विधिशास्त्र

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राफेल द्वारा बनाया गया फ्रेस्को जो ट्रेबोनियनस द्वारा जस्टिनियन को पांडेक्ट्स प्रस्तुत करते हुए दिखाता है; यह चित्र चार प्रधान गुणों में से न्याय व विधिशास्त्र का दृष्टांत करता है।

विधिशास्त्र या न्यायशास्त्र (अंग्रेज़ी-jurisprudence) या विधिक सिद्धान्त, विधि के औचित्य का सैद्धांतिक अध्ययन व दर्शन हैं। इसमें समस्त विधिक सिद्धान्त सम्मिलित हैं, जो कानून अथवा विधि व सन्नियम बनाते हैं। विधिशास्त्र के विद्वान, जिन्हें जूरिस्ट या विधिक सिद्धान्तकार (विधिक दार्शनिक और विधि के सामाजिक सिद्धान्तकार समेत) भी कहा जाता हैं, विधि की प्रकृति को उसके सबसे सामान्य रूप में समझाने का प्रयास करते हैं और विधिक तर्कणा और सादृश्य, विधिक प्रणाली, विधिक संस्थानों और विधि का उचित अनुप्रयोग, विधि का आर्थिक विश्लेषण और समाज में विधि की भूमिका की गहरी व्याख्या व समझ प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। न्यायशास्त्र के दार्शनिक स्वयं से ही प्रश्न करते रहते हैं - "नियम क्या है?" ; "क्या नियम होना चाहिये?"

आधुनिक विधिशास्त्र की शुरुआत 18वीं सदी में हुई और प्राकृतिक विधि, नागरिक कानून (सिविल विधि) तथा राष्ट्रों के कानून के प्रथम सारघटकों पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया।[1] साधारण अथवा सामान्य न्यायशास्त्र को प्रश्नों के प्रकार के द्वारा उन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है अथवा इन प्रश्नों के सर्वोत्तम उत्तर कैसे दिए जायं इस बारे में न्यायशास्त्र के सिद्धांतों अथवा विचारधाराओं के स्कूलों दोनों ही तरीकों से पता लगाकर जिनकी चर्चा विद्वान करना चाहते हैं। कानून का समकालीन दर्शन, जो सामान्य न्यायशास्त्र से संबंधित हैं, समस्याओं की चर्चा मोटे तौर पर दो वर्गों में करता है:[2]

  • 1.) विधि तथा न्यायिक प्रणाली की आंतरिक समस्याएं
  • 2.) एक विशिष्ट सामाजिक संस्था के रूप में कानून की समस्याएं और यह कैसे व्यापक राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति को निर्दिष्ट करती है जिसमें यह विद्यमान होती है।

इन प्रश्नों के उत्तर सामान्य न्याय शास्त्र की विचारधारा के चार प्राथमिक केन्द्रों से मिलते हैं:[2]

  • प्राकृतिक विधि एक ऐसी धारणा है कि वैधानिक शासकों की शक्ति के लिए तर्कसंगत वस्तुनिष्ठ सीमाएं हैं। कानून की बुनियाद (मूल सिद्धांतों) तक मानवीय विचार शक्ति के सहारे पहुंचना आसान है और प्रकृति के इन कानूनों के माध्यम से ही मनुष्य द्वारा रचित कानूनों को भुई जितना हो सकता था उतना बल मिला.[2]
  • प्राकृतिक कानून के विपयार्प्त व्यक्तिरेक (परस्पर विरोधामस में), न्यायिक वस्तुनिष्ठवाद (प्रत्यक्षवाद), मत का पोषण करता है कि कानून और नैतिकता के बीच कोई संबंध नहीं है और इसीलिए कुछ मूलभूत सामाजिक तथ्यों से कानून को ताकत मिलती हैं हालांकि वस्तुनिष्ठ्वादियों में इस बार में मतभेद है कि वे तथ्य आखिर हैं क्या.[3]
  • विधिक यथार्थवाद न्यायशास्त्र का तीसरा सिद्धांत है जिसका यह तर्क है कि वास्तव जगत उसी कानून का व्यवहार करता है जो वह निर्धारित करता है कि कानून क्या है, वही कानून जिसमें जिसमें बल होता है और इसी कारण विधायक, न्यायाधीश तथा कार्यकारी अधिकारी इस बल का व्यवहार करते हैं।
  • विवेचनात्मक विधि अध्ययन न्यायशास्त्र का नवीनतम सिद्धांत है जो 1970 के दशकों में विकसित हुआ है, जो प्राथमिक तौर पर एक नकारात्मक अभिधारणा थी कि कानून व्यापक रूप से विरोधामासी है और प्रभावशाली सामाजिक वर्ग के नीतिगत लक्ष्यों की अभिव्यक्ति के रूप में सबसे अच्छी तरह विश्लेषित किया जा सकता है।[4]

कानून के समकालीन दार्शनिक रोनॉल्ड डोर्किन का अध्ययन भी गौरतलब है जिन्होनें न्यायशास्त्र के रचनावादी सिद्धांत की वकालत की है जिसे प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों एवं सामान्य न्यायशास्त्र के वस्तुनिष्ठवादी सिद्धांतों के मध्य-मार्ग के रूप में विशेष रूप से चिन्हित किया जा सकता है।[5]

व्युत्पत्ति एवं परिभाषा[संपादित करें]

इंग्लिश शब्दावली jurisprudence, लैटिन शब्द ज्युरिस्प्रुडेंशिया पर आधारित (व्युत्पन्न) है: ज्यूरिस (juris) जूस (jus) का संबंधकारक (षष्ठी) है जिसका अर्थ है "कानून" एवं प्रुडेंशिया का अर्थ है "ज्ञान". यह शब्द इंग्लिश में सन 1628 में सर्वप्रथम साक्ष्यांकित हुआ, ठीक ऐसे समय में जबकि "प्रुडेंश " शब्द का अर्थ "ज्ञान अथवा किसी मामले में प्रवीन दिमाग" अब अप्रचलित हो गया था। हो सकता कि यह शब्द फ्रेंच के ज्यूरिसप्रूडेंस के जरिए आया हो, जो कि पहले से साक्ष्यांकित है।

विधि के विज्ञान के रूप में विधिशास्त्र, विधि के बारे में एक विशेष तरह की खोजबीन है। साधारण अर्थ में समस्त वैधानिक सिद्धांत विधिशास्त्र में अंतर्निहित हैं।

इस अर्थ में कानून की सारी पुस्तकें विधिशास्त्र की पुस्तकें हैं। इस प्रसंग में कानून का एकमात्र अर्थ होता है देश का साधारण विधि, जो उन नियमों से सर्वथा पृथक् है, जिन्हें कानून से सादृश्य रहने के कारण कानून का नाम दिया जाता है। यदि हम विज्ञान शब्द का प्रयोग इसके अधिक से अधिक व्यापक रूप में करे जिसमें बौद्धिक अनुसंधान के किसी भी विषय का ज्ञान हो जाए तो हम कह सकते हैं कि विधिशास्त्र देश के साधारण कानून का विज्ञान है।

शाखाएँ[संपादित करें]

विधिशास्त्र तीन शाखाओं में विभक्त है-

  • वैधानिक अभिदर्शन (Exposition)
  • वैधानिक इतिहास (Legal history)
  • विधिनिर्माण के सिद्धांत (Principles of Legislation)

वैधानिक अभिदर्शन का उद्देश्य है किसी प्रस्तावित विधि की प्रणाली के तथ्य को, चाहे वह वर्तमान हो अथवा भूतकाल में इसका अस्तित्व रहा हो, उपस्थित करना। वैधानिक इतिहास का उद्देश्य है उस ऐतिहासिक प्रक्रिया को उपस्थित करना जिससे कोई कानून प्रणाली विकसित हुई है या हुई थी। विधिनिर्माण के सिद्धांत का उद्देश्य है कानून को उपस्थित करना-वह कानून नहीं जो वर्तमान है या भूतकाल में था, बल्कि वह कानून जो देश, काल, पात्र के अनुसार होना उचित है। विधिशास्त्र को किसी वैधानिक प्रणाली के वर्तमान या भूत से अपेक्षा नहीं है, यह इसके आदर्शमय भविष्य से संबद्ध है।

विधिशास्त्र के तीन अंग[संपादित करें]

विधिशास्त्र सिद्धान्त के तीन अंग होते हैं- विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र, ऐतिहासिक विधिशास्त्र, एवं नैतिक विधिशास्त्र।

विश्लेषणात्मक शाखा में क्रमबद्ध वैधानिक सिद्धांत के दार्शनिक अथवा सामान्य विचार होते हैं; ऐतिहासिक शाखा में वैधानिक इतिहास का दार्शनिक अथवा सामान्य भाग होता है; नैतिक शाखा में विधाननिर्माण के दार्शनिक सिद्धांत रहते हैं। किंतु ये तीनों शाखाएँ परस्पर संबद्ध हैं। अत: इन्हें एक दूसरे से पृथक् कर इनपर विचार नहीं कर सकते।

विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र[संपादित करें]

विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र का उद्देश्य होता है - 'विधान के मौलिक सिद्धांतों का विश्लेषण'। इनके ऐतिहासिक उद्गम, विकास, नैतिक भाव अथवा मान्यता पर इस प्रसंग में विचार आवश्यक होता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित विषय आते हैं:

  • देश के सामान्य कानून के आधार पर विश्लेषण;
  • देश के साधारण कानून तथा अन्यान्य कानून प्रणाली के बीच पारस्परिक संबंध की परीक्षा;
  • विधान के विभिन्न अंगों के भाव, जिससे इसका स्वरूप तथा व्यक्तित्व बनता है, यथा-राज्य, सार्वभौमिकता, न्याय का शासन इत्यादि;
  • विधान के उद्गम-यथा देशाचार, कुलाचार;
  • विधान का वैज्ञानिक वर्गीकरण;
  • वैधानिक अधिकार की भावना का विश्लेषण;
  • वैधानिक दायित्व के सिद्धांत की परीक्षा;
  • अन्यान्य वैधानिक भावना की समीक्षा, यथा-संपत्ति, न्यास इत्यादि।

ऐतिहासिक विधिशास्त्र[संपादित करें]

मूलत: विधान के साधारण सिद्धांतों के उद्गम एवं उनके विकास से संबद्ध है। जिन स्रोतों से देश का साधारण विधान प्रभावित होता है, वे भी इसकी सीमा के अंतर्गत है। अन्य शब्दों में, यह विधान के मूल सिद्धांत एवं उनकी पद्धति की भावना का इतिहास है। ऐतिहासिक शाखा- विधि की ऐतिहासिक विचारधारा इस पर आधारित है की विधि को प्राचीन परंपराओं में खोजा जाना चाहिए. विधि वास्तव में जैविक प्रक्रिया द्वारा स्वय साकार रूप लेती रहती है. इसलिए रीति रिवाज,नैतिक मूल्य, परिस्थिति, सामाजिक मूल्यों में विविधता के कारण विभिन्न देशों की विधि में अंतर रहता है. यह विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र से इस अर्थ में भिन्न है कि ऐतिहासिक विधि शास्त्र के अंतर्गत विधि का निर्माण तर्क की अपेक्षा प्रथाओं, समय के संक्रमणकालीन विकास पर आधारित होता है अर्थात विश्लेषणात्मक विचारधाराओं के अनुसार कानून का निर्माण किया जाता है लेकिन इतिहासिक विचारधारा के अनुसार कानून की खोज की जाती है.

नैतिक विधिशास्त्र[संपादित करें]

नैतिक विधिशास्त्र, विधान की विवेचना नैतिक गांभीर्य एवं इसकी पूर्णता की दृष्टि से करता है। कानून की प्रणाली के बौद्धिक तत्व अथवा इसके ऐतिहासिक विकास से इसे कोई प्रयोजन नहीं है। विधान के उद्देश्य एवं किस सीमा तक तथा किस रूप में इसकी पूर्ति होती है, यही इसका विषय है। साधारणत: इसका लक्ष्य एवं उद्देश्य किसी राजनीतिक फर्मे के अंतर्गत राज्य की भौतिक शाक्ति द्वारा न्याय का पालन करने में है। अत: नैतिक विधिशास्त्र यह देखता है कि न्याय के सिद्धांत का विधान से कहाँ तक संबंध है। यह नैतिक एवं वैधानिक दर्शन का मिलनबिंदु है। अपने सामान्य रूप में न्याय, नैतिकता अथवा नैतिक दर्शन से संबद्ध है। अपने विशेष रूप में न्याय, देश के कानून की अंतिम शृंखला के रूप में वैधानिक दर्शन की उस शाखा से संबद्ध है, जिसे नैतिक विधिशास्त्र कहते हैं। इसकी परिधि के अंतर्गत सामान्य: निम्नलिखित विषय आते हैं-

  • न्याय की धारणा (Conception of Justic);
  • कानून एवं न्याय में संबंध;
  • न्याय के पालन के उद्देश्य की पूर्ति करने वाली प्रणाली,
  • कानून एवं नैतिकता पर आधारित अधिकार में अंतर;
  • नैतिक अर्थ एवं उन वैधानिक भावनाओं की मान्यता तथा सिद्धांत, जो ऐसे मौलिक हैं कि उनका विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र में अध्ययन किया जा सकता है।

विभिन्न देशों में विधिशास्त्र[संपादित करें]

देखें, तुलनात्मक विधिशास्त्र संसार के भिन्न भिन्न देशों में विधिशास्त्र की परिभाषा किंचित् भिन्न भिन्न रूपों में की गई है। जर्मनी के विधान में विधिशास्त्र कानून का मोटामोटी वह पर्याय है, जिसका लक्ष्य वैज्ञानिक अध्ययन होता है। फ्रांस के विधान में इससे न्यायालय के क्षेत्राधिकार का बोध होता है, जो कानून के "कोड" की विकृति एव विकास करता है। अंग्रेजी एवं अमरीकी विधान में सन्निहित हैं।

भारतीय विधान[संपादित करें]

सनातन भारतीय विधान में विधिशास्त्र धर्मशास्त्र पर आधारित है। "धर्म" की परिभाषा निम्नलिखित रूप में की गई है: श्रुति: स्मृति. सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन: और एतच्चतुर्विधं प्राहू: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम अर्थात् वेद, स्मृति, सदाचार एवं सुनीति धर्म के उद्गम हैं। "धर्म" व्यापक शब्द है। धार्मिक, नैतिक, सामाजिक एवं वैधानिक दृष्टि से यह मनुष्य के कर्तव्य एवं दायित्व की समष्टि है। धार्मिक एवं धर्म निरपेक्ष भावना के बीच विभाजन रेखा स्थापित नहीं की जा सकती, क्योंकि कितने ही विषय ऐसे हैं जो धार्मिक एवं सांसारिक दोनों हैं। भारत का सनातन धर्म राजा अथवा शासक के आदेश पर आधारित नहीं है। इसकी मान्यता (Sanction) इसी में अंतर्निहित है। स्मृतिकारों और उनके पूर्वजों ने कहा है कि "धर्म भगवान की देन है। यह राजाओं का राजा है। इससे अधिक शक्तिशाली दूसरा कोई नहीं। इसकी सहायता से शक्तिहीन भी शक्तिशाली से अपना अधिकार ले सकते हैं। राजा न्याय का निर्माता नहीं, केवल इसका पालक है।" (शतपथ ब्राह्मण 14-4.2.26)

विधिवेत्ता ऑस्टिन किंवा बेंथम के सिद्धांत के अनुसार सनातन धर्म का अधिकांश नैतिकता में संनिविष्ट हो जाएगा, क्योंकि यह "धर्म" किसी राजा अथवा सार्वभौम सत्ताप्राप्त शासक का आदेश नहीं है। यह सत्य है कि स्मृति अपने तईं कानून नहीं है, क्योंकि इसे न तो व्यवस्थापिका सभा ने बनाया और न राज्य ने घोषित किया। पर यह जस रिसेप्टम (Jus Receptum) के सिद्धांत पर मान्य था अर्थात् समाज ने इसे ग्रहण कर लिया था। अत: एक मत के अनुसार स्मृति के कानून का उद्गम समाज ही है। इसका एक अंश नैतिक आदेश है, जिसका स्रोत नैसर्गिक माना गया है एवं अवशेष परंपरा एवं सदाचार है। स्मृतिकारों के व्यक्तित्व एवं सम्मान तथा सुनीति पर आधारित होने के कारण स्मृति के वचनों की मान्यता ही इनके वैधानिक व्यादेश का प्राधिकार है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित होने पर यह विवाद उठ खड़ा हुआ कि भारत में राजनिर्मित विधान धर्मशास्त्र द्वारा घोषित विधान से किसी समय अधिक मान्य था या नहीं। कौटिल्य ने कहा है कि विधान चार स्तंभों पर आधारित है: धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं, राजशासन

इनमें परवर्ती आधार क्रमागत पूर्व के आधार से अधिक शक्तिशाली है किंतु यह स्मरणीय है कि राजशिलालेख (Edicts) द्वारा धर्मशास्त्र में कथित किसी भी मौलिक आदेश अथवा व्यवहार का उल्लंघन नहीं हुआ। कौटिल्य ने भी सैद्धांतिक रूप में यह स्वीकार किया था कि राजनिर्मित विधान धर्मशास्त्र की परिधि से बाहर नहीं है।

विधिशास्त्र और समाजशास्त्र[संपादित करें]

19वीं शताब्दी के आरंभ में फ्रांसीसी दार्शनिक ऑगस्त काम्ट ने समाजशास्त्र शब्द का नामकरण किया। समाजशास्त्र स्थूल रूप से समाज का अध्ययन है। समाजशास्त्री के अध्ययन में विधान भी सम्मिलित है किंतु उसका दृष्टिकोण से भिन्न है। वकील, अधिवक्ता या निर्णायक के रूप में, उन नियमों को देखता है जिन्हें सर्वसाधारण को अनुकरण करना चाहिए। समाजशास्त्रवेत्ता यह देखता है कि ये नियम क्या हैं। कुछ हद तक दोनों साथ चल सकते हैं, क्योंकि वास्तव में ये नियम वांछित चरित्र के द्योतक हैं। किंतु समाजशास्त्रवेत्ता को वास्तविक चरित्र में अधिक उत्सुकता रहती है, वांछित चरित्र के विचार में नहीं। वैधानिक समाजशास्त्र को अपराधशास्त्र भी कहते हैं। यह अपराधों के कारण, अपराधियों के चरित्र, विभिन्न प्रकार के दंडों का अपराधियों पर प्रभाव - विशेषत: कहाँ तक दंडों से अपराध के घटने पर प्रभाव पड़ता है - इन सब का अध्ययन करता है। इससे कानून के सुधार में सुविधा होती है।

विधिशास्त्र के अध्ययन का महत्व[संपादित करें]

सामण्ड के अनुसार विधिशास्त्र के अध्ययन की अपनी अभ्यान्तरिक रूचि है जिसके कारण इसकी तुलना किसी गंभीर ज्ञान की शाखा से की जा सकती है। वास्तव में अनुमान और सिद्धान्त का प्राकृतिक आकर्षण होता है। विधिशास्त्रिक अनुसंधान विधिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि विचारों को प्रभावित करते हैं अतएव विधिशास्त्र का अध्ययन महत्वपूर्ण है। विधिशास्त्र का अध्ययन मानव के चिन्तन मनन की प्रखरता म वृद्धि करता है। डायस के अनुसार यह विधि-वेत्ता को सिद्धान्त और जीवन प्रकाश लान का सुअवसर देता है क्योंकि यह सामाजिक विज्ञान के संबंध में मानव विचारों पर विचार करता है। विधिक अवधारणाओं के तार्किक विश्लेषण से विधिवेत्ताओं की तार्किक पद्धति का विकास होता है। इससे विधिवेत्ता की व्यवसायिक प्रारूपवाद की बुराई को दूर किया जा सकता है। डायस ने माना कि विधिशास्त्र विधि में जीवनदायी ( Lifemanship ) का विकास कर अध्येता में प्रतिभा निखार की अनुप्रेरणा देता है। जे जी फिलीमोर ने स्पष्ट किया है कि विधिशास्त्र का विज्ञान इतना उच्च स्तरीय है कि इसका ज्ञान इसके अध्येता को ज्ञानपूर्ण अवधारणाओं और मनोवेगों, जो मानव परिस्थितियों में उत्पन्न सभी अपेक्षाओं में लागू हो सके, के साथ जीवन में प्रवेश कराता है। लास्की ने विधिशास्त्र के महत्व का मूल्यांकन करते हुए इसे ‘विधि का नेत्र’ कहा है। विधि की बढ़ती गुत्थियों एवं मानव संबंधों की जटिलताओं के निराकरण का रास्ता विधिशास्त्र के अध्ययन में पाया जा सकता है। इसीलिए इसे विधि का व्याकरण माना गया है। अनिरूद्ध प्रसाद के अनुसार विधिशास्त्र का जागरूक अध्ययन सामाजिक समस्याओं के समाधान एवं न्याय की सार्थकता को अवश्यभावी करता है। वर्तमान जेल सुधार, कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार की अपेक्षा, मानव गरिमा के साथ जीने क अधिकार के साथ सोशल एक्शन लिटीगेशन तथा लोक हित वादों का अन्वेषण नवीन विधिशास्त्रीय दृष्टिकोण से ही उपजा है। इसी प्रकार पर्यावरण सुधार विधि, गरीबों क लिए मुफ्त कानूनी सहायता आदि विधिशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों की अन्तर्विद्या ज्ञान के आदान-प्रदान तथा पारस्परिक प्रभावों की देन है। विधिशास्त्र विधि की विभिन्न शाखाओं की मूलभूत संकल्पनाओं के सैद्धान्तिक आधारों का ही ज्ञान नहीं कराता है बल्कि उनके अन्तर्सम्बन्धों का भी ज्ञान कराता है। विधिशास्त्र केवल विधिक प्रणाली के माध्यम से न्याय प्रशासित ही नहीं करता वरन् नवीन सिद्धान्तों, विचारों एवं अन्य मार्गा की खोज के माध्यम से न्यायपूर्ण समाज की स्थापना में सहायक होता है।

विधिशास्त्र का इतिहास[संपादित करें]

प्राचीनतम भारतीय विधिशास्त्र धर्मशास्त्र के अनेक पाठों में मौजूद हैं, जैसे की बोधायन का धर्मशास्त्र। प्राचीन भारतीय वैदिक समाज में, कानून अथवा धर्म, जिसका अनुपालन हिन्दुओं द्वारा किया जाता था, मनु-स्मृति के द्वारा प्रतिपादित था, जो पाप और उसके निराकार के उपायों को परिभाषित करने वाला एक काव्य-संग्रह है। ऐसा कहा जाता है कि इनकी रचना 200 ईसापूर्व से 200 ईस्वीसन के मध्य हुई है। वास्तव में, ये कानून की संहिताएं नहीं हैं किन्तु सामाजिक दायित्वों के प्रति उस युग की कुछ आवश्यक मान्यताएं हैं।

प्राचीन चीन में, दाओवादी , कन्फ्यूशियस और विधिवादी सभी के पास न्यायशास्त्र के प्रतिस्पर्धी सिद्धांत थे।

द सेन्ट्रल क्रिमिनल कोर्ट ऑफ़ इंग्लैण्ड एण्ड वेल्स ऐट द ओल्ड बैली

पाश्चात्य सभ्यता का विधिशास्त्र[संपादित करें]

प्राचीन रोम में न्यायशास्त्र अपने इसी अर्थ में विद्यमान था, यद्यपि अपने उद्भव काल में ही यह विषय मॉस मायोरम (पारंपरिक कानून) के जूस एक पेरिटी थी, मौखिक कानून और रीति-रिवाजों की एक संस्था जिसमें "पिता द्वारा पुत्र को" ये कानून और रीति-रिवाज मौखिक तरीके से प्रेषित दिए जाते थे। प्रेटर्स प्राचीन रोमन सामाज्य में निर्वाहित सरकारी न्यायाधीश इस बात का फैसला करते हुए कि क्या एकक मामले एडिक्टों (घोषणा पत्र), मुकदमा चलाये जाने योग्य मामलों की वार्षिक घोषणा के अनुसार अथवा, असाधारण परिस्थितियों में वार्षिक धारणा-पत्र (एडिक्ट) में अतिरिक्त नियम अंतर्भुक्त कर कानून की कार्यकारी संस्था की स्थापना करते थे। तत्पश्चात एक आयुडेक्स (न्यायाधीश के लिए लैटिन नाम) मामले के तथ्यों के अनुसार निदान कर निर्णय करता था।

ऐसी आशा की जाती थी कि उनके वाक्य पारंपरिक प्रथाओं की सरल व्याख्या होनी चाहिए, किन्तु प्रभावी रूप से यह एक ऐसी गतिविधि थी कि मोटे तौर पर कानूनी रीति-रिवाज में परंपरागत तरीके से प्रत्येक मामले पर औपचारिक ढंग से पुनर्विचार करने के अलावा शीघ्र ही नए सामाजिक दृष्टान्तों के आधार पर सामंजस्यपूर्ण ढंग से अनुकूल तरीके से रूपांतरित कर न्यायसंगत व्याख्या बन गई। यह कानून तब नई विकासवादी संस्थानों (क़ानूनी अवधारणाओं) के जरिये लागू कर दिया गया, जबकि यह पारंपरिक परिकल्पना के अनुसार ही बरकरार रहा. प्रेयटर्स (निर्वाचित न्यायाधीश) को ईसापूर्व तीसरी सदी में प्रुडेंट्स के अयाजकीय (जिन्हें याजकवर्ग से बाहर निकाल दिया जाता था) निकाय द्वारा प्रतिस्थापित कर दिए गए। इस निकाय में प्रवेश योग्यता अथवा अनुभव के प्रमाण के आधार पर शर्त सापेक्ष था।

रोमन साम्राज्य के अंतर्गत, कानून के स्कूलों की स्थापना हुई और गतिविधियां लगातार अधिक से अधिक शैक्षणिक (अकादमिक) होती गई। रोमन साम्राज्य के आरंभिक युग से तीसरी शताब्दी के मध्य, कुछ उल्लेखनीय वर्गों द्वारा जिनमें प्रोकुलियंस एवं साविनियंस शामिल थे, एक प्रासंगिक साहित्य की रचना हुई. अध्ययनों की वैज्ञानिक गंभीरता का परिमाण प्राचीनकाल के हिसाब से अभूतपूर्व था तथा बौद्धिक पराकाष्ठा की अनुपम ऊंचाई पर पहुंच गया।

तीसरी सदी के बाद, ज्यूरिस प्रुडेंशिया (न्यायपालिका) अधिक आधिकारिकतंत्रिका गतिविधि हो गई जिसके कुछ उल्लेखनीय लेखक हैं। बाइजेंटाइन साम्राज्य (5वीं सदी) के दौरान, कानूनी अध्ययनों को एक बार फिर गंभीरता से लिया गया और इसी सांस्कृतिक आंदोलन से ही जस्टीनियम के कॉर्पस जूरिस सिविल्स का जन्म हुआ।

इस्लामी सभ्यता में विधिशास्त्र[संपादित करें]

फ़िक़्ह इस्लामी न्यायशास्त्र है । फ़िक़्ह को अक्सर शरिया की मानवीय समझ और प्रथाओं के रूप में वर्णित किया जाता है , जो कि कुरान और सुन्नत ( इस्लामी पैगंबर मुहम्मद और उनके साथियोंकी शिक्षाओं और प्रथाओं)में प्रकट ईश्वरीय इस्लामी कानून की मानवीय समझ है।) फ़िक़्हइस्लामी न्यायविदों ( उलमा ) द्वारा कुरान और सुन्नत की व्याख्या ( इज्तिहाद ) के माध्यम से शरिया का विस्तार और विकास करता है और फैसलों ( फतवा ) द्वारा लागू किया जाता है) उन्हें प्रस्तुत प्रश्नों पर न्यायविदों की। इस प्रकार, जबकि मुसलमानों द्वारा शरिया को अपरिवर्तनीय और अचूक माना जाता है, फ़िक़्ह को गलत और परिवर्तनशील माना जाता है। फ़िक़्ह इस्लाम के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था में अनुष्ठानों, नैतिकता और सामाजिक कानूनों के पालन से संबंधित है। आधुनिक युग में, सुन्नी प्रथा के भीतर फ़िक़्ह के चार प्रमुख स्कूल ( मदहब ) हैं , साथ ही शिया अभ्यास के भीतर दो (या तीन) हैं । फ़िक़्ह में प्रशिक्षित व्यक्ति को फ़क़्ह (बहुवचन फ़ुक़ाहा ) के रूप में जाना जाता है ।

लाक्षणिक रूप से, फ़िक़्ह का अर्थ इस्लामी कानूनी फैसलों के बारे में उनके स्रोतों से ज्ञान है। अपने स्रोतों से धार्मिक फैसलों को प्राप्त करने के लिए मुजतहिद (एक व्यक्ति जो इज्तिहाद का अभ्यास करता है) को न्यायशास्त्र की विभिन्न चर्चाओं में गहरी समझ रखने की आवश्यकता होती है। एक फ़क़ीह को किसी मामले में गहराई से देखना चाहिए और केवल प्रत्यक्ष अर्थ से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, और जो व्यक्ति केवल मामले की उपस्थिति को जानता है, वह फ़क़ीह के रूप में योग्य नहीं है ।

फ़िक़्ह के अध्ययन , पारंपरिक रूप से उउल अल-फ़िक़्ह ( इस्लामिक न्यायशास्त्र के सिद्धांत , लिट। फ़िक़ह की जड़ें, वैकल्पिक रूप से उसूल अल- फ़िक़ह के रूप में लिप्यंतरित ) में विभाजित हैं, कानूनी व्याख्या और विश्लेषण के तरीके; और फुर अल-फ़िक़्ह (लिट। फ़िक़्ह की शाखाएँ), इन सिद्धांतों के आधार पर फैसलों का विस्तार। फुर अल-फ़िक़्ह उल अल-फ़िक़्ह के अनुप्रयोग और ईश्वरीय इच्छा को समझने के मानव प्रयासों का कुल उत्पाद है। एक हुकम (बहुवचन अष्टम ) किसी दिए गए मामले में एक विशेष निर्णय है।

विधिशास्त्रीय सिद्धान्त[संपादित करें]

यह लेख सामान्य न्यायशास्त्र में विचार व सिद्धांतों की तीन अलग-अलग शाखाओं को संबोधित करता है।

  • प्राचीन प्राकृतिक कानून यह विचार है कि विधायी शासकों की शक्ति के लिए तर्कसंगत उद्देश्य सीमाएं हैं। कानून की नींव तर्क के माध्यम से सुलभ है, और यह प्रकृति के इन नियमों से है कि मानव कानूनों को जो भी बल मिलता है उसे प्राप्त होता है।
  • विश्लेषणात्मक न्यायशास्त्र (स्पष्टीकरण न्यायशास्त्र) कानून क्या है और इसे क्या होना चाहिए, के प्राकृतिक कानून के संयोजन को खारिज करता है। यह कानूनी प्रणालियों के पहलुओं का जिक्र करते समय तटस्थ दृष्टिकोण और वर्णनात्मक भाषा के उपयोग का समर्थन करता है। इसमें न्यायशास्त्र के ऐसे सिद्धांतों को "कानूनी प्रत्यक्षवाद" के रूप में शामिल किया गया है, जो मानता है कि कानून और नैतिकता के बीच कोई आवश्यक संबंध नहीं है और कानून की शक्ति बुनियादी सामाजिक तथ्यों से आती है; और "कानूनी यथार्थवाद", जो तर्क देता है कि कानून का वास्तविक-विश्व अभ्यास यह निर्धारित करता है कि कानून क्या है, कानून के पास वह बल है जो यह करता है क्योंकि विधायक, वकील और न्यायाधीश इसके साथ क्या करते हैं। प्रयोगात्मक न्यायशास्त्र के विपरीत , जो सामाजिक विज्ञान के तरीकों का उपयोग करके हमारी लोक कानूनी अवधारणाओं की सामग्री की जांच करना चाहता है।प्राकृतिक कानून और विश्लेषणात्मक न्यायशास्त्र दोनों की पारंपरिक विधि दार्शनिक विश्लेषण है।
  • मानक न्यायशास्त्रकानून के "मूल्यांकन" सिद्धांतों से संबंधित है। यह इस बात से संबंधित है कि कानून का लक्ष्य या उद्देश्य क्या है, या कौन से नैतिक या राजनीतिक सिद्धांत कानून के लिए आधार प्रदान करते हैं। यह न केवल "कानून क्या है?" प्रश्न को संबोधित करता है, बल्कि यह निर्धारित करने का भी प्रयास करता है कि कानून का उचित कार्य क्या होना चाहिए, या किस प्रकार के कृत्य कानूनी प्रतिबंधों के अधीन होने चाहिए, और किस प्रकार की सजा की अनुमति दी जानी चाहिए।

प्राकृतिक विधि[संपादित करें]

विधि में मानव को भावनात्मक सम्बल प्रदान करने व प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुख-सुविधाओं के सम्यक उपभोग हेतु समान अधिकार है। विधि द्वारा मानवीय हित में संरक्षित यह विधा ही "प्राकृतिक विधि" कही जाती है। आल्पियन: "दैवी और मानवीय वस्तुओं का ज्ञान, उचित एवं अनुचित वस्तुओं का विज्ञान"। प्राकृतिक कानून के सिद्धांत का दावे के साथ यह मानना है कि कुछ ऐसे कानून (नियम) हैं जो प्रकृति में अंतर्मुक्त हैं जिनके प्रति अधिनियमित कानूनों को यथासंभव अनुरूप होना चाहिए. इस दृष्टिकोण को बार-बार इस कहावत के जरिए सार-संक्षिप्त कर दिया गया कि एक अन्यायपूर्ण कानून सही कानून नहीं है (ऐन अनजस्ट लॉ इन नॉट अ ट्रु लॉ) लैटिन में, लेक्स इनिस्टा नॉन एस्ट लेक्स, जिसमें अन्याय को प्राकृतिक कानून के विपरीत परिभाषित किया गया है। प्राकृतिक कानून नैतिकता के साथ काफी करीब से जुडा हुआ है एवं ऐतिहासिक प्रभावशाली संस्करणों में, ईश्वरीय अभिप्राय भी साथ हैं। इसकी अवधारणाओं को अति सरलीकरण करने की दिशा में, प्राकृतिक कानून का सिद्धांत राज्य की कानून निर्माता शक्ति को दिशा-निर्देश देने के लिए एवं "कल्याण" को बढ़ावा देने के लिए एक नैतिक दिक्सूचक (कॉम्पास) के निर्धारण का प्रयास करता है। वस्तुनिष्ठ नैतिकता के नियम के विचार मानवीय कानूनी व्यवस्था में जो बाहरी है, उसी मूल में प्राकृतिक कानून की जड़ें हैं। क्या सही है अथवा क्या गलत है यह किसी के अपने हितसाधन के केंद्र के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं। प्राकृतिक कानून की पहचान कभी-कभी इस कहावत से की जा सकती है कि "एक अन्यायपूर्व (असत) कानून कोई कानून हो ही नहीं सकता", लेकिन जैसा कि प्राकृतिक कानून आधुनिक अधिवक्ताओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाने वाले, जॉन फिनिस ने यह तर्क पेश किया है कि यह कहावत शास्त्रीय थॉमिस्ट स्थिति के लिए मामूली मार्गदर्शक (गाइड) है।

अरस्तू[संपादित करें]

फ्रांसेस्को हयेज़ द्वारा अरस्तू

अरस्तू को अक्सर प्राकृतिक कानून का पिता कहा जाता है।[6] उसके दार्शनिक पूर्वजों, सुकरात और प्लेटों की ही तरह अरस्तू ने भी प्राकृतिक न्याय या प्राकृतिक अधिकार (dikaion physikon, δικαίον φυσικόν, Latin ius naturale के अस्तित्त्व को स्वीकार किया। प्राकृतिक कानून के साथ उसका संबंध व्यापक रूप से उसे दी गई थॉमस अकिनस की व्याख्या की वजह से ही है।[7] यह अकिनस के प्राकृतिक कानून और प्राकृतिक अधिकार के सम्मिश्रण पर आधारित था, जिसका परवर्ती भाग का (प्राकृतिक अधिकार) अरस्तू ने निकोमेचियन आचार संहिता (Nicomachean Ethics) पर अपनी पुस्तक के पांचवें खंड (= Book IV of the Eudemian Ethics) स्वीकार किया है। इन परिच्छेदों के अधिकांश आरंभिक अनुवादों पर अकिनस का प्रभाव था,[8] हालांकि हाल फिलहाल के अधिकांश अनुवाद अधिकतर शाब्दिक अनुवाद ही पड़े हैं।[9]

न्याय का अरस्तू का सिद्धांत सुनहरे मध्यमार्ग विचार से बंधा हुआ है। सचमुच जिसे वे "राजनीतिक न्याय" कहते हैं अवगुणों के विपरीत बीच का माध्यम के रूप में नैतिक गुण पर उनकी चर्चा (बहस) से व्युत्पन्न है, जैसा कि हर दूसरे गुण की व्यवस्था उन्होंने की है।[10] न्याय पर उनके अपने सिद्धांत के बारे में लम्बी बहस निकॉमैकियन एथिक्स में निहित है और यह इस सवाल से शुरू होता है कि न्यायपूर्ण कर्म का मध्यमान किस प्रकार का है। वे तर्क देते हैं कि "न्याय" की शब्दावली वास्तव में दो भिन्न किन्तु एक दूसरे से संबंधित विचारों, सामान्य न्याय और विशेष न्याय से सन्दर्भित हैं।[11][12] जब एक व्यक्ति के कार्य दूसरों से संबंधित सभी मामलों में सर्वगुण संपन्न हों, तो अरस्तू उसके न्याय ("just") को सामान्य न्याय ("general justice") के अर्थ में स्वीकार करते हैं, ठीक उसी रूप में जैसा कि न्याय की धारणा कमोबेश गुण के साथ सहाव्स्थान करती है।[13] "विशेष" या "विशेष न्याय", एक दूसरे के विरोधामास में, सामान्य न्याय अथवा व्यक्तिगत गुण का ही एक अंग है जो दूसरे के साथ समान रूप से व्यवहार करने से संबंधित हैं।[12] अरस्तू न्याय की इस अनधिकृत चर्चा से राजनीतिक न्याय के सापेक्ष दृष्टिकोण की और संक्रमित हो जाते हैं, जिससे उनका तात्पर्य आधुनिक न्यायशास्त्र के विषय के कुछ-कुछ करीब होना है। राजनीतिक न्याय के बारे में, अरस्तू तर्क देते हैं कि यह आंशिक रूप से परम्परा का मामला है।[14] इसे एक ऐसे वक्तव्य के रूप में लिया जा सकता है जो आधुनिक प्राकृतिक कानून के सैद्धान्तिकोंके दृष्टिकोण से मिलता-जुलता है। किन्तु इसे भी अवश्य ही याद किया जाना चाहिए कि अरस्तू नैतिकता के दृष्टिकोण पर अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं, न कि कानून की प्रणाली पर और इसीलिए यहां प्रकृति पर उनकी टिप्पणियां कानून के रूप में अधिनियमित नैतिकता की प्रारंभिक शिक्षा के बारे में हैं न कि स्वतः कानून के बारे में. इस प्रश्न के उत्तर में यह अनुच्छेद मौन है।

सर्वोत्तम साक्ष्य कि प्राकृतिक कानून के बारे में अरस्तू की चिन्ताधारा साहित्य-शास्त्र से उद्द्भुत है जहां अरस्तू यह उल्लेख करते हैं कि, "विशेष" कानूनों के अलावे जिन्हें हरेक व्यक्ति ने अपने लिए तय कर लिया है, एक "आम" कानून भी है जो प्रकृति के अनुसार है।[15] हालांकि इस टिप्पणी के सन्दर्भ से यह पता चलता है कि अरस्तू ने केवल इतनी ही सलाह दी कि साहित्य शास्त्रीय दृष्टिकोण से ऐसे कानून के प्रति आग्रह (अपील) सुविधाजनक तो हो सकता है, खासकर जब किसी एक के नगर का "विशेष" कानून जब मामले के प्रतिकूल बना दिया गया, ऐसा नहीं कि वास्तव में इस प्रकार का कोई कानून था भी. इसके अलावा,[16] अरस्तू ने तीन में से दो उम्मीदवारों के लिए सार्वभौमिक रूप से वैध, प्राकृतिक कानून के परामर्श को इस अनुच्छेद में गलत ठहराया.[17] इसके फलस्वरूप अरस्तू की प्राकृतिक कानून की परम्परा की पैतृकता विवादास्च्द हो गई है।[उद्धरण चाहिए]

इस्लाम में शरीया और फ़िक्ह (Fiqh)[संपादित करें]

हत्तात अज़ीज़ एफेंडी द्वारा द फर्स्ट सूरा इन अ क्वारानिक मैनुस्क्रिप्ट

शरिया को इस्लामी कानून का संग्रह कहा जाता है। इस शब्दावली का मतलब है "पद्धति" या "रास्ता", यह कानूनी ढांचा है जिसके तहत जिंदगी के अधिकतर निजी मसलों को उनके लिए जो न्याय के इस्लामी उसूलों की बिना पर कानूनी तौर-तरीके से जीते हैं। फ़िक़्ह (Fiqh) इस्लामी न्यायशास्त्र के लिए शब्दावली है, जो इस्लामी न्यायविदों के फैसलों से बना है। इस्लामी अध्ययन का बुनिवादी घटक, फ़िक्ह उस पद्धति को विस्तार से बतलाता है जिसके जरिए से इस्लामी कानून को प्राथमिक और माध्यमिक स्रोतों से बाहर निकाला गया है।

इस्लाम की मुख्यधारा फ़िक़्ह (fiqh) की पहचान कराती है, जिसका मतलब है (फ़िक़्ह) (fiqh) के पीछे उन उसूलों को विस्तार से जानना और समझाना जिन्हें शरिया से विद्वानों ने उद्धृत किए हैं। विद्वानों को यह उम्मीद है कि फिकह और शरिया किसी भी मसले में अमन के पैगाम हो सकते हैं, लेकिन इसे सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है।

इस्लामी फलसफे (दर्शन) में तर्क के शुरूआती ढ़ांचे को क़ियास (Qiyas) की प्रक्रिया के जरिए 7वीं सदी से इस्लामी न्यायशास्त्र में लागू किया गया। इस्लाम के सुनहरे युग के दौरान इस्लाम के दार्शनिकों एवं न्यायविदों के बीच इस विषय पर तार्किक बहस हुआ करती थी कि क्या कियास सादृश सहधर्मी तर्क-वितर्क का प्रेरक बहस का विषय है अथवा निरपेक्ष न्याय वाक्य है। कुछ इस्लामी विद्वानों ने यह तर्क पेश किया है कि कियास का सन्दर्भ दलील (युक्ति) की विवेचना से है, जिसे इब्न हज्म (994-1064) ने यह दलील पेश करते नहीं माना है, कि कियास का रिश्ता प्ररेक बहस से नहीं, बल्कि निरपेक्ष न्याय से है, लेकिन वे निरपेक्ष न्याय को सही मायने में एवं लाक्षणिक अर्थों में सादृश सह्धर्मी दलील (युक्ति) मानते है। दूसरी ओर, अल ग़ज़ाली (Algazel) (1058-1111) (और नए जमाने में, अबू मोहम्मद असेम अल-मकदीसी) ने यह दलील पेश की कि कियास सही मायने में सादृश सह्घर्मी दलील (युक्ति) से मतलब रखता है एवं लाक्षणिक मायने में निरपेक्ष न्याय वाक्य से. उस वक्त के दूसरे इस्लामी विद्वानों ने यह दलील पेश की कि कियास शब्द सही मायने में सादृश सह्घर्मी दलील (युक्ति) के साथ ही निरपेक्ष न्याय-वाक्य मतलब रखता है।

थॉमस अकिनास थॉमस[संपादित करें]

थॉमस अकिनास पश्चिमी मध्ययुगीन कानूनी के सबसे महत्वपूर्ण विद्वान थे

सेंट थॉमस अकिनास [थॉमस ऑफ़ अकिन या अकिनो] (ईसवींसन् 1225 - 7 मार्च 1274), जो "डॉक्टर एंगेलिकस, डॉक्टर युनिवार्सलिस" के रूप में जाने जाते है, शास्त्रीय रुढ़िवादी परंपरा में एक दार्शनिक तथा धर्म विज्ञानी थे। वे प्राकृतिक धर्मशास्त्र के शास्त्रीय प्रस्तावकों में अग्रणी हैं एवं रोमन कैथॉलिक चर्च के प्राथमिक दार्शनिक दृष्टिकोण की लम्बे अरसे तक पहल के लिए दर्शन-शास्त्र की थॉमसवादी चिन्ताधारा के स्कूल के पिता माने जाते हैं। जिस कृति के लिए वे सर्वाधिक जाने जाते हैं वह है सुम्मा थेयोलॉजिका. चर्च के तैंतीस डॉक्टरों में से एकमात्र, उन्हें ही कई कैथॉलिकों द्वारा चर्च का महानतम समझा जाता है। फलस्वरूप कई शिक्षण संस्थानों ने शिक्षा (अध्ययन) का नामकरण भी उन्हीं के नाम पर किया है।

अकिनास ने कानून के चार प्रकारों का उल्लेख किया है। ये हैं, शाश्वत, प्राकृतिक, मानवीय, एवं दिव्य (अलौकिक) कानून. शाशवत कानून ईश्वर का विधान है जो सम्पूर्ण सृष्टि पर शासन करता है। प्राकृतिक कानून शाशवत विधि विधान में मानवीय "सहभागिता" है जिसकी खोज युक्ति-तर्क से की जाती है। प्राकृतिक कानून, निस्संदेह, "प्रथम सिद्धांतों" पर आधारित हैं:

. . . यह कानून का प्रथम निर्देश (नीति-वचन) है कि, अच्छाई की जानी चाहिए एवं प्रोत्साहित भी करनी चाहिए, तथा बुराई से परहेज़ करना चाहिए. प्राकृतिक कानून के अन्य सभी नीति-वचन इस पर आधारित हैं . . .

अकिनास ने जीने एवं प्रजनन करने की इच्छा को उन सभी मूलभूत (प्राकृतिक) मानवीय मूल्यों के साथ गिनाये है जिनपर सभी मानवीय मूल्य आधारित हैं। मानवीय कानून सकारात्मक कानून है: प्राकृतिक कानून सरकार द्वारा समाजों (संस्थाओं) पर लागू किए जाते हैं। अलौकिक (दिव्य) कानून वह कानून है जो धर्मग्रंथों में विशेष रूप से व्यक्त (उद्घाटित) हुआ है।

थॉमस होब्स[संपादित करें]

थॉमस होब्स एक अंग्रेजी आत्मज्ञान पंडित थे

अपने प्रबंध लेवियाथन, (1651) में हॉब्स ने प्राकृतिक कानून के नीति-वचन के बारे में अपने विचार व्यक्त किया है कि, तर्क के आधार पर अथवा सामान्य नियम जिसे एक मनुष्य को वह सब कुछ करने की मनाही कर दी जाती है जो उसके जीवन के लिए विनाशकारी है अथवा जीवन की रक्षा के लिए जो साधन हैं उसे छीन लेता है; और उसे छोड़ देना या भूल जाने को सर्वाधिक सुरक्षित रखा जा सकता था जिसके जरिए वह सोचता है। हॉब्स एक संविदाकार था और उसका यह मानना था कि कानून ने लोगों की अनकही सहमति हासिल कर ली. उनका मानना था कि प्रकृति की अवस्था से समाज की संरचना लोगों को मानवजाति के बीच जो अन्यथा विद्यमान हैं, युद्ध की स्थिति से सुरक्षा प्रदान करने के लिए हुई. श्रृंखलाबद्ध समाज के बिना, जीवन, एकाकी (निःसंग), दीन, घिनौना, पाशविक एवं अल्पकालिक है". साधारणतया यह समीक्षात्मक टिप्पणी की जाती है कि, मानव प्रकृति के अभ्यंतर के बारे में हॉब्स के दृष्टिकोण उनके अपने समय से प्रभावित थे, अंग्रेज़ी गृहयुद्ध एवं क्रॉमवेली तानाशाही की घटनाएं घटीं और उन्होंने यह महसूस किया कि सम्राट के हाथों में निरंकुश प्रभुत्वाधिकार, एक सभ्य समाज की आधारशिला है जिसकी प्रजा कानून का पालन करती है।

लॉन फुलर[संपादित करें]

विश्वयुद्ध द्वितीय के बाद के लेखन में, लॉन एल. फुलर ने विशेष रूप से यह जोर दिया कि कानून को कुछ औपचारिक आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य करनी चाहिए (जैसा कि निरपेक्ष होना और सार्वजनिक तौर पर लोगों की जानकारी में होना). सामाजिक नियंत्रण की संस्थागत प्रणाली एक हद तक अगर इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने में कमी करती है तो, फुलर तर्क देते हैं कि हम इसे कानून की प्रणाली के रूप में स्वीकार करने को पूरी तरह इच्छुक नहीं हैं, या तो इसे हम अपना सम्मान नहीं देते हैं। इस प्रकार, कानून की आतंरिक नैतिकता बन जाती है जो सामजिक नियमों से परे निकल जाती है जिनके जरिए वैध कानून बनाए जाते हैं। फुलर एवं विद्वान एच.एल.ए हार्ट ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में सहयोगी थे। फुलर, जो एक प्राकृतिक अधिवक्ता थे तथा हार्ट, जो एक प्रत्यक्षवादी थे, दोनों के बीच इस बात को लेकर असहमति थी कि क्या नाजी कानून इतना बुरा था कि इसे बाद में और आगे कानून माना ही नहीं गया।

जॉन फिनिस[संपादित करें]

कृत्रिम प्रत्यक्षवाद एवं प्राकृतिक कानून के सिद्धांत कभी-कभी उपरोक्त विवरणों की तुलना में एक-दूसरे के अधिक सदृश दीख सकते हैं और वे कुछ बिन्दुओं पर दूसरे "पक्ष" को स्वीकार कर सकते हैं। प्रत्यक्षवादी के रूप में अथवा एक प्राकृतिक कानून के सैद्धांतिक के रूप में एक विशिष्ट सिद्धांतवादी की पहचान में कभी-कभी प्रभाव और डिग्री (अवस्था) शामिल होते हैं, तथा सिद्धांतकार के कार्य पर पड़ने वाले विशेष प्रभाव. विशेष रूप से, पुराने प्राकृतिक अधिवक्ता, जैसे कि अकिनास एवं जॉन लॉक ने विश्लेष्णात्मक और मानक न्यायशास्त्र में कोई भेदभाव नहीं किया है। किन्तु आधुनिक प्राकृतिक अधिवक्ताओं ने, जैसे कि, जॉन फिनिस ने प्रत्यक्षवादी होने का दावा किया है, जबकि अभी भी उनकी दलील है कि कानून मूलतः नैतिक प्राणी है।

विश्लेषणात्मक न्यायशास्त्र[संपादित करें]

ह्यूम को प्रसिद्ध कर दिया गया है

विश्लेषणात्मक, अथवा 'स्पष्टिकारक' (क्लैरिफिटोरी) न्यायशास्त्र कानूनी व्यवस्था के पहलुओं की चर्चा करते हुए विचार के तटस्थ बिन्दु एवं वर्णनात्मक भाषा का व्यवहार कर रहा हैं। यह एक दार्शनिक विकास था, जिसने प्राकृतिक कानून के एकीकरण को, कि कानून है क्या और इसे क्या होना चाहिए था, नकार दिया. डेविड ह्यूम ने ए ट्रिटीज़ ऑफ़ ह्युमन नेचर नामक अपने ग्रन्थ में सुविदित तर्क पेश किया कि लोग निरपवाद रूप से विवरण देते हुए बीच में ही विच्युत हो जाते हैं कि संसार को कहने का ख़ास तरीका है इसीलिए हमें कार्रवाई करने के एक विशेष तरीके के बारे में निष्कर्ष निकालना चाहिए. किन्तु शुद्ध तर्क के मामले में, कोई यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकता कि हमें केवल इसलिए कुछ करना चाहिए क्योंकि मामला ही कुछ ऐसा है। अतः दुनिया जैसी है वैसा ही विश्लेषण और स्पस्टीकरण करते हुए नियामक प्रश्न को मूल्यांकित किए जाने योग्य प्रश्नों से कठोरता से अलग-अलग कर देखा जाना चाहिए.

विश्लेषणात्मक न्यायशास्त्र के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न हैं: "कानून क्या है?"; "कानून है क्या?"; "कानून एवं सत्ता/"सम्राज शास्त्र के बीच क्या संबंध है?"तथा, "कानून एवं नैतिकता के बीच क्या रिश्ता है?" वैध (शास्त्रसम्मत) प्रत्यक्षवाद (वस्तुनिष्ठवाद) प्रभावशाली सिद्धांत है, हालांकि इसके आलोचकों की लगातार बढ़ती हुई संख्या है, जो उनकी अपनी ही व्याख्याएं पेश करते रहते हैं।

वैध वस्तुनिष्ठवाद (विधिक प्रत्यक्षवाद)[संपादित करें]

प्रत्यक्षवाद का सीधा सा अर्थ है कि कानून ऐसा कुछ है जो "मान लिया गया" है: सामाजिक रूप से स्वीकृत नियमों के अनुसार कानून वैध तरीके से बनाए गए हैं। कानून की प्रत्यक्षवादी विचारधारा दो व्यापक सिद्धांता को समेटती है: सर्वप्रथम, कि कानून न्याय, नैतिकता, अथवा नियामक लक्ष्य की तलाश कर सकता है, किन्तु ऐसा करने में उनकी सफलता या असफलता उनकी वैधता निर्धारित नहीं करता. बशर्ते संबंधित समाज द्वारा मान्यप्राप्त नियमों के अनुसार एक कानून का समुचित तरीके से गठन किया गया हो तभी यह कुछ दूसरे मानक के द्वारा न्यायसंगत की मान्यता पाए बिना भी इसे एक वैध कानून मान लिया गया है। द्वितीयतः, कुछ नियत निश्चित नियमों के अलावा कानून कुछ और नहीं जो समाज को शासन तथा श्रृंखला प्रदान करता है। कोई वैध प्रत्यक्षवादी, हालांकि यह दलील नहीं देता है कि खैर जो कुछ भी, हो चूंकि क़ानून है इसीलिए कानून का पालन किया जाना चाहिए. इसे पूर्णतया अलग प्रश्न के रूप में देखा जाता है।

  • कानून है क्या - यह सामाजिक तथ्यों (या "सूत्रों") द्वारा निर्धारित होता है।
  • कानून किस आज्ञाकारिता का ऋणी है - इसे नैतिक विवेचनों से निर्धारित किया जाता है।

बेन्थैम और ऑस्टिन[संपादित करें]

बेन्थैम'स उपयोगितावादी सिद्धांत बीसवीं सदी तक कानून में प्रमुख बने रहे

जर्मी बेन्थैम पुराने प्रारम्भिक वैध वस्तुनिष्ठवादियों में से थे। बेन्थैम उपयोगतिवादी अवधारणा (ह्यूम के साथ ही) आरंभिक एवं कट्टर समर्थक, एक उत्साही कारागर सुधारक, गणतंत्र के अधिवक्ता, तथा दृढ़ता के साथ नास्तिक थे। कानून एवं न्यायशास्त्र के बारे में बेन्थैम के विचारों को उनके प्रशिक्षु विद्यार्थी जॉन ऑस्टिन के द्वारा लोकप्रिय बनाया गया। वर्ष 1892 से नयी यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंडन में ऑस्टिन कानून प्रथम प्रधान थे। "कानून क्या है?" का ऑस्टिन का उपयोगितावादी उत्तर यह था कि कानून प्रभुसत्ता संपन्न से प्रतिबंध की धमकी से समर्थित आदेश (हुक्म) है जिसके अनुपालन की आज्ञाकारिता की आदत लोगों को लग ही जाती है। समकालीन वैध प्रत्यक्षवादियों ने इस विचार को बहुत पहले ही ख़ारिज कर दिया है और इसके अति सरलीकरण की आलोचना भी की है, खासकर एच.एल.ए हार्ट ने.

हंस केल्सेन[संपादित करें]

हंस केल्सेन 20वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ न्यायविदों में से एक माने जाते हैं तथा यूरोप एवं लैटिन अमेरिका में वे काफी प्रभावशाली रहें है, हालांकि आम-कानून वाले देशों में उतना नहीं है। उनके कानून के शुद्ध सिद्धांत का उद्देश्य कानून को बाध्यकारी नियम-श्रृंखलाओं में बांधने के साथ ही साथ अपने आपको उन नियम-श्रृंखलाओं के आकलन से इंकार करना है। यही कारण है, "वैध राजनीति" से "वैध विज्ञान" को अलग किया जाता है। कानून के शुद्ध सिद्धांत के लिए केंद्रीय आदर्श के बुनियादी मानक - एक काल्पनिक मानक, न्यायधीश द्वारा पूर्वकल्पित जिससे एक पदानुक्रम में सभी 'निचले क्रम' के मानक वैधप्रणाली में, संवैधानिक कानून से आरम्भ कर, ऐसा माना जाता है कि अपने अधिकार के लिए अथवा बाध्यकारिता के लिए ले लिए गए हैं। इस तरह से, केल्सेन दावे के साथ यह मानते हैं कि, वैध मानकों की बाध्यता उनके विशिष्ट 'वैध' चरित्र को बिना किसी अतिमानवीय स्रोत जैसे कि ईश्वर की खोज-खबर लिए बिना ही मानवीकृत प्रकृति या - उनके समय में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण था- मानवीकृत राज्य या राष्ट्र को समझा जा सकता है।

एच. एल. ए हार्ट[संपादित करें]

एच. एल. ए हार्ट ऐन्ग्लोफोन जगत के एक प्रमुख लेखक थे, जिनका यह तर्क था कि कानून को सामाजिक नियमों की प्रणाली के रूप में समझा जाना चाहिए. हार्ट ने केल्सेन के विचारों को नकार दिया कि प्रतिबन्ध कानून के लिए आवश्यक हैं एवं निर्देशात्मक (नियामक) सामाजिक घटना को, कानून की ही तरह, गैर-निर्देशात्मक सामाजिक तथ्यों के जरिए भूमिसात नहीं किया जा सकता. हार्ट ने विश्लेषात्मक न्यायशास्त्र को अपने ग्रंथ द कॉन्सेप्ट ऑफ़ लॉ में बीसवीं सदी में एक महत्वपूर्ण सैद्धांतिक बहस के रूप में पुनः प्रवर्तित किया। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में न्यायशास्त्र के अध्यक्ष के रूप में, हार्ट ने यह तर्क पेश किया कि कानून 'नियमों की एक प्रणाली' है।

हार्ट ने कहा कि, नियमों को, प्राथमिक नियम (आचरण के नियम) एवं माध्यमिक नियम (प्राथमिक नियमों को लागू करने के लिए अधिकारियों को संबोधित नियम) विभाजित किए गए हैं। माध्यमिक नियम अधिनिर्णय के नियम (कानूनी विवादों को हल करने के लिए) परिवर्तन के नियम (कानून की विविधता में परिवर्तन की अनुमति देते हुए) तथा मान्यता के नियम (कानून को वैध की मान्यता प्रदान करते हुए) विभाजित किए गए हैं। "मान्यता के नियम" अधिकारियों की एक प्रथागत कार्यप्रणाली है (विशेषकर न्यायधीशों की) जो कुछ ख़ास कार्यों एवं फैसलों को कानून के स्रोत के रूप में पहचान करता है। हार्ट पर नील मैक्कोर्मिक ने एक निर्णायक पुस्तक लिखी है (जिसका दूसरा संस्करण 2007 में प्रकाशित होने वाला है), जिसे आगे चलकर और भी परिष्कृत किया गया और कुछ महत्वपूर्ण आलोचनाएं पेश की गई जिसने मैकार्मिक को अपना ही सिद्धांत विकास करने की दिशा में अग्रसर किया (जिसका सवोत्कृष्ट उदाहरण उसकी हाल फिलहाल प्रकाशित इंस्टीट्यूशन ऑफ़ लॉ, 2007 है). अन्य महत्वपूर्ण समीक्षकों में रोनैल्ड डोरकिन, जॉन फिनिश तथा जोसेफ राज शामिल हैं।

हाल के सालों में, कानून की प्रकृति पर वाद-विवाद में तेजी से सूक्ष्मता आने लगी. एक महत्वपूर्ण बहस वैध प्रत्यक्षवाद के अंतर्गत ही निहित है। ऐसी विचारधारा वाले स्कूल को कभी एक्सक्लूसिव लीगल पॉज़िटीव्स्म कहा जाता था और यह इस दृष्टिकोण से जुड़ा है कि किसी मानक की क़ानूनी वैधता कभी भी इसकी नैतिक शुद्धता पर निर्भर नहीं रह सकती. इस विचारधारा के एक दूसरे स्कूल को समावेशी वैध प्रत्यक्षवाद (इन्क्लुसिव लीगल पॉज़िटीव्स्म) का लेवल लग गया है, जिसके प्रमुख प्रस्तावक विल वालूचाउ हैं, एवं यह इस विचार से जुड़ा हुआ है कि नैतिक विवेचनाएं एक मानक की कानूनी वैधता निर्धारित कर सकती हैं, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि यही मामला हो.

जोसेफ राज़[संपादित करें]

कुछ दार्शनिकों ने यह दावे के साथ कहना शुरू कर दिया कि प्रत्यक्षवाद ऐसा सिद्धांत है कि इसमें कानून और नैतिकता के बीच "संपर्क आवश्यक नहीं"; लेकिन जोसेफ राज़, जॉन गार्डनर, एवं लेस्ली ग्रीन सहित समकालीन प्रभावशाली प्रत्याक्ष्वादियों ने इस विचारधारा का खण्डन किया। जैसा कि राज़ बतलाते हैं, यह एक आवश्यक सत्य है कि ऐसे अवगुण हैं जो कानूनी प्रणाली के पास संभवतया नहीं हो सकते हैं (उदाहरण के लिए, यह बलात्कार अथवा हत्या नहीं कर सकता है).

जोसेफ राज़ प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं, पर उन्होंने हार्ट के कमजोर सामाजिक शोध "द ऑथोरिटी ऑफ़ लॉ में प्रस्तावना की समालोचना की है। राज़ का तर्क है कि कानून सामाजिक स्रोतों के जरिए, नैतिक तर्क के सन्दर्भ के बिना ही स्पष्ट रूप से पहचाने जाने योग्य एक प्राधिकरण है। उनकी प्राधिकृत भूमिका से परेनियमों का कोई भी वर्गीकरण बेहतर हो कि प्राधिकृत भूमिका से परे नियमों का कोई भी वर्गीकरण समाजशास्त्र के लिए छोड़ दिया जाय न कि न्यायशास्त्र में इसे अंतर्मुक्त किया जाय.

रोनाल्ड डॉर्किन[संपादित करें]

रोनाल्ड डॉर्किन कानून जो 'न्यायाधीशों का फैसला करने के लिए नीचे लोकतांत्रिक कानूनों हड़ताल करने की क्षमता को सही होगा की एक सिद्धांत की मांग की.

डॉर्किन ने अपनी पुस्तक लॉज एम्पायर में हार्ट एवं प्रत्यक्षवादियों पर कानून को एक नैतिक मुद्दे के रूप में नहीं स्वीकार करने के विरोध में आक्रमण किया है। डॉर्किन तर्क देते हैं कि कानून एक 'व्याख्यात्मक' अवधारणा है, जजों के लिए यह जरुरी बन जाता है कि इसका यथोचित बेहतर प्रयोग की तलाश करें और क़ानूनी विवाद का सबसे सही न्यायपूर्वक हल ढूंढ़ निकालें, जो उन्हें संवैधानिक परम्पराओं ने दिया है। उनके मतानुसार कानून सम्पूर्ण रूप से सामाजिक तथ्यों पर आधारित नहीं है, किन्तु इसमें संस्थागत तथ्यों और प्रथाओं के लिए जिसे हम सहजानुभूति से क़ानूनी स्वीकार कर लेते हैं, वे नैतिक रूप से औचित्य के रूप में अंतर्भुक्त हैं। यह डॉर्किन्स के विचारों का अनुसरण करता है कि कोई यह जान नहीं सकता है कि क्या समाज के पास बलवत (जारी) क़ानूनी प्रणाली है, अथवा इसके कुछ कानूनों में से हैं, जब तक कि किसी को समाज में व्यवहार में लाने के लिए न्यायशास्त्र के बारे में कुछ नैतिक सच्चाइयों की जानकारी प्राप्त न हो जाय. डॉर्किन्स के दृष्टिकोण के साथ यह सुसंगत है - जो वैध प्रत्यक्ष्वादियों अथवा वैध यथार्थवादियों के विचारों के विपरीत है - जिसे किसी समाज का "कोई भी नहीं" जान सकता कि इसके कानून क्या हैं (क्योंकि कोई भी इसकी कार्यप्रणाली के सर्वोत्तम औचित्य के बारे में नहीं जान सकता).

अखंडता के सिद्धांत के रूप में डॉर्किन के कानून के अनुसार अर्थवत्ता के दो आयाम हैं। व्याख्या करने से पहले, पाठ के पठन को उपयुक्तता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए. लेकिन उन व्याख्याओं के बारे में जो खरी (फिट) उतरती हैं, डॉर्किन का मानना है कि सही व्याख्या वही है जो समुदाय को राजनीतिक कार्यप्रणालियां उनकी बेहतरी प्रदान करने के लिए अथवा उन्हें अधिक से अधिक सर्वोत्कृष्ट बनाने के लिए की जाती है। किन्तु कई लेखकों को इस बारे में संदेह है कि किसी एक दिए गए समुदाय के लिए दी गई जटिल कार्यप्रणालियां केवल एक सर्वोत्तम औचित्य है और दूसरों ने यह संदेह प्रकट किया है कि ऐसा अगर हो भी तो, उन्हें उस समुदाय के कानून के एक अंग के रूप में परिगणित करना चाहिए.

विधिक यथार्थवाद[संपादित करें]

ऑलिवर वेन्डेल होल्म्स एक आत्म परिभाषित कानूनी यथार्थवादी था

कानूनी यथार्थवाद कुछ स्कैंडिनेवियाई और अमेरिकी लेखकों के लोकप्रिय दृष्टिकोण हैं। लहजे में संशयवादी, इसका मानना है कि कानून को अदालतों की वास्तविक कार्यप्रणालियों, कानून के कार्यालयों, पुलिस स्टेशनों के द्वारा समझना और निर्धारित किया जाना चाहिए, न कि नियमों एवं सैद्धांतिक मतों जो संविधियों में निर्धारित हैं अथवा विद्वता से भरे शोध-प्रबंधों में निहित हैं। कानून के समाज-शास्त्र के साथ इसमें कुछ समानताएं हैं। कानूनी यथार्थवाद का आवश्यक तत्व यह है कि सभी कानून की रचना मानव प्राणी ने की है और इस प्रकार यह मानव के नैतिक दौर्बल्य नश्वरताओं, एवं अपरिपूर्णताओं के अधीन है।

यह आजकल एक आम बात हो गई है कि न्यायमूर्ति ऑलिवर वेन्डेल होम्स, जूनियर की पहचान अमेरिकी क़ानूनी यथार्थवाद के प्रमुख अग्रदूत के रूप में की जाती है (दूसरे-प्रभावों में शामिल हैं रोस्कों पाउण्ड, कार्ल लेवेल्लिन ववन जस्टिस बेन्जामिन कार्डोजो). अमेरिकी क़ानूनी यथार्थवादी आन्दोलन में एक और प्रतिष्ठाता कार्ल लेवेल्लिन, ठीक इसी प्रकार मानते है कि जज के हाथों की कठपुतली के अलावा कानून कुछ और है जो किसी मामले के परिणाम को व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के आधार पर प्रारूप प्रदान करने की योग्यता रखते हैं। कई लोग यह मानते हैं कि स्कैंडिनेवियाई कानूनी यथार्थवाद की प्रमुख प्रेरणा एक्सेल हेगेरस्टॉर्म की कृतियां हैं। प्रत्यक्ष लोकप्रियता में गिरावट के बावजूद, आजकल के न्यायशास्त्रीय स्कूल के व्यापक फलक पर वास्तववादियों का प्रभाव लगातार बरकरार रहा, जिसमें जटिल क़ानूनी अध्ययन (डंकन कैनेडी और रॉबर्ट अंगर जैसे विद्वान), नारीवादी क़ानूनी सिद्धांत, महत्वपूर्ण वर्णभेदी सिद्धांत, कानून एवं अर्थशास्त्र तथा कानून और समाज शामिल हैं

ऐतिहासिक स्कूल[संपादित करें]

जर्मन कानून के प्रस्तावित संहिताकरण पर जर्मन बहस के दौरान ऐतिहासिक न्यायशास्त्र उभर कर सामने आया। फ्रेडरिक कार्ल वॉन सेविन्गी ने अपनी पुस्तक ऑन द वोकेशन ऑफ़ ऑवर एज फॉर लेजिस्लेशन एण्ड ज्यूरिसप्रुडेंस में यह तर्क दिया है कि जर्मनी के पास कोई कानूनी भाषा नहीं है जो संहिताकरण का समर्थन कर सके क्योंकि जर्मन लोगों की परम्पराएं, रीति-रिवाज एवं आस्थाओं में सहिंताकरण में विश्वास सम्मिलित नहीं है। इतिहासवेत्ताओं का मानना है कि कानून की उत्पत्ति समाज के साथ ही होती है।

नियामक न्यायशास्त्र (मानदंडक विधिशास्त्र)[संपादित करें]

"कानून क्या है?", इस प्रश्न के अतिरिक्त, नियामक, अथवा कानून के मूल्यांकन के सिद्धांत भी कानूनी दर्शन के साथ सम्बद्ध हैं। कानून का उद्देश्य अथवा लक्ष्य क्या है? कौन से नैतिक अथवा राजनैतिक सिद्धांत कानून को आधार-शिला प्रदान करते हैं? कानून के उचित कार्य क्या है? किन कृत्यों के लिए दंडादेश धार्य होने चाहिए, एवं किस प्रकार के दण्डों को अनुमति प्रदान की जानी चाहिए? न्याय क्या है? हमारे पास कौन-कौन से अधिकार हैं? कानून का अनुपालन करने का कोई कर्त्तव्य भी है क्या? कानून के द्वारा शासन की क्या कीमत है? कुछ भिन्न विचारधारा वाले स्कूल और उनके निम्नलिखित चिन्तक हैं:

गुण विधिशास्त्र[संपादित करें]

प्लेटो (बाएं) और अरस्तू (दाएं), एथेंस के स्कूल के एक विस्तार

सदाचार के सिद्धांत (एरिआटिक आन्दोलन) जिस तरह समकालीन नैतिकता के आचारशास्त्र में चरित्र में नैतिकता की भूमिका पर विशेष बल देते हैं। नैतिकता के न्यायशास्त्र के विचार से कानून को नागरिकों के सदाचारी (धर्मात्मा) चरित्र के विकास को बढ़ावा देना चाहिए. ऐतिहासिक दृष्टिकोण से, यह प्रयास प्रधानतया अरस्तू अथवा बाद में थॉमस अकिनास के साथ संबंधित है। समकालीन नैतिकता का न्यायशास्त्र सदाचार के नीति शास्त्र के दार्शनिक कार्य से प्रेरित है।

कर्तव्यशास्त्र[संपादित करें]

कांत एक पूर्व प्रख्यात विचारक आत्मज्ञान था

नीतिशास्त्र "कर्तव्य अथवा नैतिक दायित्व का सिद्धांत है". दार्शनिक इम्मानुएल काण्ट ने कानून के नीतिशास्त्र के एक प्रभावशाली सिद्धांत को सूत्रबद्ध किया है। उन्होंने तर्क दिया कि हम किसी भी नियम जिसका हम पालन करते हैं उसे सार्वभौमिक (सर्वतोमुखी) होना चाहिए:हमें भी इसके लिए इच्छुक होना चाहिए कि हर कोई उस नियम का पालन करेने को इच्छुक है। कानूनी दार्शनिक (विधि-वेत्ता) रोनाल्ड डॉर्किन की कृति में एक समकालीन नीतिशास्त्रीय दृष्टिकोण (प्रयास) पाया जा सकता है।

उपयोगितावाद[संपादित करें]

चक्की का विश्वास कानून खुशी बनाना चाहिए

उपयोगितावाद का मानना है कि कानून की रूपरेखा ऐसी तैयार की जाय कि यथासंभव अधिसंख्यक लोगों के लिए अच्छे से अच्छा परिणाम प्रतिफलित हो. ऐतिहासिक रूप से, कानून के बारे में उपयोगितावादी सोच महान दार्शनिक जेरेमी बेन्थैम के साथ जुड़ा हुआ है। जॉन स्टुअर्ट मिल बेन्थैम के शिष्य थे और उन्नीसवीं सदी के अंत तक उपयोगितावादी दर्शन के मशाल वाहक रहे. समकालीन कानूनी सिद्धांत में, उपयोगितावादी दृष्टिकोण को उन विद्वानों का बहुधा समर्थन प्राप्त होता रहा है जो कानून एवं अर्थशास्त्र की परंपरा में काम करते हैं। लाइसैन्डर स्पूनर भी द्रष्टव्य हैं

जॉन रॉल्स[संपादित करें]

जॉन रोंव्ल्स एक अमेरिकी दार्शनिक, हार्वर्ड विश्वविद्यालय में राजनीतिक दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक तथा अ थ्योरी ऑफ़ जस्टिस (1971), पोलिटिकल लिबरिज्म एवं लॉज ऑफ़ पीपुल्स के रचनाकार थे। वे 20 वीं सदी के अंग्रेजी भाषा के राजनीतिक दार्शनिकों में सबसे महत्वपूर्ण माने जाते है। न्याय का उनका सिद्धांत एक ऐसे आदर्श वाक्य (उपकरण) का उपयोग करता है जिसे मौलिक स्थिति कही जाती है जो हमसे यह सवाल करता है कि न्याय के किन सिद्धांतों का चुनाव हम अपने समाज के बुनियादी संस्थानों को विनियमित करने के लिए करें अगर हम `अज्ञानता के परदे' के पीछे हैं। कल्पना कीजिये कि हम नहीं जानते कि हम कौन हैं- हमारी जाति, लिंग, अर्थ (धन-दौलत), प्रतिष्ठा (रुतबा), वर्ग, अथवा हमारे परिचय के लिए कोई विशिष्ठ लक्षण क्या हैं - ताकि हम अपने ही हित में पक्षपाती न हो जायं. रोंव्ल्स इस 'मूल स्थिति' (आदर्श वाक्य) से, यह तर्क देते हैं कि हम वास्तव में सभी के लिए एक ही राजनीतिक स्वतंत्रता का चयन करेंगे, जैसे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मतदान का अधिकार इत्यादि. इसके अलावा, हम एक प्रणाली का भी चयन करेंगे जिसमे केवल असमानता ही है क्योंकि सभी समाज की आर्थिक उन्नति के लिए यह पर्याप्त प्रोत्साहन पैदा करता है, खासकर सबसे ज्यादा गरीब के लिए. यह रोंव्ल्स का विख्यात'अंतर का सिद्धांत'है। निष्पक्षता ही न्याय है, इस अर्थ में कि चुनाव की मूल स्थिति की निष्पक्षता उस स्थिति में चुने गए सिद्धांतों की निष्पक्षता को गारंटी प्रदान करता है।

क़ानून के दर्शन शास्त्र के कई ऐसे अन्य नियामक दृष्टिकोण हैं, जिनमें गहन महत्वपूर्ण कानूनी अध्ययनों और मुक्तिवादी सिद्धांतों के कानून शामिल हैं।

विधि के स्रोत[संपादित करें]

  • विधायन
  • रुढ़ि
  • पुर्ण-निर्णय
  • ओपिनियन ज्युरिस
  • न्याय, समानता और अच्छा विवेक

उपसंहार[संपादित करें]

विधिशास्त्र से हमें उस अध्ययन, शोध एवं अनुमान का बोध होता है, जिनका प्राथमिक लक्ष्य सर्वसाधारण के प्रश्न..."कानून क्या है"? का उत्तर देना होता है। विधिवेत्ता की दृष्टि में कानून उन प्रभावों की समष्टि है, जिनके द्वारा न्यायालयों में निर्णय दिए जाते हैं। कानून का प्रथम लक्ष्य है सामाजिक द्वंद्वों का निराकरण, यद्यपि सब प्रकार के द्वंद्व इस सीमा के अंदर नहीं आते। विधिवेत्ता रस्को पाउंड के अनुसार कानून का कार्य यह है कि वह लोगों के पारस्परिक हक का संतुलन करे, जिससे प्रत्येक व्यक्ति को अधिकतम मिले एवं समाज के हित के लिए उसे न्यूनतम त्याग करना पड़े।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सामान्य[संपादित करें]

विधिक दार्शनिक[संपादित करें]

आगे पढ़ें[संपादित करें]

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  • हचइनसन, एलन सी., एड. (1989). क्रिटिकल लीगल स्टडीज़. टोटोवा, एनजे: रोमन & लिटलफिल्ड.
  • केम्पिन, जूनियर, फ्रेडरिक जी. (1963). कानूनी इतिहास: कानून और सामाजिक परिवर्तन. इंगलवूड क्लिफस, एनजे: प्रेंटिस-हॉल.
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बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

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  5. ब्रूक्स, "डॉर्किन की समीक्षा और उनके आलोचक डॉर्किन के उत्तर के साथ", मॉडर्न लॉ रिव्यू, खंड 69 नं. 6
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  15. रहेटोरिक 1373b2-8.
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बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]