नागरिक उड्डयन

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सेना द्वारा संचालित उड़ानों को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की उड़ानों को नागरिक उड्डयन (Civil aviation) के ही अंतर्गत माना गया है। इसमें जो कार्य व्यवहार में आते हैं वे ये हैं : यात्रियों का व्यावसायिक यातायात, माल और डाक, व्यापार या शौक के लिए निजी हैसियत से की गई उड़ानें तथा सरकारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया इसका उपयोग।

इतिहास[संपादित करें]

दो अमरीकी बंधु आरिविल राइट तथा विल्बर राइट आज के प्रचलित नागरिक एवं सैन्य उड्डयन के जनक माने जाते हैं। १९०३ में ही इन बंधुओं ने पहले ऐसी यात्रा की थी जिसमें वायुयान इंजनयुक्त और हवा से भारी था। हवाई उड्डयन में अन्य कई देशों में भी, विशेषत: फ्रांस में, इस दिशा में प्रयोग किए जा रहे थे। १९१० तक हवाई यातायात को अधिकांश देशों में व्यावहारिक रीति से अपना लिया गया था। शीघ्र प्रथम विश्वयुद्ध सामने आया। इसने वैज्ञानिक एवं प्राविधिक प्रयोगों को उन्नत होने की पर्याप्त प्रेरणा दी ओर युद्ध का अंत होते होते यातायात के हवाई साधन भली भाँति दृढ़ हो चुके थे।

इसके बाद तीव्र प्रगति हुई। १९१९ के अंत तक लंदन और पेरिस के बीच वायुचर्याएँ चालू हो गई। यूरोप के कुछ अन्य बड़े नगरों के साथ भी इस प्रकार का संपर्क स्थापित हुआ। रूस में लेनिनग्राड और मास्को के बीच नियमित चर्याएँ चालू हुई। संयुक्त राज्य अमरीका, की व्यावसायिक प्रगति कुछ मंद थी, तथापि वायुचर्याएँ सिएटल (वाशिंगटन) और विक्टोरिया (ब्रिटिश कोलंबिया) तथा की-वेस्ट (फ़्लोरिडा) और हैवैना (क्यूबा) में संचालित की जाने लगीं।

१९१९ से १९३९ तक की प्रगति द्रुत रही। विभिन्न देशों के बीच वायुमार्गो का जाल धीरे धीरे घना हुआ तथा फ्रेंच, ब्रिटिश एवं डचों ने अफ्रीका एवं सुदूरपूर्व में स्थित अपने उपनिवेशों तक के लिए लंबे वायुमार्ग स्थापित किए। जर्मनी ने दक्षिणी अमरीका में हवाई यातायात का संपर्क स्थापित किया तथा ब्रैज़ील, अर्जेटाइना तथा कुछ अन्य लातीनी अमरीकी देशों में अपने वायुयानों का घना जाल फैलाया। १९२९ में संयुक्त राज्य, अमरीका, ने मियामी से दक्षिणी अमरीका के पश्चिमी किनारे, चिली, तक एक वायुमार्ग स्थापित किया। १९३१ में जर्मनी एवं ब्रैज़ील के बीच जर्मनी की एक ज़ेपलिन चर्या स्थापित हुई (गैस भरे और इंजनयुक्त विशेष रूप के हवाई जहाज को ज़ेपलिन कहते हैं)। १९३५ में प्रशांत महासागर के आर पार पानी में भी तैर सकनेवाले वायुयान की चर्या तथा १९३६ में अंध महासागर (ऐटलैंटिक) पार जानेवाली ज़ेपलिन की चर्या चालू की गई। १९३९ में उत्तरी एवं दक्षिणी अंध महासागर के आर पार जानेवाली नियमित उड़ानें होने लगीं। व्यापारिक वायुमार्गो ने तब समूचे जगत् को चारों ओर से घेर लिया।

फिर द्वितीय महायुद्ध सामने आया। इसने भी प्राविधिक उन्नति को बढ़ावा दिया और उड्डयन विषयक ज्ञान की बहुत वृद्धि हुई। अखिल विश्व के पैमाने पर सैनिक हवाई यातायात के कार्यों का होना उस समय की एक बहुत बड़ी अनिवार्यता थी। उड्डयन को अब बहुत अधिक बल मिला। १९४५ में युद्ध समाप्त हुआ। उसके बाद के कुछ वर्षों में व्यावसायिक हवाई यातायातों तथा तत्संबंधी उपयोगी वस्तुओं में बहुत बड़े परिवर्तन हुए और दुनिया में वायुमार्गों का विराट् विस्तार देखने में आया। परिवहन की क्षमता बढ़ गई। गति में तीव्रता आई और यात्राओं का विस्तार लंबा होने लगा। इंजन चालित वायुयानों के बदले टरबाइन चालित, फिर जेट चालित वायुयान बने। अक्टूबर, १९५८ में संयुक्त राज्य, अमरीका, से ब्रिटेन और फ्रांस तक, अंध महासागर को पार करके जानेवाली पहली जेट सर्विस का उद्घाटन हुआ। इस प्रकार व्यावसायिक उड्डयन ने अब जेट युग में प्रवेश कर लिया है।

भारत में नागरिक उड्डयन[संपादित करें]

भारत में वायुचर्याओं के चलाए जाने की चर्चा भारत सरकार द्वारा बहुत पहले, १९१७ में ही, प्रारंभ की गई थी। प्रथम विश्वयुद्ध के समाप्त होते ही, सितंबर, १९१९ में सरकार ने भारत भर में डाक पहुँचाने का पूरा उत्तरदायित्व एक यातायात कंपनी को सौंप देने का निश्चय किया, परंतु कुछ कार्य न हो सका। एक साल बाद हवाई अड्डे स्थापित करने और बंबई-कलकत्ता तथा कलकत्ता-रंगून की चर्याओं के लिए सुविधाएँ देने की ओर सरकार की प्रवृत्ति हुई। एक भारतीय वायुमंडली (एयर बोर्ड) स्थापित हुई। सब कुछ होने पर भी सरकार ने नीतिनिर्धारण करने के अतिरिक्त और कुछ न किया।

बाद के कुछ वर्षों में ब्रिटेन, फ्रांस और हालैंड ने भारत के बाहर सुदूर-पूर्वी उपनिवेशों में हवाई चर्याएँ स्थापित कीं। इन प्रगतियों ने भारत सरकार को भी सोचने को बाध्य किया और भारत में सहायक चर्याएँ चलाने की आवश्यकता का उसने अनुभव किया। परिणामत: भारतीय व्यापारियों से बातचीत आरंभ की गई। इन वार्ताओं के फलस्वरूप टाटा एयरलाइन और इंडियन नैशनल एयरवेज़ की चर्याओं का विकास हुआ। इन कंपनियों ने डाक ढोने के लिए एक इंजनवाले हल्के वायुयानों द्वारा कार्यसंचालन आरंभ किया। भारत सरकार द्वारा १९३८ में बनाई गई राजकीय हवाई डाक योजना से इस उद्योग में विस्तार को बढ़ावा मिला। बड़े वायुयानों का उपयोग होने लगा और नई नई चर्याएँ खुलीं।

तब द्वितीय विश्वयुद्ध आया। इंडियन एयरलाइन का उपयोग सामरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाने लगा। राजकीय वायुसेना के यातायात समादेश (कमैंड) के वायुमार्गों के अंतर्गत बहुत से मार्गों पर इन सेवाओं का उपयोग उधार मिले (लीज़-लेंड) वायुयानों, विशेषत: डकोटा विमानों, द्वारा किया गया। पूर्वोक्त एयरलाइनों का कार्य सौंपा गया। इससे उन्हें एकदम आधुनिक ढंग के वायुयानों को उपयोग में लाने का सुअवसर प्राप्त हुआ और बहुत से लोगों ने इन कार्यों में प्रशिक्षित होकर निपुणता प्राप्त कर ली।

अगस्त, १९४५ में युद्ध समाप्त होने पर एयरलाइनों पर से सरकारी नियंत्रण हट गया और वे पुन: व्यावसायिक स्तर पर आ गई। युद्धोत्तर वर्षो में भारतीय नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में सबसे मुख्य बात दिखाई दी-भारतीय यात्रियों में हवाई यात्रा की चेतना का समुन्नत विकास। हवाई उद्योग में तीव्रता आ गई जिससे देश के प्रमुख उद्योगपति पर्याप्त संख्या में वायु यातायात के उद्योग की ओर अग्रसर हुए। १९४७ की जनवरी तक वायु यातायात की अनुज्ञप्ति-मंडली (लाइसेंसिंग बोर्ड) को विभिन्न उपयोगी वायुमार्गों के लिए १२२ आवेदनपत्र प्राप्त हुए। अंत में बोर्ड ने एयर इंडिया (जिसने टाटा एयरलाइंस का स्थान लिया), इंडियन नैशनल एयरवेज़ तथा एयर सर्विसेज़ ऑव इंडिया आदि पुरानी चालू कंपनियों के अतिरिक्त निम्नलिखित ११ नई कंपनियों को अस्थायी अनुमतिपत्र प्रदान किए : डेकन एयरवेज, डालमिया जैन एयरवेज़, भारत एयरवेज़, एयरवेज़ (इंडिया), ओरिएंट एयरवेज़ मिस्स्री एयरवेज़, अंबिका एयर लाइंस और जुपिटर एयरवेज़।

इस प्रकार बहुत से संचालकों को अनुमतिपत्र दे देने से, वह भी ऐसी दशा में जब अनेक मार्गों में व्यापार की संभावनाएँ बहुत सीमित थीं, एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई जिससे अवांछनीय प्रतिद्वंद्विता आरंभ हो गई जो अर्थशास्त्रीय दृष्टि से सर्वथा असंगत और अहितकर थी। इसने इस उद्योग के लिए बड़ी गंभीर कठिनाइयाँ उपस्थित कर दीं। कुछ कंपनियों का दिवाला निकल गया। शेष ने सरकार पर इस बात के लिए जोर दिया कि वह उड्डयन को अनुप्राणित रखने के लिए वित्तीय सहायता कुछ छूट के रूप में दे। अब यह स्पष्ट हो गया कि इस उद्योग को ऐसी आर्थिक सहायता की आवश्यकता है जिससे उसका विस्तार होता रहे। यह भी स्पष्ट हो गया कि अब इस उद्योग के पास खुले बाजार में धन उगाहने की क्षमता नहीं रह गई। इन सभी बातों को दृष्टि में रखकर सरकार ने एक समिति नियुक्त की जो इस निष्कर्ष पर पहुँची कि सभी हवाई कंपनियाँ राज्य द्वारा अधिकृत एक विशाल निगम (कॉरपोरेशन) में अंतर्भुक्त कर ली जाएँ। मई, १९५३ में संसद ने एयर कॉरपोरेशन संबंधी एक अधिनियम पारित किया तथा अगस्त, १९५३ में इंडियन एयरलाइंस कॉरपोरेशन स्थापित हो गया, जिसके अंतर्गत इंडियन एयरलाइंस तथा एयर इंडिया नामक दो हवाई सेवाएँ चालू हुई। इंडियन एयरलाइंस देश के अंदर तथा समीपस्थ देश बर्मा, नेपाल एवं श्रीलंका के लिए हवाई सेवाएँ उपलब्ध कराती है और एयर इंडिया विश्व के २४ देशों के लिए जेट वायुयानों द्वारा हवाई सेवाएँ सुलभ कराती है।

पहले साल तो कॉरपोरेशन को व्यवस्था एवं संचालन संबंधी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। वायुमार्गों का पहलेवाला ढर्रा अब ठीक नहीं जान पड़ता था, अत: उसके पुनरीक्षण की आवश्यकता हुई।

यांत्रिक पक्ष में भी अनेक उलझनें उत्पन्न हुई और इस बात की आवश्यकता हुई कि नए सक्षम कारखाने स्थापित किए जाएँ। उधर व्यापारिक पक्ष में पर्याप्त संख्या में नए टिकटघर स्थापित करने तथा पुराने भवनों को नया करने की आवश्यकता थी। बुकिंग एजेंटों के पूरे ढाँचे को बहुत कुछ बदलना पड़ा तथा विदेशी कंपनियों और सरकारों से नवीन अंतर्देशीय समझौते करने पड़े।

इन सभी समस्याओं का सफलतापूर्वक सामना किया गया और प्रगति के पथ पर पहला पग आगे बढ़ा। १९५३-५४ में इंडियन एयरलाइंस कॉरपोरेशन तीन करोड़ से अधिक की आय हुई। दूसरे वर्ष इसे दृढ़ बनाने के लिए राष्ट्रीयकरण की योजनाएँ जोर पकड़ने लगीं। अलग अलग वायुमार्गो की व्यवस्था के स्थान पर समूचे ढाँचे की संघटित नियंत्रणशैली अपनाई गई। केंद्र में दृढ़ संचालन संस्था की स्थापना हुई। पूरा संचालनक्षेत्र तीन भागों में बाँटा गया और दिल्ली, बंबई तथा कलकत्ता इसके नए केंद्र हुए। कॉरपोरेशन के तृतीय वर्ष में प्रवेश करने के साथ ही संगठन एवं हिसाब किताब के संचालन को कार्यपद्धतियाँ भी एक निश्चित रूप में सुस्थिर की गई। जहाजी बेड़ों में भी आठ हेरोन नामक तीन स्काईमास्टर नामक वायुयानों को रखकर उन्हें समृद्ध बनाया गया। वाइकाउंट वायुयानों के प्रयोग की योजना ने भी मूर्त रूप धारण किया। स्काईमास्टर की रात्रिचर्या भी स्थापित हुई। इंडियन एयर कॉ. ने आसाम के बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों के लिए सामान पहुँचाने के कार्य में महत्वपूर्ण भाग लिया। १९५६-५७ में व्यापार समृद्धतर हुआ और वायुयानों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता हुई। अत: पाँच वाइकाउंटों के लिए एक साथ आर्डर भेजा गया। लंबे वायुमार्गो में इनका उपयोग करने का निश्चय था। इंजीनियरों एवं संचालन के विविध अंग के लोगों को प्रशिक्षित करने की एक सर्वांगपूर्ण योजना उपस्थित की गई। पर्याप्त चालकों एवं इंजीनियरों को प्रशिक्षण के निमित्त ब्रिटेन भेजे जाने के लिए चुना गया। १० अक्टूबर को दिल्ली-कलकत्ता-मार्ग पर वाइकाउंट की पहली उड़ान हुई। इसके बाद ही सभी लंबे मार्गों पर वाइकाउंट विमान चालू किए गए।

१९५७-५८ में इं.ए.कॉ. ने और भी प्रगति की तथा राष्ट्रहित में अधिक भाग लिया। महामारी एवं दैवी विपत्तियों से ग्रस्त क्षेत्रों के लिए ओषधियाँ आदि ढोने के अतिरिक्त काश्मीर जानेवाले मालों को भी ढोने का काम इसने किया। सबसे बढ़कर इं.ए.कॉ. ने 'नेफा' (उत्तर-पूर्वी सीमाक्षेत्र) प्रदेश में सहायतार्थ सामान गिराने का काम किया। इसी वर्ष दिल्ली में वाइकाउंटों के लिए छाजन (डॉक) बनकर पूरा हो चुका था। संगठन में भी काफी सुधार हुआ।

एयर इंडिया ने १९७१-७२ के दौरान ४,२४,२६८ यात्रियों को उनके गंतव्य पर पहुँचाया और इसके नौ बोइंग-७०७ तथा दो बोइंग-७४७ (जंबो जेट) वायुयानों ने २९.९४ करोड़ कि॰मी॰ की यात्रा की।

अंतरराष्ट्रीय समझौते[संपादित करें]

युद्धकालीन हवाई यातायात के विराट् विस्तार एवं विस्तार की तात्कालिक संभावनाओं तथा दूरदर्शिता ने यह आवश्यक बना दिया कि आकाश के उपयोग एवं उड्डयन संबंधी नियमों को सुस्थिर करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौता किया जाए। इस उद्देश्य की दृष्टि में रखकर नवंबर, १९४४ में ५४ देशों के प्रतिनिधि शिकागो (अमरीका) में एकत्रित हुए। इसके परिणामस्वरूप चार समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए जिनका विवरण नीचे दिया जाता है:

(१) अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन की शर्ते ४ अप्रैल १९४७ से लागू हुई। इनके अंतर्गत निम्नलिखित बातों का समावेश था : (क) उड्डयन कला के विधिवत् संचालन में सुविधा एवं सहयोग प्रदान करना तथा इसके प्राविधिक नियमों एवं कार्यविधि में अधिक से अधिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील होना; (ख) नागरिक उड्डयन के सभी पहलुओं में समता लाने के लिए एक स्थायी संघटन, अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संघ (आई.सी.ए.ओ.) की स्थापना करना; (ग) आई.सी.ए.ओ. के अंतर्गत कुछ समितियाँ स्थापित हुई जो नागरिक उड्डयन की विविध शाखाओं का काम देखती थीं। ये समितियाँ थीं : एयर नैविगेशन कमीशन, एयर ट्रांसपोर्ट कमिटी और लीगल कमिटी।

आई.सी.ए.ओ. का सचिवालय और स्थायी हेडक्वार्टर मॉण्ट्रियल (कैनाडा) में स्थापित हुआ।

(२) अंतरराष्ट्रीय हवाई यातायात समझौते के आधार पर अनुसूचित अंतरराष्ट्रीय वायुसेनाओं के लिए 'पाँच' स्वतंत्रताओं का बहुमुखी प्रस्ताव स्वीकृत हुआ :

(क) देशों से होकर गुजरने की स्वतंत्रता;
(ख) आकस्मिक आवश्यकतावश रुक सकने की स्वतंत्रता;
(ग) अपने देश से यात्रियों या सामान को किसी सदस्य राष्ट्र में ले जाने की स्वतंत्रता;
(घ) किसी सदस्य देश से यात्रियों और सामान को स्वदेश लाने की स्वतंत्रता;
(ङ) किसी एक सदस्य देश से अन्य सदस्य देशों को यात्री अथवा माल ले जाने अथवा उतारने की स्वतंत्रता।

वायुयानों के अन्य व्यापारिक उपयोग[संपादित करें]

बहुत से कार्य ऐसे हैं जो वायुयानों द्वारा अन्य साधनों की अपेक्षा बहुत शीघ्र एवं कम व्यय में संपन्न हो सकते हैं। कैनाडा में वायुयान का उपयोग बहुत पहले ही हुआ था और वहाँ सर्वेक्षण (सरवे) के कार्य एवं दावाग्नि से सुरक्षा के लिए इसका उपयोग बहुत दिनों से हो रहा है। अमरीका में भी कृषि के संबंध में हानिकारक कीड़ों को मारने के लिए चूर्ण छिड़कने का कार्य वायुयान द्वारा आरंभ से ही हो रहा है। रूस तथा अर्जेटाइना में वायुयानों का उपयोग टिड्डियों के संहार कार्य में होता रहा है। अन्वेषकों ने कच्ची धातु का पता चुंबकत्वमापी यंत्रों को साथ लेकर वायुयानों से लगाया है। विदेशों में किसान और फार्मवाले वायुयान को खेती का साधारण उपकरण समझते हैं। तेल के रक्षक वायुयान पर चढ़कर पाइप लाइनों की देखरेख किया करते हैं। बिजली की कंपनियाँ भी उच्चशक्तिवाली लाइनों का निरीक्षण इसी प्रकार करती हैं।

अमरीका और रूस में लाखों एकड़ भूमि पर वायुयानों द्वारा रासायनिक चूर्ण छिड़कर जंगली घास-पात से उसकी रक्षा की जाती है। इन देशों में धान बोने और खेतों में रासयानिक खाद डालने का काम भी वायुयानों से लिया जाता है।

भारत में भी वायुयानों का उपयोग बहुत लाभप्रद कार्यो में किया गया है; उदाहरणत: बाढ़पीडितों की सहायता, ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में, जहाँ वायुमार्ग से ही जाया जा सकता हो, आश्वयक माल पहुँचाना, विपत्तिग्रस्त लोगों का उद्धार आदि कार्य हैं। अभी हाल में तेल क्षेत्रों का पता लगाने के लिए भी वायुयान का उपयोग किया गया है। आस्ट्रेलिया में इसका उपयोग रोगी तक डाक्टरों को तुरंत पहुँचाने के लिए किया गया है, जो इस बहुमुखी कार्यवाले यंत्र का एक नवीन पक्ष है।

सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

  • एडवर्ड पी. वार्नर : अर्ली हिस्ट्री ऑव एयर ट्रांसपोर्टेशन, (१९३७);
  • एम.आर. देखनी : एयर ट्रांसपोर्ट इन इंडिया (१९५३);
  • आइ.सी.ए.ओ. तथा ब्रिटिश मंत्रालय एवं अमरीकी राजकीय विभाग द्वारा प्रकाशित नागरिक उड्डयन के बुलेटिन।