नेपाल का साहित्य

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नेपाल का साहित्य नेपाल का विभिन्न भाषाऔं में लिखा हुआ साहित्य है। इन साहित्यौं में संस्कृत, पाळि, नेपालभाषा, मैथिली, नेपाली, भोजपुरी, तिब्बती आदि भाषायें प्रमुख है। नेपालभाषा ही एक ऐसी भाषा है जिसका प्रयोजन् नेपाल के साहित्य के सभी युगों में हुआ है।

प्राचीन साहित्य[संपादित करें]

प्राचीन काल से नेपाल में विभिन्न प्रकार के साहित्य का निर्माण हुआ है। नेपाल के इतिहास में प्राचीन काल, मल्लकाल से पूर्व का काल था। प्राचीन नेपाल के साहित्य की प्रमुख भाषा संस्कृत थी। इस समय के शिलापत्र, ताडपत्र आदि उपलब्ध है। लुम्बिनी में स्थित भगवान बुद्ध के जन्म स्थल में सम्राट अशोक द्वारा स्थापित शिलालेख इस समय के एक प्रख्यात अभिलेख है। प्राचीन काल में पौराणिक साहित्य का बहुत प्रभाव मिलता है। स्कन्धपुराण के हिमवत खंड में नेपाल के नामांकरण के बारे में उल्लेख किया गया है। पौराणिक परंपरा में नेपाल के काठमांडू उपत्यका में स्वयम्भू पुराण और पशुपति पुराण लिखा गया था। इन दो पुराणौं में काठमांडू की उत्त्पत्ति, बागमती व विष्णुमति नदी सभ्यता की स्थापना आदि विभिन्न विषय पर पद्य रूप में संस्कृत साहित्य उपलब्ध है। प्राचीन साहित्य में उल्लेख हुए बहुत से स्थानौं का नाम संस्कृत वा प्राकृत शब्दौं से ना होकर चीनी-तिब्बती मूल के शब्दों से है, जिनका प्रयोजन नेपालभाषा में अभी तक भी होता है। बौद्ध लेखन परंपरा के अन्तर्गत सर्वास्तिवाद और प्राचीन महायान और बज्रयान के बौद्ध ग्रन्थ नेपाल में बहुत प्रभावशाली थे। इस समय के संस्कृत में लिखित बहुत सारे ग्रन्थौं का तिब्बती, चीनी, जापानी, कोरियाई आदि भाषाओँ में भाषानुवाद किया गया है। यह सभी ग्रन्थ नेपाल में तो नहीं लिखे गए थे, परन्तु भारत में बुद्ध धर्म के पतन के बाद यह ग्रन्थ भारत में अनुपलब्ध हो गए थे और इन का संरक्षण नेपाल के काठमांडू के विभिन्न विहारौं में होने लगा। वर्तमान में, संस्कृतकृत जीवित बौद्ध परम्परा विश्व में सिर्फ नेपाल के काठमांडू में ही उपलब्ध है। संस्कृत त्रिपिटक और प्रज्ञापारमिता इस समय के कुछ ग्रंथ है जो अभी भी विश्वप्रख्यात है। प्राचीनकाल में शनै: शनै:, संस्कृत में नेपालभाषा के शब्द भी दिखने लगे और प्राचीन काल के अन्त में नेपालभाषा साहित्य के प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित हो गयी। गोपालराजवंशावली, जो नेपाल के सम्राटौं की वंशावली है, का लेखन इसी काल में शुरु हुआ था। इस ग्रन्थ की शुरुआत में संस्कृत का प्रयोग हुआ था और अन्त के अध्यायौं में नेपालभाषा का प्रयोग मिलता है।

मध्यकाल[संपादित करें]

मध्यकालीन नेपाल मल्लकालीन नेपाल था। इस युग को नेपाल का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। इस युग में साहित्य, कला, संस्कृति, अर्थ आदि का बहुत विकास हुआ था। इस युग में बिहार, बंगाल आदि स्थानों से मुसलमानौं के आक्रमण के कारण से बहुत सारी नस्लों के लोग नेपाल में विस्थापित हो गए। अतः, इस काल की प्रमुख साहित्यिक भाषायें नेपालभाषा, मैथिली, बंगाली, तिब्बती आदि थी। इस काल में नेपालभाषा और मैथिली में हिन्दू धर्म पर आधारित विभिन्न नाटक, नृत्य आदि का मंचन हुआ करता था। राजा एवं शाही परिवार के सदस्य खुद ही साहित्य निर्माण करते थे और नाटकौं में हिस्सा भी लेते थे। इस काल में नीति पर आधारित बहुत पद्यौं का निर्माण हुआ था। काठमांडू इस समय का मैथिल भाषा साहित्य का एक प्रमुख केन्द्र था। पूर्वी नेपाल के तत्कालीन लिम्बुवान में भी सिक्किम के अन्तरक्रिया से साहित्य का सृजन धीरे धीरे प्रारम्भ हो गया।

आधुनिककाल[संपादित करें]

पश्चिमी नेपाल के गोरखा द्वारा नेपाल के राजसता अपने अधीन करने के बाद आधुनिक नेपाल की स्थापना हुई थी। इस समय में गोरखाली खस भाषा नें धीरे-धीरे नेपालभाषा को विस्थापित कर दिया। मैथिली का प्रयोजन तो राजकार्य में शून्यप्रायः हो गया। राणाकाल में आधिकारिक कार्यौं के लिए नेपालभाषा में प्रतिबन्ध लगाया गया था। जंगबहादुर राणा के समय में बहुत सारे प्राचीन संस्कृत बौद्ध साहित्य को नष्ट किया गया था। सिर्फ खस भाषा को आधिकारिक भाषा का रूप दिया गया। खस भाषा के भानुभक्त आचार्य, मोतिराम भट्ट इस युग के प्रमुख कवि थे। हालांकि भानुभक्त आचार्य और सिद्धिदास अमात्य दोनों ने रामायण का क्रमशः खस और नेपालभाषा में अनुवाद किया था, लेकिन भानुभक्त को आदिकवि की पदवी दी गयी और सिद्धिदास की कृति प्रकाशित भी नहीं हो सकी। इस काल में साहित्य प्रमुख रूप से मात्र खस भाषा में ही प्रकाशित होने लगा। नेपालभाषा में लगी हुइ पाबन्दी और थेरवाद बुद्ध धर्म के प्रतिबन्ध के बाद नेपालभाषा का साहित्य तत्कालीन सिक्किम राजशाही, भारत के कोलकाता आदि में मुख्यतः प्रकाशित होने लगा। काठमांडू की मैथिल परंपरा का लोप हो गया। पूर्वी नेपाल के लिम्बुवान की लिपि का लोप हो गया। नेपालभाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार पण्डित निष्ठानन्द बज्राचार्य नें नेपाल में प्रकाशन के लिए "थ्यासाआखः" प्रेस आयात किया था लेकिन पाबंदियौं के कारण ज्यादा प्रकाशन नहीं कर पाए। नेपालभाषा के कवि योगवीरसिंह कंसाकार नें भारत में प्रकाशन के लिए विभिन्न लेखकौं की नेपालभाषा की रचनाओं को संग्रहित किया था जिसको तत्कालीन शासकौं ने जला दिया। राणाकाल के अन्तिम खण्ड को नेपालभाषा के इतिहास में जेलकाल कहते हैं जिस काल में नेपालभाषा के सभी साहित्यकारौं को पुस्तकालय खोलने, धार्मिक प्रवचन आदि देने के विभिन्न आरोपों में जेल में कैद कर दिया गया था। जेल में साहित्य साधना कर इन साहित्यकारौं ने उस समय तक के नेपाल के इतिहास में सर्वाधिक साहित्य सृजन करके दिखाया। सुगतसौरभ इस काल खण्ड का एक प्रसिद्ध काव्य है। राणाकाल के अन्त के पश्चात १० वर्ष के लोकतान्त्रिक काल में रेडियो नेपाल में विभिन्न भाषाऔं का प्रयोग और विभिन्न साहित्यौं का निर्माण फिर से शुरु हुआ था। परन्तु, राजा महेन्द्र के एक भाषा नीति स्वरूप सिर्फ गोरखाली खस भाषा में पठन पाठन होने लगा और रेडियो नेपाल के सभी भाषाऔं (खस भाषा को छोडकर) को वर्जित कर दिया गया। राजतन्त्र की समाप्ति के पश्चात अभी नेपाल में विभिन्न भाषाऔं में साहित्य सृजना बढने लगी है। सरकारी पत्रिका "गोरखापत्र" में भी अब सभी भाषाऔं के साहित्य को स्थान दिया जाने लगा है।

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