देवीमाहात्म्य

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(दुर्गा सप्तशती से अनुप्रेषित)
ताड़पत्र पर भुजिमोल लिपि में लिखी देवीमाहात्म्य की सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि

देवीमाहात्म्यम् (अर्थ: देवी का महानता का बखान) हिन्दुओं का एक धार्मिक ग्रन्थ है जिसमें देवी दुर्गा की महिषासुर नामक राक्षस के ऊपर विजय का वर्णन है। यह मार्कण्डेय पुराण का अंश है। इसमें ७०० श्लोक होने के कारण इसे 'दुर्गा सप्तशती' भी कहते हैं। इसमें सृष्टि की प्रतीकात्मक व्याख्या की गई है। जगत की सम्पूर्ण शक्तियों के दो रूप माने गये है - संचित और क्रियात्मक। नवरात्रि के दिनों में इसका पाठ किया जाता है।

इस रचना का विशेष संदेश है कि विकास-विरोधी दुष्ट अतिवादी शक्तियों को सारे सभ्य लोगों की सम्मिलित शक्ति "सर्वदेवशरीजम" ही परास्त कर सकती है, जो राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। इस प्रकार आर्यशक्ति अजेय है। इसमे गमन (इसका भेदन) दुष्कर है। इसलिए यह 'दुर्गा' है। यह अतिवादियों के ऊपर संतुलन-शक्ति (stogun) सभ्यता के विकास की सही पहचान है।

परिचय[संपादित करें]

'महिषासुरमर्दिनी' के रूप में चित्रित देवी दुर्गा

सुरथ नाम के एक राजा का राज्य छिन जाने और प्राण पर संकट आ जाने पर वह राजा भाग कर जंगल चला जाता है। ज्ञानी राजा को अपनी परिस्थति का सही ज्ञान है। वह निश्चित रूप से समझता है कि उसे पुनः अपना राज्य अथवा कोई सम्पति वापस नहीं मिलने वाली है। किन्तु फिर भी उसे बार-बार उन्ही वस्तुओं, व्यक्तियों और खजाने अदि की चिंता सताती रहती है। राजा जिसे निरर्थक समझता है और मुक्त रहना चाहता है, उसके विपरीत उसका मन उसके ज्ञान की अवहेलना कर बस उन्ही बस्तुओ की ओर खीचा जाता है। ज्ञानी राजा सुरथ अपनी असाधारण शंका को लेकर परम ज्ञानी मेघा ऋषि के पास जाते है। ऋषि उन्हें बताते हैं की वह विशेष शक्ति भगवान की क्रियाशील शक्ति से परे महामाया है जो सारे संसार को जोड़ती है, पूरी सृष्टि को संचालित, संघृत और नियंत्रित करती है। सारे जीव-जन्तु उसी की प्रेरणा से कार्य करते हैं।

यही महामाया शक्ति सृष्टि की तीन अवस्थाओं का तीन रूपों में संचालन करती है। सृष्टि, अवस्थाओं का लगातार परिवर्तन है। परिवर्तन का मापक, काल (समय) है। बिना काल के परिवर्तन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए पहली अवस्था में यही (काल की) महाकाली शक्ति के रूप में महामाया सृष्टि को गति देती है। परिवर्तन की निरंतरता में काल के किसी विशेष बिन्दु पर सृष्टि का एक स्वरूप और केवल एक वही स्वरूप बनता है| उसका संघारण और संपोषण वह महालक्ष्मी के रूप में करती है। सृष्टि की तीसरी अवस्था विकास की अग्रिम अवस्था है, जब चेतना का बहुआयामी विकास होता है। इस अवस्था का संचालन और नियंन्त्रण महासरस्वती के रूप में वह करती है।

सृष्टि की इन्ही तीन अवस्थाओं को सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य रूप में प्रस्तुत किया गया है| पहली अवस्था में सृष्टि रचना के कर्ता ब्रम्हा को मधु और कैटभ नाम के दो राक्षस मार लाना चाहते थे| क्रमश: तमोगुणी और रजोगुणी ये दोनों अतिवादी शक्तियाँ विकास के लिए संकट है| ब्रह्म ने महामाया से रक्षा की गुहार की| महामाया की प्रेरणा से विष्णु योग्निन्द्रा त्याग कर आए और राक्षसों को मार डाला| ब्रह्म की सृष्टि-रचना का कार्य आगे बढ़ जाता है। दूसरी अवस्था सभ्यता की प्रारंभिक अवस्था-गंगा सिन्धु के मैदान की तत्कालीन जंगली अवस्था का प्रतीकात्मक वर्णन है। जानवरों से शारीरिक बल में अपेक्षाकृत कमजोर मानव समूह -आर्यशक्ति को विना विकसित हथियार के केवल बुद्धि विवेक के बल पर जंगली भैंसे (महिषासुर) आदि भयानक जंगली जानवरों के बीच से अपनी सभ्यता की गाड़ी आगे निकलने की चुनोती थी, जिसमे वह सफल हुई। तीसरी अवस्था सभ्यता की विकसित अवस्था है, जहाँ आर्यशक्ति को शुम्भ और निशुम्भ के रूप में दो अतिवादी शक्तियों रजोगुण और तमोगुण अथवा प्रगतिवादी और प्रतक्रियावादी शक्तियों का सामना सदा करना पड़ता है।

कुछ वहुप्रचलित स्तोत्र और उनका अर्थ[संपादित करें]

ब्रह्मा द्वारा की गयी देवीस्तुति (श्लोक ७२ - ८६) इस ग्रन्थ के अधिक प्रचलित श्लोकों में अन्यतम हैं। इन श्लोकों की काव्यिक सुषमा एवं दार्शनिकता अति सुन्दर है। नीचे संस्कृत श्लोक एवं उनका हिन्दी अनुवाद दिया गया है-

संस्कृत श्लोक हिन्दी अनुवाद
ब्रह्मोवाच ॥७२॥
ब्रह्माजी ने कहा ॥७२॥
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वष्‌टकारः स्वरात्मिका।
सुधा त्वं अक्षरे नित्ये तृधा मात्रात्मिका स्थिता ॥७३॥
देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा, तुम्हीं वषट्कार (पवित्र आहुति मन्त्र) हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं।
तुम्हीं जीवदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार - इन तीन अक्षरों के रूप में तुम्ही स्थित हो ॥७३॥
अर्धमात्रा स्थिता नित्या इया अनुच्चारियाविशेषतः।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा ॥७४॥
(पाठान्तर : त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं वेद जननी परा )
तथा इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्ही हो।
तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री (ऋकवेदोक्त पवित्र सावित्री मन्त्र), तुम्हीं समस्त देवीदेवताओं की जननी हो।
(पाठान्तर : तुम्हीं सन्ध्या, तुम्हीं सावित्री, तुम्हीं वेद, तुम्हीं आदि जननी हो) ॥७४॥
त्वयेतद्धार्यते विश्वं त्वयेतत् सृज्यते जगत।
त्वयेतत् पाल्यते देवी त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥७५॥
तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो, तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है।
तुम्हीं सबका पालनहार हो, और सदा तुम्ही कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। ॥७५॥
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ॥७६॥
हे जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो और पालनकाल में स्थितिरूपा हो।
हे जगन्मयी माँ! तुम कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।॥७६॥
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः।
महामोहा च भवती महादेवी महेश्वरी ॥७७॥
तुम्हीं महाविद्या, तुम्हीं महामाया, तुम्हीं महामेधा, तुम्हीं महास्मृति हो
तुम्हीं महामोहरूपा, महारूपा तथा महासुरी हो। ॥७७॥
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्व गुणात्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहारात्रिश्च दारूणा ॥७८॥
तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो।
भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। ॥७८॥
त्वं श्रीस्तमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ॥७९॥
तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो।
लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। ॥७९॥
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिनी तथा।
शंखिनी चापिनी वाण भूशून्डी परिघआयूधा ॥८०॥
तुम खड्गधारिणी, घोर शूलधारिणी, तथा गदा और चक्र धारण करने वाली हो।
तुम शंख धारण करने वाली, धनुष-वाण धारण करने वाली, तथा परिघ नामक अस्त्र धारण करती हो। ॥८०॥
सौम्या सौम्यतराह्‌शेष, सौम्येभ्यस त्वतिसुन्दरी।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ॥८१॥
तुम सौम्य और सौम्यतर हो। इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य और सुन्दर पदार्थ हैं उन सबकी अपेक्षा तुम अधिक सुन्दर हो।
पर और अपर - सबसे अलग रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। ॥८१॥
यच्च किंचित् क्वचित् वस्तु सदअसद्वाखिलात्मिके।
तस्य सर्वस्य इया शक्तिः सा त्वं किं स्तुयसे मया ॥८२॥
सर्वस्वरूपे देवि ! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उनकी सबकी जो शक्ति है,
वह भी तुम्हीं हो। ऐसी स्थिति में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?॥८२॥
इया त्वया जगतस्रष्टा जगत् पात्यत्ति इयो जगत्।
सोह्‌पि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुं इहा ईश्वरः॥८३॥
जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं उन भगवान को भी
जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है? ॥८३॥
विष्णुः शरीरग्रहणम अहम ईशान एव।
कारितास्ते यतोह्‌तस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान भवेत ॥८४॥
मुझको, भगवान विष्णु को और भगवान शंकर को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है।
अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है?॥८४॥
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवी संस्तुता।
मोहऐतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ॥८५॥
देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो।
ये जो दो दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इन दोनों को मोह लो। ॥८५॥
प्रवोधं च जगत्स्वामी नियतां अच्युतो लघु।
वोधश्च क्रियतामस्य हन्तुं एतौ महासुरौ ॥८६॥
जगत के स्वामी भगवान विष्णु को शीघ्र जगा दो।
तथा इनके भीतर इन दोनों असुरों का वध करने की बुद्धि उत्पन्न कर दो। ॥८६॥

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]