झाँसी

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झाँसी / झांशी / Jhansi
बलवंत नगर ( बुंदेलखंड राजधानी )
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झाँसी नगर का दृश्य
झाँसी नगर का दृश्य
उपनाम: बुंदेलखंड का प्रवेशद्वार एवं राजधानी तथा वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई साहेब की कर्मभूमी
झाँसी is located in उत्तर प्रदेश
झाँसी
झाँसी
उत्तर प्रदेश में स्थिति
निर्देशांक: 25°26′N 78°34′E / 25.44°N 78.56°E / 25.44; 78.56निर्देशांक: 25°26′N 78°34′E / 25.44°N 78.56°E / 25.44; 78.56
देश भारत
राज्यउत्तर प्रदेश
ज़िलाझाँसी ज़िला
शासन
 • महापौरबिहारीलाल आर्य (भाजपा)
ऊँचाई285 मी (935 फीट)
जनसंख्या (2011)
 • शहर5,05,693
 • महानगर5,47,638
भाषाएँ
 • प्रचलितहिन्दी
समय मण्डलभारतीय मानक समय (यूटीसी+5:30)
पिनकोड284122-2-3-4
दूरभाष कोड0510
वाहन पंजीकरणUP-93
लिंगानुपात 0.905 : 1.000
साक्षरता दर83.0%
औसत ग्रीष्मकालीन तापमान48 °से. (118 °फ़ै)
औसत शीतकालीन तापमान4.0 °से. (39.2 °फ़ै)
वेबसाइटwww.jhansi.nic.in
महारानी लक्ष्मीबाई का झाँसी का किला

झाँसी (झांशी‌) (Jhansi) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बुन्देलखण्ड के झाँसी जनपद में स्थित एक नगर है। यह जनपद का मुख्यालय भी है। यह नगर भारतभर में झाँसी की रानी की 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका के कारण प्रसिद्ध है। शहर से तीन प्रमुख राजमार्ग गुजरते हैं - राष्ट्रीय राजमार्ग 27, राष्ट्रीय राजमार्ग 39 और राष्ट्रीय राजमार्ग 44[1][2]

विवरण[संपादित करें]

यह शहर उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है और बुन्देलखण्ड क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। झाँसी एक प्रमुख रेल एवं सड़क केन्द्र है और झाँसी जिले का प्रशासनिक केन्द्र भी है। झाँसी शहर पत्थर निर्मित किले के चारो तरफ फैला हुआ है, यह किला शहर के मध्य स्थित बँगरा नामक पहाड़ी पर निर्मित है। उत्तर प्रदेश में 20.7 वर्ग कि॰ मी॰ के क्षेत्र में फैला झाँसी पर प्रारम्भ में चन्देल राजाओं का नियंत्रण था। उस समय इसे बलवन्त नगर के नाम से जाना जाता था। झाँसी का महत्व सत्रहवीं शताब्दी में ओरछा के राजा बीर सिंह देव के शासनकाल में बढ़ा। इस दौरान राजा बीर सिंह और उनके उत्तराधिकारियों ने झाँसी में अनेक ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण करवाया।

बुन्देलखंड का गढ़ माने जाने वाले झाँसी का इतिहास संघर्षशील है। 1857 में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर उनके विरूद्ध संघर्ष करना उचित समझा। वे अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लड़ी और अन्त में वीरगति को प्राप्त हुईं। झाँसी नगर के घर-घर में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता के किस्से सुनाए जाते हैं। हिन्दी कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने इसे अपनी कविता, झाँसी की रानी, में वर्णित करा है:

बुन्देलों हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी

इतिहास[संपादित करें]

यह नगर ओरछा का प्रतापी वीर सिंह जू देव बुन्देला ने बसाया था उन्होंने 1608 ई में बलवंत नगर गाँव के पास की पहाड़ी पर एक विशाल किले का निर्माण कराया व नगर बसाया। झाँसी का नाम झाँसी कैसे पड़ा इसके बारे में कहा जाता है जब वीर सिंह जू देव बुन्देला ओरछा अपने इस नगर को देख रहे थे तो उनको झाइसी (धुँधला) दिखाई दे रही थी तब उन्होंने अपने मंत्री से कहा कि झाइसी क्यों दिख रही है तो उनके मंत्री ने कहा झाइसी नही महाराज ये आपका नया शहर है तब से इसका नाम झाइसी हो गया जो आज झाँसी के नाम से जाना जाता है।

17वीं शताब्दी बुन्देला राजा छ्त्रसाल ने सन् 1732 में मराठा साम्राज्य से मदद माँगी। मराठा मदद के लिए आगे आए। सन् 1734 में राजा छ्त्रसाल की मौत के बाद बुन्देला क्षेत्र का एक तिहाई हिस्सा मराठो को दे दिया गया। मराठो ने शहर का विकास किया और इसके लिए ओरछा से लोगो को ला कर बसाया गया।

सन् 1806 मे मराठा शक्ति कमजोर पडने के बाद ब्रितानी राज और मराठा के बीच् समझौता हुआ जिसमे मराठो ने ब्रितानी साम्राज्य का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। सन् 1817 में मराठो ने पूने में बुन्देल्खन्ड क्षेत्र के सारे अधिकार ब्रितानी ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिये। सन् 1853 में झाँसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई। तत्कालीन गवर्नल जनरल ने झाँसी को पूरी तरह से अपने अधिकार में ले लिया। राजा गंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मीबाई ने इसका विरोध किया और कहा कि राजा गंगाधर राव के दत्तक पुत्र को राज्य का उत्त्तराधिकारी माना जाए, परन्तु ब्रितानी राज ने मानने से इन्कार कर दिया। इन्ही परिस्थितियों के चलते झाँसी में सन् 1857 का संग्राम हुआ। जो कि भारतीय स्वतन्त्र्ता संग्राम के लिये नीव का पत्थर साबित हुआ। जून 1857 में 12वीं पैदल सेना के सैनिको ने झाँसी के किले पर कब्जा कर लिया और किले में मौजूद ब्रितानी अफसरो को मार दिया गया। ब्रितानी राज से लडाई के दोरान रानी लक्ष्मीबाई ने स्वयं सेना का सन्चालन किया। नवम्बर 1858 में झाँसी को फिर से ब्रितानी राज में मिला लिया गया और झाँसी के अधिकार ग्वालियर के राजा को दे दिये गये। सन् 1886 में झाँसी को यूनाइटिड प्रोविन्स में जोडा गया जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद 1956 में उत्तर प्रदेश बना।

पुरानी झाँसी[संपादित करें]

२०० वर्ष पहले झाँसी बुंदेलखंड का एक स्वतंत्र राज्य था। उन दिनों उसके बीच से होकर अपने अस्तित्व का सदा मान कराने के लिए ओरछा राज्य की एक तिहरी सीमा-रेखा रहती थी। इसीलिए झाँसी दो भागों में विभक्त थी। संपूर्ण सीमा को मिलाकर पश्चिम में एक सौ मील और उत्तर में साठ मील।

इस स्वल्प सीमा वाले राज्य की पर्वत-संकुल-अनुर्वर छाती को हल की नोक से फाड़कर धरती को फसल की भाषा में बात कहलाने का प्रयास वर्ष-पर-वर्ष असफल होता रहता था। वैशाख की प्रखर गर्मी में जल की प्रतीक्षा करते हुए किसान की बहू-बिटिया सिर पर डलिया रखे हुए 'भादों' का गीत गाते हुए व्यर्थ ही लौट आती थीं। फिर भी वहाँ (झाँसी में) अनेक लोगों ने अपनी बस्तियाँ बनाई थीं। ब्राह्मण, राजपूत, अहीर, बुंदेला, चमार, काछी, कोरी, लोधी, कुर्मी सभी जाति के लोग आँसी आए थे। मऊ से झाँसी, झाँसी से कालपी होकर कानपुर और आगरा से सागर-इन तीन व्यापारिक मार्गों से होकर, गधा, घोड़ा और ऊँटों की पीठ पर लदकर वर्ष-पर-वर्ष बाहर से खाद्यान्न आया करता था। इसके अलावा घोड़े और हाथियों के मालिक भी आते रहते थे। झाँसी थी हाथी-घोड़ा बेचने की एक प्रधान मंडी।

राजधानी झाँसी आगरा से दक्षिणी दिशा में एक सौ बयालीस मील दूर पड़ती थी। इलाहाबाद से बाँदा के मार्ग से होकर दो सौ पैंतालीस मील दूर पश्चिम में थी। कलकत्ता से सात सौ चालीस मील दूर उत्तर-पश्चिम में।

धन-धान्य से समृद्ध नगरी झाँसी पर गर्व करते हुए इसके अधिवासी लोग कहा करते थे-

'नीचे में पूना, ऊँचे में काशी सबसे सुंदर बीच में हमाओ झाँसी।'

झाँसी के बारे में जानने के पहले बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास जानना जरूरी है। क्योंकि बुंदेलखंड में मराठी वंश की स्थापना होने के पहले झाँसी में नेवलकर वंश आ गया था। इसी नेवलकर वंश की बहू होकर झाँसी में आई थी रानी लक्ष्मीबाई।

बुंदेलखंड बुंदेला लोगों का देश था। महाभारत के युग में बुंदेलखंड, चेदि, दशार्ण और विदर्भ साम्राज्य के अंतर्गत आता था। चंदेल राजपूतों के युग में झाँसी अत्यंत समृद्ध थी। चंदेल राजपूत राजाओं ने झाँसी और बुंदेलखंड भर में सर्वत्र पक्के जलाशयों का निर्माण कराया था। उनमें से कुछ तो अभी-भी विद्यमान हैं। चंदेल राजपूतों के हाथ से निकलते-निकलते बुंदेलखंड मुगलों के अधिकार में आ गया। उस समय बुंदेलखंड की राजधानी ओरछा थी। सोलहवीं शताब्दी में, बुंदेल राजा मलखान सिंह की मृत्यु के बाद राजा हुए उनके ज्येष्ठ पुत्र रुद्रप्रताप। 1539 ई में उन्होंने ओरछा की स्थापना की। नगण्य जनपद को उन्होंने ही समृद्धिशाली बनाया। ओरछा के राजा दिल्ली के बादशाह को नियमित रूप से कर नहीं देते थे।

नेवाळकर राजवंश[संपादित करें]

नेवालकर घराणा एवं झाँसी राजवंश

  • नाम : नेवालकर घराणा
  • साम्राज्य : मराठा साम्राज्य
  • कुळ : मराठी कऱ्हाडे ब्राम्हण
  • कुलदेवी : श्री महालक्ष्मी अंबाबाई कोल्हापूर
  • कुलदेवता : श्री लक्ष्मी पल्लीनाथ रत्नागिरी
  • ग्राम देवता : श्री नवलाई माऊली, कोट
  • उपासक : महादेव, श्री गणेश
  • मुळनिवासी : पावस, राजापूर, रत्नागिरी, महाराष्ट्र
  • रहिवासी : कोट रत्नागिरी, पारोला जलगांव, झांसी
  • जहागीरदार : पारोला, जलगांव, महाराष्ट्र
  • राजगद्दी :- झाँसी, बुंदेलखंड, उत्तर प्रदेश
  • शासन काल : १७६९-१८५८
  • मुळपुरुष : रघुनाथ हरी नेवालकर प्रथम
  • प्रथम सुभेदार : रघुनाथराव हरी हरीपंत नेवालकर द्वि.
  • अंतिम सुभेदार : शिवराव हरीपंत नेवालकर
  • प्रथम राजा : राजा शिवराव हरीपंत नेवालकर
  • अंतिम राजा : राजा रामचंद्रराव नेवालकर
  • प्रथम महाराज : महाराज रामचंद्रराव नेवालकर
  • अंतिम महाराज : महाराज गंगाधरराव नेवालकर
  • प्रसिध्द व्यक्ती :- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई

"झांसी की रानी" महाश्वेता देवी के उपन्यास पर आधारित नेवालकर वंश

1. प्रथम रघुनाथ हरी नेवालकर (मुलपुरुष घराणे)

नेवालकर परिवार के मुलपुरूष थे। इनके दो पुत्र थे। एक "खंडेराव" दुसरा "दामोदरपंत"

( रघुनाथ हरी नेवालकर के पुत्र खंडेराव का वंश - पारोला, जलगांव के जहागीरदार के रूप में थे। )

खंडेराव का वंश (पारोला, जलगांव)

2. खंडेराव रघुनाथ हरी नेवालकर

यह रघुनाथ हरी के पुत्र थे। इनका पुत्र था रामचंद्र राव।

3. रामचंद्र राव खंडेराव नेवालकर

यह खंडेराव के पुत्र थे। इनका पुत्र था आनंदराव।

4. आनंदराव रामचंद्र राव नेवालकर

यह खंडेराव रामचंद्र राव के पुत्र थे। आनंदराव को दो पुत्र थे। एक हरी भाऊ काशीनाथ, और दुसरे वासुदेव राव।

5. हरी भाऊ काशीनाथ नेवालकर ( लालभाऊ )

१८५२ में इन्हे झांसी अंतर्गत मऊ रानीपूर का तहसीलदार नियुक्त किया था। इनकी पत्नी १८७१ में झांसी से इंदौर रहने गयी थी. इंदौर में स्थित इनकी पत्नी ने बाद में रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव की देखरेख की थी।

6. वासुदेव आनंदराव नेवालकर

यह पारोला, जलगांव के जहागिरदार थे। १५ नवम्बर १८४९ आनंदराव नामक पुत्र हुआ। जो बाद में दामोदर राव नाम से रानी लक्ष्मीबाई का दत्तक पुत्र बना।

रघुनाथ हरी नेवालकर के दूसरे पुत्र दामोदरपंत का वंश

दामोदरपंत का वंश (झांसी राजघराना आरंभ)

7. दामोदरपंत रघुनाथ हरी नेवालकर

यह प्रथम रघुनाथ हरी नेवालकर के दुसरे पुत्र थे। इन्हे दो पुत्र थे। "राघोपंत", "सदाशिवपंत" और "हरीपंत"

8. राघोपंत दामोदरपंत नेवालकर

राघोपंत की एक युध्द में मृत्यु हुई थी।

सदाशिवपंत का वंश ( पारोला, जलगांव)

9. सदाशिवपंत दामोदरपंत नेवालकर

यह प्रथम रघुनाथ हरी नेवालकर के दुसरे बेटे दामोदरपंत के पुत्र थे। यह भी पारोला की जाहगीरदार संभालते थे। इनके पुत्र थे त्र्यंबकराव। इन्होनें १७२६ में पारोला का किला का निर्माण किया था।

10. त्र्यंबकराव सदाशिवपंत नेवालकर

यह सदाशिवपंत के पुत्र थे। इनके पुत्र का नाम था नारायणराव।

11. नारायणराव त्र्यंबकराव नेवालकर

यह त्र्यंबकराव के पुत्र थे। इनके पुत्र का नाम था सदाशिवराव।

12. सदाशिवराव नारायणराव नेवालकर

१८४४-५७ तक यह पारोला, जलगांव के जहागिरदार थे। १८३५, १८३८ तथा १८५३ में झाँसी नरेश राजा गंगाधर राव के पुत्र कि निधन होने के पश्चात इन्होंने ने झाँसी सिंहासन की दावेदारी की। १३ जून १८५७ को झाँसी के समीप करेरा किले पर आक्रमण करके राजशाही की घोषणा कर दी। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने सदाशिव नारायण का विद्रोह मिटाकर उसे बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया था। १८५८ मे रानी की शहादत के पश्चात अंग्रेज़ों ने इसे झांसी किले की जेल से निकालकर कमिश्नरी में रखा था। १८६० में अंग्रेजों ने उसे अंदमान भेज दिया था। जहां उसकी मृत्यु हुई थी।

हरीपंत का वंश (झांसी का राजघराना) '

13. हरीपंत दामोदरपंत नेवालकर

यह दामोदरपंत के पुत्र थे। इन्हे तीन पुत्र थे। रघुनाथराव द्वितीय, शिवराव, लक्ष्मणराव (लालाभाऊ)

14. सुभेदार रघुनाथराव हरीपंत नेवालकर द्वि.(१७७०-९६)

(नेवालकर परिवार के पहले सुभेदार थे)

यह हरीपंत के पुत्र थे। यह झांसी के नेवालकर परीवार के पहले सुभेदार थे। पेशवा ने इन्हे झांसी राज्य की सुभेदारी दी थी। झांसी मे गोसावी का विद्रोह इन्होने समाप्त किया था। और झांसी में मराठा शाही की स्थापना की। यह निपुत्रिक थे। इसलिए झांसी का कारभार पेशवा ने इनके भाई शिवराव को दिया था।

15. राजा शिवराव हरीपंत नेवालकर (१७९६-१४)

(नेवालकर परिवार से झाँसी के पहले राजा)

यह हरीपंत के दुसरे पुत्र थे। यह द्वितीय रघुनाथराव नेवालकर द्वितीय के भाई थे। झांसी के यह अंतिम सुभेदार थे। पेशवा से मतभेद की वजह से इन्होंने ६ फरवरी १८०४ को अंग्रेजों की मदत से झांसी राज्य की गद्दी वंशानुगत करा ली थी। और यह झांसी राज्य के पहले राजा बने। इनके दो विवाह हुए थे। पहली पत्नी रखमाबाई से कृष्णराव और द्वितीय पत्नी पद्माबाई से रघुनाथराव तृतीय, गंगाधर राव हुए।

16. लक्ष्मणराव हरीपंत नेवालकर ( लालाभाऊ )

यह हरीपंत के पुत्र थे। पारोला के जहागीरदार थे। अंग्रेजों ने लालाभाऊ रानी लक्ष्मीबाई के परिवार सदस्य होने के कारण १८५९ पारोला की जहागीरदारी समाप्त कर दी गयी थी।

रघुनाथराव द्वितीय एवं शिवराव भाऊ नेवालकर का झाँसी का राजवंश

17. राजा कृष्णराव शिवराव नेवालकर

यह शिवराव भाऊ और उनकी पहली पत्नी रखमाबाई के पुत्र थे। यह झांसी के दुसरे राजा थे। इनकी पत्नी थी महारानी सखुबाई। काहां जाता हैं की सखुबाई बहुत षड्यंत्री थी। झांसी गद्दी के लिए सखुबाई ने अपने पती और पुत्र की हत्या करवाई थी और स्वयं झांसी की रानी बनकर राजपाल देख रही थी। किंतू अंग्रेजों की वजह से सखुबाई ने अपनी बेटी के पुत्र यानी पौत्र को झांसी का वारिस बनाया। कृष्णराव और सखुबाई के पुत्र थे रामचंद्र राव और कन्या गंगाबाई थी। गंगाबाई का सागर के सुभेदार मोरेश्वर विनायक राव चांदोरकर से विवाह हुआ था।

18. महाराज रामचंद्रराव कृष्णराव नेवालकर (१८११-३५) (नेवालकर परिवार से प्रथम झाँसी महाराजाधिराज)

इनका जन्म १८०६ में हुआ था। माता सखुबाई द्वारा पिता कृष्णराव की हत्या के पश्चात झांसी गद्दी पर यही बैठे थे। १८ नवम्बर १८१७ इन्होंने अंग्रेजों से संधी करके इन्होंने झांसी राज्य में राजशाही स्थापित की थी। १८३२ में अंग्रेज़ों ने इन्हें "महाराजाधिराज" पदवी देकर झांसी राज्य का महाराज घोषित कर दिया था। रामचंद्रराव को यह झांसी के पहले महाराजा थे। कृष्णराव की पत्नी का नाम था रानी लक्ष्मीबाई जो निपुत्रिक थी। १८३५ में रानी सखुबाई द्वारा इनकी हत्या करवाई गयी थी। परीवार क्लेश की वजह से रानी लक्ष्मीबाई झांसी राज्य छोडकर चली गयी थी। सखुबाई ने रामचंद्र के नाम से अपने पौत्र को गद्दी पर बिठाया था।

19. चंद्रकृष्णराव रामचंद्रराव नेवालकर

यह रानी सखुबाई की पुत्री सागर सुभेदार मोरेश्वर विनायक राव चांदोरकर की पत्नी गंगाबाई के पुत्र थे। रानी सखुबाई ने रामचंद्रराव के नाम से चंद्रकृष्णराव को दत्तक पुत्र बनाकर झांसी गद्दी पर बिठाया। अंग्रेजों ने इसे झांसी का वारिस नामुंजरी दी थी। और कृष्णराव के भाई रघुनाथराव तृतीय को राजगद्दी पर बिठाया।

20. महाराज रघुनाथराव शिवराव नेवालकर तृतीय.(१८३५-३८)

यह शिवराम भाऊ नेवालकर की दुसरी पत्नी पद्माबाई के पुत्र थे। इनका जन्म १८०३ में हुआ था। अंग्रेजों ने राजगद्दी पर बिठाया था। अंग्रेजों ने इन्हे "फिदवी बादशहा जमजाह इंग्लिशस्तान" यह खिताब दिया था। इनकी पत्नी थी महारानी जानकीबाई। यह निपुत्रिक थी। और झांसी राज्य की दावेदार थी। इसी कारण रघुनाथराव का संबंध झांसी की प्रसिध्द वेश्या गजराबाई उर्फ लछ्छोबाई से था। रघुनाथराव को लछ्छोबाई से अली बहादुर, नुसरत और मेहरूनिस्सा नामक एक बेटी थी। लछ्छोबाई अपने पुत्र अली बहादूर को झांसी राज्य का राजा बनाना चाहती थी। लेकिन उसे अंग्रेज़ों ने नाजायज संतान घोषित किया। महाराज रघुनाथराव कुष्ठरोगी थे। १८३८ में इनकी मृत्यु हुई।

21. महाराज गंगाधरराव शिवराव नेवालकर (१८३८-५३)

इनका जनम १८१३ में हुआ था। यह शिवरावभाऊ की दुसरी पत्नी पद्माबाई के पुत्र थे। रघुनाथराव तृतीय के मृत्यु के पश्चात अंग्रेज़ों ने १८३८ को गंगाधर राव को राजगद्दी पर बिठाया। और झांसी राज्य के सारे अधिकार कंपनी सरकार के हाथ गये। इनकी पहली पत्नी महारानी रमाबाई निपुत्रिक थी। उनके निधन के बाद महाराज ने १८४२ में मनिकर्णिका नामक कन्या से विवाह किया। जो बाद में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बनी। महाराज और रानी लक्ष्मीबाई को पुत्र हुआ जिसका तीन माह की आयु में निधन हुआ। महाराज ने वासुदेव के पुत्र आनंदराव को लिया था। २१ नवम्बर १८५३ को महाराज गंगाधरराव का निधन हुआ था।

22. महारानी लक्ष्मीबाई गंगाधरराव नेवालकर (१८५३-५८)

खुब लडी मर्दानी झाँसी वाली रानी.... नाम से प्रसिद्ध मनिकर्णिका का जन्म मोरोपंत तांबे और भागिरथीबाई के घर १९ नवम्बर १८३५ को हुआ था। १८४२ में झांसी नरेश से विवाह के पश्चात इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। यह महाराज गंगाधरराव की द्वितीय पत्नी थी। इनका पुत्र दामोदर राव की तीन माह की आयु में मृत्यु हुई। वासुदेव के पुत्र आनंदराव को गोद लेकर उसका नाम दामोदर रखा। महाराज गंगाधर राव की मृत्यू के पश्चात रानी लक्ष्मीबाई ने एक साल (२१ नवम्बर १८५३-१० मार्च १८५४) तक झांसी का राज पाठ संभाला। बाद में अंग्रेज़ों ने दामोदर राव को उत्तराधिकारी न मानते हुए रानी को निष्कासित कर के रानी महल भेज दिया। और झांसी का अधिकार कंपनी के हाथ गया। १८५७ के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महारानी ने अहम भूमिका निभाई थी। इस के पश्चात (४ जून १८५७-४ अप्रैल १८५८) तक रानी का झांसी पर शासन था। १८५८ में अंग्रेजों ने झांसी पर हमला किया। रानी ने झांसी से क्रमशः कोंच, कालपी और ग्वालियर युध्द किया। १७ जून १८५८ को ग्वालियर के कोटा की सराय में अंग्रेज़ों से लडते हुए रानी लक्ष्मीबाई शहीद हुई। यह झाँसी की अंतिम शासक थी।

23. दामोदर राव गंगाधरराव नेवालकर ( १८५१ )

इनका जन्म १८५१ में हुआ था। यह रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधरराव के पुत्र थे। तीन माह की आयु में इनका निधन हुआ।

24. आनंदराव गंगाधरराव नेवालकर (१८४९-१९०६)

१५ नवम्बर १८४९ को वासुदेव नेवालकर के घर इनका जन्म हुआ था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और महाराज गंगाधरराव ने २० नवम्बर १८५३ इन्हे गोद लेकर अपने मृत शिशु के नाम पर दामोदर राव नाम रखकर झांसी राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। १८५७-५८ के संग्राम में दामोदर राव को महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने पीठ पर बांधकर अंग्रेज़ों से युध्द किया था। लंबे संघर्ष के बाद २८ मई १९०६ में इंदौर में इनका निधन हुआ। इनके पुत्र थे "लक्ष्मणराव झांसीवाले" आज भी इनका वंश इंदौर में है।

झाँसी की रानीयाँ[संपादित करें]

1. रानी रखमाबाई

अखंड सौभाग्यवती श्रीमंत महारानी रखमाबाई साहेब नेवालकर उर्फ ( अक्कासाहेब )

यह सुभेदार शिवराव भाऊ नेवालकर की पहली पत्नी थी। इनका पुत्र था कृष्णराव। और रानी सखुबाई की सांस थी।

2. रानी पद्माबाई

अखंड सौभाग्यवती श्रीमंत महारानी पद्माबाई साहेब नेवालकर उर्फ ( आऊसाहेब )

यह सुभेदार शिवराव भाऊ नेवालकर की द्वितीय पत्नी थी। इनके पुत्र थे रघुनाथराव तृतीय और गंगाधरराव। यह रानी लक्ष्मीबाई तथा रानी जानकीबाई की सांस थी।

3. रानी सखुबाई

अखंड सौभाग्यवती श्रीमंत महारानी सखुबाई साहेब नेवालकर उर्फ ( राजमाता / बड़ी वहिनीसाहेब )

यह सुभेदार कृष्णराव की पत्नी और झांसी के पहले राजा रामचंद्र राव की मां थी। राजगद्दी के लालच में इसने अपने पती एवं पुत्र की हत्या करवाई थी। यह झांसी राजगद्दी की दावेदार थी।

4. महारानी लक्ष्मीबाई प्रथम

अखंड सौभाग्यवती श्रीमंत महारानी लक्ष्मीबाई साहेब नेवालकर उर्फ ( ताईसाहेब )

यह झांसी के प्रथम महाराज रामचंद्र राव की पत्नी थी। यह निपुत्रिक थी। रामचंद्र राव की मृत्यु के पश्चात यह १८३५ में झांसी छोडकर चली गई।

5. रानी जानकीबाई

अखंड सौभाग्यवती श्रीमंत महारानी जानकीबाई साहेब नेवालकर उर्फ ( वहिनीसाहेब )

यह महाराज रघुनाथराव तृतीय की पत्नी थी। यह निपुत्रिक थी। यह भी झांसी राजगद्दी की दावेदार थी।

6. आफताब बेगम उर्फ रानी लछछोबाई

मल्लिका-ए-तख्त-ए-झाँसी हुजूर मोहतरमा बेगम लछ्छोबाई साहिबा उर्फ ( बेगम साहिबा )

यह एक वेश्या थी। और रघुनाथराव तृतीय के समय मोतीबाई और गजराबाई के साथ झांसी दरबार में नृत्य करती थी। महाराज रघुनाथराव तृतीय इससे बहुत प्यार करते थे। वह लछ्छोबाई को प्यार से आफताब बेगम के नाम से बुलाते थे। रघुनाथराव ने इसके लिए झांसी में एक महल बनवाया। आज वो महल रघुनाथराव महल के नाम से जाना जाता है। उस महल के दरवाजेरपर आफताब बेगम ईद के दिन चांद का दिदार करती थी। इसलिए उस दरवाजे का नाम चांद दरवाजा रखा गया। इन्हे अली बहादूर, नुसरत नामक पुत्र और मेहरूनिस्सा नामक कन्या थी। यह अपने पुत्र अली बहादुर को राजा बनाने के अग्रणी थी। यह भी झांसी राजगद्दी की दावेदार थी।

7. महारानी रमाबाई

अखंड सौभाग्यवती श्रीमंत महारानी रमाबाई साहेब नेवालकर उर्फ ( रानी साहेब )

यह महाराज गंगाधर राव की पहली पत्नी थी। इनकी निसंतान मृत्यु हुई थी। इसलिए महाराज ने दुसरा विवाह किया था।

8. वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाईसाहेब (रानी लक्ष्मीबाई)

बुंदेलखंड धराधरीश्वरी राजराजेश्वरी सिंहासनाधीश्वरी अखंड लक्ष्मी अलंकृत न्यायलंकारमंडित शस्त्रास्त्रशास्त्रपारंगत राजनितीधुरंदर झाँसी की महारानी अखंड सौभाग्यवती वज्रचुडेमंडित श्रीमंत राजमाता वीरांगना श्री रानी लक्ष्मीबाई साहेब गंगाधरराव नेवालकर जू देवी उर्फ (रानी माँ / बाईसाहेब)

यह महाराज गंगाधरराव की दुसरी पत्नी एवं विधवा थी। साधारण ब्राम्हण की पुत्री, पत्नी, माँ, महारानी, प्रजा की राजमाता और कुशल, कर्तबगार, कर्तुत्ववान प्रशासक के साथ वह एक महान क्रांतीकारी थी। वह एक देशभक्त थी। अंग्रेज सरकार इस वीरांगना से डरते थे। महारानी लक्ष्मीबाई ने अनेक बडे बडे अंग्रेज़ों को दाँतों तले लोहे के चने चबवाये थे। भारत देश की आजादी की लडाई में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नेवालकर परिवार की यह प्रसिध्द व्यक्ती थी। झाँसी की यह आखरी शासक थी। झाँसी राज्य आज इन्हीं के नाम से जाना जाता है।

रानी झाँसी राज्याभिषेक[संपादित करें]

रानी लक्ष्मीबाई राज्याभिषेक दिन‌ - १० जून

४ जून १८५७ को भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाडी युद्ध किया। ९ जून को रानी लक्ष्मीबाई को झांसी सौंपी। १० जून १८५७ को दत्तक पुत्र दामोदरराव नेवालकर के नाम पर महारानी लक्ष्मीबाई का राज्याभिषेक हुआ और वह समुचे बुन्देलखण्ड की साम्राज्ञी बनी। राजमाता बनते ही उन्होंने प्रजा के हीत के निर्णय तथा आदेश पारीत किये। बुन्देलखण्ड के किसानों का लगान माफ किया था। महारानी लक्ष्मीबाई का यह स्वर्ण राजकाल पहिला चरण (२१ नवम्बर १८५३ से १० मार्च १८५४) तथा द्वितीय चरण में (४ जून १८५७ से ४ अप्रैल १८५८) तक रहा।

झाँसी दरबार बिरूदावली / ललकारी

सावधाsssssन

बुन्देलखण्ड

धराधरीश्वरी

राजराजेश्वरी

सिंहासनाधीश्वरी

अखंड लक्ष्मी अलंकृत

न्यायालंकारमंडित

शस्त्रास्त्रशास्त्रपारंगत

राजनितिधुरंधर

झाँसी की महारानी

अखंड सौभाग्यवती

वज्रचुडेमंडित

राजमाता

श्रीमंत रानी लक्ष्मीबाईसाहेब गंगाधरराव नेवाळकर जू देवी

की जय हो जय हो ।

रानी झाँसी का मन्त्रीमण्डल[संपादित करें]

राज्याभिषेक होने के बाद अधिकारीक रूप से महारानी लक्ष्मीबाई झाँसी के साथ पुरे बुंदेलखंड की साम्रज्ञी हो गयी। ११ जून १८५७ को रानी ने पहला राजदरबार लगाया। और अपना मन्त्रीमण्डल तयार किया। और विभिन्न लोगों ‌को विभिन्न पद पर नियुक्त किया।

मुख्य पदाधिकारी :-

  • महारानी लक्ष्मीबाई - प्रधान शासक झाँसी
  • लक्ष्मणराव बांदे - प्रधानमंत्री
  • दीवान जवाहर सिंह - प्रधान सेनापती
  • दीवान रघुनाथ सिंह - सरसेनापती
  • रामचंद्रराव देशमुख - दीवान
  • नाना भोपटकर - झाँसी न्यायाधिश
  • गोपाळराव रास्तेदार (बडे बाबू) - न्यायालय फौजदार
  • मोरोपंत तांबे - प्रधान (कामठाणे)
  • नाना भोपटकर - न्यायाधीश
  • मोतीबाई साहिबा - जासूसी विभाग प्रधान
  • तात्या टोपे - गुप्तचर
  • मोहम्मद जुमा खाँ - पैदलसेना अधिनायक
  • गुलाम गौस खान - गोलंदाज प्रधान, मुख्य तोपची
  • राव दुल्हाजू - गोलंदाज
  • झलकारीबाई - महिला सरसेनापती दुर्गा दल

मन्त्रीमण्डल मुख्य सदस्य :-

  • भाऊबख्शी
  • खुदाबख्श
  • वीरांगना मोतीबाई साहिबा
  • वीरांगना‌ मुन्दराबाई खातुन
  • वीरांगना सुन्दराबाई
  • वीरांगना काशीबाई कुनवीण
  • वीरांगना झलकारीबाई कोळी
  • अवंतीकाबाई लोधी
  • ललिताबाई बख्शी
  • वीरांगना जूही देवी
  • राव दूल्हाजू
  • अली बहादुर
  • पीर अली

इन पदाधिकारी और सदस्यों को मिलाकर झाँसी का मंत्री मंडल का‌ गठन किया गया।

युवराज दामोदर राव नेवालकर[संपादित करें]

झाँसी राजवंश के मुल पुरूष हरी रघुनाथराव नेवालकर के दो पुत्र थे। एक दामोदर पंत और दुसरे खंडेराव। दामोदर पंत का वंश ही झांसी का राजवंश रहा है। खंडेराव का वंश पारोला, जलगांव, महाराष्ट्र में था। पारोला यह नेवालकरों की जहागीर थी। इसी घर के वासुदेवराव नेवालकर के यहां १५ नवम्बर सन् १८४९ को पारोळा जळगाव में दामोदर का जनम हुआ। यह महाराज गंगाधर राव के चचेरे भाई थे। वे पारोला जलगांव में रहते थे। वासुदेव अपने परीवार के साथ प्रती वर्ष दशहरा त्योहार को झांसी आया करते थे। १८५३ में वह झांसी आये थे। दामोदर का पुर्व नाम आनंद राव था। १८५१ में रानी लक्ष्मीबाई के बेटे का तीन माह की आयु में स्वर्गवास हुआ था। इसलिए २० नवम्बर १८५३ को उन्होंने आनंद राव को गोद लिया और नाम दामोदर रखा । महाराज गंगाधर राव के निधन के पश्चात दामोदर राव को राजा घोषित करके महारानी लक्ष्मीबाई ने स्वयं झांसी व बुंदेलखंड का राजपाठ अपने हाथ लिया ।

४ अप्रैल १८५८ को रानी झांसी छोडकर कालपी गई। वहा भयंकर युद्ध हुआ । १७ जून १८५८ को ग्वालियर में अंतिम युद्ध की वजह से उन्हो ने दामोदर को अपने विश्वास पात्र सेवक रामचंद्र राव देशमुख को सौंप दिया । और कोटा की सराय युध्द में रानी शहीद हुई। रानी की मृत्यु समय रानी का सफेद सूत का निले रंग का चंदेरी साफा, तलवार और मोती की माला दामोदर राव को दे दी गयी। और रानी को तात्या टोपे, रघुनाथ सिंह, काशीबाई कुनवीन, बांदा के नवाब और दामोदर ने मुखाग्नि दी। रामचंद्र राव और काशीबाई दो साल तक अंग्रेजों से दामोदर को बचाते हुए बुंदेलखंड के चंदेरी, सागर, ललितपूर की जंगलो में भटकते रहे । दूर्भाग्य वश रामचंद्र राव का निधन हुआ । दामोदर लक्ष्मीबाई के साथ जब भी महालक्ष्मी मंदिर जाते थे, तो उनके साथ ५०० पठान अंगरक्षक भी जाते थे । कभी शाही ठाट में रहनेवाले इस राजकुमार को मेजर प्लीक द्वारा इंदौर में परिजनों के पास भेज दिया गया!

दामोदर राव के जन्मदाता पिता वासुदेवराव के बडे भाई काशीनाथ हरिभाऊ नेवालकर उर्फ लालाभाऊ थे! वे १८५२ में झांसी के तहसीलदार थे! उनकी पत्नी १८७१ में झांसी छोडकर इंदौर आयी थी! जो रिश्ता में दामोदर राव की चाची थीं! इनके पास ही दामोदर राव रहते थे!

५ मई , १८६० को इंदौर के रेजिमेंट रिचमंड शेक्सपियर ने दामोदर का लालन-पालन मुंशी पंडित धर्म नारायण कश्मीरी को सौंप दिया। दामोदर को इंदौर के शासक होलकर राजाओं की भी सहायता मिली। दामोदर को सिर्फ १५० रूपये महिना पेंशन राशी दी जाती थी। इससे ही उनका गुजारा होता था। एक जमाने में दामोदर राव ६ लाख रूपये महिना पेंशन मिलने वाली रियसत के राजकुमार थे । उनके पिता वासुदेव राव के पास भी बहूत धन दौलत थी। जब उन्हे रानी झांसी ने गोद लिया तब अंग्रेजों ने उनके ६ लाख रूपये हडप लिये और कहा जब वह बालिग होंगे तब उन्हे यह रूपये दिये जायेंगे। पर उन्हे कभी भी यह पैसे नही मिले। और इस राजकुमार को अंग्रेजों के तुकडो पर जिवीत रहना पड़ता था। इंदौर मे ही दामोदर राव का विवाह वासुदेवराव माटोरकर की कन्या से हुआ। १८७२ में उनकी पत्नी का निधन हुआ। उसके बाद बलवंत राव मोरेश्वर शिरडेर की कन्या से उनका पुन: विवाह हुआ। और २३ अक्तूबर १८७९ को उन्हे लक्ष्मण राव नामक पुत्र हुआ। दामोदर राव ने अपनी मां की याद में अपनी स्मृति से एक चित्र बनाया। सारंगी घोडीपर रानी लक्ष्मीबाई बैठी हुई, पिछे दामोदर राव को बांधे हुए। इस तस्वीर का दामोदर जीवित थे तब तक पुजा करते थे। यह चित्र आज भी रानी की इंदौर स्थित झांसीवाले पिढी के पास हैं।

दामोदर ने ६ लाख रूपये व झांसी के लिये बहुत संघर्ष किया परंतू उन्हे झांसी राज्य का उत्तराधिकारी व ६ लाख रूपये कभी नहीं मिले।

२८ मई सन् १९०६ को झांसी राज्य का यह राजकुमार व भावी राजा अपनी ५८ वर्ष की आयु में सदैव के लिये वैकुंठ चले गये । आज भी झांसी का राज परिवार और रानी की पिढी इंदौर में झांसीवाले नाम लगाकर अपना आम जिवन व्यतिथ करते है। नेवालकर मुल परिवार अपने मुलगाव महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के लांजा तहसील में रहते है! यह गाव नेवालकरों का मुलगाव हैं!

दुर्गा दल[संपादित करें]

नारी सेना दुर्गा दल

१८५३ में महारानी लक्ष्मीबाई ने महाराज गंगाधरराव नेवाळकर की अनुमती सें झांसी महल के प्रांगण में महिला सेना का गठन किया था। १८५७ तथा १८५८ में अंग्रेजों के विरूद्ध इस नारी सेना ने अहम भुमिका निभाई थी।

नारी सेना के अधिकारी

  • वीरांगना झलकारीबाई कोळी - महिला सरसेनापती
  • वीरांगना काशीबाई कुनवीण - महिला तोफ संचालक व तलवारबाज
  • वीरांगना सुंदराबाई (सुंदर) - महिला तोफ संचालक व तलवारबाज
  • वीरांगना मालतीबाई लोधी - महिला सैनिक
  • वीरांगना ललिताबाई बक्षी - महिला सैनिक

शिक्षा[संपादित करें]

झाँसी शहर बुन्देलखन्ड क्षेत्र में अध्ययन का एक प्रमुख केन्द्र है। विद्यालय एवं अध्ययन केन्द्र सरकार तथा निजी क्षेत्र द्वारा चलाये जाते है। बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, जिसकी स्थापना सन् 1975 में की गयी थी, विज्ञान, कला एवं व्यवसायिक शिक्षा की उपाधि देता है। झाँसी शहर और आसपास के अधिकतर विद्यालय बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है। बुन्देलखण्ड अभियान्त्रिकी एवं तकनिकी संस्थान उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित तकनिकी संस्थान है जो उत्तर प्रदेश तकनिकी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है। रानी लक्ष्मीबाई चिकित्सा संस्थान चिकित्सा विज्ञान में उपाधि प्रदान करता है। झॉसी में आयुर्वेदिक अध्ययन संस्थान भी है जो कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा विज्ञान "आयुर्वेद" की शिक्षा देता है। उच्च शिक्षा के अलावा झॉसी में अनेक प्राथमिक विद्यालय भी है। ये विद्यालय सरकार तथा निजी क्षेत्र द्वारा चलाये जाते है। विध्यालयो में शिक्षा का माध्यम हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा है। विद्यालय उत्तर प्रदेश् माध्यमिक शिक्षा परिषद, केन्द्रिय माध्यमिक शिक्षा परिषद से सम्बद्ध है। झॉसी का पुरुष् साक्षरता अनुपात 80% महिला साक्षरता अनुपात 51% है, तथा कुल् साक्षरता अनुपात 66% है।

प्रमुख शिक्षा संस्थान[संपादित करें]

  • BKD (बुन्देलखण्ड महाविद्यालय), झाँसी।
  • श्री गुरु नानक ख़ालसा इण्टर कॉलेज, झाँसी।
  • श्री गुरु हर किशन डिग्री कॉलेज, झाँसी।
  • श्री एम एल पाण्डे एग्लो विदिक जूनियर हाईस्कूल खाती बाबा झाँसी|
  • भानी देवी गोयल सरस्वती विद्यामन्दिर, झाँसी |
  • पं. दीनदयाल उपाध्याय विद्यापीठ बालाजी मार्ग, झाँसी।
  • रघुराज सिन्ह पब्लिक स्कूल, पठोरिया, दतिया गेट
  • मारग्रेट लीस्क मेमोरिअल इंग्लिश स्कूल एण्ड कॉलेज
  • राजकीय इण्टर कॉलेज
  • बिपिन बिहारी इण्टर कॉलेज
  • क्राइस्ट दि किंग कॉलेज
  • रानी लक्ष्मीबाई पब्लिक स्कूल
  • सैण्ट फ्रांसिस कान्वेंट इण्टर कॉलेज
  • लक्ष्मी व्यायाम मंदिर
  • आर्य कन्या इण्टर कॉलेज
  • कैथेड्रल स्कूल
  • ज्ञान स्थली पब्लिक स्कूल
  • हेलेन मेगडोनियल मेमोरियल कन्या इन्टर‍ कोलेज
  • लोक मान्य तिलक कन्या इन्टर कोलेज
  • राज्य विद्युत परिषद इण्टर कॉलेज
  • सरस्वती संस्कार केंद्र सीपरी बाजार

अभियान्त्रिकी संस्थान[संपादित करें]

पयर्टन[संपादित करें]

दर्शनिय स्थल[संपादित करें]

झाँसी किला[संपादित करें]

झाँसी का किला उत्तर प्रदेश ही नहीं भारत के सबसे बेहतरीन किलों में एक है। ओरछा के राजा बीर सिंह देव ने यह किला 1613 ई॰ में बनवाया था। किला बंगरा नामक पहाड़ी पर बना है। किला तथा नगर में प्रवेश के लिए दस दरवाजे हैं। इन दरवाजों को खांदेरी, दतिया, उन्नाव, झरना, लक्ष्मी, सागर, ओरछा, सैंयर और चाँद दरवाजों के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा लस खिडकीयां है। किले में रानी झाँसी गार्डन, प्राचीन शिव मन्दिर और गुलाम गौस खान, मोतीबाई व खुदा बक्श की मजार देखी जा सकती है। यह किला प्राचीन वैभव और पराक्रम का जीता जागता दस्तावेज है।

रानी महल[संपादित करें]

रानी लक्ष्मीबाई के इस महल की दीवारों और छतों को अनेक रंगों और चित्रकारियों से सजाया गया है। वर्तमान में किले को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है। यहाँ नौवीं से बारहवीं शताब्दी की प्राचीन मूर्तियों का विस्तृत संग्रह देखा जा सकता है। महल की देखरख भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा की जाती है। यह महल झांसी सुभेदार रघुनाथराव नेवालकर द्वितीय द्वारा बनाया गया। महाराज गंगाधरराव ने इस महल को कंपनी रानी लक्ष्मीबाई के प्रति‌ रानी महल‌ की पहचान दी थी। किल्ले पर अंग्रेजों के पतन के बाद १५ मार्च १८५४ को होली के दिन रानी लक्ष्मीबाई किला छोडकर इसी रानी महल‌ में रहने आयी थी।

झाँसी संग्रहालय[संपादित करें]

झाँसी किले में स्थित यह संग्रहालय इतिहास में रूचि रखने वाले पर्यटकों का मनपसन्द स्थान है। यह संग्रहालय केवल झाँसी की ऐतिहासिक धरोहर को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड की झलक प्रस्तुत करता है। यहाँ चन्देल शासकों के जीवन से संबंधित अनेक जानकारियाँ हासिल की जा सकती हैं। चन्देल काल के अनेक हथियारों, मूर्तियों, वस्त्रों और तस्वीरों को यहाँ देखा जा सकता है।

श्री महालक्ष्मी अंबाबाई मंदिर[संपादित करें]

झाँसी का नेवालकर राजपरिवार श्री गणेश उपासक था। इतके कुलदैवत महाराष्ट्र के लक्ष्मीपल्लीनाथ तथा कुलदेवी कोल्हापूर की महालक्ष्मी अंबाबाई थी। इस कारण सुभेदार रघुनाथराव नेवालकर द्वारा 18 वीं शताब्दी में महालक्ष्मी मंदिर बनाया गया। यह मंदिर महाराष्ट्र के आद्य शक्तीपीठ कोल्हापूर की "करवीर निवासिनी श्री महालक्ष्मी अंबाबाई" माता को समर्पित है। यह मंदिर लक्ष्मी दरवाजे के निकट स्थित है। इस कारण माता को लक्ष्मी माता या अंबा माता भी कहां जाता है। वास्तविक यह माता कोल्हापूर की श्री महालक्ष्मी अंबाबाई यांनी परब्रम्ह सर्वस्याद्या भगवती माता का स्वरूप है। आदी अनादि काल से यह प्रथा रही है कि जो राज परिवार के कुलदेवी और कुलदैवत होते है वही उस नगरवासियों के कुलदैवत होते है। नेवालकर परिवार की कुलदेवी‌ होने के कारण यह माता झाँसी वासियों की भी कुलदेवी‌ मानी जाती है। झाँसी के के मुख्य आराध्य दैवत भगवान श्री गणेशजी और आराध्य देवी श्री महालक्ष्मी देवी है।

वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई प्रतिदिन सारंगी घोडी पर सवाल होकर अपने पुत्र के साथ महालक्ष्मी मंदिर दर्शन करने आती थी। हर‌ शुक्रवार के दिन उपवास रखकर महारानी लक्ष्मीबाई पालखी में बैठकर मंदिर आती थी। और मंदिर के प्रांगण में दानधर्म तथा मोतीचूर के लड्डू बांटती थी।

महाराज गंगाधरराव समाधी स्थल[संपादित करें]

लक्ष्मी ताल में झाँसी नरेश महाराधिराज श्रीमंत महाराजा गंगाधरराव नेवालकर बाबासाहेब जी की समाधी स्थित है। 21 नवम्बर 1853 में उनकी मृत्यु के बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने यहाँ उनकी याद में यह स्मारक बनवाया था।

महाराष्ट्र श्री गणेश मन्दिर[संपादित करें]

महाराष्ट्र गणपती मंदिर

भगवान गणेश को समर्पित इस मन्दिर में 19 मई 1842 को महाराज गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का विवाह समारोह तथा सीमांत पूजन इसी मंदिर में सम्पन्न हुआ था। यह भगवान गणेश का प्राचीन मन्दिर है। जहा हर बुधवार को सैकड़ो भक्त दर्शन का लाभ लेते है। यहाँ पर प्रत्येक माह की गणेश चतुर्थी को प्रातः काल और सायं काल अभिषेक होता है। साधारणतः यहाँ सायं काल के अभिषेक में बहुत भीड़ होती है। ऐसी मान्यता है कि इस गणेश मूर्ति के इक्कीस दिन इक्कीस परिक्रमा लगाने से अप्रत्यक्ष लाभ होता है और मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। यह मंदिर महाराष्ट्र समिती द्वारा संचालित है। यहां मराठी लोगों का उत्सव मनाया जाता है।

झाँसी के नजदीकी पर्यटन स्थलों में ओरछा, बरूआ सागर, शिवपुरी, दतिया, ग्वालियर, खजुराहो, महोबा, टोड़ी फतेहपुर, आदि भी दर्शनीय स्थल हैं।

निकटतम दर्शनीय स्थल[संपादित करें]

  • सुकमा-डुकमा बाँध : बेतवा नदी पर बना हुआ यह अत्यन्त सुन्दर बाँध है। इस बाँध कि झाँसी शहर से दूरी करीब 45 कि॰मी॰ है तथा यह बबीना शहर के पास है।
  • देवगढ् : झाँसी शहर से 123 कि॰मी॰ दूर यह शहर ललितपुर के पास है। यहाँ गुप्ता वंश के समय् के विश्नु एवं जैन मन्दिर देखे जा सकते हैं।
  • ओरछा : झॉसी शहर से 18 कि॰मी॰ दूर यह स्थान अत्यन्त सुन्दर मन्दिरो, महलों एवं किलो के लिये जाना जाता है।
  • खजुराहो : झाँसी शहर से 178 कि॰मी॰ दूर यह स्थान 10 वी एवं 12 वी शताब्दी में चन्देला वंश के राजाओं द्वारा बनवाए गए अपने शृंगारात्मक मन्दिरो के लिए प्रसिद्ध है।
  • दतिया : झाँसी शहर से 28 कि॰मी॰ दूर यह राजा बीर सिह द्वारा बनवाये गये सात मन्जिला महल एवं श्री पीतम्बरा देवी के मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है।
  • शिवपुरी : झाँसी से 101 कि॰मी॰ दूर यह शहर ग्वालियर के सिन्धिया राजाओं की ग्रीष्म्कालीन राजधानी हुआ करता था। यह शहर सिन्धिया द्वारा बनवाए गए संगमरमर के स्मारक के लिये भी प्रसिद्ध है। यहाँ का माधव राष्ट्रिय उद्यान वन्य जीवन से परिपूर्ण है।

आवागमन[संपादित करें]

वायु मार्ग

झाँसी से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्वालियर निकटतम एयरपोर्ट है। यह एयरपोर्ट दिल्ली, मुम्बई, वाराणसी, बैंगलोर आदि शहरों से नियमित फ्लाइटों के माध्यम से जुड़ा हुआ है।

रेल मार्ग

झाँसी का रलवे स्टेशन वीरांगना लक्ष्मीबाई झाँसी जंक्शन भारत के तमाम प्रमुख शहरों अनेकों रेलगाड़ियों से जुड़ा है।

सड़क मार्ग

झाँसी में राष्ट्रीय राजमार्ग 25 और 26 से अनेक शहरों से पहुँचा जा सकता है। उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम की बसें झाँसी पहुँचने के लिए अपनी सुविधा मुहैया कराती हैं।

झाँसी से संबद्ध कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तित्व[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "Uttar Pradesh in Statistics," Kripa Shankar, APH Publishing, 1987, ISBN 9788170240716
  2. "Political Process in Uttar Pradesh: Identity, Economic Reforms, and Governance Archived 2017-04-23 at the वेबैक मशीन," Sudha Pai (editor), Centre for Political Studies, Jawaharlal Nehru University, Pearson Education India, 2007, ISBN 9788131707975