निज भाषा उन्नति अहै

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यह प्रसिद्ध दोहा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रसिद्ध कविता निज भाषा से लिया गया है। हिन्दी सम्बन्धित आन्दोलनों और आयोजनों में यह दोहा अनगिनत बार प्रेरणास्रोत की तरह उद्धृत किया जाता रहा है। इस कविता में कुल दस दोहे हैं।

विषयवस्तु[संपादित करें]

इसमें कवि मातृभाषा का उपयोग सभी प्रकार की शिक्षा के लिए करने पर जोर देते हैं-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

भावार्थ:
निज यानी अपनी भाषा से ही उन्नति संभव है, क्योंकि यही सारी उन्नतियों का मूलाधार है।
मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण संभव नहीं है।
विभिन्न प्रकार की कलाएँ, असीमित शिक्षा तथा अनेक प्रकार का ज्ञान,
सभी देशों से जरूर लेने चाहिये, परन्तु उनका प्रचार मातृभाषा के द्वारा ही करना चाहिये।

पूरी कविता निम्नलिखित है-

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन,
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।
उन्नति पूरी है तबहिं, जब घर उन्नति होय,
निज शरीर उन्नति किए, रहत मूढ़ सब कोय ।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय,
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग,
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात,
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय,
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार,
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात,
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय,
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।

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