रहरी‘, ‘सांस्कृतिक चेना का अग्रदूत‘ या ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं शौर्य का स्वर‘ से स्पष्ट है कि ‘पाञ्चजन्य‘ राष्ट्रीय पुननिर्माण के पथ पर स्वाधीन भारत की यात्रा को स्वाधीनता आंदोलन की मूल प्रेरणाओं से जोड़े रखने के लिए खतरा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों एवं शक्तियों को चेतावनी का स्वर निर्भीकता के साथ बार-बार गुंजाता रहा। समय-समय पर प्रारंभ किए गए स्तम्भों से स्पष्ट होता है कि राष्ट्र जीवन का कोई भी क्षेत्र या पहलू उसकी दृष्टि से ओझल नहीं रहा। अन्तर्राष्ट्रीय घटनाचक्र हो या राष्ट्रीय घटना चक्र, अर्थ जगत, शिक्षा जगत, नारी जगत, युवा जगत, राष्ट्र चिन्तन, सामयिकी, इतिहास के झरोके से, फिल्म समीक्षा, साहित्य समीक्षा, संस्कृति-सत्य जैसे आदि अनेक स्तंभ ‘पाचजन्य‘ की सर्वांगीण रचनात्मक दृष्टि के परिचायक है।

परिचय[संपादित करें]

‘पाञ्चजन्य‘ के लेखक वर्ग में डॉ॰ सम्पूर्णानन्द, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, डॉ॰ राममनोहर लोहिया, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, महादेवी वर्मा, किशोरी दास वाजपेयी, कृष्णचन्द प्रकाश मेढ़े जैसे मूर्धन्य विचारकों राजनेताओं तथा साहित्यकारों का योगदान रहा हैं। इनके अतिरिक्त ‘पाञ्चजन्य‘ ने विभिन्न राजनैतिक दलों के शिखर नेताओं के साक्षात्कार प्रकाशित करके राष्ट्रीय समस्याओं पर बहस चलाने की सार्थक कोशिश की है। ऐसे नेताओं में मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर, मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, शरद यादव, ए० बी० वर्धन, एम० फारूखी, मौलाना वहीदुद्दीन खान आदि के नाम गिनाए जा सकते है। इस समय भी जग मोहन, अरुण शौर व जे०एन० दीक्षित जैसे विचारक ‘पाञ्चजन्य‘ के नियमित लेखक हैं।

स्वरूप[संपादित करें]

‘पाञ्चजन्य‘ ने जहां अपने सामान्य अंक के सीमित कलेवर में अनेक स्तम्भों के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक दृष्टि के आलोक में पाठकों को देश-विदेश के घटनाचक्र से अवगत कराने की कोशिश की, तो विचार प्रधान लेखों के द्वारा मूलगामी राष्ट्रीय प्रश्नों पर भी उन्हें सोचने की सामग्री प्रदान की। असम और पूर्वोत्तर भारत आज जिस संकट से गुजर रहा है, कश्मीर समस्या आज क्यों हमारे जी का जंजाल बनी हुई है?इसके बारे में ‘पाञ्चजन्य‘ अपने जन्म काल से ही चेतावनी देता रहा है। ‘पाञ्चजन्य‘ के पुराने अंकों का अध्ययन करने पर स्पष्ट होगा कि यदि समय रहते ‘पाचजन्य‘ की चेतावनियों को सुना गया होता तो पृथकतावाद, पाञ्चजन्य विघटन एवं राजनैतिक दलों के जिस संकट से हम गुजर रहे हैं, वह हमारे सामने न आता। स्वाधीन भारत की यात्रा के प्रत्येक महत्वपूर्ण मोड़ पर ‘पाञ्चजन्य‘ राष्ट्रीयता के प्रहरी की भूमिका निभा रहा है। ‘पाञ्चजन्य‘ ने वर्ष में कम से कम पांच अवसरों पर विशेषांक निकालने का निश्चय किया। स्वाधीनता दिवस ‘१५ अगस्त‘, गणतंत्र दिवस२६ जनवरी‘, विजया दशमी, दीपावली, वर्ष प्रतिपदा। इनके अतिरिक्त भी आवश्यकतानुसार, विषयानुसार, विशेषांकों का आयोजन किया जाता रहा। प्रत्येक विशेषांक में इतिहास, संस्कृति और राजनीति पर विचारप्रधान लेखों का संकलन होता है। विषय केन्द्रित विशेषांकों की परम्परा स्वयं में बहुत समृद्ध और अनूठी है। प्रारंभ से ही ‘पाञ्चजन्य‘ ने व्यवस्था त्रयी के अन्तर्गत ‘राजनीति‘, ‘अर्थ‘ और ‘समाज‘ विषयों पर तीन विशेषांकों का पुस्तकाकार रूप में आयोजन किया। तिलक सिंह परमार के सम्पादन काल में ‘समाज अंक‘, ‘राष्ट्रीय एकता अंक‘, ‘केरल अंक‘, ‘तिब्बत अंक‘ और ‘जनसंघ अंक‘ निकले। यादवराव देशमुख ने ‘हिमालय बचाओ अंक‘, ‘युद्ध अंक‘, ‘कश्मीर अंक‘, ‘भारत-नेपाल मैत्री अंक‘ का आयोजन किया। वचनेश त्रिपाठी ने स्वाधीनता के लिए हुए क्रान्ति संघर्ष पर दो ‘क्रांति संस्मरण अंक‘ आयोजित किए। केवल रतन मलकानी के प्रधान सम्पादकत्व में देवेन्द्र स्वरुप ने ‘भारतीयकरण विशेषांक‘, ‘गांधी जन्म शताब्दी विशेषांक‘, ‘बंगाल विशेषांक‘, ‘बंगलादेश मुक्ति विशेषांक‘, ‘दरिद्रनारायण विशेषांक‘ आदि का आयोजन किया। भानु प्रताप शुक्ल ने ‘क्रांति कथा अंक‘, ‘वीर वनवासी अंक‘, ‘उद्योग अंक‘ आदि निकाले। प्रबाल मैत्र के सम्पादन काल में ‘अपना वतन अंक‘, ‘समाधान अंक‘, ‘वैशाखी अंक‘ आदि का प्रकाशन हुआ।

तरुण विजय के सम्पादकत्व में ‘सामाजिक समरसता अंक‘, ‘अभिनव भारत अंक‘, ‘धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे अंक‘ आदि अनेक विशेषांकों का आयोजन हुआ। यह परम्परा अनवरत जारी है।

‘पाञ्चजन्य‘ के विशेषांक कभी पूर्णाकार, कभी पत्रिकाकार, तो कभी पुस्तकाकार में प्रकाशित हुए हैं। संग्रहणीय होने के कारण ‘पाचजन्य‘ के पाठक इन विशेषांकों को एक अमूल्य निधि की तरह संजोकर रखते हैं। ४६ वर्ष लम्बे कटु अनुभव के आलोक में आज संविधान की समीक्षा की चर्चा जोर पकड़ रही है। किन्तु ‘पाञ्चजन्य‘ ने इस संदर्भ में जुलाई से सितम्बर, १९५९ में ही जयप्रकाश नारायण, के० एम० मुंशी, मीनू मसानी, मेहरचंद महाजन, सत्यकेतु विद्यालंकार आदि अधिकारी विद्वानों के लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की थी, जिसमें वर्तमान संविधान की अपूर्णता पर प्रकाश डालते हुए उसके पुनर्निरीक्षण की आवश्यकता पर बल दिया गया था। ऐसी अनेक विचारात्तेजक मूलगामी लेखमालाओं से ‘पाञ्चजन्य‘ भरा पड़ा है। उसके संकलन का प्रकाशन आज भी उद्बोधक और उपादेय है।

‘पाञ्चजन्य‘ का जन्म लखनऊ में हुआ। किन्तु राष्ट्रीय मंच पर अपनी भूमिका का अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु १९६८ में उसका प्रकाशन दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। १९७२ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन ने उसका प्रकाशन, मुद्रण पुन: लखनऊ से करने का निश्चय किया। आपातकाल की समाप्ति के बाद १९७७ में ‘पाञ्चजन्य‘ का प्रकाशन पुन: दिल्ली से आरम्भ करने के लिए राष्ट्रधर्म ने उसके प्रकाशन का पूर्ण दायित्व अपनी सहयोगी संस्था भारत प्रकाशन दिल्ली लिमिटेड को हस्तांतरित कर दिया।

सम्पादक, स्थान और स्वामित्व परिवर्तन के अतिरिक्त ‘पाञ्चजन्य‘ ने आकार और सज्जा परिवर्तन की दृष्टि से समय-समय पर तरह-तरह के प्रयोग किए। जनवरी, १९५९ से १९६३ तक ‘पाञ्चजन्य‘ के सामान्य अंक भी पत्रिकाकार में ही निकले। सम्भवत: हिन्दी साप्ताहिक के क्षेत्र में ये पहला प्रयास था। किन्तु स्थान परिवर्तन, स्वामित्व परिवर्तन या आकार परिवर्तन का अर्थ ‘पाञ्चजन्य‘ का चरित्र परिवर्तन नहीं है। राष्ट्रीय चेतना की जिस भावभूमि में से ‘पाचजन्य‘ का जन्म हुआ, स्वाधीन भारत की भौगोलिक अखंडता एवं सुरक्षा, उसकी सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करते हुए उसे ससम्मान श्रेष्ठ सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के आधार पर युगानुकूल सर्वांगीण पुनर्रचना के पथ पर आगे ले जाने के जिस संकल्प को लेकर ‘पाञ्चजन्य‘ ने अपनी जीवन यात्रा आरम्भ की थी, वह आज पूरी शक्ति के साथ अपने उसी कर्त्तव्य पथ पर डटा हुआ है।

स्वाधीन भारत के साथ-साथ ‘पाञ्चजन्य‘ न केवल उसका सहयात्री है, बल्कि इस यात्रा में भावना और कर्म से पूरी तरह जुड़ा है। राष्ट्र के स्वर्ण जयंती वर्ष में ही ‘पाञ्चजन्य‘ की भी स्वर्ण जयंती है। एक प्रकार से ये दोनों उपनिषद की भाषा में ‘सयुजा सखाया‘ है और गीता के शब्दों में ‘परस्पर भावयन्तु‘ ही दोनों की नियति है।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]