जिनेश्वर सूरि

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जिनेश्वरसूरि चंद्रकुलीय वर्धमान सूरि के प्रतिभाशाली शिष्य थे। ये खरतर गच्छ के संस्थापक थे और सन् १०२३ में विद्यमान थे। जैन आगम ग्रंथों के टीकाकार अभयदेव सूरि, सुर सुंदरी कथा के कर्ता धनेश्वरसूरि तथा महावीरचरित के कर्ता गुणचंद्रमणि उनके शिष्य-प्रशिष्यों में गिने जाते हैं।

परिचय[संपादित करें]

विक्रम संवत ८०२ में अगहिल्लपुर पाटण के राजा वनराज चावड़ा के गुरु शीलगुण सूरि ने यह राजाज्ञा जारी करा दी थी कि पाटण में चैत्यवासी साधुओं को छोड़कर दूसरे वनवासी साधु प्रवेश न करें। आगे चलकर वि॰सं॰ १०७४ में जिनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर नाम के विधिमार्गी विद्वानों ने चौलुक्य राजा दुर्लभदेव की सभा में चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर इस आज्ञा को रद्द कराया। चैत्यवासी शिथिलाचारी होने के कारण प्राय: चैत्यों (मंदिरों) में ही वहीं भोजन करते और वहीं उपदेश देते। चैत्य ही एक प्रकार से उनका मठ या निवासस्थान बन गया था, इसलिये वे चैत्यवासी कहे जाते थे। हरिभद्र सूरि ने संबोधप्रकरण में चैत्यनिवासियों को 'कुसाधु' बताते हुए कहा है कि ये देवद्रव्य का उपभोग करते हैं, जिन मंदिर और शालाएँ चिनवाते हैं, रंग बिरंगे सुगंधित धूपवासित वस्त्र पहनते हैं, बिना नाथ के बैलों के समान स्त्रियों के आगे गाते हैं, मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बताते हैं, भभूत देते हैं, रात भर सोते हैं, क्रय विक्रय करते हैं, चेला बनाने के लिये छोटे बच्चों को खरीदते हैं, भोले लोगों को ठगते हैं और जिन प्रतिमाओं को बेचते खरीदते हैं। श्वेतांबरों में आजकल जो 'जती या श्रीपूज्य' कहलाते हैं वे इन्हीं चैत्यवासियों या मठवासियों के और जो 'संवेगी' कहे जाते हैं वे वनवासियों के अवशेष हैं। संवेगी अपने को विधिमार्ग का अनुयायी कहते हैं। जिनेश्वर सूरि के गुरु वर्धमान सूरि स्वयं चैत्यवासी यतियों के प्रमुख आचार्य थे लेकिन बाद में उन्होंने जातियों का आचार छोड़ दिया था।

युगप्रधान जिनेश्वर सूरि ने दूर-दूर तक भ्रमण किया तथा गुजरात, मालवा और राजस्थान उनकी प्रवृत्तियों के केंद्र बन गए। उन्होने संस्कृत और प्राकृत में अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं। जिनमें हरिभद्रअष्टक की टीका, प्रमालक्षण, पंचलिंगीप्रकरण, वीरचरित्र, कथाकोषप्रकरण, निवार्णलीलावती कथा आदि मुख्य हैं। कथाकोषप्रकरण प्राकृत कथाओं का सुंदर ग्रंथ है जो सन् १०५२ में लिखा गया था।

बुद्धिसागर सूरि जिनेश्वर सूरि के सगे भाई थे। उन्होंने श्वेतांबर संप्रदाय में सर्वप्रथम व्याकरण की रचना की। सन् १०२३ में ये दोनों आचार्य जाबालिपुर (जालौर) में विद्यमान थे।

सन्दर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

  • जिनेश्वरसूरि, कथाकोषप्रकरण की मुनि जिनविनय जी की भूमिका