नंदप्रयाग

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नंदप्रयाग
—  संगम नगरी  —
View of नंदप्रयाग, भारत
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समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देश  भारत
राज्य उत्तराखंड
जनसंख्या 1,433 (2001 के अनुसार )
क्षेत्रफल
ऊँचाई (AMSL)

• 1,358 मीटर (4,455 फी॰)

निर्देशांक: 30°20′N 79°20′E / 30.33°N 79.33°E / 30.33; 79.33 नंदप्रयाग एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल एवम् हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध पर्वतीय तीर्थों में से एक है। नंदाकिनी तथा अलकनंदा नदियों के संगम[1] पर नन्दप्रयाग स्थित है। यह सागर तल से २८०५ फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां पवित्र संगम स्थल, चंडिका मंदिर, गोपाल जी मंदिर एवम् शिव मंदिर आदि दर्शनीय है। धार्मिक पंच प्रयागों में से दूसरा नंदप्रयाग अलकनंदा नदी पर वह जगह है जहां अलकनंदा एवं नंदाकिनी नदियों का मिलन होता है। ऐतिहासिक रूप से शहर का महत्व इस बात में है कि यह बद्रीनाथ मंदिर जाते तीर्थयात्रियों का मुख्य पड़ाव स्थान होता है साथ ही यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थल भी है। वर्ष 1803 में आई बाढ़, शहर का सब कुछ बहा ले गयी जिसे एक ऊंची जगह पर पुनर्स्थापित किया गया। नंदप्रयाग का महत्व इस तथ्य से भी है यह स्वाधीनता संग्राम के दौरान ब्रिटिश शासन के विरोध का स्थानीय केंद्र रहा था। यहां के सपूत अनुसूया प्रसाद बहुगुणा का योगदान इसमें तथा कुली बेगार प्रथा की समाप्ति में, सबको हमेशा याद रहेगा।

इतिहास[संपादित करें]

अलकनंदा एवं नंदाकिनी के संगम पर बसा पंच प्रयागों में से एक नंदप्रयाग का मूल नाम कंदासु था जो वास्तव में अब भी राजस्व रिकार्ड में यही है। यह शहर बद्रीनाथ धाम के पुराने तीर्थयात्रा मार्ग पर स्थित है तथा यह पैदल तीर्थ यात्रियों के ठहरने एवं विश्राम करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण चट्टी था। यह एक व्यस्त बाजार भी था तथा वाणिज्य के अच्छे अवसर होने के कारण देश के अन्य भागों से आकर लोग यहाँ बस गये। जाड़े के दौरान भोटियां लोग यहां आकर ऊनी कपड़े एवं वस्तुएं, नमक तथा बोरेक्स बेचा करते तथा गर्मियों के लिये गुड़ जैसे आवश्यक सामान खरीद ले जाते। कुमाऊंनी लोग यहाँ व्यापार में परिवहन की सुविधा जुटाने (खच्चरों एवं घोड़ों की आपूर्ति) में शामिल हो गये जो बद्रीनाथ तक सामान पहुंचाने तथा तीर्थयात्रियों की आवश्यकता पूर्ति में जुटकर राजस्थान, महाराष्ट्र तथा गुजरात के लोगों ने अच्छा व्यवसाय किया।

पौराणिक संदर्भ[संपादित करें]

ऐसा कहा जाता है कि स्कंदपुराण में नंगप्रयाग को कण्व आश्रम कहा गया है जहां दुष्यंत एवं शकुंतला की कहानी गढ़ी गयी। स्पष्ट रूप से इसका नाम इसलिये बदल गया क्योंकि यहां नंद बाबा ने वर्षों तक तप किया था।

नंदप्रयाग से संबद्ध एक दूसरा रहस्य चंडिका मंदिर से जुड़ा है। कहा जाता है कि देवी की प्रतिमा अलकनंदा नदी में तैर रही थी तथा वर्तमान पुजारी के एक पूर्वज को यह स्वप्न में दिखा। इस बीच कुछ चरवाहों ने मूर्ति को नदी के किनारे एक गुफा में छिपा दिया। वे शाम तक जब घर वापस नहीं आये तो लोगों ने उनकी खोज की तथा उन्हें मूर्ति के बगल में मूर्छितावस्था में पाया। एक दूसरे स्वप्न में पुजारी को श्रीयंत्र को प्रतिमा के साथ रखने का आदेश मिला। रथिन मित्रा के टेम्पल्स ऑफ गढ़वाल एंड अदर लैंडमार्क्स, गढ़वाल मंडल विकास निगम 2004 के अनुसार, कहावतानुसार भगवान कृष्ण के पिता राजा नंद अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में यहां अपना महायज्ञ पूरा करने आये तथा उन्हीं के नाम पर नंदप्रयाग का नाम पड़ा।

समाज व सभ्यता[संपादित करें]

नंदप्रयाग में एक धर्म-निरपेक्ष एवं भेद-भाव रहित संस्कृति है। विभिन्न क्षेत्रों एवं धर्मों के लोग यहां एक साथ शांतिपूर्वक रहते आये हैं और आज भी रहते हैं। हिंदु और मुसलमानों और भोटिया लोगों के बीच ऐसा बंधन है जो उन्हें एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल कराता है तथा एक मिश्रित संस्कृति को जन्म देता है जो नंदप्रयाग के लिये अद्भुत है। भारत के शेष भागों में मान्यता प्राप्त करने से बहुत पहले से ही संप्रदायों में यहां अंतर्जातीय तथा अंतरक्षेत्रीय विवाह होते रहे हैं। वास्तव में एक गौड़ ब्राह्मण तथा एक मुसलमान महिला से उत्पन्न नंदप्रयाग के मुसलमान नागरिक ने भी संहारण आरती को लिखा जिसका अभी भी बद्रीनाथ मंदिर में पाठ होता है।

गीत एवं नृत्य[संपादित करें]

सामुदायिक जीवन में गीत एवं नृत्य का महत्त्वपूर्ण अंश रहता है जो कृषि, प्रकृति एवं धर्म के चक्रों से गहरे जुड़े हैं। शहरों से हटकर अब जाग्गर का आयोजन गांवों में होने लगा है। ऐसे अवसरों पर गीत एवं नृत्य द्वारा देवी-देवताओं का आवाहन किया जाता है जिसका समापन तब होता है जब भीड़ के किसी सदस्य के ऊपर देवी-देवता आ जाते हैं। महाभारत की कुछ घटनाओं पर आधारित पांडव नृत्य भी एक आयोजित कला है।

गीत जीतू बगडवाल या स्थानीय नायक-नायिकाओं की कथा पर आधारित या नंदा देवी की प्रशंसा में गाये गीत होते हैं। गीत एवं नृत्य के साथ ढ़ोल एवं दामौं भी बजते हैं जो दास नामक एक खास जाति द्वारा बजाया जाता है। नंदप्रयाग में होली का त्योहार बड़ी उत्सुकता से मनाया जाता है। पुराने दिनों यह 10 से 15 दिनों तक मनाया जाता था, पर अब केवल चार से पांच दिनों तक होता है। ब्रजभाषा में रचित धार्मिक तथा मोहक गीत होली गीत का भाग होते हैं। उस समय सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते है और नंदप्रयाग का प्रत्येक नागरिक इसका आनंद उठाता है।

बोली की भाषाएं[संपादित करें]

गढ़वाली, हिंदी, कुमाऊंनी, भोटिया बोली तथा थोड़ी बहुत अंग्रेजी।

वास्तुकला[संपादित करें]

परंपरागत रूप से छतों का निर्माण पत्थरों एवं गिलावों से तथा छत का निर्माण स्लेट के टुकड़ों से हुआ। स्थानीय चीड़ या देवदार की प्रचुर उपलब्धता के कारण इन लकड़ियों का इस्तेमाल धरणों, दरवाजों एवं खिड़कियों के आकारों में तथा साथ ही बाल्कनी में हुआ जो दो-मंजिले भवन में होते। नीचे की मंजिल का इस्तेमाल परंपरागत रूप से मवेशियों के रहने या उनके चारा को रखने के लिये होता था। संपन्न घरों के परिवारों की खोली में कुछ गहन नक्काशी होती थी जो प्रवेश द्वार था और इसके ऊपर काठ की एक गणेश की प्रतिमा होती थी (खोली का गणेश) तथा ऐसा ही बाल्कनी को उठाये ब्रेकेटों पर भी होता था। प्रमुख सड़क के ऊपर प्राचीन नंदप्रयाग में इसके कुछ वास्तविक एवं आश्चर्यजनक उदाहरण पाये जाते हैं। आज भी बहुगुणा जैसे संपन्न परिवार के घरों, दरवाजों, खिड़कियों एवं बाल्कनियों तथा घरों की सीढ़ियों पर सुंदर नक्काशी दिखाई देती है।

इसके विपरित, आज के आधुनिक घर आत्मा-विहीन दिखते हैं क्योंकि सीमेंट एवं कंक्रीट के निर्माण में स्थान की उपयोगिता पर अधिक बल है जबकि भवन के सौंदर्य भाव पर कम ध्यान है।

पारंपरिक समाज[संपादित करें]

सदियों से नंदप्रयाग के धुनियार या मल्लाह दो नदियों में उपलब्ध रोहू मछली को पकड़ कर जीविकोपार्जन करते थे। तोलचा भोटिया जो नंदप्रयाग के प्रारंभिक व्यापारी थे, वे जाड़े में हिमालय पार से व्यापार के लिये ही आते थे, वे बाद में यही बस गये। वे परिश्रमी लोग हैं तथा आज अधिकांश व्यापारिक कार्यों जैसे दूकानें चलाना तथा होटल एवं भोजनालय चलाना के मालिक हो गये हैं। वे डॉक्टर, इंजीनियर तथा प्रशासन के कार्य में भी लग गये। कुमाऊंनी लोग नंदप्रयाग में दो-तीन पीढ़ी पहले आये जो बद्रीनाथ जैसे ऊपरी हिमालय क्षेत्रों में सामानों की आपूर्ति करने के व्यवसाय से जुड़ गये तथा आज वे शहर के सामाजिक ताने-बाने का एक महत्त्वपूर्ण भाग हो गये हैं। बहुगुणा जैसे ब्राह्मण, मूल रूप से बंगाल से 9वीं शताब्दी में कनक पाल के साथ आये और पंवार राजाओं के राजगुरू पीढ़ियों तक रहे। क्षत्रिय भारत के अन्य भागों से आये। मुसलमान जो कि नजीबाबाद और बिजनौर से आये, पहले सब्जी और फल के विक्रेता थे।

आज ये सभी शहर के सामाजिक गठन के अभिन्न अंग है जिनके बीच पीढ़ियों से विवाह एवं अंतर्विवाह होते आये हैं।

परंपरागत परिधान[संपादित करें]

पुरूष परंपरागत रूप से ऊनी जैकेट या कोट के नीचे कुर्ता-पायजामा एवं सिर पर टोपी पहनते हैं। महिलाएं साड़ी की तरह धोती, अंगरा या ब्लाउज तथा एक पगड़ा पहनती है जो कपड़ा उनके कमर के इर्द-गिर्द बंधा होता है, यह खेतों में काम करते समय पीठ की चोट से उन्हें बचाता है। इसे सिर ढंकने का एक साफा पूर्ण कर देता है।

परंपरागत जेवर सोने के बने होते हैं जिनमें बुलाक (चिबुक तक झूलता, पुष्पाकार एक नाक का पीन फुली, दो नथुनों के बीच पहना जाने वाला नाक की बाली है), गला बंद (गले का हार), एक हंसुली (गले के इर्द-गिर्द पहना जाने वाला चांदी का जेवर) जो संपन्न वर्गों के लिये सोना भी हो सकता है शामिल होते हैं। इसके अलावा धागुला जो पुरूष एवं महिलाएं दोनों धारण करते हैं।

जबकि आस-पास के गांवों की महिलाएं एवं पुरूष अब भी परंपरागत वस्त्र एवं जेवर धारण करते हैं, शहरी क्षेत्रों में वस्त्र आधुनिक हो गया है जहां महिलाएं सलवार-कमीज या साड़ी पहनती हैं और पुरूष पैंट-शर्ट या जीन्स, टी-शर्ट पहनते हैं।

परंपरागत जीवन शैली[संपादित करें]

इन क्षेत्रों में खेती मुख्यत: सीढ़ीनुमा खेतों में होती है। परंपरागत गेहूं, चावल, मड़ुआ तथा झिंगोरा के अलावा अन्य उपजने वाले अन्न कौनी, चीना, आलू, चोलाई, गौथ, उड़द तथा सोयाबीन हैं। ऊन एवं मांस के लिये भेड़ों का पालन, ऊनी कपड़ों की कताई- बुनाई तथा अन्य घरेलू उद्योग भी परंपरागत रूप से कृषि आय को पूरा करने के लिये अपनाये गये हैं। वास्तव में प्रत्येक परिवार में

जोत भूमि सीमित है यद्यपि भूमि उपजाऊ हैं। कृषि मौसम की कम अवधि, निम्न तापमान, अधिक ऊंचाई, भूमि के छोटे टुकड़े, मिट्टी क्षय की लगातार समस्या आदि कृषि को प्रभावित करने वाले तत्व है। ऊन एवं मांस के लिये भेड़ पालना, ऊनी कपड़ों की कताई, बुनाई तथा अन्य घरेलू उद्योगों से कृषि आय की कमी को पूरा किया जाता था। वास्तव में प्रत्येक परिवार में चाहे तोलचा हो या नहीं, एक रांच (करघा) होता है जिस पर शालों एवं पंखियों को बुना जाता है। अन्य परंपरागत पेशा, अलकनंदा एवं नंदाकिनी में मछली पकड़ना है। यह कार्य अब भी घुनियार तक सीमित है जो बौर, जाल या एकवाल जैसे उपकरण का इस्तेमाल करते हैं। मछली पकड़ने के लिये आटे का चारा लगाते हैं। आज वे शहर के विभिन्न मांसाहारी भोजनालयों में मछली की आपूर्ति करते हैं। (अगर आप प्रमुख सड़क के किनारे किसी भोजनालय में मछली की करी खाये तो वह स्वादिष्ट मिलेगा।)

परंपरागत ग्रामीण अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर थी। समुदाय के बीच कार्य बंटा था एवं विनिमय प्रणाली के अंतर्गत वस्तुओं एवं सेवाओं का आदान-प्रदान होता था। प्रत्येक गांव में रूडिया (जो श्रम आधारित कार्य करते थे।) लोहार, नाई, दास, पंडित एवं धोंसिया भी होते थे जो ईष्ट देवी-देवाताओं के लिये आयोजित प्रार्थनाओं में हरकू बजाते थे। परंपरागत भोजन में जौ या चोलाई की रोटी, कौनी या झंगोरा का भात, चैसुई, कोडा, फानू, बड़ी एवं पायस तथा बिच्छू बुट्टी का साग शामिल था।

पर्यावरण[संपादित करें]

अलकनंदा एवं नंदाकिनी नदियों के संगम पर नंदप्रयाग पांच धार्मिक प्रयागों में दूसरा प्रयाग है। देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग से पहले यह नंदप्रयाग और इसके पहले प्रयाग विष्णुप्रयाग आता है। नीचे हरी पहाड़ियों एवं नदियों से घिरे इस छोटे पर शांत शहर पर प्रकृति ने अपना जादू बिखेर दिया है।

वनस्पतिया[संपादित करें]

नंदप्रयाग शहर में चीड़ के पेड़ों से मंद हवा आती हैं। शहर के निम्न क्षेत्रों में मैदानों की तरह के पेड़ ही पाये जाते हैं। इनमें आम, अमरूद, अनार, अखरोट एवं यूकेलिप्टस के पेड़ शामिल हैं। पहाड़ी के किनारे अर्द्ध-विकसित लेंटाना तथा बिच्छू बुट्टी आदि है।

जीव-जंतु[संपादित करें]

शहर के इर्द-गिर्द बाघ, भालू एवं गीदड़ पाये जाते हैं। शहरीकरण के कारण अब उन्हें बहुत कम देखा जाता है। नंदप्रयाग में बंदरों की भरमार है जो घरों में जाकर खाने-पीने की चीजें उठा ले जाते हैं क्योंकि चीड़ के जंगल पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। नंदाकिनी में मछलियों – महसीर, ट्राउट, कार्प – की भरमार है।

स्थानीय आकर्षण[संपादित करें]

शहर[संपादित करें]

नंदप्रयाग का छोटा शहर अलकनंदा एवं नंदाकिनी के संगम पर स्थित है जो इस स्थान में अपूर्व शोभा बढ़ा देता है। यह एक सुस्त, शांत विश्रामस्थल है जो छुट्टी के आराम के लिये आदर्श स्थान है। वास्तव में शहर में देखने योग्य बहुत कुछ है जिसे आराम से देखा जा सकता है। नंदाकिनी एवं अलकनंदा के संगम के सामने नंदप्रयाग, अलकनंदा नदी के दाहिने किनारे स्थित है। प्रमुख सड़क तथा बाजार, नदी के पार के थोड़ा ऊपर है और शहर में पहली नजर में यही स्पष्ट होता है। प्रमुख सड़क के किनारे स्थित होटलों एवं भोजनालयों में कुछ यात्री एवं आगंतुक दिखाई पड़ते हैं पर अधिकांश अपनी गाड़ियों तथा बसों में सवार शहर में नहीं रूकते।

फिर भी, नंदप्रयाग के एक अन्य पहलू की भी खोज की जा सकती है। मुख्य सड़क से थोड़ा आगे बढ़े तो आपको निर्बाध शांति का अनुभव होगा। आप गढ़वाली वास्तुकला के कुछ उत्कृष्ट उदाहरण निहार सकते हैं जो प्रमुख शहर के ऊपर पुराने शहर में हैं या आप शहर के चारों ओर के सुंदर दृश्य को देखते हुए समय बिता सकते हैं।

प्रयाग-संगम[संपादित करें]

अलकनंदा एवं नंदाकिनी का संगम प्रमुख बाजार के नीचे है तथा वहां पहुंचने के लिये कुछ कदम नीचे उतरना पड़ेगा। यहां का घाट कंक्रीट का बना है तथा नगर पंचायत ने इसकी बगल में एक पार्क बना दिया है जहां बीच-बीच में बेंच लगें हैं ताकि आप वहां बैठकर नदियों के जल का लगातार प्रवाह देख सकें जो नीचे प्रवाहित होकर मैदानों में जाते हैं।

दुर्भाग्यवश इसके बाद के तीन प्रयागों की गंगा आरती की परंपरा का निर्वाह यहां नहीं होता। लेकिन इससे अधिक रूचिपूर्ण यह है कि यहां से कुछ दूर वह जगह है जहां सर एडमंड हिलेरी ने अपने महासागर से आकाश अभियान का त्याग कर दिया था। माना जाता है कि भगवान बद्रीनाथ ने उनके स्वप्न में आकर इसका त्याग करने को कहा था।

चंडिका मंदिर[संपादित करें]

चंडिका देवी जिन्हें यह मंदिर समर्पित है, वह पास के नंदप्रयाग सहित सात गांवों की ग्राम देवी हैं। गर्भगृह में स्थापित चांदी की प्रतिमा प्रभावशाली है और स्वाभाविक तौर पर महान भक्ति का श्रोत है। परिसर के अन्य मंदिर भगवान शिव, भैरव, हनुमान, गणेश तथा भूमियाल को समर्पित हैं।

यहां के पुजारी सती समुदाय के होते हैं, जिन्हें यहां पूजा करने का परंपरागत अधिकार प्राप्त है एवं पीढ़ियों से वे यह करते आये हैं। कहा जाता है कि नवरात्र समारोह के दौरान वर्तमान पुजारी के एक पूर्वज को स्वप्न आया कि अलकनंदा देवी की एक मूर्ति नदी में तैर रही है। इस बीच वहां मवेशियों को चराने गये कुछ चरवाहों ने उसे देखा और उसे निकालकर एक गुफा में छिपा दिया। वे शाम तक घर नहीं लौटे तो गांव वासियों ने उनकी खोज की और उन्हें गुफा में छिपायी मूर्ति की बगल में अचेतावस्था में पाया। पुजारी मूर्ति को घर ले गया और फिर उसके बाद एक दूसरा स्वप्न श्रीयंत्र की खोज करने का आया जो एक खेत में छिपा था। उसने ऐसा ही किया। उसे और आगे यह आदेश मिला कि किस प्रकार मूर्ति के लिये उपयुक्त ढ़ांचे का निर्माण शहतूत की पेड़ की लकड़ी से किया जाय। यह स्थल लगभग 300 वर्ष पुराना है एवं मंदिर की देखभाल एक स्थानीय मंदिर समिति द्वारा होती है। यहां बड़े हर्षोल्लास से नवरात्र मनाया जाता है। परंपरागत रूप से देवी को पसुआ की बांहों में उठा सकता है, पर अब एक डोली में ले जाया जाता है।

गोपालजी मंदिर[संपादित करें]

भगवान कृष्ण की अष्टधातु की सुंदर प्रतिमा की स्थापना वर्ष 1892 में की गयी तथा मंदिर का निर्माण वर्ष 1918 में किया गया। मंदिर के अंतिम महंत की मृत्यु के बाद इसे बद्रीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति द्वारा अधिगृहीत कर लिया गया है जो मंदिर के पुनरूद्धार की प्रक्रिया के अंतर्गत है। कहा जाता है कि राजा नंद ने अपने जीवन के अंतिम काल में यहां आकर भगवान विष्णु की पूजा की थी।

निकटवर्ती आकर्षण[संपादित करें]

नंदप्रयाग के आस-पास घुमना आनंद का शारीरिक परिश्रम एवं कुछ सुंदर स्थानीय स्थलों की खोज का मिश्रण है, जो चमोली जिले में है।

दसौली[संपादित करें]

नंदप्रयाग से 10 किलोमटीर दूर। इस छोटे गांव में बैरास कुंड स्थित है जहां, कहा जाता है, कि रावण ने भगवान शिव की तपस्या की थी। रावण ने अपनी ताकत दिखाने के लिये कैलाश पर्वत को उठा लिया था और इस जगह अपने 10 सिरों की बली देने की तैयारी की थी। इस जगह का नाम तब से दशोली पड़ा जो अब दसौली में परिवर्तित हो गया है।

कुआरी पास[संपादित करें]

नंदप्रयाग से औली जोशीमठ के समीप तक का आठ दिनों की पैदल यात्रा (नंदप्रयाग-घाट-रमनी-झिंजीपानी-सियार टोली-ढकवानी-कुआरी पास-टाली-औली) वर्ष 1905 में वायसराय जार्ज नेथानियल कर्जन के कुआरी पास (3,640 मीटर) आने से और प्रसिद्ध गई। तब से ही इसे कर्जन ट्रेल कहा जाता है। स्वयं कुआरी पास का अर्थ ही प्रवेश द्वार होता है तथा यह नंदा देवी, कामेत, द्रोणागिरि, त्रिशूल, बरथोली, हाथी घोड़ी पर्वत, माना तथा नीलकंठ शिखरों का एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता है। इस विशेषता के अलावा इस पैदल यात्रा के दौरान आप बुरांस, बलूत एवं देवदार के वन से गुजरते हैं जहां आप कुछ दुर्लभ जीव-जंतुओं तथा वनस्पतियों को देख पाते हैं।

यात्रा का सर्वोत्तम समय अक्टूबर-नवंबर के दौरान है। गर्मियों में यहां वास्तव में अधिक गर्मी होती है, पर दृश्य इससे कहीं अधिक सुंदर होते हैं क्योंकि इसी समय पहाड़ों पर बर्फ जमे होते हैं। फरवरी-मार्च में ठंड बहुत होता है तथा बरसात में रास्ते कीचड़मय तथा साफ दिखाई नहीं पड़ते।

रूप कुंड[संपादित करें]

नंदप्रयाग से एक ट्रेकिंग मार्ग घाट (20 किलोमीटर दूर) से जाता है। रूप कुंड चमोली जिले में 5,029 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इस रहस्यमय झील में वर्ष 1942 में 500-600 साल पुराने आदमी और घोड़ों के पिंजर मिले थे।

वर्ष 2004 में इन पिंजरों पर डीएनए टेस्ट हुए जिनसे पता चला कि मरे हुए लोगों के दो समूह थे– एक छोटे कद के लोगों का जो सम्भवत: कुली होगें और दूसरे लंबे लोगों का। यह भी पता चला है कि यह पिंजर 9वीं शताब्दी के हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इन लोगों के सिर के ऊपर क्रिकेट गेंद जितने बड़े ओले गिरे जिस वजह से उनकी मृत्यु हुई। ऐसा लगता है कि यह शव भूसंकलन के कारण झील में आ गिरे। परंतु यह पता लगाना कठिन है कि यह लोग रूप कुंड क्यों पहुंते थे क्योंकि यह झील न तो किसी व्यापार मार्ग पर स्थित है और न ही किसी तीर्थ मार्ग पर।

आवागमन[संपादित करें]

जाने के लिये वर्षभर एक अच्छा स्थान बना रहता है, यद्यपि जून के अंत से सितंबर के बीच बरसात में न जाना ही अच्छा है क्योंकि भू-स्खलन के कारण सड़क अवरूद्ध होने का खतरा रहता है।

हवाई मार्ग

नंदप्रयाग से 218 किलोमीटर दूर निकटतम हवाई अड्डा जॉली ग्रांट है। इसके अतरिक्त 27 किलोमीटर दूर पर स्थित गोचर नामक स्थान पर छोटा हवाई अड्डा भी मौजूद है

रेल मार्ग

190 किलोमीटर दूर ऋषिकेश निकटतम रेल स्टेशन है। भविष्य में ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल लाइन बनने से यह सुविधा अत्यधिक आसान एवं सुलभ हो जाएगी

सड़क मार्ग

नंदप्रयाग नगर के मध्य से राष्ट्रीय राजमार्ग 7 गुजरता है जिस पर हरिद्बार, ऋषिकेश तथा देहरादून,दिल्ली एवं सभी नगरों के लिए बस एवं टैक्सी सहज उपलब्ध होती हैं। चारधाम महामार्ग विकास परियोजना के पूरा होने के बाद नंदप्रयाग देश के विभिन्न महानगरों से बहुत आसानी , अल्प समय,और सुगमता से पहुंचा जा सकेगा

पंच प्रयाग[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 27 सितंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 सितंबर 2018.